गुरुवार, 13 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

हिरण्यकशिपु की तपस्या और वरप्राप्ति

इति विज्ञापितो देवैर्भगवानात्मभूर्नृप
परितो भृगुदक्षाद्यैर्ययौ दैत्येश्वराश्रमम् ||१४||
न ददर्श प्रतिच्छन्नं वल्मीकतृणकीचकैः
पिपीलिकाभिराचीर्णं मेदस्त्वङ्मांसशोणितम् ||१५||
तपन्तं तपसा लोकान्यथाभ्रापिहितं रविम्
विलक्ष्य विस्मितः प्राह हसंस्तं हंसवाहनः ||१६||

श्रीब्रह्मोवाच
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते तपःसिद्धोऽसि काश्यप
वरदोऽहमनुप्राप्तो व्रियतामीप्सितो वरः ||१७||
अद्रा क्षमहमेतं ते हृत्सारं महदद्भुतम्
दंशभक्षितदेहस्य प्राणा ह्यस्थिषु शेरते ||१८||
नैतत्पूर्वर्षयश्चक्रुर्न करिष्यन्ति चापरे
निरम्बुर्धारयेत्प्राणान्को वै दिव्यसमाः शतम् ||१९||
व्यवसायेन तेऽनेन दुष्करेण मनस्विनाम्
तपोनिष्ठेन भवताजितोऽहं दितिनन्दन ||२०||
ततस्त आशिषः सर्वा ददाम्यसुरपुङ्गव
मर्तस्य ते ह्यमर्तस्य दर्शनं नाफलं मम ||२१||

युधिष्ठिर ! जब देवताओं ने भगवान्‌ ब्रह्माजी से इस प्रकार निवेदन किया, तब वे भृगु और दक्ष आदि प्रजापतियों के साथ हिरण्यकशिपु के आश्रमपर गये ॥ १४ ॥ वहाँ जाने पर पहले तो वे उसे देख ही न सके; क्योंकि दीमक की मिट्टी, घास और बाँसों से उसका शरीर ढक गया था। चींटियाँ उसकी मेदा, त्वचा, मांस और खून चाट गयी थीं ॥ १५ ॥ बादलों से ढके हुए सूर्य के समान वह अपनी तपस्या के तेज से लोकों को तपा रहा था। उसको देखकर ब्रह्माजी भी विस्मित हो गये। उन्होंने हँसते हुए कहा ॥ १६ ॥
ब्रह्माजीने कहाबेटा हिरण्यकशिपु ! उठो, उठो। तुम्हारा कल्याण हो। कश्यपनन्दन ! अब तुम्हारी तपस्या सिद्ध हो गयी। मैं तुम्हें वर देनेके लिये आया हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, बेखटके माँग लो ॥ १७ ॥ मैंने तुम्हारे हृदयका अद्भुत बल देखा। अरे, डाँसों ने तुम्हारी देह खा डाली है। फिर भी तुम्हारे प्राण हड्डियों के सहारे टिके हुए हैं ॥ १८ ॥ ऐसी कठिन तपस्या न तो पहले किसी ऋषि ने की थी और न आगे ही कोई करेगा। भला ऐसा कौन है जो देवताओं के सौ वर्ष तक बिना पानी के जीता रहे ॥ १९ ॥ बेटा हिरण्यकशिपु ! तुम्हारा यह काम बड़े-बड़े धीर पुरुष भी कठिनता से कर सकते हैं। तुमने इस तपोनिष्ठासे मुझे अपने वशमें कर लिया है ॥ २० ॥ दैत्यशिरोमणे ! इसीसे प्रसन्न होकर मैं तुम्हें जो कुछ माँगो, दिये देता हूँ। तुम हो मरनेवाले और मैं हूँ अमर । अत: तुम्हें मेरा यह दर्शन निष्फल नहीं हो सकता ॥ २१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

हिरण्यकशिपुकी तपस्या और वरप्राप्ति

तेन तप्ता दिवं त्यक्त्वा ब्रह्मलोकं ययुः सुराः
धात्रे विज्ञापयामासुर्देवदेव जगत्पते ||||
दैत्येन्द्र तपसा तप्ता दिवि स्थातुं न शक्नुमः
तस्य चोपशमं भूमन्विधेहि यदि मन्यसे ||||
लोका न यावन्नङ्क्ष्यन्ति बलिहारास्तवाभिभूः
तस्यायं किल सङ्कल्पश्चरतो दुश्चरं तपः ||||
श्रूयतां किं न विदितस्तवाथापि निवेदितम्
सृष्ट्वा चराचरमिदं तपोयोगसमाधिना
अध्यास्ते सर्वधिष्ण्येभ्यः परमेष्ठी निजासनम् ||||
तदहं वर्धमानेन तपोयोगसमाधिना
कालात्मनोश्च नित्यत्वात्साधयिष्ये तथात्मनः ||१०||
अन्यथेदं विधास्येऽहमयथा पूर्वमोजसा
किमन्यैः कालनिर्धूतैः कल्पान्ते वैष्णवादिभिः ||११||
इति शुश्रुम निर्बन्धं तपः परममास्थितः
विधत्स्वानन्तरं युक्तं स्वयं त्रिभुवनेश्वर ||१२||
तवासनं द्विजगवां पारमेष्ठ्यं जगत्पते
भवाय श्रेयसे भूत्यै क्षेमाय विजयाय च ||१३||

हिरण्यकशिपु की उस तपोमयी आग की लपटों से स्वर्ग के देवता भी जलने लगे। वे घबराकर स्वर्ग से ब्रह्मलोक में गये और ब्रह्माजी से प्रार्थना करने लगे—‘हे देवताओं के भी आराध्यदेव जगत्पति ब्रह्माजी ! हमलोग हिरण्यकशिपु के तप की ज्वाला से जल रहे हैं। अब हम स्वर्ग में नहीं रह सकते। हे अनन्त ! हे सर्वाध्यक्ष ! यदि आप उचित समझें तो अपनी सेवा करनेवाली जनता का नाश होनेके पहले ही यह ज्वाला शान्त कर दीजिये ॥ ६-७ ॥ भगवन् ! आप सब कुछ जानते ही हैं, फिर भी हम अपनी ओर से आपसे यह निवेदन कर देते हैं कि वह किस अभिप्राय से यह घोर तपस्या कर रहा है। सुनिये, उसका विचार है कि जैसे ब्रह्माजी अपनी तपस्या और योग के प्रभावसे इस चराचर जगत् की सृष्टि करके सब लोकों से ऊपर सत्यलोक में विराजते हैं, वैसे ही मैं भी अपनी उग्र तपस्या और योगके प्रभावसे वही पद और स्थान प्राप्त कर लूँगा। क्योंकि समय असीम है और आत्मा नित्य है। एक जन्ममें नहीं, अनेक जन्मोंमें; एक युग में न सही, अनेक युगों में ॥ ८१० ॥ अपनी तपस्या की शक्ति से मैं पाप-पुण्यादि के नियमों को पलटकर इस संसार में ऐसा उलट-फेर कर दूँगा, जैसा पहले कभी नहीं था। वैष्णवादि पदों में तो रखा ही क्या है। क्योंकि कल्प के अन्त में उन्हें भी काल के गाल में चला जाना पड़ता है’[*] ॥ ११ ॥ हमने सुना है कि ऐसा हठ करके ही वह (हिरण्यकशिपु) घोर तपस्या में जुटा हुआ है। आप तीनों लोकों के स्वामी हैं। अब आप जो उचित समझें, वही करें ॥ १२ ॥ ब्रह्माजी ! आपका यह सर्वश्रेष्ठ परमेष्ठि-पद ब्राह्मण एवं गौओं की वृद्धि, कल्याण, विभूति, कुशल और विजय के लिये है। (यदि यह हिरण्यकशिपु के हाथ में चला गया, तो सज्जनों पर सङ्कटों का पहाड़ टूट पड़ेगा) ॥ १३ ॥
.................................
[*] यद्यपि वैष्णवपद (वैकुण्ठादि नित्यधाम) अविनाशी हैं, परंतु हिरण्यकशिपु अपनी आसुरी बुद्धि के कारण उनको कल्प के अन्त में नष्ट होनेवाला ही मानता था। तामसी बुद्धि में सब बातें विपरीत ही दीखा करती हैं।

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बुधवार, 12 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

हिरण्यकशिपुकी तपस्या और वरप्राप्ति

श्रीनारद उवाच
हिरण्यकशिपू राजन्नजेयमजरामरम्
आत्मानमप्रतिद्वन्द्वमेकराजं व्यधित्सत ||||
स तेपे मन्दरद्रोण्यां तपः परमदारुणम्
ऊर्ध्वबाहुर्नभोदृष्टिः पादाङ्गुष्ठाश्रितावनिः ||||
जटादीधितिभी रेजे संवर्तार्क इवांशुभिः
तस्मिंस्तपस्तप्यमाने देवाः स्थानानि भेजिरे ||||
तस्य मूर्ध्नः समुद्भूतः सधूमोऽग्निस्तपोमयः
तिर्यगूर्ध्वमधो लोकान्प्रातपद्विष्वगीरितः ||||
चुक्षुभुर्नद्युदन्वन्तः सद्वीपाद्रि श्चचाल भूः
निपेतुः सग्रहास्तारा जज्वलुश्च दिशो दश ||||

नारदजीने कहायुधिष्ठिर ! अब हिरण्यकशिपु ने यह विचार किया कि मैं अजेय, अजर, अमर और संसार का एकछत्र सम्राट् बन जाऊँ, जिससे कोई मेरे सामने खड़ा तक न हो सके॥ १ ॥ इसके लिये वह मन्दराचल की एक घाटी में जाकर अत्यन्त दारुण तपस्या करने लगा। वहाँ हाथ ऊपर उठाकर आकाशकी ओर देखता हुआ वह पैरके अँगूठेके बल पृथ्वीपर खड़ा हो गया ॥ २ ॥ उसकी जटाएँ ऐसी चमक रही थीं, जैसे प्रलयकालके सूर्यकी किरणें। जब वह इस प्रकार तपस्यामें संलग्र हो गया, तब देवतालोग अपने-अपने स्थानों और पदों पर पुन: प्रतिष्ठित हो गये ॥ ३ ॥ बहुत दिनों तक तपस्या करने के बाद उसकी तपस्या की आग धूएँ के साथ सिर से निकलने लगी। वह चारों ओर फैल गयी और ऊपर-नीचे तथा अगल-बगल के लोकों को जलाने लगी ॥ ४ ॥ उसकी लपट से नदी और समुद्र खौलने लगे। द्वीप और पर्वतों के सहित पृथ्वी डगमगाने लगी। ग्रह और तारे टूट- टूटकर गिरने लगे तथा दसों दिशाओं में मानो आग लग गयी ॥ ५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट१२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट१२)

हिरण्याक्ष का वध होने पर हिरण्यकशिपु
का अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना

श्रीहिरण्यकशिपुरुवाच

बाल एवं प्रवदति सर्वे विस्मितचेतसः ।
ज्ञातयो मेनिरे सर्वमनित्यमयथोत्थितम् ॥ ५८॥
यम एतदुपाख्याय तत्रैवान्तरधीयत ।
ज्ञातयो हि सुयज्ञस्य चक्रुर्यत्साम्परायिकम् ॥ ५९॥
अतः शोचत मा यूयं परं चात्मानमेव वा ।
क आत्मा कः परो वात्र स्वीयः पारक्य एव वा ।
स्वपराभिनिवेशेन विनाज्ञानेन देहिनाम् ॥ ६०॥

श्रीनारद उवाच

इति दैत्यपतेर्वाक्यं दितिराकर्ण्य सस्नुषा ।
पुत्रशोकं क्षणात्त्यक्त्वा तत्त्वे चित्तमधारयत् ॥ ६१॥

हिरण्यकशिपुने कहाउस छोटे से बालक  (यमराज) की ऐसी ज्ञानपूर्ण बातें सुनकर सब-के-सब दंग रह गये। उशीनर-नरेश के भाई-बन्धु और स्त्रियों ने यह बात समझ ली कि समस्त संसार और इसके सुख-दु:ख अनित्य एवं मिथ्या हैं ॥ ५८ ॥ यमराज यह उपाख्यान सुनाकर वहीं अन्तर्धान हो गये। भाई बन्धुओं ने भी सुयज्ञ की अन्त्येष्टि-क्रिया की ॥ ५९ ॥ इसलिये तुमलोग भी अपने लिये या किसी दूसरे के लिये शोक मत करो। इस संसार में कौन अपना है और कौन अपने से भिन्न ? क्या अपना है और क्या पराया ? प्राणियों को अज्ञान के कारण ही यह अपने-पराये का दुराग्रह हो रहा है, इस भेद-बुद्धि का और कोई कारण नहीं है ॥ ६० ॥
नारदजी ने कहायुधिष्ठिर ! अपनी पुत्रवधू के साथ दिति ने हिरण्यकशिपु की यह बात सुनकर उसी क्षण पुत्रशोक का त्याग कर दिया और अपना चित्त परमतत्त्वस्वरूप परमात्मा में लगा दिया ॥ ६१ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे द्वितीयोऽध्यायः

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...