॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – तीसरा
अध्याय..(पोस्ट०३)
हिरण्यकशिपु
की तपस्या और वरप्राप्ति
इति
विज्ञापितो देवैर्भगवानात्मभूर्नृप
परितो
भृगुदक्षाद्यैर्ययौ दैत्येश्वराश्रमम् ||१४||
न
ददर्श प्रतिच्छन्नं वल्मीकतृणकीचकैः
पिपीलिकाभिराचीर्णं
मेदस्त्वङ्मांसशोणितम् ||१५||
तपन्तं
तपसा लोकान्यथाभ्रापिहितं रविम्
विलक्ष्य
विस्मितः प्राह हसंस्तं हंसवाहनः ||१६||
श्रीब्रह्मोवाच
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ
भद्रं ते तपःसिद्धोऽसि काश्यप
वरदोऽहमनुप्राप्तो
व्रियतामीप्सितो वरः ||१७||
अद्रा
क्षमहमेतं ते हृत्सारं महदद्भुतम्
दंशभक्षितदेहस्य
प्राणा ह्यस्थिषु शेरते ||१८||
नैतत्पूर्वर्षयश्चक्रुर्न
करिष्यन्ति चापरे
निरम्बुर्धारयेत्प्राणान्को
वै दिव्यसमाः शतम् ||१९||
व्यवसायेन
तेऽनेन दुष्करेण मनस्विनाम्
तपोनिष्ठेन
भवताजितोऽहं दितिनन्दन ||२०||
ततस्त
आशिषः सर्वा ददाम्यसुरपुङ्गव
मर्तस्य
ते ह्यमर्तस्य दर्शनं नाफलं मम ||२१||
युधिष्ठिर
! जब देवताओं ने भगवान् ब्रह्माजी से इस प्रकार निवेदन किया, तब वे भृगु और दक्ष आदि प्रजापतियों के साथ हिरण्यकशिपु के आश्रमपर गये ॥
१४ ॥ वहाँ जाने पर पहले तो वे उसे देख ही न सके; क्योंकि
दीमक की मिट्टी, घास और बाँसों से उसका शरीर ढक गया था।
चींटियाँ उसकी मेदा, त्वचा, मांस और
खून चाट गयी थीं ॥ १५ ॥ बादलों से ढके हुए सूर्य के समान वह अपनी तपस्या के तेज से
लोकों को तपा रहा था। उसको देखकर ब्रह्माजी भी विस्मित हो गये। उन्होंने हँसते हुए
कहा ॥ १६ ॥
ब्रह्माजीने
कहा—बेटा हिरण्यकशिपु ! उठो, उठो। तुम्हारा कल्याण हो।
कश्यपनन्दन ! अब तुम्हारी तपस्या सिद्ध हो गयी। मैं तुम्हें वर देनेके लिये आया
हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, बेखटके माँग लो ॥ १७ ॥ मैंने
तुम्हारे हृदयका अद्भुत बल देखा। अरे, डाँसों ने तुम्हारी
देह खा डाली है। फिर भी तुम्हारे प्राण हड्डियों के सहारे टिके हुए हैं ॥ १८ ॥ ऐसी
कठिन तपस्या न तो पहले किसी ऋषि ने की थी और न आगे ही कोई करेगा। भला ऐसा कौन है
जो देवताओं के सौ वर्ष तक बिना पानी के जीता रहे ॥ १९ ॥ बेटा हिरण्यकशिपु !
तुम्हारा यह काम बड़े-बड़े धीर पुरुष भी कठिनता से कर सकते हैं। तुमने इस
तपोनिष्ठासे मुझे अपने वशमें कर लिया है ॥ २० ॥ दैत्यशिरोमणे ! इसीसे प्रसन्न होकर
मैं तुम्हें जो कुछ माँगो, दिये देता हूँ। तुम हो मरनेवाले
और मैं हूँ अमर । अत: तुम्हें मेरा यह दर्शन निष्फल नहीं हो सकता ॥ २१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से