शनिवार, 15 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०७)

हिरण्यकशिपुकी तपस्या और वरप्राप्ति

यदि दास्यस्यभिमतान्वरान्मे वरदोत्तम
भूतेभ्यस्त्वद्विसृष्टेभ्यो मृत्युर्मा भून्मम प्रभो ||३५||
नान्तर्बहिर्दिवा नक्तमन्यस्मादपि चायुधैः
न भूमौ नाम्बरे मृत्युर्न नरैर्न मृगैरपि ||३६||
व्यसुभिर्वासुमद्भिर्वा सुरासुरमहोरगैः
अप्रतिद्वन्द्वतां युद्धे ऐकपत्यं च देहिनाम् ||३७||
सर्वेषां लोकपालानां महिमानं यथात्मनः
तपोयोगप्रभावाणां यन्न रिष्यति कर्हिचित् ||३८||

(हिरण्यकशिपु ब्रह्माजी की स्तुति कर रहा है)  प्रभो ! आप समस्त वरदाताओं में श्रेष्ठ हैं। यदि आप मुझे अभीष्ट वर देना चाहते हैं, तो ऐसा वर दीजिये कि आपके बनाये हुए किसी भी प्राणी सेचाहे वह मनुष्य हो या पशु, प्राणी हो या अप्राणी, देवता हो या दैत्य अथवा नागादिकिसीसे भी मेरी मृत्यु न हो। भीतर-बाहर, दिनमें, रात्रिमें, आपके बनाये प्राणियोंके अतिरिक्त और भी किसी जीवसे, अस्त्र-शस्त्रसे, पृथ्वी या आकाशमेंकहीं भी मेरी मृत्यु न हो। युद्धमें कोई मेरा सामना न कर सके। मैं समस्त प्राणियोंका एकच्छत्र सम्राट् होऊँ ॥ ३५३७ ॥ इन्द्रादि समस्त लोकपालोंमें जैसी आपकी महिमा है, वैसी ही मेरी भी हो। तपस्वियों और योगियोंको जो अक्षय ऐश्वर्य प्राप्त है, वही मुझे भी दीजिये ॥ ३८ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे हिरण्यकशिपोर्वरयाचनं नाम तृतीयोऽध्यायः

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०६)

हिरण्यकशिपुकी तपस्या और वरप्राप्ति

त्वमेव कालोऽनिमिषो जनाना-
मायुर्लवाद्यवयवैः क्षिणोषि
कूटस्थ आत्मा परमेष्ठ्यजो महां-
स्त्वं जीवलोकस्य च जीव आत्मा ||३१||
त्वत्तः परं नापरमप्यनेज
देजच्च किञ्चिद्व्यतिरिक्तमस्ति
विद्याः कलास्ते तनवश्च सर्वा
हिरण्यगर्भोऽसि बृहत्त्रिपृष्ठः ||३२||
व्यक्तं विभो स्थूलमिदं शरीरं
येनेन्द्रि यप्राणमनोगुणांस्त्वम्
भुङ्क्षे स्थितो धामनि पारमेष्ठ्ये
अव्यक्त आत्मा पुरुषः पुराणः ||३३||
अनन्ताव्यक्तरूपेण येनेदमखिलं ततम्
चिदचिच्छक्तियुक्ताय तस्मै भगवते नमः ||३४||

(हिरण्यकशिपु ब्रह्माजी की स्तुति कर रहा है)  आप ही काल हैं। आप प्रतिक्षण सावधान रहकर अपने क्षण, लव आदि विभागों के द्वारा लोगोंकी आयु क्षीण करते रहते हैं। फिर भी आप निर्विकार हैं। क्योंकि आप ज्ञानस्वरूप, परमेश्वर, अजन्मा, महान् और सम्पूर्ण जीवों के जीवनदाता अन्तरात्मा हैं ॥ ३१ ॥ प्रभो ! कार्य, कारण, चल और अचल ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो आप से भिन्न हो। समस्त विद्या और कलाएँ आपके शरीर हैं। आप त्रिगुणमयी माया से अतीत स्वयं ब्रह्म हैं। यह स्वर्णमय ब्रह्माण्ड आपके गर्भ में स्थित है। आप इसे अपनेमें से ही प्रकट करते हैं ॥ ३२ ॥ प्रभो ! यह व्यक्त ब्रह्माण्ड आपका स्थूल शरीर है। इससे आप इन्द्रिय, प्राण और मनके विषयोंका उपभोग करते हैं। किन्तु उस समय भी आप अपने परम ऐश्वर्यमय स्वरूपमें ही स्थित रहते हैं। वस्तुत: आप पुराणपुरुष, स्थूल-सूक्ष्मसे परे ब्रह्मस्वरूप ही हैं ॥ ३३ ॥ आप अपने अनन्त और अव्यक्त स्वरूप से सारे जगत् में व्याप्त हैं । चेतन और अचेतन दोनों ही आपकी शक्तियाँ हैं । भगवन् ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ३४ ॥

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शुक्रवार, 14 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

हिरण्यकशिपुकी तपस्या और वरप्राप्ति

श्रीहिरण्यकशिपुरुवाच
कल्पान्ते कालसृष्टेन योऽन्धेन तमसावृतम्
अभिव्यनग्जगदिदं स्वयञ्ज्योतिः स्वरोचिषा ||२६||
आत्मना त्रिवृता चेदं सृजत्यवति लुम्पति
रजःसत्त्वतमोधाम्ने पराय महते नमः ||२७||
नम आद्याय बीजाय ज्ञानविज्ञानमूर्तये
प्राणेन्द्रि यमनोबुद्धि विकारैर्व्यक्तिमीयुषे ||२८||
त्वमीशिषे जगतस्तस्थुषश्च
प्राणेन मुख्येन पतिः प्रजानाम्
चित्तस्य चित्तैर्मनैन्द्रियाणां
पतिर्महान्भूतगुणाशयेशः ||२९||
त्वं सप्ततन्तून्वितनोषि तन्वा
त्रय्या चतुर्होत्रकविद्यया च
त्वमेक आत्मात्मवतामनादि-
रनन्तपारः कविरन्तरात्मा ||३०||

हिरण्यकशिपु ने (ब्रह्माजीसे) कहाकल्प के अन्त में यह सारी सृष्टि काल के द्वारा प्रेरित तमोगुण से, घने अन्धकार से ढक गयी थी। उस समय स्वयंप्रकाशस्वरूप आपने अपने तेजसे पुन: इसे प्रकट किया ॥ २६ ॥ आप ही अपने त्रिगुणमय रूपसे इसकी रचना, रक्षा और संहार करते हैं। आप रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुणके आश्रय हैं। आप ही सबसे परे और महान् हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २७ ॥ आप ही जगत् के  मूल कारण हैं। ज्ञान और विज्ञान आपकी मूर्ति हैं। प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि विकारों के द्वारा आपने अपने को प्रकट किया है ॥ २८ ॥ आप मुख्यप्राण सूत्रात्माके रूपसे चराचर जगत् को अपने नियन्त्रण में रखते हैं। आप ही प्रजाके रक्षक भी हैं। भगवन् ! चित्त, चेतना, मन और इन्द्रियोंके स्वामी आप ही हैं। पञ्चभूत; शब्दादि विषय और उनके संस्कारोंके रचयिता भी महत्तत्त्वके रूपमें आप ही हैं ॥ २९ ॥ जो वेद होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा और उद्गाताइन ऋत्विजों से होनेवाले यज्ञका प्रतिपादन करते हैं, वे आपके ही शरीर हैं। उन्हींके द्वारा अग्रिष्टोम आदि सात यज्ञोंका आप विस्तार करते हैं। आप ही सम्पूर्ण प्राणियोंके आत्मा हैं। क्योंकि आप अनादि, अनन्त, अपार, सर्वज्ञ और अन्तर्यामी हैं ॥ ३० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

हिरण्यकशिपुकी तपस्या और वरप्राप्ति

श्रीनारद उवाच
इत्युक्त्वादिभवो देवो भक्षिताङ्गं पिपीलिकैः!
कमण्डलुजलेनौक्षद्दिव्येनामोघराधसा ||२२||
स तत्कीचकवल्मीकात्सहओजोबलान्वितः
सर्वावयवसम्पन्नो वज्रसंहननो युवा
उत्थितस्तप्तहेमाभो विभावसुरिवैधसः ||२३||
स निरीक्ष्याम्बरे देवं हंसवाहमुपस्थितम्
ननाम शिरसा भूमौ तद्दर्शनमहोत्सवः ||२४||
उत्थाय प्राञ्जलिः प्रह्व ईक्षमाणो दृशा विभुम्
हर्षाश्रुपुलकोद्भेदो गिरा गद्गदयागृणात् ||२५||

नारदजी कहते हैंयुधिष्ठिर ! इतना कहकर ब्रह्माजीने उसके चींटियों से खाये हुए शरीरपर अपने कमण्डलु का दिव्य एवं अमोघ प्रभावशाली जल छिडक़ दिया ॥ २२ ॥ जैसे लकड़ी के ढेर में से आग जल उठे, वैसे ही वह जल छिडक़ते ही बाँस और दीमकों की मिट्टी के बीच से उठ खड़ा हुआ। उस समय उसका शरीर सब अवयवों से पूर्ण एवं बलवान् हो गया था, इन्द्रियों में शक्ति आ गयी थी और मन सचेत हो गया था। सारे अङ्ग वज्र के समान कठोर एवं तपाये हुए सोनेकी तरह चमकीले हो गये थे। वह नवयुवक होकर उठ खड़ा हुआ ॥ २३ ॥ उसने देखा कि आकाशमें हंसपर चढ़े हुए ब्रह्माजी खड़े हैं। उन्हें देखकर उसे बड़ा आनन्द हुआ। अपना सिर पृथ्वीपर रखकर उसने उनको नमस्कार किया ॥ २४ ॥ फिर अञ्जलि बाँधकर नम्रभाव से खड़ा हुआ और बड़े प्रेम से अपने निर्निमेष नयनों से उन्हें देखता हुआ गद्गद वाणीसे स्तुति करने लगा। उस समय उसके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू उमड़ रहे थे और सारा शरीर पुलकित हो रहा था ॥ २५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...