शुक्रवार, 14 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

हिरण्यकशिपुकी तपस्या और वरप्राप्ति

श्रीहिरण्यकशिपुरुवाच
कल्पान्ते कालसृष्टेन योऽन्धेन तमसावृतम्
अभिव्यनग्जगदिदं स्वयञ्ज्योतिः स्वरोचिषा ||२६||
आत्मना त्रिवृता चेदं सृजत्यवति लुम्पति
रजःसत्त्वतमोधाम्ने पराय महते नमः ||२७||
नम आद्याय बीजाय ज्ञानविज्ञानमूर्तये
प्राणेन्द्रि यमनोबुद्धि विकारैर्व्यक्तिमीयुषे ||२८||
त्वमीशिषे जगतस्तस्थुषश्च
प्राणेन मुख्येन पतिः प्रजानाम्
चित्तस्य चित्तैर्मनैन्द्रियाणां
पतिर्महान्भूतगुणाशयेशः ||२९||
त्वं सप्ततन्तून्वितनोषि तन्वा
त्रय्या चतुर्होत्रकविद्यया च
त्वमेक आत्मात्मवतामनादि-
रनन्तपारः कविरन्तरात्मा ||३०||

हिरण्यकशिपु ने (ब्रह्माजीसे) कहाकल्प के अन्त में यह सारी सृष्टि काल के द्वारा प्रेरित तमोगुण से, घने अन्धकार से ढक गयी थी। उस समय स्वयंप्रकाशस्वरूप आपने अपने तेजसे पुन: इसे प्रकट किया ॥ २६ ॥ आप ही अपने त्रिगुणमय रूपसे इसकी रचना, रक्षा और संहार करते हैं। आप रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुणके आश्रय हैं। आप ही सबसे परे और महान् हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २७ ॥ आप ही जगत् के  मूल कारण हैं। ज्ञान और विज्ञान आपकी मूर्ति हैं। प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि विकारों के द्वारा आपने अपने को प्रकट किया है ॥ २८ ॥ आप मुख्यप्राण सूत्रात्माके रूपसे चराचर जगत् को अपने नियन्त्रण में रखते हैं। आप ही प्रजाके रक्षक भी हैं। भगवन् ! चित्त, चेतना, मन और इन्द्रियोंके स्वामी आप ही हैं। पञ्चभूत; शब्दादि विषय और उनके संस्कारोंके रचयिता भी महत्तत्त्वके रूपमें आप ही हैं ॥ २९ ॥ जो वेद होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा और उद्गाताइन ऋत्विजों से होनेवाले यज्ञका प्रतिपादन करते हैं, वे आपके ही शरीर हैं। उन्हींके द्वारा अग्रिष्टोम आदि सात यज्ञोंका आप विस्तार करते हैं। आप ही सम्पूर्ण प्राणियोंके आत्मा हैं। क्योंकि आप अनादि, अनन्त, अपार, सर्वज्ञ और अन्तर्यामी हैं ॥ ३० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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