॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – तीसरा
अध्याय..(पोस्ट०४)
हिरण्यकशिपुकी
तपस्या और वरप्राप्ति
श्रीनारद
उवाच
इत्युक्त्वादिभवो
देवो भक्षिताङ्गं पिपीलिकैः!
कमण्डलुजलेनौक्षद्दिव्येनामोघराधसा
||२२||
स
तत्कीचकवल्मीकात्सहओजोबलान्वितः
सर्वावयवसम्पन्नो
वज्रसंहननो युवा
उत्थितस्तप्तहेमाभो
विभावसुरिवैधसः ||२३||
स
निरीक्ष्याम्बरे देवं हंसवाहमुपस्थितम्
ननाम
शिरसा भूमौ तद्दर्शनमहोत्सवः ||२४||
उत्थाय
प्राञ्जलिः प्रह्व ईक्षमाणो दृशा विभुम्
हर्षाश्रुपुलकोद्भेदो
गिरा गद्गदयागृणात् ||२५||
नारदजी
कहते हैं—युधिष्ठिर ! इतना कहकर ब्रह्माजीने उसके चींटियों से खाये हुए शरीरपर अपने
कमण्डलु का दिव्य एवं अमोघ प्रभावशाली जल छिडक़ दिया ॥ २२ ॥ जैसे लकड़ी के ढेर में से
आग जल उठे, वैसे ही वह जल छिडक़ते ही बाँस और दीमकों की
मिट्टी के बीच से उठ खड़ा हुआ। उस समय उसका शरीर सब अवयवों से पूर्ण एवं बलवान् हो
गया था, इन्द्रियों में शक्ति आ गयी थी और मन सचेत हो गया
था। सारे अङ्ग वज्र के समान कठोर एवं तपाये हुए सोनेकी तरह चमकीले हो गये थे। वह
नवयुवक होकर उठ खड़ा हुआ ॥ २३ ॥ उसने देखा कि आकाशमें हंसपर चढ़े हुए ब्रह्माजी
खड़े हैं। उन्हें देखकर उसे बड़ा आनन्द हुआ। अपना सिर पृथ्वीपर रखकर उसने उनको
नमस्कार किया ॥ २४ ॥ फिर अञ्जलि बाँधकर नम्रभाव से खड़ा हुआ और बड़े प्रेम से अपने
निर्निमेष नयनों से उन्हें देखता हुआ गद्गद वाणीसे स्तुति करने लगा। उस समय उसके
नेत्रोंमें आनन्दके आँसू उमड़ रहे थे और सारा शरीर पुलकित हो रहा था ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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