॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – तीसरा
अध्याय..(पोस्ट०६)
हिरण्यकशिपुकी
तपस्या और वरप्राप्ति
त्वमेव
कालोऽनिमिषो जनाना-
मायुर्लवाद्यवयवैः
क्षिणोषि
कूटस्थ
आत्मा परमेष्ठ्यजो महां-
स्त्वं
जीवलोकस्य च जीव आत्मा ||३१||
त्वत्तः
परं नापरमप्यनेज
देजच्च
किञ्चिद्व्यतिरिक्तमस्ति
विद्याः
कलास्ते तनवश्च सर्वा
हिरण्यगर्भोऽसि
बृहत्त्रिपृष्ठः ||३२||
व्यक्तं
विभो स्थूलमिदं शरीरं
येनेन्द्रि
यप्राणमनोगुणांस्त्वम्
भुङ्क्षे
स्थितो धामनि पारमेष्ठ्ये
अव्यक्त
आत्मा पुरुषः पुराणः ||३३||
अनन्ताव्यक्तरूपेण
येनेदमखिलं ततम्
चिदचिच्छक्तियुक्ताय
तस्मै भगवते नमः ||३४||
(हिरण्यकशिपु
ब्रह्माजी की स्तुति कर रहा है) आप ही काल
हैं। आप प्रतिक्षण सावधान रहकर अपने क्षण, लव आदि विभागों के
द्वारा लोगोंकी आयु क्षीण करते रहते हैं। फिर भी आप निर्विकार हैं। क्योंकि आप
ज्ञानस्वरूप, परमेश्वर, अजन्मा,
महान् और सम्पूर्ण जीवों के जीवनदाता अन्तरात्मा हैं ॥ ३१ ॥ प्रभो !
कार्य, कारण, चल और अचल ऐसी कोई भी
वस्तु नहीं है, जो आप से भिन्न हो। समस्त विद्या और कलाएँ
आपके शरीर हैं। आप त्रिगुणमयी माया से अतीत स्वयं ब्रह्म हैं। यह स्वर्णमय
ब्रह्माण्ड आपके गर्भ में स्थित है। आप इसे अपनेमें से ही प्रकट करते हैं ॥ ३२ ॥
प्रभो ! यह व्यक्त ब्रह्माण्ड आपका स्थूल शरीर है। इससे आप इन्द्रिय, प्राण और मनके विषयोंका उपभोग करते हैं। किन्तु उस समय भी आप अपने परम
ऐश्वर्यमय स्वरूपमें ही स्थित रहते हैं। वस्तुत: आप पुराणपुरुष, स्थूल-सूक्ष्मसे परे ब्रह्मस्वरूप ही हैं ॥ ३३ ॥ आप अपने अनन्त और अव्यक्त
स्वरूप से सारे जगत् में व्याप्त हैं । चेतन और अचेतन दोनों ही आपकी शक्तियाँ हैं ।
भगवन् ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ३४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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