गुरुवार, 22 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०३)

मन्वन्तरोंका वर्णन

यं पश्यति न पश्यन्तं चक्षुर्यस्य न रिष्यति
तं भूतनिलयं देवं सुपर्णमुपधावत ||११||
न यस्याद्यन्तौ मध्यं च स्वः परो नान्तरं बहिः
विश्वस्यामूनि यद्यस्माद्विश्वं च तदृतं महत् ||१२||
स विश्वकायः पुरुहूतईशः 
सत्यः स्वयंज्योतिरजः पुराणः
धत्तेऽस्य जन्माद्यजयात्मशक्त्या 
तां विद्ययोदस्य निरीह आस्ते ||१३||
अथाग्रे ऋषयः कर्माणीहन्तेऽकर्महेतवे
ईहमानो हि पुरुषः प्रायोऽनीहां प्रपद्यते ||१४||
ईहते भगवानीशो न हि तत्र विसज्जते
आत्मलाभेन पूर्णार्थो नावसीदन्ति येऽनु तम् ||१५||
तमीहमानं निरहङ्कृतं बुधं 
निराशिषं पूर्णमनन्यचोदितम्
नॄन्शिक्षयन्तं निजवर्त्मसंस्थितं 
प्रभुं प्रपद्येऽखिलधर्मभावनम् ||१६||

भगवान्‌ सब के साक्षी हैं। उन्हें बुद्धि-वृत्तियाँ या नेत्र आदि इन्द्रियाँ नहीं देख सकतीं। परंतु उनकी ज्ञान-शक्ति अखण्ड है। समस्त प्राणियों के हृदय में रहनेवाले उन्हीं स्वयंप्रकाश असङ्ग परमात्मा की शरण ग्रहण करो ॥ ११ ॥ जिनका न आदि है न अन्त, फिर मध्य तो होगा ही कहाँ से ? जिनका न कोई अपना है और न पराया, और न बाहर है न भीतर, वे विश्वके आदि, अन्त, मध्य, अपने-पराये, बाहर और भीतरसब कुछ हैं। उन्हींकी सत्तासे विश्वकी सत्ता है। वही अनन्त वास्तविक सत्य परब्रह्म हैं ॥ १२ ॥ वही परमात्मा विश्वरूप हैं। उनके अनन्त नाम हैं। वे सर्वशक्तिमान् सत्य, स्वयंप्रकाश, अजन्मा और पुराणपुरुष हैं। वे अपनी मायाशक्तिके द्वारा ही विश्वसृष्टिके जन्म आदिको स्वीकार कर लेते हैं और अपनी विद्याशक्तिके द्वारा उसका त्याग करके निष्क्रिय, सत्स्वरूपमात्र रहते हैं ॥ १३ ॥ इसीसे ऋषि-मुनि नैष्कम्र्यस्थिति अर्थात् ब्रह्मसे एकत्व प्राप्त करनेके लिये पहले कर्मयोगका अनुष्ठान करते हैं। प्राय: कर्म करनेवाला पुरुष ही अन्तमें निष्क्रिय होकर कर्मोंसे छुट्टी पा लेता है ॥ १४ ॥ यों तो सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ भी कर्म करते हैं, परंतु वे आत्मलाभ से पूर्णकाम होनेके कारण उन कर्मोंमें आसक्त नहीं होते। अत: उन्हींका अनुसरण करके अनासक्त रहकर कर्म करनेवाले भी कर्मबन्धनसे मुक्त ही रहते हैं ॥१५॥
भगवान्‌ ज्ञानस्वरूप हैं, इसलिये उनमें अहंकारका लेश भी नहीं है। वे सर्वत: परिपूर्ण हैं, इसलिये उन्हें किसी वस्तुकी कामना नहीं है। वे बिना किसीकी प्रेरणाके स्वच्छन्दरूपसे ही कर्म करते हैं। वे अपनी ही बनायी हुई मर्यादामें स्थित रहकर अपने कर्मोंके द्वारा मनुष्योंको शिक्षा देते हैं। वे ही समस्त धर्मोंके प्रवर्तक और उनके जीवनदाता हैं। मैं उन्हीं प्रभुकी शरणमें हूँ ॥ १६ ॥

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बुधवार, 21 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०२)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०२)

मन्वन्तरोंका वर्णन

श्रीमनुरुवाच

येन चेतयते विश्वं विश्वं चेतयते न यम्
यो जागर्ति शयानेऽस्मिन्नायं तं वेद वेद सः ||||
आत्मावास्यमिदं विश्वं यत्किञ्चिज्जगत्यां जगत्
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ||१०||

मनु जी कहा करते थेजिनकी चेतना के स्पर्शमात्र से यह विश्व चेतन हो जाता है, किन्तु यह विश्व जिन्हें चेतना का दान नहीं कर सकता; जो इसके सो जानेपर प्रलयमें भी जागते रहते हैं, जिनको यह नहीं जान सकता, परंतु जो इसे जानते हैंवही परमात्मा हैं ॥ ९ ॥ यह सम्पूर्ण विश्व और इस विश्वमें रहनेवाले समस्त चर-अचर प्राणीसब उन परमात्मासे ही ओतप्रोत हैं। इसलिये संसारके किसी भी पदार्थमें मोह न करके उसका त्याग करते हुए ही जीवन-निर्वाहमात्रके लिये उपभोग करना चाहिये। तृष्णाका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। भला, ये संसारकी सम्पत्तियाँ किसकी हैं ? ॥ १० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०१)

मन्वन्तरोंका वर्णन

श्रीराजोवाच
स्वायम्भुवस्येह गुरो वंशोऽयं विस्तराच्छ्रुतः
यत्र विश्वसृजां सर्गो मनूनन्यान्वदस्व नः ||||
मन्वन्तरे हरेर्जन्म कर्माणि च महीयसः
गृणन्ति कवयो ब्रह्मंस्तानि नो वद शृण्वताम् ||||
यद्यस्मिन्नन्तरे ब्रह्मन्भगवान्विश्वभावनः
कृतवान्कुरुते कर्ता ह्यतीतेऽनागतेऽद्य वा ||||

श्रीऋषिरुवाच
मनवोऽस्मिन्व्यतीताः षट्कल्पे स्वायम्भुवादयः
आद्यस्ते कथितो यत्र देवादीनां च सम्भवः ||||
आकूत्यां देवहूत्यां च दुहित्रोस्तस्य वै मनोः
धर्मज्ञानोपदेशार्थं भगवान्पुत्रतां गतः ||||
कृतं पुरा भगवतः कपिलस्यानुवर्णितम्
आख्यास्ये भगवान्यज्ञो यच्चकार कुरूद्वह ||||
विरक्तः कामभोगेषु शतरूपापतिः प्रभुः
विसृज्य राज्यं तपसे सभार्यो वनमाविशत् ||||
सुनन्दायां वर्षशतं पदैकेन भुवं स्पृशन्
तप्यमानस्तपो घोरमिदमन्वाह भारत ||||

राजा परीक्षित्‌ ने पूछागुरुदेव ! स्वायम्भुव मनुका वंश-विस्तार मैंने सुन लिया। इसी वंश में उनकी कन्याओं के द्वारा मरीचि आदि प्रजापतियोंने अपनी वंश-परम्परा चलायी थी। अब आप हमसे दूसरे मनुओंका वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ ब्रह्मन् ! ज्ञानी महात्मा जिस-जिस मन्वन्तर में महामहिम भगवान्‌ के जिन-जिन अवतारों और लीलाओं का वर्णन करते हैं, उन्हें आप अवश्य सुनाइये। हम बड़ी श्रद्धा से उनका श्रवण करना चाहते हैं ॥ २ ॥ भगवन् ! विश्वभावन भगवान्‌ बीते हुए मन्वन्तरोंमें जो-जो लीलाएँ कर चुके हैं, वर्तमान मन्वन्तरमें जो कर रहे हैं और आगामी मन्वन्तरोंमें जो कुछ करेंगे, वह सब हमें सुनाइये ॥ ३ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहाइस कल्पमें स्वायम्भुव आदि छ: मन्वन्तर बीत चुके हैं। उनमेंसे पहले मन्वन्तरका मैंने वर्णन कर दिया, उसीमें देवता आदिकी उत्पत्ति हुई थी ॥ ४ ॥ स्वायम्भुव मनुकी पुत्री आकूतिसे यज्ञपुरुषके रूपमें धर्मका उपदेश करनेके लिये तथा देवहूतिसे कपिलके रूपमें ज्ञानका उपदेश करनेके लिये भगवान्‌ने उनके पुत्ररूपसे अवतार ग्रहण किया था ॥ ५ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ कपिलका वर्णन मैं पहले ही (तीसरे स्कन्धमें) कर चुका हूँ। अब भगवान्‌ यज्ञपुरुषने आकूतिके गर्भसे अवतार लेकर जो कुछ किया, उसका वर्णन करता हूँ ॥ ६ ॥
परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ स्वायम्भुव मनु ने समस्त कामनाओं और भोगों से विरक्त होकर राज्य छोड़ दिया। वे अपनी पत्नी शतरूपा के साथ तपस्या करने के लिये वनमें चले गये ॥ ७ ॥ परीक्षित्‌ ! उन्होंने सुनन्दा नदीके किनारे पृथ्वीपर एक पैर से खड़े रहकर सौ वर्षतक घोर तपस्या की। तपस्या करते समय वे प्रतिदिन इस प्रकार भगवान्‌ की स्तुति करते थे ॥ ८ ॥

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मंगलवार, 20 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१७)

गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन

यूयं नृलोके बत भूरिभागा लोकं पुनाना मुनयोऽभियन्ति
येषां गृहानावसतीति साक्षाद्गूढं परं ब्रह्म मनुष्यलिङ्गम् ७५
स वा अयं ब्रह्म महद्विमृग्य कैवल्यनिर्वाणसुखानुभूतिः
प्रियः सुहृद्वः खलु मातुलेय आत्मार्हणीयो विधिकृद्गुरुश्च ७६
न यस्य साक्षाद्भवपद्मजादिभी रूपं धिया वस्तुतयोपवर्णितम्
मौनेन भक्त्योपशमेन पूजितः प्रसीदतामेष स सात्वतां पतिः ७७

श्रीशुक उवाच
इति देवर्षिणा प्रोक्तं निशम्य भरतर्षभः
पूजयामास सुप्रीतः कृष्णं च प्रेमविह्वलः ७८
कृष्णपार्थावुपामन्त्र्य पूजितः प्रययौ मुनिः
श्रुत्वा कृष्णं परं ब्रह्म पार्थः परमविस्मितः ७९
इति दाक्षायणीनां ते पृथग्वंशा प्रकीर्तिताः
देवासुरमनुष्याद्या लोका यत्र चराचराः ८०

युधिष्ठिर ! इस मनुष्यलोक में तुमलोगों के भाग्य अत्यन्त प्रशंसनीय हैं; क्योंकि तुम्हारे घरमें साक्षात् परब्रह्म परमात्मा मनुष्यका रूप धारण करके गुप्तरूपसे निवास करते हैं। इसीसे सारे संसारको पवित्र कर देनेवाले ऋषि-मुनि बार-बार उनका दर्शन करनेके लिये चारों ओरसे तुम्हारे पास आया करते हैं ॥ ७५ ॥ बड़े-बड़े महापुरुष निरन्तर जिनको ढूँढ़ते रहते हैं, जो मायाके लेशसे रहित परम शान्त परमानन्दानुभवस्वरूप परब्रह्म परमात्मा हैंवे ही तुम्हारे प्रिय, हितैषी, ममेरे भाई, पूज्य, आज्ञाकारी, गुरु और स्वयं आत्मा श्रीकृष्ण हैं ॥ ७६ ॥ शङ्कर, ब्रह्मा आदि भी अपनी सारी बुद्धि लगाकर वे यह हैं’—इस रूपमें उनका वर्णन नहीं कर सके। फिर हम तो कर ही कैसे सकते हैं। हम मौन, भक्ति और संयमके द्वारा ही उनकी पूजा करते हैं। कृपया हमारी यह पूजा स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान्‌ हमपर प्रसन्न हों ॥ ७७ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! देवर्षि नारदका यह प्रवचन सुनकर राजा युधिष्ठिरको अत्यन्त आनन्द हुआ। उन्होंने प्रेम-विह्वल होकर देवर्षि नारद और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी पूजा की ॥ ७८ ॥ देवर्षि नारद भगवान्‌ श्रीकृष्ण और राजा युधिष्ठिरसे विदा लेकर और उनके द्वारा सत्कार पाकर चले गये। भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं, यह सुनकर युधिष्ठिरके आश्चर्यकी सीमा न रही ॥ ७९ ॥ परीक्षित्‌ ! इस प्रकार मैंने तुम्हें दक्ष-पुत्रियोंके वंशोंका अलग-अलग वर्णन सुनाया। उन्हींके वंशमें देवता, असुर, मनुष्य आदि और सम्पूर्ण चराचरकी सृष्टि हुई है ॥ ८० ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्र्यां पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादानुचरिते युधिष्ठिरनारदसंवादे सदाचारनिर्णयो नाम पञ्चदशोऽध्यायः

॥ इति सप्तम स्कन्ध समाप्त ॥

॥ हरि: ॐ तत्सत् ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१६)

गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन

अहं पुराभवं कश्चिद्गन्धर्व उपबर्हणः
नाम्नातीते महाकल्पे गन्धर्वाणां सुसम्मतः ६९
रूपपेशलमाधुर्य सौगन्ध्यप्रियदर्शनः
स्त्रीणां प्रियतमो नित्यं मत्तः स्वपुरलम्पटः ७०
एकदा देवसत्रे तु गन्धर्वाप्सरसां गणाः
उपहूता विश्वसृग्भिर्हरिगाथोपगायने ७१
अहं च गायंस्तद्विद्वान्स्त्रीभिः परिवृतो गतः
ज्ञात्वा विश्वसृजस्तन्मे हेलनं शेपुरोजसा
याहि त्वं शूद्र तामाशु नष्टश्रीः कृतहेलनः ७२
तावद्दास्यामहं जज्ञे तत्रापि ब्रह्मवादिनाम्
शुश्रूषयानुषङ्गेण प्राप्तोऽहं ब्रह्मपुत्रताम् ७३
धर्मस्ते गृहमेधीयो वर्णितः पापनाशनः
गृहस्थो येन पदवीमञ्जसा न्यासिनामियात् ७४

पूर्वजन्म में इसके पहलेके महाकल्प में मैं एक गन्धर्व था। मेरा नाम था उपबर्हण और गन्धर्वोंमें मेरा बड़ा सम्मान था ॥ ६९ ॥ मेरी सुन्दरता, सुकुमारता और मधुरता अपूर्व थी। मेरे शरीरमेंसे सुगन्धि निकला करती और देखनेमें मैं बहुत अच्छा लगता। स्त्रियाँ मुझसे बहुत प्रेम करतीं और मैं सदा प्रमादमें ही रहता। मैं अत्यन्त विलासी था ॥ ७० ॥ एक बार देवताओंके यहाँ ज्ञानसत्र हुआ। उसमें बड़े-बड़े प्रजापति आये थे। भगवान्‌की लीलाका गान करनेके लिये उन लोगोंने गन्धर्व और अप्सराओंको बुलाया ॥ ७१ ॥ मैं जानता था कि वह संतोंका समाज है और वहाँ भगवान्‌की लीलाका ही गान होता है। फिर भी मैं स्त्रियोंके साथ लौकिक गीतोंका गान करता हुआ उन्मत्तकी तरह वहाँ जा पहुँचा। देवताओंने देखा कि यह तो हमलोगोंका अनादर कर रहा है। उन्होंने अपनी शक्तिसे मुझे शाप दे दिया कि तुमने हमलोगोंकी अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारी सारी सौन्दर्य- सम्पत्ति नष्ट हो जाय और तुम शीघ्र ही शूद्र हो जाओ॥ ७२ ॥ उनके शापसे मैं दासीका पुत्र हुआ। किन्तु उस शूद्र-जीवनमें किये हुए महात्माओंके सत्सङ्ग और सेवा-शुश्रूषाके प्रभावसे मैं दूसरे जन्ममें ब्रह्माजीका पुत्र हुआ ॥ ७३ ॥ संतोंकी अवहेलना और सेवाका यह मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है। संत-सेवासे ही भगवान्‌ प्रसन्न होते हैं। मैंने तुम्हें गृहस्थोंका पापनाशक धर्म बतला दिया। इस धर्मके आचरणसे गृहस्थ भी अनायास ही संन्यासियोंको मिलनेवाला परमपद प्राप्त कर लेता है ॥ ७४ ॥

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सोमवार, 19 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)

गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन

यद्यस्य वानिषिद्धं स्याद्येन यत्र यतो नृप
स तेनेहेत कार्याणि नरो नान्यैरनापदि ६६
एतैरन्यैश्च वेदोक्तैर्वर्तमानः स्वकर्मभिः
गृहेऽप्यस्य गतिं यायाद्राजंस्तद्भक्तिभाङ्नरः ६७
यथा हि यूयं नृपदेव दुस्त्यजा-
दापद्गणादुत्तरतात्मनः प्रभोः
यत्पादपङ्केरुहसेवया भवा-
नहार्षीन्निर्जितदिग्गजः क्रतून् ६८

युधिष्ठिर ! जिस पुरुषके लिये जिस द्रव्यको जिस समय जिस उपायसे जिससे ग्रहण करना शास्त्राज्ञाके विरुद्ध न हो, उसे उसीसे अपने सब कार्य सम्पन्न करने चाहिये; आपत्तिकालको छोडक़र इससे अन्यथा नहीं करना चाहिये ॥ ६६ ॥ महाराज ! भगवद्भक्त मनुष्य वेदमें कहे हुए इन कर्मोंके तथा अन्यान्य स्वकर्मोंके अनुष्ठानसे घरमें रहते हुए भी श्रीकृष्णकी गतिको प्राप्त करता है ॥ ६७ ॥ युधिष्ठिर ! जैसे तुम अपने स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्णकी कृपा और सहायतासे बड़ी-बड़ी कठिन विपत्तियोंसे पार हो गये हो और उन्हींके चरणकमलोंकी सेवासे समस्त भूमण्डलको जीतकर तुमने बड़े-बड़े राजसूय आदि यज्ञ किये हैं ॥ ६८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन

भावाद्वैतं क्रियाद्वैतं द्रव्याद्वैतं तथात्मनः
वर्तयन्स्वानुभूत्येह त्रीन्स्वप्नान्धुनुते मुनिः ६२
कार्यकारणवस्त्वैक्य दर्शनं पटतन्तुवत्
अवस्तुत्वाद्विकल्पस्य भावाद्वैतं तदुच्यते ६३
यद्ब्रह्मणि परे साक्षात्सर्वकर्मसमर्पणम्
मनोवाक्तनुभिः पार्थ क्रियाद्वैतं तदुच्यते ६४
आत्मजायासुतादीनामन्येषां सर्वदेहिनाम्
यत्स्वार्थकामयोरैक्यं द्रव्याद्वैतं तदुच्यते ६५

जो विचारशील पुरुष स्वानुभूतिसे आत्माके त्रिविध अद्वैतका साक्षात्कार करते हैंवे जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और द्रष्टा, दर्शन तथा दृश्यके भेदरूप स्वप्नको मिटा देते हैं। ये अद्वैत तीन प्रकारके हैंभावाद्वैत, क्रियाद्वैत और द्रव्याद्वैत ॥ ६२ ॥ जैसे वस्त्र सूतरूप ही होता है, वैसे ही कार्य भी कारणमात्र ही है। क्योंकि भेद तो वास्तवमें है नहीं। इस प्रकार सबकी एकताका विचार भावाद्वैतहै ॥ ६३ ॥ युधिष्ठिर ! मन, वाणी और शरीरसे होनेवाले सब कर्म स्वयं परब्रह्म परमात्मामें ही हो रहे हैं, उसीमें अध्यस्त हैंइस भावसे समस्त कर्मोंको समर्पित कर देना क्रियाद्वैतहै ॥ ६४ ॥ स्त्री-पुत्रादि सगे-सम्बन्धी एवं संसारके अन्य समस्त प्राणियोंके तथा अपने स्वार्थ और भोग एक ही हैं, उनमें अपने और परायेका भेद नहीं हैइस प्रकारका विचार द्रव्याद्वैतहै ॥ ६५ ॥

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रविवार, 18 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन

य एते पितृदेवानामयने वेदनिर्मिते
शास्त्रेण चक्षुषा वेद जनस्थोऽपि न मुह्यति ५६
आदावन्ते जनानां सद्बहिरन्तः परावरम्
ज्ञानं ज्ञेयं वचो वाच्यं तमो ज्योतिस्त्वयं स्वयम् ५७
आबाधितोऽपि ह्याभासो यथा वस्तुतया स्मृतः
दुर्घटत्वादैन्द्रियकं तद्वदर्थविकल्पितम् ५८
क्षित्यादीनामिहार्थानां छाया न कतमापि हि
न सङ्घातो विकारोऽपि न पृथङ्नान्वितो मृषा ५९
धातवोऽवयवित्वाच्च तन्मात्रावयवैर्विना
न स्युर्ह्यसत्यवयविन्यसन्नवयवोऽन्ततः ६०
स्यात्सादृश्यभ्रमस्तावद्विकल्पे सति वस्तुनः
जाग्रत्स्वापौ यथा स्वप्ने तथा विधिनिषेधता ६१

ये पितृयान और देवयान दोनों ही वेदोक्त मार्ग हैं। जो शास्त्रीय दृष्टिसे इन्हें तत्त्वत: जान लेता है, वह शरीरमें स्थित रहता हुआ भी मोहित नहीं होता ॥ ५६ ॥ पैदा होनेवाले शरीरोंके पहले भी कारणरूपसे और उनका अन्त हो जानेपर भी उनकी अवधिरूपसे जो स्वयं विद्यमान रहता है, जो भोगरूपसे बाहर और भोक्तारूपसे भीतर है तथा ऊँच और नीच, जानना और जाननेका विषय, वाणी और वाणीका विषय, अन्धकार और प्रकाश आदि वस्तुओंके रूपमें जो कुछ भी उपलब्ध होता है, वह सब स्वयं यह तत्त्ववेत्ता ही है। इसीसे मोह उसका स्पर्श नहीं कर सकता ॥ ५७ ॥ दर्पण आदिमें दीख पडऩेवाला प्रतिबिम्ब विचार और युक्तिसे बाधित है, उसका उनमें अस्तित्व है नहीं; फिर भी वस्तुके रूपमें तो वह दीखता ही है। वैसे ही इन्द्रियोंके द्वारा दीखनेवाला वस्तुओंका भेद-भाव भी विचार, युक्ति और आत्मानुभवसे असम्भव होनेके कारण वस्तुत: न होनेपर भी सत्य-सा प्रतीत होता है ॥ ५८ ॥ पृथ्वी आदि पञ्चभूतोंसे इस शरीरका निर्माण नहीं हुआ है। वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो न तो वह उन पञ्चभूतोंका सङ्घात है और न विकार या परिणाम ही। क्योंकि यह अपने अवयवोंसे न तो पृथक् है और न उनमें अनुगत ही है, अतएव मिथ्या है ॥ ५९ ॥ इसी प्रकार शरीरके कारणरूप पञ्चभूत भी अवयवी होनेके कारण अपने अवयवोंसूक्ष्मभूतोंसे भिन्न नहीं है, अवयवरूप ही हैं। जब बहुत खोज-बीन करनेपर भी अवयवोंके अतिरिक्त अवयवीका अस्तित्व नहीं मिलतावह असत् ही सिद्ध होता है, तब अपने-आप ही यह सिद्ध हो जाता है कि ये अवयव भी असत्य ही हैं ॥ ६० ॥ जबतक अज्ञानके कारण एक ही परमतत्त्वमें अनेक वस्तुओंके भेद मालूम पड़ते रहते हैं, तबतक यह भ्रम भी रह सकता है कि जो वस्तुएँ पहले थीं, वे अब भी हैं और स्वप्नमें भी जिस प्रकार जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाओंके अलग-अलग अनुभव होते ही हैं तथा उनमें भी विधि-निषेधके शास्त्र रहते हैंवैसे ही जबतक इन भिन्नताओंके अस्तित्वका मोह बना हुआ है, तबतक यहाँ भी विधि-निषेधके शास्त्र हैं ही ॥ ६१ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...