॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट०३)
मन्वन्तरोंका वर्णन
यं पश्यति न पश्यन्तं चक्षुर्यस्य न रिष्यति
तं भूतनिलयं देवं सुपर्णमुपधावत ||११||
न यस्याद्यन्तौ मध्यं च स्वः परो नान्तरं बहिः
विश्वस्यामूनि यद्यस्माद्विश्वं च तदृतं महत् ||१२||
स विश्वकायः पुरुहूतईशः
सत्यः स्वयंज्योतिरजः पुराणः
धत्तेऽस्य जन्माद्यजयात्मशक्त्या
तां विद्ययोदस्य निरीह
आस्ते ||१३||
अथाग्रे ऋषयः कर्माणीहन्तेऽकर्महेतवे
ईहमानो हि पुरुषः प्रायोऽनीहां प्रपद्यते ||१४||
ईहते भगवानीशो न हि तत्र विसज्जते
आत्मलाभेन पूर्णार्थो नावसीदन्ति येऽनु तम् ||१५||
तमीहमानं निरहङ्कृतं बुधं
निराशिषं पूर्णमनन्यचोदितम्
नॄन्शिक्षयन्तं निजवर्त्मसंस्थितं
प्रभुं
प्रपद्येऽखिलधर्मभावनम् ||१६||
भगवान् सब के साक्षी हैं। उन्हें बुद्धि-वृत्तियाँ या
नेत्र आदि इन्द्रियाँ नहीं देख सकतीं। परंतु उनकी ज्ञान-शक्ति अखण्ड है। समस्त
प्राणियों के हृदय में रहनेवाले उन्हीं स्वयंप्रकाश असङ्ग परमात्मा की शरण ग्रहण
करो ॥ ११ ॥ जिनका न आदि है न अन्त, फिर मध्य तो होगा ही कहाँ से ? जिनका न कोई अपना है और न पराया, और न बाहर है न भीतर,
वे विश्वके आदि, अन्त,
मध्य, अपने-पराये, बाहर और भीतर—सब कुछ हैं। उन्हींकी सत्तासे विश्वकी सत्ता है। वही अनन्त वास्तविक सत्य
परब्रह्म हैं ॥ १२ ॥ वही परमात्मा विश्वरूप हैं। उनके अनन्त नाम हैं। वे
सर्वशक्तिमान् सत्य,
स्वयंप्रकाश, अजन्मा और पुराणपुरुष हैं। वे अपनी मायाशक्तिके द्वारा ही विश्वसृष्टिके जन्म
आदिको स्वीकार कर लेते हैं और अपनी विद्याशक्तिके द्वारा उसका त्याग करके
निष्क्रिय,
सत्स्वरूपमात्र रहते हैं ॥ १३ ॥ इसीसे ऋषि-मुनि
नैष्कम्र्यस्थिति अर्थात् ब्रह्मसे एकत्व प्राप्त करनेके लिये पहले कर्मयोगका
अनुष्ठान करते हैं। प्राय: कर्म करनेवाला पुरुष ही अन्तमें निष्क्रिय होकर
कर्मोंसे छुट्टी पा लेता है ॥ १४ ॥ यों तो सर्वशक्तिमान् भगवान् भी कर्म करते हैं, परंतु वे आत्मलाभ से पूर्णकाम होनेके कारण उन कर्मोंमें
आसक्त नहीं होते। अत: उन्हींका अनुसरण करके अनासक्त रहकर कर्म करनेवाले भी कर्मबन्धनसे
मुक्त ही रहते हैं ॥१५॥
भगवान् ज्ञानस्वरूप हैं, इसलिये उनमें अहंकारका लेश भी नहीं है। वे सर्वत: परिपूर्ण हैं, इसलिये उन्हें किसी वस्तुकी कामना नहीं है। वे बिना किसीकी
प्रेरणाके स्वच्छन्दरूपसे ही कर्म करते हैं। वे अपनी ही बनायी हुई मर्यादामें
स्थित रहकर अपने कर्मोंके द्वारा मनुष्योंको शिक्षा देते हैं। वे ही समस्त
धर्मोंके प्रवर्तक और उनके जीवनदाता हैं। मैं उन्हीं प्रभुकी शरणमें हूँ ॥ १६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से