॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
भगवान् वामन का बलि से तीन पग पृथ्वी माँगना,
बलि का वचन देना और शुक्राचार्यजी का उन्हें रोकना
श्रीशुक
उवाच -
इत्युक्तः
स हसन्नाह वाञ्छातः प्रतिगृह्यताम् ।
वामनाय
महीं दातुं जग्राह जलभाजनम् ॥ २८ ॥
विष्णवे
क्ष्मां प्रदास्यन्तं उशना असुरेश्वरम् ।
जानन्
चिकीर्षितं विष्णोः शिष्यं प्राह विदां वरः ॥ २९ ॥
श्रीशुक्र
उवाच -
एष
वैरोचने साक्षात् भगवान् विष्णुरव्ययः ।
कश्यपाद्
अदितेर्जातो देवानां कार्यसाधकः ॥ ३० ॥
प्रतिश्रुतं
त्वयैतस्मै यद् अनर्थं अजानता ।
न
साधु मन्ये दैत्यानां महानुपगतोऽनयः ॥ ३१ ॥
एष
ते स्थानमैश्वर्यं श्रियं तेजो यशः श्रुतम् ।
दास्यत्याच्छिद्य
शक्राय मायामाणवको हरिः ॥ ३२ ॥
त्रिभिः
क्रमैः इमान् लोकान् विश्वकायः क्रमिष्यति ।
सर्वस्वं
विष्णवे दत्त्वा मूढ वर्तिष्यसे कथम् ॥ ३३ ॥
क्रमतो
गां पदैकेन द्वितीयेन दिवं विभोः ।
खं
च कायेन महता तार्तीयस्य कुतो गतिः ॥ ३४ ॥
निष्ठां
ते नरके मन्ये हि अप्रदातुः प्रतिश्रुतम् ।
प्रतिश्रुतस्य
योऽनीशः प्रतिपादयितुं भवान् ॥ ३५ ॥
न
तद्दानं प्रशंसन्ति येन वृत्तिर्विपद्यते ।
दानं
यज्ञस्तपः कर्म लोके वृत्तिमतो यतः ॥ ३६ ॥
धर्माय
यशसेऽर्थाय कामाय स्वजनाय च ।
पञ्चधा
विभजन् वित्तं इहामुत्र च मोदते ॥ ३७ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भगवान् के इस प्रकार कहनेपर राजा बलि हँस पड़े। उन्होंने कहा— ‘अच्छी बात है; जितनी तुम्हारी इच्छा हो, उतनी ही ले
लो।’
यों कहकर वामनभगवान्
को तीन पग पृथ्वी का संकल्प करनेके लिये उन्होंने जलपात्र उठाया ॥ २८ ॥
शुक्राचार्यजी सब कुछ जानते थे। उनसे भगवान् की यह लीला भी छिपी नहीं थी।
उन्होंने राजा बलिको पृथ्वी देने के लिये तैयार देखकर उनसे कहा ॥ २९ ॥
शुक्राचार्यजीने कहा—विरोचनकुमार ! ये स्वयं अविनाशी भगवान् विष्णु हैं। देवताओंका काम बनानेके
लिये कश्यपकी पत्नी अदितिके गर्भसे अवतीर्ण हुए हैं ॥ ३० ॥ तुमने यह अनर्थ न जानकर
कि ये मेरा सब कुछ छीन लेंगे, इन्हें दान
देनेकी प्रतिज्ञा कर ली है। यह तो दैत्योंपर बहुत बड़ा अन्याय होने जा रहा है। इसे
मैं ठीक नहीं समझता ॥ ३१ ॥ स्वयं भगवान् ही अपनी योगमायासे यह ब्रह्मचारी बनकर
बैठे हुए हैं। ये तुम्हारा राज्य, ऐश्वर्य, लक्ष्मी, तेज और
विश्वविख्यात कीर्ति—सब कुछ तुमसे छीनकर इन्द्रको दे देंगे ॥ ३२ ॥ ये विश्वरूप
हैं। तीन पगमें तो ये सारे लोकोंको नाप लेंगे। मूर्ख ! जब तुम अपना सर्वस्व ही
विष्णुको दे डालोगे,
तो तुम्हारा जीवन निर्वाह कैसे होगा ॥ ३३ ॥ ये विश्वव्यापक
भगवान् एक पगमें पृथ्वी और दूसरे पगमें स्वर्गको नाप लेंगे। इनके विशाल शरीरसे
आकाश भर जायगा। तब इनका तीसरा पग कहाँ जायगा ? ॥ ३४ ॥ तुम उसे पूरा न कर सकोगे। ऐसी दशामें मैं समझता हूँ कि प्रतिज्ञा करके
पूरा न कर पानेके कारण तुम्हें नरकमें ही जाना पड़ेगा। क्योंकि तुम अपनी की हुई
प्रतिज्ञाको पूर्ण करनेमें सर्वथा असमर्थ होओगे ॥ ३५ ॥ विद्वान् पुरुष उस दानकी
प्रशंसा नहीं करते,
जिसके बाद जीवन-निर्वाहके लिये कुछ बचे ही नहीं। जिसका
जीवन-निर्वाह ठीक-ठीक चलता है—वही संसारमें
दान,
यज्ञ, तप और
परोपकारके कर्म कर सकता है ॥ ३६ ॥ जो मनुष्य अपने धनको पाँच भागोंमें बाँट देता है—कुछ धर्मके लिये, कुछ यशके लिये,
कुछ धनकी अभिवृद्धिके लिये, कुछ भोगोंके लिये और कुछ अपने स्वजनोंके लिये—वही इस लोक और परलोक दोनोंमें ही सुख पाता है ॥ ३७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से