गुरुवार, 14 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

बलि का बन्धन से छूटकर सुतल लोक को जाना

वेदानां सर्वदेवानां धर्मस्य यशसः श्रियः ।
मंगलानां व्रतानां च कल्पं स्वर्गापवर्गयोः ॥ २२ ॥
उपेन्द्रं कल्पयां चक्रे पतिं सर्वविभूतये ।
तदा सर्वाणि भूतानि भृशं मुमुदिरे नृप ॥ २३ ॥
ततस्त्विन्द्रः पुरस्कृत्य देवयानेन वामनम् ।
लोकपालैर्दिवं निन्ये ब्रह्मणा चानुमोदितः ॥ २४ ॥
प्राप्य त्रिभुवनं चेन्द्र उपेन्द्रभुजपालितः ।
श्रिया परमया जुष्टो मुमुदे गतसाध्वसः ॥ २५ ॥
ब्रह्मा शर्वः कुमारश्च भृग्वाद्या मुनयो नृप ।
पितरः सर्वभूतानि सिद्धा वैमानिकाश्च ये ॥ २६ ॥
सुमहत्कर्म तद्विष्णोः गायन्तः परमाद्‍भुतम् ।
धिष्ण्यानि स्वानि ते जग्मुः अदितिं च शशंसिरे ॥ २७ ॥

परीक्षित्‌ ! वेद, समस्त देवता, धर्म, यश, लक्ष्मी, मङ्गल, व्रत, स्वर्ग और अपवर्गसब के रक्षकके रूपमें सबके परम कल्याणके लिये सर्वशक्तिमान् वामनभगवान्‌को उन्होंने उपेन्द्र का पद दिया। उस समय सभी प्राणियोंको अत्यन्त आनन्द हुआ ॥ २२-२३ ॥ इसके बाद ब्रह्माजीकी अनुमतिसे लोकपालोंके साथ देवराज इन्द्रने वामनभगवान्‌को सबसे आगे विमानपर बैठाया और अपने साथ स्वर्ग लिवा ले गये ॥ २४ ॥ इन्द्रको एक तो त्रिभुवनका राज्य मिल गया और दूसरे, वामनभगवान्‌के करकमलोंकी छत्रछाया ! सर्वश्रेष्ठ ऐश्वर्यलक्ष्मी उनकी सेवा करने लगी और वे निर्भय होकर आनन्दोत्सव मनाने लगे ॥ २५ ॥ ब्रह्मा, शङ्कर, सनत्कुमार, भृगु आदि मुनि, पितर, सारे भूत, सिद्ध और विमानारोही देवगण भगवान्‌के इस परम अद्भुत एवं अत्यन्त महान् कर्मका गान करते हुए अपने-अपने लोकको चले गये और सबने अदितिकी भी बड़ी प्रशंसा की ॥ २६-२७ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

बलि का बन्धन से छूटकर सुतल लोक को जाना

श्रीशुक्र उवाच -
कुतस्तत्कर्मवैषम्यं यस्य कर्मेश्वरो भवान् ।
यज्ञेशो यज्ञपुरुषः सर्वभावेन पूजितः ॥ १५ ॥
मंत्रतः तंत्रतः छिद्रं देशकालार्हवस्तुतः ।
सर्वं करोति निश्छिद्रं अनुसंकीर्तनं तव ॥ १६ ॥
तथापि वदतो भूमन् करिष्याम्यनुशासनम् ।
एतच्छ्रेयः परं पुंसां यत् तवाज्ञा अनुपालनम् ॥ १७ ॥

श्रीशुक उवाच -
अभिनन्द्य हरेराज्ञां उशना भगवानिति ।
यज्ञच्छिद्रं समाधत्त बलेर्विप्रर्षिभिः सह ॥ १८ ॥
एवं बलेर्महीं राजम् भिक्षित्वा वामनो हरिः ।
ददौ भ्रात्रे महेन्द्राय त्रिदिवं यत्परैर्हृतम् ॥ १९ ॥
प्रजापतिपतिर्ब्रह्मा देवर्षिपितृभूमिपैः ।
दक्षभृग्वङ्‌गिरोमुख्यैः कुमारेण भवेन च ॥ २० ॥
कश्यपस्यादितेः प्रीत्यै सर्वभूतभवाय च ।
लोकानां लोकपालानां अकरोद् वामनं पतिम् ॥ २१ ॥

शुक्राचार्य जी ने कहाभगवन् ! जिसने अपना समस्त कर्म समर्पित करके सब प्रकार से यज्ञेश्वर यज्ञपुरुष आपकी पूजा की हैउसके कर्म में कोई त्रुटि, कोई विषमता कैसे रह सकती है ? ॥ १५ ॥ क्योंकि मन्त्रोंकी , अनुष्ठान-पद्धति की, देश, काल, पात्र और वस्तु की सारी भूलें आपके नामसंकीर्तनमात्रसे सुधर जाती हैं; आपका नाम सारी त्रुटियोंको पूर्ण कर देता है ॥ १६ ॥ तथापि अनन्त ! जब आप स्वयं कह रहे हैं, तब मैं आपकी आज्ञाका अवश्य पालन करूँगा। मनुष्यके लिये सबसे बड़ा कल्याणका साधन यही है कि वह आपकी आज्ञाका पालन करे ॥ १७ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंभगवान्‌ शुक्राचार्य ने भगवान्‌ श्रीहरिकी यह आज्ञा स्वीकार करके दूसरे ब्रहमर्षियोंके साथ, बलिके यज्ञमें जो कमी रह गयी थी, उसे पूर्ण किया ॥ १८ ॥ परीक्षित्‌ ! इस प्रकार वामनभगवान्‌ ने बलि से पृथ्वी की भिक्षा माँगकर अपने बड़े भाई इन्द्रको स्वर्गका राज्य दिया, जिसे उनके शत्रुओंने छीन लिया था ॥ १९ ॥ इसके बाद प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्माजी ने देवर्षि, पितर, मनु, दक्ष, भृगु, अङ्गिरा, सनत्कुमार और शङ्करजी के साथ कश्यप एवं अदितिकी प्रसन्नताके लिये तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके अभ्युदयके लिये समस्त लोक और लोकपालों के स्वामी के पदपर वामन भगवान्‌ का अभिषेक कर दिया ॥ २०-२१ ॥

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बुधवार, 13 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

बलि का बन्धन से छूटकर सुतल लोक को जाना

श्रीभगवानुवाच -
वत्स प्रह्राद भद्रं ते प्रयाहि सुतलालयम् ।
मोदमानः स्वपौत्रेण ज्ञातीनां सुखमावह ॥ ९ ॥
नित्यं द्रष्टासि मां तत्र गदापाणिमवस्थितम् ।
मद्दर्शनमहाह्लाद ध्वस्तकर्मनिबन्धनः ॥ १० ॥

श्रीशुक उवाच -
आज्ञां भगवतो राजन् प्रह्रादो बलिना सह ।
बाढमित्यमलप्रज्ञो मूर्ध्न्याधाय कृताञ्जलिः ॥ ११ ॥
परिक्रम्यादिपुरुषं सर्वासुरचमूपतिः ।
प्रणतः तदनुज्ञातः प्रविवेश महाबिलम् ॥ १२ ॥
अथाहोशनसं राजन् हरिर्नारायणोऽन्तिके ।
आसीनं ऋत्विजां मध्ये सदसि ब्रह्मवादिनाम् ॥ १३ ॥
ब्रह्मन् सन्तनु शिष्यस्य कर्मच्छिद्रं वितन्वतः ।
यत् तत् कर्मसु वैषम्यं ब्रह्मदृष्टं समं भवेत् ॥ १४ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहाबेटा प्रह्लाद ! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम भी सुतल लोक में जाओ। वहाँ अपने पौत्र बलिके साथ आनन्दपूर्वक रहो और जाति-बन्धुओंको सुखी करो ॥ ९ ॥ वहाँ तुम मुझे नित्य ही गदा हाथमें लिये खड़ा देखोगे। मेरे दर्शनके परमानन्दमें मग्र रहनेके कारण तुम्हारे सारे कर्मबन्धन नष्ट हो जायँगे ॥ १० ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! समस्त दैत्यसेनाके स्वामी विशुद्धबुद्धि प्रह्लादजीने जो आज्ञाकहकर, हाथ जोड़, भगवान्‌का आदेश मस्तकपर चढ़ाया। फिर उन्होंने बलिके साथ आदिपुरुष भगवान्‌की परिक्रमा की, उन्हें प्रणाम किया और उनसे अनुमति लेकर सुतल लोककी यात्रा की ॥ ११-१२ ॥ परीक्षित्‌ ! उस समय भगवान्‌ श्रीहरिने ब्रह्मवादी ऋत्विजोंकी सभामें अपने पास ही बैठे हुए शुक्राचार्यजीसे कहा ॥ १३ ॥ ब्रह्मन् ! आपका शिष्य यज्ञ कर रहा था। उसमें जो त्रुटि रह गयी है, उसे आप पूर्ण कर दीजिये। क्योंकि कर्म करनेमें जो कुछ भूल-चूक हो जाती है, वह ब्राह्मणोंकी कृपादृष्टिसे सुधर जाती है॥ १४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

बलि का बन्धन से छूटकर सुतल लोक को जाना

श्रीप्रह्लाद उवाच -
नेमं विरिञ्चो लभते प्रसादं
     न श्रीर्न शर्वः किमुतापरेऽन्ये ।
यन्नोऽसुराणामसि दुर्गपालो
     विश्वाभिवन्द्यैरभिवन्दिताङ्‌घ्रिः ॥ ६ ॥
यत्पादपद्ममकरन्दनिषेवणेन
     ब्रह्मादयः शरणदाश्नुवते विभूतीः ।
कस्माद्वयं कुसृतयः खलयोनयस्ते
     दाक्षिण्यदृष्टिपदवीं भवतः प्रणीताः ॥ ७ ॥
चित्रं तवेहितमहोऽमितयोगमाया
     लीलाविसृष्टभुवनस्य विशारदस्य ।
सर्वात्मनः समदृशोऽविषमः स्वभावो
     भक्तप्रियो यदसि कल्पतरुस्वभावः ॥ ८ ॥

प्रह्लादजीने कहाप्रभो ! यह कृपाप्रसाद तो कभी ब्रह्माजी, लक्ष्मीजी और शङ्करजीको भी नहीं प्राप्त हुआ, तब दूसरोंकी बात ही क्या है। अहो ! विश्ववन्द्य ब्रह्मा आदि भी जिनके चरणोंकी वन्दना करते रहते हैं, वही आप हम असुरोंके दुर्गपालकिलेदार हो गये ॥ ६ ॥ शरणागतवत्सल प्रभो! ब्रह्मा आदि लोकपाल आपके चरणकमलोंका मकरन्द-रस सेवन करनेके कारण सृष्टि-रचनाकी शक्ति आदि अनेक विभूतियाँ प्राप्त करते हैं। हमलोग तो जन्मसे ही खल और कुमार्गगामी हैं, हमपर आपकी ऐसी अनुग्रहपूर्ण दृष्टि कैसे हो गयी, जो आप हमारे द्वारपाल ही बन गये ॥ ७ ॥ आपने अपनी योगमायासे खेल-ही-खेलमें त्रिभुवनकी रचना कर दी। आप सर्वज्ञ, सर्वात्मा और समदर्शी हैं। फिर भी आपकी लीलाएँ बड़ी विलक्षण जान पड़ती हैं। आपका स्वभाव कल्पवृक्षके समान है; क्योंकि आप अपने भक्तोंसे अत्यन्त प्रेम करते है। इसीसे कभी-कभी उपासकोंके प्रति पक्षपात और विमुखोंके प्रति निर्दयता भी आपमें देखी जाती है ॥ ८ ॥

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मंगलवार, 12 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

बलि का बन्धन से छूटकर सुतल लोक को जाना

श्रीशुक उवाच -
इत्युक्तवन्तं पुरुषं पुरातनं
     महानुभावोऽखिलसाधुसंमतः ।
बद्धाञ्जलिर्बाष्पकलाकुलेक्षणो
     भक्त्युत्कलो गद्‍गदया गिराब्रवीत् ॥ १ ॥

श्रीबलिरुवाच -
अहो प्रणामाय कृतः समुद्यमः
     प्रपन्नभक्तार्थविधौ समाहितः ।
यल्लोकपालैस्त्वदनुग्रहोऽमरैः
     अलब्धपूर्वोऽपसदेऽसुरेऽर्पितः ॥ २ ॥

श्रीशुक उवाच -
इत्युक्त्वा हरिमानत्य ब्रह्माणं सभवं ततः ।
विवेश सुतलं प्रीतो बलिर्मुक्तः सहासुरैः ॥ ३ ॥
एवं इन्द्राय भगवान् प्रत्यानीय त्रिविष्टपम् ।
पूरयित्वादितेः कामं अशासत् सकलं जगत् ॥ ४ ॥
लब्धप्रसादं निर्मुक्तं पौत्रं वंशधरं बलिम् ।
निशाम्य भक्तिप्रवणः प्रह्राद इदमब्रवीत् ॥ ५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंजब सनातनपुरुष भगवान्‌ ने इस प्रकार कहा, तो साधुओंके आदरणीय महानुभाव दैत्यराजके नेत्रोंमें आँसू छलक आये। प्रेमके उद्रेक से उनका गला भर आया। वे हाथ जोडक़र गद्गद वाणीसे भगवान्‌से कहने लगे ॥ १ ॥
बलिने कहाप्रभो ! मैंने तो आपको पूरा प्रणाम भी नहीं किया, केवल प्रणाम करनेमात्रकी चेष्टाभर की। इसीसे मुझे वह फल मिला, जो आपके चरणोंके शरणागत भक्तोंको प्राप्त होता है। बड़े-बड़े लोकपाल और देवताओंपर आपने जो कृपा कभी नहीं की, वह मुझ-जैसे नीच असुरको सहज ही प्राप्त हो गयी ॥ २ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! यों कहते ही बलि वरुणके पाशोंसे मुक्त हो गये। तब उन्होंने भगवान्‌, ब्रह्माजी और शङ्करजीको प्रणाम किया और इसके बाद बड़ी प्रसन्नतासे असुरोंके साथ सुतल लोककी यात्रा की ॥ ३ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ने बलिसे स्वर्गका राज्य लेकर इन्द्रको दे दिया, अदितिकी कामना पूर्ण की और स्वयं उपेन्द्र बनकर वे सारे जगत्का शासन करने लगे ॥ ४ ॥ जब प्रह्लादने देखा कि मेरे वंशधर पौत्र राजा बलि बन्धनसे छूट गये और उन्हें भगवान्‌का कृपाप्रसाद प्राप्त हो गया, तो वे भक्ति-भावसे भर गये। उस समय उन्होंने भगवान्‌की इस प्रकार स्तुति की ॥ ५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

बलि के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और
भगवान्‌ का उस पर प्रसन्न होना

एष दानवदैत्यानामग्रनीः कीर्तिवर्धनः ।
अजैषीदजयां मायां सीदन्नपि न मुह्यति ॥ २८ ॥
क्षीणरिक्थश्च्युतः स्थानात्क्षिप्तो बद्धश्च शत्रुभिः ।
ज्ञातिभिश्च परित्यक्तो यातनामनुयापितः ॥ २९ ॥
गुरुणा भर्त्सितः शप्तो जहौ सत्यं न सुव्रतः ।
छलैरुक्तो मया धर्मो नायं त्यजति सत्यवाक् ॥ ३० ॥
एष मे प्रापितः स्थानं दुष्प्रापं अमरैरपि ।
सावर्णेरन्तरस्यायं भवितेन्द्रो मदाश्रयः ॥ ३१ ॥
तावत् सुतलमध्यास्तां विश्वकर्मविनिर्मितम् ।
यदाधयो व्याधयश्च क्लमस्तन्द्रा पराभवः ।
नोपसर्गा निवसतां सम्भवन्ति ममेक्षया ॥ ३२ ॥
इन्द्रसेन महाराज याहि भो भद्रमस्तु ते ।
सुतलं स्वर्गिभिः प्रार्थ्यं ज्ञातिभिः परिवारितः ॥ ३३ ॥
न त्वां अभिभविष्यन्ति लोकेशाः किमुतापरे ।
त्वत् शासनातिगान् दैत्यान् चक्रं मे सूदयिष्यति ॥ ३४ ॥
रक्षिष्ये सर्वतोऽहं त्वां सानुगं सपरिच्छदम् ।
सदा सन्निहितं वीर तत्र मां द्रक्ष्यते भवान् ॥ ३५ ॥
तत्र दानवदैत्यानां संगात् ते भाव आसुरः ।
दृष्ट्वा मदनुभावं वै सद्यः कुण्ठो विनंक्ष्यति ॥ ३६ ॥

(श्रीभगवान्‌ कह रहे हैं) यह बलि दानव और दैत्य दोनों ही वंशोंमें अग्रगण्य और उनकी कीर्ति बढ़ानेवाला है। इसने उस मायापर विजय प्राप्त कर ली है, जिसे जीतना अत्यन्त कठिन है। तुम देख ही रहे हो, इतना दु:ख भोगनेपर भी यह मोहित नहीं हुआ ॥ २८ ॥ इसका धन छीन लिया, राजपदसे अलग कर दिया, तरह-तरहके आक्षेप किये, शत्रुओंने बाँध लिया, भाई- बन्धु छोडक़र चले गये, इतनी यातनाएँ भोगनी पड़ींयहाँतक कि गुरुदेवने भी इसको डाँटा- फटकारा और शापतक दे दिया। परंतु इस दृढव्रतीने अपनी प्रतिज्ञा नहीं छोड़ी। मैंने इससे छलभरी बातें कीं, मनमें छल रखकर धर्मका उपदेश किया; परंतु इस सत्यवादीने अपना धर्म न छोड़ा ॥ २९-३० ॥ अत: मैंने इसे वह स्थान दिया है, जो बड़े-बड़े देवताओंको भी बड़ी कठिनाईसे प्राप्त होता है। सावर्णि मन्वन्तरमें यह मेरा परम भक्त इन्द्र होगा ॥ ३१ ॥ तबतक यह विश्वकर्माके बनाये हुए सुतल लोकमें रहे। वहाँ रहनेवाले लोग मेरी कृपादृष्टिका अनुभव करते हैं। इसलिये उन्हें शारीरिक अथवा मानसिक रोग, थकावट, तन्द्रा, बाहरी या भीतरी शत्रुओंसे पराजय और किसी प्रकारके विघ्नों का सामना नहीं करना पड़ता ॥ ३२ ॥ [ बलिको सम्बोधित कर ] महाराज इन्द्रसेन ! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम अपने भाई-बन्धुओंके साथ उस सुतल लोकमें जाओ, जिसे स्वर्गके देवता भी चाहते रहते हैं ॥ ३३ ॥ बड़े-बड़े लोकपाल भी अब तुम्हें पराजित नहीं कर सकेंगे, दूसरोंकी तो बात ही क्या है ! जो दैत्य तुम्हारी आज्ञा का उल्लङ्घन करेंगे, मेरा चक्र उनके टुकड़े-टुकड़े कर देगा ॥ ३४ ॥ मैं तुम्हारी, तुम्हारे अनुचरों की और भोगसामग्री की भी सब प्रकार के विघ्नों से   रक्षा करूँगा। वीर बलि ! तुम मुझे वहाँ सदा-सर्वदा अपने पास ही देखोगे ॥ ३५ ॥ दानव और दैत्यों के संसर्ग से तुम्हारा जो कुछ आसुरभाव होगा, वह मेरे प्रभाव से तुरंत दब जायगा और नष्ट हो जायगा ॥ ३६ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भवे बलिवामनसंवादे द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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सोमवार, 11 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

बलि के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और
भगवान्‌ का उस पर प्रसन्न होना

श्रीभगवानुवाच -
ब्रह्मन् यमनुगृह्णामि तद्विशो विधुनोम्यहम् ।
यन्मदः पुरुषः स्तब्धो लोकं मां चावमन्यते ॥ २४ ॥
यदा कदाचित् जीवात्मा संसरन्निजकर्मभिः ।
नानायोनिष्वनीशोऽयं पौरुषीं गतिमाव्रजेत् ॥ २५ ॥
जन्मकर्मवयोरूप विद्यैश्वर्यधनादिभिः ।
यद्यस्य न भवेत् स्तंभः तत्रायं मदनुग्रहः ॥ २६ ॥
मानस्तम्भनिमित्तानां जन्मादीनां समन्ततः ।
सर्वश्रेयःप्रतीपानां हन्त मुह्येन्न मत्परः ॥ २७ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहाब्रह्माजी ! मैं जिसपर कृपा करता हूँ, उसका धन छीन लिया करता हूँ । क्योंकि जब मनुष्य धन के मद से मतवाला हो जाता है, तब मेरा और लोगोंका तिरस्कार करने लगता है ॥ २४ ॥ यह जीव अपने कर्मोंके कारण विवश होकर अनेक योनियोंमें भटकता रहता है, जब कभी मेरी बड़ी कृपासे मनुष्यका शरीर प्राप्त करता है ॥ २५ ॥ मनुष्ययोनि में जन्म लेकर यदि कुलीनता, कर्म, अवस्था, रूप, विद्या, ऐश्वर्य और धन आदिके कारण घमंड न हो जाय तो समझना चाहिये कि मेरी बड़ी ही कृपा है ॥ २६ ॥ कुलीनता आदि बहुत-से ऐसे कारण हैं, जो अभिमान और जडता आदि उत्पन्न करके मनुष्यको कल्याणके समस्त साधनोंसे वञ्चित कर देते हैं; परंतु जो मेरे शरणागत होते हैं, वे इनसे मोहित नहीं होते ॥ २७ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...