॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
बलि का बन्धन से छूटकर सुतल लोक को जाना
वेदानां सर्वदेवानां धर्मस्य यशसः श्रियः ।
मंगलानां व्रतानां च कल्पं स्वर्गापवर्गयोः ॥ २२ ॥
उपेन्द्रं कल्पयां चक्रे पतिं सर्वविभूतये ।
तदा सर्वाणि भूतानि भृशं मुमुदिरे नृप ॥ २३ ॥
ततस्त्विन्द्रः पुरस्कृत्य देवयानेन वामनम् ।
लोकपालैर्दिवं निन्ये ब्रह्मणा चानुमोदितः ॥ २४ ॥
प्राप्य त्रिभुवनं चेन्द्र उपेन्द्रभुजपालितः ।
श्रिया परमया जुष्टो मुमुदे गतसाध्वसः ॥ २५ ॥
ब्रह्मा शर्वः कुमारश्च भृग्वाद्या मुनयो नृप ।
पितरः सर्वभूतानि सिद्धा वैमानिकाश्च ये ॥ २६ ॥
सुमहत्कर्म तद्विष्णोः गायन्तः परमाद्भुतम् ।
धिष्ण्यानि स्वानि ते जग्मुः अदितिं च शशंसिरे ॥ २७ ॥
परीक्षित् ! वेद, समस्त देवता,
धर्म, यश, लक्ष्मी, मङ्गल, व्रत, स्वर्ग और
अपवर्ग—सब के रक्षकके रूपमें सबके परम कल्याणके लिये सर्वशक्तिमान्
वामनभगवान्को उन्होंने उपेन्द्र का पद दिया। उस समय सभी प्राणियोंको अत्यन्त
आनन्द हुआ ॥ २२-२३ ॥ इसके बाद ब्रह्माजीकी अनुमतिसे लोकपालोंके साथ देवराज
इन्द्रने वामनभगवान्को सबसे आगे विमानपर बैठाया और अपने साथ स्वर्ग लिवा ले गये ॥
२४ ॥ इन्द्रको एक तो त्रिभुवनका राज्य मिल गया और दूसरे, वामनभगवान्के करकमलोंकी छत्रछाया ! सर्वश्रेष्ठ
ऐश्वर्यलक्ष्मी उनकी सेवा करने लगी और वे निर्भय होकर आनन्दोत्सव मनाने लगे ॥ २५ ॥
ब्रह्मा,
शङ्कर, सनत्कुमार, भृगु आदि मुनि, पितर,
सारे भूत, सिद्ध और
विमानारोही देवगण भगवान्के इस परम अद्भुत एवं अत्यन्त महान् कर्मका गान करते हुए
अपने-अपने लोकको चले गये और सबने अदितिकी भी बड़ी प्रशंसा की ॥ २६-२७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से