॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
भगवान् के मत्स्यावतार की कथा
श्रीराजोवाच -
भगवन् श्रोतुमिच्छामि हरेरद्भुतकर्मणः ।
अवतारकथामाद्यां मायामत्स्यविडम्बनम् ॥ १ ॥
यदर्थमदधाद् रूपं मात्स्यं लोकजुगुप्सितम् ।
तमःप्रकृतिदुर्मर्षं कर्मग्रस्त इवेश्वरः ॥ २ ॥
एतन्नो भगवन्सर्वं यथावद्वक्तुमर्हसि ।
उत्तमश्लोकचरितं सर्वलोकसुखावहम् ॥ ३ ॥
श्रीसूत उवाच -
इत्युक्तो विष्णुरातेन भगवान् बान्बादरायणिः ।
उवाच चरितं विष्णोः मत्स्यरूपेण यत्कृतम् ॥ ४ ॥
राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवान् के कर्म बड़े अद्भुत हैं। उन्होंने एक बार अपनी योगमाया से
मत्स्यावतार धारण करके बड़ी सुन्दर लीला की थी, मैं उनके उसी आदि-अवतारकी कथा सुनना चाहता हूँ ॥ १ ॥ भगवन् ! मत्स्ययोनि एक तो
यों ही लोकनिन्दित है,
दूसरे तमोगुणी और असह्य परतन्त्रतासे युक्त भी है।
सर्वशक्तिमान् होनेपर भी भगवान्ने कर्मबन्धनमें बँधे हुए जीवकी तरह यह मत्स्यका
रूप क्यों धारण किया ?
॥ २ ॥ भगवन् ! महात्माओंके कीर्तनीय भगवान्का चरित्र समस्त
प्राणियोंको सुख देनेवाला है। आप कृपा करके उनकी वह सब लीला हमारे सामने
पूर्णरूपसे वर्णन कीजिये ॥ ३ ॥
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! जब राजा परीक्षित्ने भगवान् श्रीशुकदेवजीसे यह प्रश्र किया, तब उन्होंने विष्णुभगवान्का वह चरित्र, जो उन्होंने मत्स्यावतार धारण करके किया था, वर्णन किया ॥ ४ ॥
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से