शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

भगवान्‌ श्रीराम की लीलाओं का वर्णन

उपगीयमानचरितः शतधृत्यादिभिर्मुदा ।
गोमूत्रयावकं श्रुत्वा भ्रातरं वल्कलाम्बरम् ॥ ३४ ॥
महाकारुणिकोऽतप्यत् जटिलं स्थण्डिलेशयम् ।
भरतः प्राप्तमाकर्ण्य पौरामात्यपुरोहितैः ॥ ३५ ॥
पादुके शिरसि न्यस्य रामं प्रत्युद्यतोऽग्रजम् ।
नन्दिग्रामात् स्वशिबिराद् गीतवादित्रनिःस्वनैः ॥ ३६ ॥
ब्रह्मघोषेण च मुहुः पठद्‌भिः ब्रह्मवादिभिः ।
स्वर्णकक्षपताकाभिः हैमैश्चित्रध्वजै रथैः ॥ ३७ ॥
सदश्वै रुक्मसन्नाहैः भटैः पुरटवर्मभिः ।
श्रेणीभिर्वारमुख्याभिः भृत्यैश्चैव पदानुगैः ॥ ३८ ॥
पारमेष्ठ्यान्युपादाय पण्यान्युच्चावचानि च ।
पादयोर्न्यपतत् प्रेम्णा प्रक्लिन्नहृदयेक्षणः ॥ ३९ ॥
पादुके न्यस्य पुरतः प्राञ्जलिर्बाष्पलोचनः ।
तमाश्लिष्य चिरं दोर्भ्यां स्नापयन् नेत्रजैर्जलैः ॥ ४० ॥
रामो लक्ष्मणसीताभ्यां विप्रेभ्यो येऽर्हसत्तमाः ।
तेभ्यः स्वयं नमश्चक्रे प्रजाभिश्च नमस्कृतः ॥ ४१ ॥
धुन्वन्त उत्तरासङ्‌गान् पतिं वीक्ष्य चिरागतम् ।
उत्तराः कोसला माल्यैः किरन्तो ननृतुर्मुदा ॥ ४२ ॥
पादुके भरतोऽगृह्णात् चामरव्यजनोत्तमे ।
विभीषणः ससुग्रीवः श्वेतच्छत्रं मरुत्सुतः ॥ ४३ ॥
धनुर्निषङ्‌गान् शत्रुघ्नः सीता तीर्थकमण्डलुम् ।
अबिभ्रदङ्‌गदः खड्गं हैमं चर्मर्क्षराण् नृप ॥ ४४ ॥
पुष्पकस्थोऽन्वितः स्त्रीभिः स्तूयमानश्च वन्दिभिः ।
विरेजे भगवान् राजन् ग्रहैश्चन्द्र इवोदितः ॥ ४५ ॥

इधर तो ब्रह्मा आदि बड़े आनन्द से भगवान्‌ की लीलाओं का गान कर रहे थे और उधर जब भगवान्‌ को यह मालूम हुआ कि भरतजी केवल गोमूत्र में पकाया हुआ जौका दलिया खाते हैं, वल्कल पहनते हैं और पृथ्वीपर डाभ बिछाकर सोते हैं एवं उन्होंने जटाएँ बढ़ा रखी हैं, तब वे बहुत दुखी हुए। उनकी दशाका स्मरण कर परम करुणाशील भगवान्‌ का हृदय भर आया। जब भरतको मालूम हुआ कि मेरे बड़े भाई भगवान्‌ श्रीरामजी आ रहे हैं, तब वे पुरवासी, मन्त्री और पुरोहितोंको साथ लेकर एवं भगवान्‌ की पादुकाएँ सिरपर रखकर उनकी अगवानीके लिये चले। जब भरतजी अपने रहनेके स्थान नन्दिग्राम से चले, तब लोग उनके साथ-साथ मङ्गलगान करते, बाजे बजाते चलने लगे। वेदवादी ब्राह्मण बार-बार वेदमन्त्रोंका उच्चारण करने लगे और उसकी ध्वनि चारों ओर गूँजने लगी। सुनहरी कामदार पताकाएँ फहराने लगीं। सोनेसे मढ़े हुए तथा रंग-बिरंगी ध्वजाओंसे सजे हुए रथ, सुनहले साजसे सजाये हुए सुन्दर घोड़े तथा सोनेके कवच पहने हुए सैनिक उनके साथ-साथ चलने लगे। सेठ-साहूकार, श्रेष्ठ वाराङ्गनाएँ, पैदल चलनेवाले सेवक और महाराजाओंके योग्य छोटी-बड़ी सभी वस्तुएँ उनके साथ चल रही थीं। भगवान्‌को देखते ही प्रेमके उद्रेकसे भरतजीका हृदय गद्गद हो गया, नेत्रोंमें आँसू छलक आये, वे भगवान्‌के चरणोंपर गिर पड़े ॥ ३४३९ ॥ उन्होंने प्रभुके सामने उनकी पादुकाएँ रख दीं और हाथ जोडक़र खड़े हो गये। नेत्रोंसे आँसूकी धारा बहती जा रही थी। भगवान्‌ने अपने दोनों हाथोंसे पकडक़र बहुत देरतक भरतजीको हृदयसे लगाये रखा। भगवान्‌के नेत्रजलसे भरतजीका स्नान हो गया ॥ ४० ॥ इसके बाद सीताजी और लक्ष्मणजीके साथ भगवान्‌ श्रीरामजीने ब्राह्मण और पूजनीय गुरुजनों को नमस्कार किया तथा सारी प्रजा ने बड़े प्रेमसे सिर झुकाकर भगवान्‌ के चरणों में प्रणाम किया ॥ ४१ ॥ उस समय उत्तरकोसल देश की रहनेवाली समस्त प्रजा अपने स्वामी भगवान्‌ को बहुत दिनों के बाद आये देख अपने दुपट्टे हिला-हिलाकर पुष्पों की वर्षा करती हुई आनन्द से नाचने लगी ॥ ४२ ॥ भरतजी ने भगवान्‌ की पादुकाएँ लीं, विभीषणने श्रेष्ठ चँवर, सुग्रीव ने पंखा और श्रीहनूमान् जी ने श्वेत छत्र ग्रहण किया ॥ ४३ ॥ परीक्षित्‌ ! शत्रुघ्न जी ने धनुष और तरकस, सीताजी ने तीर्थों के जल से भरा कमण्डलु, अंगद ने सोने का खड्ग और जाम्बवान् ने  ढाल ले ली ॥ ४४ ॥ इन लोगों के साथ भगवान्‌ पुष्पक विमानपर विराजमान हो गये, चारों तरफ यथास्थान स्त्रियाँ बैठ गयीं, वन्दीजन स्तुति करने लगे। उस समय पुष्पक विमान पर भगवान्‌ श्रीराम की ऐसी शोभा हुई, मानो ग्रहों के साथ चन्द्रमा उदय हो रहे हों॥४५॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

भगवान्‌ श्रीराम की लीलाओं का वर्णन

श्रीशुक उवाच ।
स्वानां विभीषणश्चक्रे कोसलेन्द्रानुमोदितः ।
पितृमेधविधानेन यदुक्तं सांपरायिकम् ॥ २९ ॥
ततो ददर्श भगवान् अशोकवनिकाश्रमे ।
क्षामां स्वविरहव्याधिं शिंशपामूलमास्थिताम् ॥ ३० ॥
रामः प्रियतमां भार्यां दीनां वीक्ष्यान्वकंपत ।
आत्मसंदर्शनाह्लाद विकसन् मुखपंकजाम् ॥ ३१ ॥
आरोप्यारुरुहे यानं भ्रातृभ्यां हनुमद्युतः ।
विभीषणाय भगवान् दत्त्वा रक्षोगणेशताम् ॥ ३२ ॥
लंकामायुश्च कल्पान्तं ययौ चीर्णव्रतः पुरीम् ।
अवकीर्यमाणः कुसुमैः लोकपालार्पितैः पथि ॥ ३३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! कोसलाधीश भगवान्‌ श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञासे विभीषण ने अपने स्वजन-सम्बन्धियों का पितृयज्ञ की विधि से शास्त्रके अनुसार अन्त्येष्टिकर्म किया ॥ २९ ॥ इसके बाद भगवान्‌ श्रीराम ने अशोकवाटिका के आश्रममें अशोकवृक्षके नीचे बैठी हुई श्रीसीताजी को देखा। वे उन्हींके विरहकी व्याधिसे पीडि़त एवं अत्यन्त दुर्बल हो रही थीं ॥ ३० ॥ अपनी प्राणप्रिया अर्धाङ्गिनी श्रीसीताजी को अत्यन्त दीन-अवस्थामें देखकर श्रीरामका हृदय प्रेम और कृपासे भर आया। इधर भगवान्‌ का दर्शन पाकर सीताजीका हृदय प्रेम और आनन्दसे परिपूर्ण हो गया, उनका मुखकमल खिल उठा ॥ ३१ ॥ भगवान्‌ ने विभीषण को राक्षसोंका स्वामित्व, लङ्कापुरीका राज्य और एक कल्पकी आयु दी और इसके बाद पहले सीताजीको विमानपर बैठाकर अपने दोनों भाई लक्ष्मण तथा सुग्रीव एवं सेवक हनूमान् जी के साथ स्वयं भी विमानपर सवार हुए। इस प्रकार चौदह वर्षका व्रत पूरा हो जानेपर उन्होंने अपने नगरकी यात्रा की। उस समय मार्गमें ब्रह्मा आदि लोकपालगण उनपर बड़े प्रेमसे पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे ॥ ३२-३३ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

भगवान्‌ श्रीराम की लीलाओं का वर्णन

ततो निष्क्रम्य लंकाया यातुधान्यः सहस्रशः ।
मन्दोदर्या समं तस्मिन् प्ररुदन्त्य उपाद्रवन् ॥ २४ ॥
स्वान् स्वान् बन्धून् परिष्वज्य लक्ष्मणेषुभिरर्दितान् ।
रुरुदुः सुस्वरं दीना घ्नन्त्य आत्मानमात्मना ॥ २५ ॥
हा हताः स्म वयं नाथ लोकरावण रावण ।
कं यायाच्छरणं लंका त्वद्विहीना परार्दिता ॥ २६ ॥
न वै वेद महाभाग भवान् कामवशं गतः ।
तेजोऽनुभावं सीताया येन नीतो दशामिमाम् ॥ २७ ॥
कृतैषा विधवा लंका वयं च कुलनन्दन ।
देहः कृतोऽन्नं गृध्राणां आत्मा नरकहेतवे ॥ २८ ॥

तदनन्तर हजारों राक्षसियाँ मन्दोदरीके साथ रोती हुर्ई लङ्कासे निकल पड़ीं और रणभूमिमें आयीं ॥ २४ ॥ उन्होंने देखा कि उनके स्वजन-सम्बन्धी लक्ष्मणजीके बाणोंसे छिन्न-भिन्न होकर पड़े हुए हैं। वे अपने हाथों अपनी छाती पीट-पीटकर और अपने सगे-सम्बन्धियोंको हृदयसे लगा- लगाकर ऊँचे स्वरसे विलाप करने लगीं ॥ २५ ॥ हाय-हाय ! स्वामी ! आज हम सब बेमौत मारी गयीं। एक दिन वह था, जब आपके भयसे समस्त लोकोंमें त्राहि-त्राहि मच जाती थी। आज वह दिन आ पहुँचा कि आपके न रहनेसे हमारे शत्रु लङ्काकी दुर्दशा कर रहे हैं और यह प्रश्न उठ रहा है कि अब लङ्का किसके अधीन रहेगी ॥ २६ ॥ आप सब प्रकारसे सम्पन्न थे, किसी भी बातकी कमी न थी। परंतु आप कामके वश हो गये और यह नहीं सोचा कि सीताजी कितनी तेजस्विनी हैं और उनका कितना प्रभाव है। आपकी यही भूल आपकी इस दुर्दशाका कारण बन गयी ॥ २७ ॥ कभी आपके कामोंसे हम सब और समस्त राक्षसवंश आनन्दित होता था और आज हम सब तथा यह सारी लङ्का नगरी विधवा हो गयी। आपका वह शरीर, जिसके लिये आपने सब कुछ कर डाला, आज गीधोंका आहार बन रहा है और अपने आत्मा को आपने नरक का अधिकारी बना डाला। यह सब आपकी ही नासमझी और कामुकताका फल है ॥ २८ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




बुधवार, 18 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

भगवान्‌ श्रीराम की लीलाओं का वर्णन

रक्षःपतिः स्वबलनष्टिमवेक्ष्य रुष्ट ।
आरुह्य यानकमथाभिससार रामम् ॥
स्वःस्यन्दने द्युमति मातलिनोपनीते ।
विभ्राजमानमहनन्निशितैः क्षुरप्रैः ॥ २१ ॥
रामस्तमाह पुरुषादपुरीष यन्नः ।
कान्तासमक्षमसतापहृता श्ववत् ते ॥
त्यक्तत्रपस्य फलमद्य जुगुप्सितस्य ।
यच्छामि काल इव कर्तुरलंघ्यवीर्यः ॥ २२ ॥
एवं क्षिपन्धनुषि संधितमुत्ससर्ज ।
बाणं स वज्रमिव तद्‌हृदयं बिभेद ॥
सोऽसृग् वमन् दशमुखैर्न्यपतद् विमानाद् ।
हाहेति जल्पति जने सुकृतीव रिक्तः ॥ २३ ॥

जब राक्षसराज रावणने देखा कि मेरी सेनाका तो नाश हुआ जा रहा है, तब वह क्रोध में भरकर पुष्पक विमानपर आरूढ़ हो भगवान्‌ श्रीरामके सामने आया। उस समय इन्द्रका सारथि मातलि बड़ा ही तेजस्वी दिव्य रथ लेकर आया और उसपर भगवान्‌ श्रीरामजी विराजमान हुए। रावण अपने तीखे बाणों से उनपर प्रहार करने लगा ॥ २१ ॥ भगवान्‌ श्रीरामजी ने रावण से कहा—‘नीच राक्षस ! तुम कुत्तेकी तरह हमारी अनुपस्थितिमें हमारी प्राणप्रिया पत्नीको हर लाये। तुमने दुष्टताकी हद कर दी ! तुम्हारे-जैसा निर्लज्ज तथा निन्दनीय और कौन होगा। जैसे कालको कोई टाल नहीं सकताकर्तापनके अभिमानीको वह फल दिये बिना रह नहीं सकता, वैसे ही आज मैं तुम्हें तुम्हारी करनीका फल चखाता हूँ॥ २२ ॥ इस प्रकार रावणको फटकारते हुए भगवान्‌ श्रीरामने अपने धनुषपर चढ़ाया हुआ बाण उसपर छोड़ा। उस बाणने वज्रके समान उसके हृदयको विदीर्ण कर दिया। वह अपने दसों मुखोंसे खून उगलता हुआ विमानसे गिर पड़ाठीक वैसे ही, जैसे पुण्यात्मालोग भोग समाप्त होनेपर स्वर्गसे गिर पड़ते हैं। उस समय उसके पुरजन-परिजन हाय-हायकरके चिल्लाने लगे ॥ २३ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

भगवान्‌ श्रीराम की लीलाओं का वर्णन

बद्ध्वोदधौ रघुपतिर्विविधाद्रिकूटैः ।
सेतुं कपीन्द्रकरकम्पितभूरुहाङ्‌गैः ॥
सुग्रीवनीलहनुमत् प्रमुखैरनीकैः ।
लङ्‌कां विभीषणदृशाविशदग्रदग्धाम् ॥ १६ ॥
सा वानरेन्द्रबलरुद्धविहारकोष्ठ ।
श्रीद्वारगोपुरसदोवलभीविटङ्‌का ॥
निर्भज्यमानधिषणध्वजहेमकुम्भ ।
श्रृङ्‌गाटका गजकुलैर्ह्रदिनीव घूर्णा ॥ १७ ॥
रक्षःपतिस्तदवलोक्य निकुम्भकुम्भ ।
धूम्राक्ष दुर्मुख सुरान्तनरान्तकादीन् ॥
पुत्रं प्रहस्त मतिकाय विकम्पनादीन् ।
सर्वानुगान् समहिनोदथ कुम्भकर्णम् ॥ १८ ॥
तां यातुधानपृतनामसिशूलचाप ।
प्रासर्ष्टिशक्तिशरतोमर खड्गदुर्गाम् ॥
सुग्रीवलक्ष्मण मरुत्सुतगन्धमाद ।
नीलाङ्‌गदर्क्षपनसादिभिः अन्वितोऽगात् ॥ १९ ॥
तेऽनीकपा रघुपतेरभिपत्य सर्वे ।
द्वन्द्वं वरूथमिभपत्तिरथाश्वयोधैः ॥
जघ्नुर्द्रुमैः गिरिगदेषुभिरङ्‌गदाद्याः ।
सीताभिमर्षहतमङ्‌गल रावणेशान् ॥ २० ॥

भगवान्‌ श्रीरामजी ने अनेकानेक पर्वतोंके शिखरोंसे समुद्रपर पुल बाँधा। जब बड़े-बड़े बन्दर अपने हाथोंसे पर्वत उठा-उठाकर लाते थे, तब उनके वृक्ष और बड़ी-बड़ी चट्टानें थर-थर काँपने लगती थीं। इसके बाद विभीषणकी सलाहसे भगवान्‌ने सुग्रीव, नील, हनूमान् आदि प्रमुख वीरों और वानरीसेना के साथ लङ्का में प्रवेश किया। वह तो श्रीहनूमान्जीके द्वारा पहले ही जलायी जा चुकी थी ॥ १६ ॥ उस समय वानरराजकी सेनाने लङ्काके सैर करने और खेलनेके स्थान, अन्नके गोदाम, खजाने, दरवाजे, फाटक, सभाभवन, छज्जे और पक्षियों के रहने के स्थान तक को घेर लिया। उन्होंने वहाँकी वेदी, ध्वजाएँ, सोनेके कलश और चौराहे तोड़-फोड़ डाले। उस समय लङ्का ऐसी मालूम पड़ रही थी, जैसे झुंड-के-झुंड हाथियोंने किसी नदीको मथ डाला हो ॥ १७ ॥ यह देखकर राक्षसराज रावणने निकुम्भ, कुम्भ, धूम्राक्ष, दुर्मुख, सुरान्तक, नरान्तक, प्रहस्त, अतिकाय, विकम्पन आदि अपने सब अनुचरों, पुत्र मेघनाद और अन्तमें भाई कुम्भकर्णको भी युद्ध करनेके लिये भेजा ॥ १८ ॥ राक्षसोंकी वह विशाल सेना तलवार, त्रिशूल, धनुष, प्रास, ऋष्टि, शक्ति, बाण, भाले, खड्ग आदि शस्त्र-अस्त्रसे सुरक्षित और अत्यन्त दुर्गम थी। भगवान्‌ श्रीरामने सुग्रीव, लक्ष्मण, हनूमान्, गन्ध-मादन, नील, अंगद, जाम्बवान् और पनस आदि वीरोंको अपने साथ लेकर राक्षसोंकी सेनाका सामना किया ॥ १९ ॥ रघुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीरामके अंगद आदि सब सेनापति राक्षसोंकी चतुरङ्गिणी सेनाहाथी, रथ, घुड़सवार और पैदलोंके साथ द्वन्द्वयुद्धकी रीतिसे भिड़ गये और राक्षसोंको वृक्ष, पर्वतशिखर, गदा और बाणोंसे मारने लगे। उनका मारा जाना तो स्वाभाविक ही था। क्योंकि वे उसी रावणके अनुचर थे, जिसका मङ्गल श्रीसीताजीको स्पर्श करनेके कारण पहले ही नष्ट हो चुका था ॥ २० ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌ श्रीराम की लीलाओं का वर्णन

दग्ध्वाऽऽत्मकृत्यहतकृत्यमहन् कबन्धं ।
सख्यं विधाय कपिभिर्दयितागतिं तैः ॥
बुद्ध्वाथ वालिनि हते प्लवगेन्द्रसैन्यैः ।
वेलामगात् स मनुजोऽजभवार्चिताङ्‌घ्रि ॥ १२ ॥
यद्रोषविभ्रमविवृत्तकटाक्षपात ।
सम्भ्रान्तनक्रमकरो भयगीर्णघोषः ॥
सिन्धुः शिरस्यर्हणं परिगृह्य रूपी ।
पादारविन्दमुपगम्य बभाष एतत् ॥ १३ ॥
न त्वां वयं जडधियो नु विदाम भूमन् ।
कूटस्थमादिपुरुषं जगतामधीशम् ॥
यत्सत्त्वतः सुरगणा रजसः प्रजेशा ।
मन्योश्च भूतपतयः स भवान्गुणेशः ॥ १४ ॥
कामं प्रयाहि जहि विश्रवसोऽवमेहं ।
त्रैलोक्य रावणमवाप्नुहि वीर पत्‍नीम् ॥
बध्नीहि सेतुमिह ते यशसो वितत्यै ।
गायन्ति दिग्विजयिनो यमुपेत्य भूपाः ॥ १५ ॥

इसके बाद भगवान्‌ ने उस जटायुका दाह-संस्कार किया, जिसके सारे कर्मबन्धन भगवत्सेवारूप कर्मसे पहले ही भस्म हो चुके थे। फिर भगवान्‌ ने कबन्ध का संहार किया और इसके अनन्तर सुग्रीव आदि वानरोंसे मित्रता करके वालिका वध किया, तदनन्तर वानरोंके द्वारा अपनी प्राणप्रिया का पता लगवाया। ब्रह्मा और शङ्कर जिनके चरणोंकी वन्दना करते हैं, वे भगवान्‌ श्रीराम मनुष्यकी-सी लीला करते हुए बंदरोंकी सेनाके साथ समुद्रतटपर पहुँचे ॥ १२ ॥ (वहाँ उपवास और प्रार्थनासे जब समुद्रपर कोई प्रभाव न पड़ा, तब) भगवान्‌ ने क्रोधकी लीला करते हुए अपनी उग्र एवं टेढ़ी नजर समुद्रपर डाली। उसी समय समुद्रके बड़े-बड़े मगर और कच्छ खलबला उठे। डर जानेके कारण समुद्रकी सारी गर्जना शान्त हो गयी। तब समुद्र शरीरधारी बनकर और अपने सिरपर बहुत-सी भेंटें लेकर भगवान्‌ के चरणकमलों की शरणमें आया और इस प्रकार कहने लगा ॥ १३ ॥ अनन्त ! हम मूर्ख हैं; इसलिये आपके वास्तविक स्वरूपको नहीं जानते। जानें भी कैसे ? आप समस्त जगत् के एकमात्र स्वामी, आदिकारण एवं जगत्के समस्त परिवर्तनों में एकरस रहनेवाले हैं। आप समस्त गुणों के स्वामी हैं । इसलिये जब आप सत्त्वगुण को स्वीकार कर लेते हैं तब देवताओं की, रजोगुण को स्वीकार कर लेते हैं तब प्रजापतियों की और तमोगुण को स्वीकार कर लेते हैं तब आप के क्रोध से रुद्रगण की उत्पत्ति होती है ॥ १४ ॥ वीरशिरोमणे ! आप अपनी इच्छा के अनुसार मुझे पार कर जाइये और त्रिलोकी को रुलानेवाले विश्रवा के कुपूत रावण को मारकर अपनी पत्नी को फिर से प्राप्त कीजिये। परंतु आपसे मेरी एक प्रार्थना है। आप यहाँ मुझपर एक पुल बाँध दीजिये। इससे आप के यश का विस्तार होगा और आगे चलकर जब बड़े-बड़े नरपति दिग्विजय करते हुए यहाँ आयेंगे, तब वे आपके यश का गान करेंगे ॥ १५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

भगवान्‌ श्रीराम की लीलाओं का वर्णन

रक्षःस्वसुर्व्यकृत रूपमशुद्धबुद्धेः ।
तस्याः खरत्रिशिरदूषणमुख्यबन्धून् ॥
जघ्ने चतुर्दशसहस्रमपारणीय ।
कोदण्डपाणिरटमान उवास कृच्छ्रम् ॥ ९ ॥
सीताकथाश्रवणदीपितहृच्छयेन ।
सृष्टं विलोक्य नृपते दशकन्धरेण ॥
जघ्नेऽद्‍भुतैण वपुषाऽऽश्रमतोऽपकृष्टो ।
मारीचमाशु विशिखेन यथा कमुग्रः ॥ १० ॥
रक्षोऽधमेन वृकवद् विपिनेऽसमक्षं ।
वैदेहराजदुहितर्यपयापितायाम् ॥
भ्रात्रा वने कृपणवत्प्रियया वियुक्तः ।
स्त्रीसङ्‌गिनां गतिमिति प्रथयंश्चचार ॥ ११ ॥

वन में पहुँचकर भगवान्‌ ने राक्षसराज रावणकी बहिन शूर्पणखा को विरूप कर दिया। क्योंकि उसकी बुद्धि बहुत ही कलुषित, कामवासनाके कारण अशुद्ध थी। उसके पक्षपाती खर, दूषण, त्रिशिरा आदि प्रधान-प्रधान भाइयोंकोजो संख्यामें चौदह हजार थेहाथमें महान् धनुष लेकर भगवान्‌ श्रीरामने नष्ट कर डाला, और अनेक प्रकारकी कठिनाइयोंसे परिपूर्ण वनमें वे इधर-उधर विचरते हुए निवास करते रहे ॥ ९ ॥ परीक्षित्‌ ! जब रावणने सीताजीके रूप, गुण, सौन्दर्य आदिकी बात सुनी तो उसका हृदय कामवासनासे आतुर हो गया। उसने अद्भुत हरिनके वेषमें मारीच को उनकी पर्णकुटीके पास भेजा। वह धीरे-धीरे भगवान्‌को वहाँसे दूर ले गया। अन्तमें भगवान्‌ ने अपने बाणसे उसे बात-की-बातमें वैसे ही मार डाला, जैसे दक्षप्रजापतिको वीरभद्र ने मारा था ॥ १० ॥ जब भगवान्‌ श्रीराम जंगलमें दूर निकल गये, तब (लक्ष्मणकी अनुपस्थितिमें) नीच राक्षस रावणने भेडिय़ेके समान विदेहनन्दिनी सुकुमारी श्रीसीताजीको हर लिया। तदनन्तर वे अपनी प्राणप्रिया सीताजीसे बिछुडक़र अपने भाई लक्ष्मणके साथ वन-वनमें दीनकी भाँति घूमने लगे। और इस प्रकार उन्होंने यह शिक्षा दी कि जो स्त्रियोंमें आसक्ति रखते हैं, उनकी यही गति होती है॥ ११ ॥

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सोमवार, 16 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

भगवान्‌ श्रीराम की लीलाओं का वर्णन

विश्वामित्राध्वरे येन मारीचाद्या निशाचराः ।
पश्यतो लक्ष्मणस्यैव हता नैर्‌ऋतपुंगवाः ॥ ५ ॥
यो लोकवीरसमितौ धनुरैशमुग्रं
सीतास्वयंवरगृहे त्रिशतोपनीतम् ॥
आदाय बालगजलील इवेक्षुयष्टिं
सज्ज्यीकृतं नृप विकृष्य बभञ्ज मध्ये ॥ ६ ॥
जित्वानुरूपगुणशीलवयोऽङ्‌गरूपां ।
सीताभिधां श्रियमुरस्यभिलब्धमानाम् ॥
मार्गे व्रजन् भृगुपतेर्व्यनयत् प्ररूढं ।
दर्पं महीमकृत यस्त्रिरराजबीजाम् ॥ ७ ॥
यः सत्यपाशपरिवीतपितुर्निदेशं ।
स्त्रैणस्य चापि शिरसा जगृहे सभार्यः ॥
राज्यं श्रियं प्रणयिनः सुहृदो निवासं ।
त्यक्त्वा ययौ वनमसूनिव मुक्तसङ्‌गः ॥ ८ ॥

भगवान्‌ श्रीराम ने विश्वामित्र के यज्ञमें लक्ष्मण के सामने ही मारीच आदि राक्षसोंको मार डाला। वे सब बड़े-बड़े राक्षसोंकी गिनतीमें थे ॥ ५ ॥ परीक्षित्‌ ! जनकपुरमें सीताजीका स्वयंवर हो रहा था। संसारके चुने हुए वीरोंकी सभामें भगवान्‌ शङ्करका वह भयङ्कर धनुष रखा हुआ था। वह इतना भारी था कि तीन सौ वीर बड़ी कठिनाईसे उसे स्वयंवरसभामें ला सके थे। भगवान्‌ श्रीरामने उस धनुषको बात-की-बातमें उठाकर उसपर डोरी चढ़ा दी और खींचकर बीचोबीचसे उसके दो टुकड़े कर दियेठीक वैसे ही, जैसे हाथीका बच्चा खेलते-खेलते ईख तोड़ डाले ॥ ६ ॥ भगवान्‌ने जिन्हें अपने वक्ष:स्थलपर स्थान देकर सम्मानित किया है, वे श्रीलक्ष्मीजी ही सीताके नामसे जनकपुरमें अवतीर्ण हुई थीं। वे गुण, शील, अवस्था, शरीरकी गठन और सौन्दर्यमें सर्वथा भगवान्‌ श्रीरामके अनुरूप थीं। भगवान्‌ ने धनुष तोडक़र उन्हें प्राप्त कर लिया। अयोध्याको लौटते समय मार्गमें उन परशुरामजी से भेंट हुई, जिन्होंने इक्कीस बार पृथ्वीको राजवंश के बीज से भी रहित कर दिया था। भगवान्‌ ने उनके बढ़े हुए गर्वको नष्ट कर दिया ॥ ७ ॥ इसके बाद पिताके वचन को सत्य करने के लिये उन्होंने वनवास स्वीकार किया। यद्यपि महाराज दशरथ ने अपनी पत्नी के अधीन होकर ही उसे वैसा वचन दिया था फिर भी वे सत्यके बन्धन में बँध गये थे। इसलिये भगवान्‌ ने अपने पिताकी आज्ञा शिरोधार्य कर राज्य, लक्ष्मी, प्रेमी, हितैषी, मित्र और महलों को वैसे ही छोडक़र अपनी पत्नीके साथ यात्रा की, जैसे मुक्तसंग योगी प्राणों को छोड़ देता है। ॥ ८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

भगवान्‌ श्रीराम की लीलाओं का वर्णन

श्रीशुक उवाच ।
खट्वांगाद् दीर्घबाहुश्च रघुस्तस्मात् पृथुश्रवाः ।
अजस्ततो महाराजः तस्मात् दशरथोऽभवत् ॥ १ ॥
तस्यापि भगवान् एष साक्षाद् ब्रह्ममयो हरिः ।
अंशांशेन चतुर्धागात् पुत्रत्वं प्रार्थितः सुरैः ।
रामलक्ष्मणभरत शत्रुघ्ना इति संज्ञया ॥ २ ॥
तस्यानुचरितं राजन् ऋषिभिः तत्त्वदर्शिभिः ।
श्रुतं हि वर्णितं भूरि त्वया सीतापतेर्मुहुः ॥ ३ ॥
गुर्वर्थे त्यक्तराज्यो व्यचरदनुवनं
पद्मपद्‍भ्यां प्रियायाः ।
पाणिस्पर्शाक्षमाभ्यां मृजितपथरुजो
यो हरीन्द्रानुजाभ्याम् ।
वैरूप्यात् शूर्पणख्याः प्रियविरहरुषा-
ऽऽरोपितभ्रूविजृम्भ-
त्रस्ताब्धिर्बद्धसेतुः खलदवदहनः
कोसलेन्द्रोऽवतान्नः ॥ ४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! खट्वाङ्ग के पुत्र दीर्घबाहु और दीर्घबाहु के परम यशस्वी पुत्र रघु हुए। रघु के अज और अज के पुत्र महाराज दशरथ हुए ॥ १ ॥ देवताओं की प्रार्थना से साक्षात् परब्रह्म परमात्मा भगवान्‌ श्रीहरि ही अपने अंशांश से चार रूप धारण करके राजा दशरथ के पुत्र हुए। उनके नाम थेराम, लक्ष्मण, भरत, और शत्रुघ्न ॥ २ ॥ परीक्षित्‌ ! सीतापति भगवान्‌ श्रीरामका चरित्र तो तत्त्वदर्शी ऋषियोंने बहुत कुछ वर्णन किया है और तुमने अनेक बार उसे सुना भी है ॥ ३ ॥
भगवान्‌ श्रीराम ने अपने पिता राजा दशरथके सत्यकी रक्षाके लिये राजपाट छोड़ दिया और वे वन-वनमें फिरते रहे। उनके चरणकमल इतने सुकुमार थे कि परम सुकुमारी श्रीजानकीजीके करकमलोंका स्पर्श भी उनसे सहन नहीं होता था। वे ही चरण जब वनमें चलते-चलते थक जाते, तब हनूमान् और लक्ष्मण उन्हें दबा-दबाकर उनकी थकावट मिटाते। शूर्पणखाको नाक-कान काटकर विरूप कर देनेके कारण उन्हें अपनी प्रियतमा श्रीजानकीजीका वियोग भी सहना पड़ा। इस वियोगके कारण क्रोधवश उनकी भौंहें तन गयीं, जिन्हें देखकर समुद्रतक भयभीत हो गया। इसके बाद उन्होंने समुद्रपर पुल बाँधा और लङ्कामें जाकर दुष्ट राक्षसोंके जंगलको दावाग्नि के समान दग्ध कर दिया। वे कोसलनरेश हमारी रक्षा करें ॥ ४ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...