॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)
भगवान् श्रीराम की लीलाओं का
वर्णन
उपगीयमानचरितः शतधृत्यादिभिर्मुदा ।
गोमूत्रयावकं श्रुत्वा भ्रातरं वल्कलाम्बरम् ॥ ३४ ॥
महाकारुणिकोऽतप्यत् जटिलं स्थण्डिलेशयम् ।
भरतः प्राप्तमाकर्ण्य पौरामात्यपुरोहितैः ॥ ३५ ॥
पादुके शिरसि न्यस्य रामं प्रत्युद्यतोऽग्रजम् ।
नन्दिग्रामात् स्वशिबिराद् गीतवादित्रनिःस्वनैः ॥ ३६ ॥
ब्रह्मघोषेण च मुहुः पठद्भिः ब्रह्मवादिभिः ।
स्वर्णकक्षपताकाभिः हैमैश्चित्रध्वजै रथैः ॥ ३७ ॥
सदश्वै रुक्मसन्नाहैः भटैः पुरटवर्मभिः ।
श्रेणीभिर्वारमुख्याभिः भृत्यैश्चैव पदानुगैः ॥ ३८ ॥
पारमेष्ठ्यान्युपादाय पण्यान्युच्चावचानि च ।
पादयोर्न्यपतत् प्रेम्णा प्रक्लिन्नहृदयेक्षणः ॥ ३९ ॥
पादुके न्यस्य पुरतः प्राञ्जलिर्बाष्पलोचनः ।
तमाश्लिष्य चिरं दोर्भ्यां स्नापयन् नेत्रजैर्जलैः ॥ ४० ॥
रामो लक्ष्मणसीताभ्यां विप्रेभ्यो येऽर्हसत्तमाः ।
तेभ्यः स्वयं नमश्चक्रे प्रजाभिश्च नमस्कृतः ॥ ४१ ॥
धुन्वन्त उत्तरासङ्गान् पतिं वीक्ष्य चिरागतम् ।
उत्तराः कोसला माल्यैः किरन्तो ननृतुर्मुदा ॥ ४२ ॥
पादुके भरतोऽगृह्णात् चामरव्यजनोत्तमे ।
विभीषणः ससुग्रीवः श्वेतच्छत्रं मरुत्सुतः ॥ ४३ ॥
धनुर्निषङ्गान् शत्रुघ्नः सीता तीर्थकमण्डलुम् ।
अबिभ्रदङ्गदः खड्गं हैमं चर्मर्क्षराण् नृप ॥ ४४ ॥
पुष्पकस्थोऽन्वितः स्त्रीभिः स्तूयमानश्च वन्दिभिः ।
विरेजे भगवान् राजन् ग्रहैश्चन्द्र इवोदितः ॥ ४५ ॥
इधर तो ब्रह्मा आदि बड़े आनन्द से भगवान् की लीलाओं का गान कर रहे थे और उधर जब भगवान् को यह मालूम हुआ कि भरतजी केवल गोमूत्र में पकाया हुआ जौका दलिया खाते हैं, वल्कल पहनते हैं और पृथ्वीपर डाभ बिछाकर सोते हैं एवं उन्होंने जटाएँ बढ़ा रखी हैं, तब वे बहुत दुखी हुए। उनकी दशाका स्मरण कर परम करुणाशील भगवान् का हृदय भर आया। जब भरतको मालूम हुआ कि मेरे बड़े भाई भगवान् श्रीरामजी आ रहे हैं, तब वे पुरवासी, मन्त्री और पुरोहितोंको साथ लेकर एवं भगवान् की पादुकाएँ सिरपर रखकर उनकी अगवानीके लिये चले। जब भरतजी अपने रहनेके स्थान नन्दिग्राम से चले, तब लोग उनके साथ-साथ मङ्गलगान करते, बाजे बजाते चलने लगे। वेदवादी ब्राह्मण बार-बार वेदमन्त्रोंका उच्चारण करने लगे और उसकी ध्वनि चारों ओर गूँजने लगी। सुनहरी कामदार पताकाएँ फहराने लगीं। सोनेसे मढ़े हुए तथा रंग-बिरंगी ध्वजाओंसे सजे हुए रथ, सुनहले साजसे सजाये हुए सुन्दर घोड़े तथा सोनेके कवच पहने हुए सैनिक उनके साथ-साथ चलने लगे। सेठ-साहूकार, श्रेष्ठ वाराङ्गनाएँ, पैदल चलनेवाले सेवक और महाराजाओंके योग्य छोटी-बड़ी सभी वस्तुएँ उनके साथ चल रही थीं। भगवान्को देखते ही प्रेमके उद्रेकसे भरतजीका हृदय गद्गद हो गया, नेत्रोंमें आँसू छलक आये, वे भगवान्के चरणोंपर गिर पड़े ॥ ३४—३९ ॥ उन्होंने प्रभुके सामने उनकी पादुकाएँ रख दीं और हाथ जोडक़र खड़े हो गये। नेत्रोंसे आँसूकी धारा बहती जा रही थी। भगवान्ने अपने दोनों हाथोंसे पकडक़र बहुत देरतक भरतजीको हृदयसे लगाये रखा। भगवान्के नेत्रजलसे भरतजीका स्नान हो गया ॥ ४० ॥ इसके बाद सीताजी और लक्ष्मणजीके साथ भगवान् श्रीरामजीने ब्राह्मण और पूजनीय गुरुजनों को नमस्कार किया तथा सारी प्रजा ने बड़े प्रेमसे सिर झुकाकर भगवान् के चरणों में प्रणाम किया ॥ ४१ ॥ उस समय उत्तरकोसल देश की रहनेवाली समस्त प्रजा अपने स्वामी भगवान् को बहुत दिनों के बाद आये देख अपने दुपट्टे हिला-हिलाकर पुष्पों की वर्षा करती हुई आनन्द से नाचने लगी ॥ ४२ ॥ भरतजी ने भगवान् की पादुकाएँ लीं, विभीषणने श्रेष्ठ चँवर, सुग्रीव ने पंखा और श्रीहनूमान् जी ने श्वेत छत्र ग्रहण किया ॥ ४३ ॥ परीक्षित् ! शत्रुघ्न जी ने धनुष और तरकस, सीताजी ने तीर्थों के जल से भरा कमण्डलु, अंगद ने सोने का खड्ग और जाम्बवान् ने ढाल ले ली ॥ ४४ ॥ इन लोगों के साथ भगवान् पुष्पक विमानपर विराजमान हो गये, चारों तरफ यथास्थान स्त्रियाँ बैठ गयीं, वन्दीजन स्तुति करने लगे। उस समय पुष्पक विमान पर भगवान् श्रीराम की ऐसी शोभा हुई, मानो ग्रहों के साथ चन्द्रमा उदय हो रहे हों॥४५॥
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से