शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)



चन्द्रवंश का वर्णन


ततः पुरूरवा जज्ञे इलायां य उदाहृतः ।
तस्य रूपगुणौदार्य शीलद्रविणविक्रमान् ॥ १५ ॥
श्रुत्वोर्वशीन्द्रभवने गीयमानान् सुरर्षिणा ।
तदन्तिकमुपेयाय देवी स्मरशरार्दिता ॥ १६ ॥
मित्रावरुणयोः शापाद् आपन्ना नरलोकताम् ।

निशम्य पुरुषश्रेष्ठं कन्दर्पमिव रूपिणम् ।
धृतिं विष्टभ्य ललना उपतस्थे तदन्तिके ॥ १७ ॥
स तां विलोक्य नृपतिः हर्षेणोत्फुल्ललोचनः ।
उवाच श्लक्ष्णया वाचा देवीं हृष्टतनूरुहः ॥ १८ ॥

श्रीराजोवाच ।
स्वागतं ते वरारोहे आस्यतां करवाम किम् ।
संरमस्व मया साकं रतिर्नौ शाश्वतीः समाः ॥ १९ ।।


उर्वश्युवाच ।
कस्यास्त्वयि न सज्जेत मनो दृष्टिश्च सुन्दर ।
यदङ्‌गान्तरमासाद्य च्यवते ह रिरंसया ॥ २० ॥
एतौ उरणकौ राजन् न्यासौ रक्षस्व मानद ।
संरंस्ये भवता साकं श्लाघ्यः स्त्रीणां वरः स्मृतः ॥ २१ ॥
घृतं मे वीर भक्ष्यं स्यात् नेक्षे त्वान्यत्र मैथुनात् ।
विवाससं तत् तथेति प्रतिपेदे महामनाः ॥ २२ ॥
अहो रूपमहो भावो नरलोकविमोहनम् ।
को न सेवेत मनुजो देवीं त्वां स्वयमागताम् ॥ २३ ॥

परीक्षित्‌ ! बुध के द्वारा इला के गर्भ से पुरूरवा का जन्म हुआ। इसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ। एक दिन इन्द्रकी सभा में देवर्षि नारदजी पुरूरवा के रूप, गुण, उदारता, शील-स्वभाव, धन-सम्पत्ति और पराक्रमका गान कर रहे थे। उन्हें सुनकर उर्वशी के हृदयमें कामभावका उदय हो आया और उससे पीडि़त होकर वह देवाङ्गना पुरूरवाके पास चली आयी ॥ १५-१६ ॥ यद्यपि उर्वशीको मित्रावरुणके शापसे ही मृत्युलोकमें आना पड़ा था, फिर भी पुरुषशिरोमणि पुरूरवा मूर्तिमान् कामदेवके समान सुन्दर हैंयह सुनकर सुर-सुन्दरी उर्वशीने धैर्य धारण किया और वह उनके पास चली आयी ॥ १७ ॥ देवाङ्गना उर्वशीको देखकर राजा पुरूरवाके नेत्र हर्षसे खिल उठे। उनके शरीरमें रोमाञ्च हो आया। उन्होंने बड़ी मीठी वाणीसे कहा॥ १८ ॥
राजा पुरूरवाने कहासुन्दरी ! तुम्हारा स्वागत है। बैठो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ ? तुम मेरे साथ विहार करो और हम दोनोंका यह विहार अनन्त कालतक चलता रहे ॥ १९ ॥
उर्वशीने कहा—‘राजन् ! आप सौन्दर्यके मूर्तिमान् स्वरूप हैं। भला, ऐसी कौन कामिनी है जिसकी दृष्टि और मन आपमें आसक्त न हो जाय ? क्योंकि आपके समीप आकर मेरा मन रमणकी इच्छासे अपना धैर्य खो बैठा है ॥ २० ॥ राजन् ! जो पुरुष रूप-गुण आदिके कारण प्रशंसनीय होता है, वही स्त्रियोंको अभीष्ट होता है। अत: मैं आपके साथ अवश्य विहार करूँगी। परंतु मेरे प्रेमी महाराज ! मेरी एक शर्त है। मैं आपको धरोहरके रूपमें भेडक़े दो बच्चे सौंपती हूँ। आप इनकी रक्षा करना ॥ २१ ॥ वीरशिरोमणे ! मैं केवल घी खाऊँगी और मैथुन के अतिरिक्त और किसी भी समय आपको वस्त्रहीन न देख सकूँगी।परम मनस्वी पुरूवा ने ठीक हैऐसा कहकर उसकी शर्त स्वीकार कर ली ॥ २२ ॥ और फिर उर्वशीसे कहा—‘तुम्हारा यह सौन्दर्य अद्भुत है। तुम्हारा भाव अलौकिक है। यह तो सारी मनुष्यसृष्टिको मोहित करनेवाला है। और देवि ! कृपा करके तुम स्वयं यहाँ आयी हो। फिर कौन ऐसा मनुष्य है जो तुम्हारा सेवन न करेगा ? ॥ २३ ॥


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गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



चन्द्रवंश का वर्णन


निवेदितोऽथाङ्‌गिरसा सोमं निर्भर्त्स्य विश्वकृत् ।

तारां स्वभर्त्रे प्रायच्छद् अन्तर्वत्‍नीमवैत् पतिः ॥ ८ ॥

त्यज त्यजाशु दुष्प्रज्ञे मत्क्षेत्रात् आहितं परैः ।

नाहं त्वां भस्मसात्कुर्यां स्त्रियं सान्तानिकः सति ॥ ९ ॥

तत्याज व्रीडिता तारा कुमारं कनकप्रभम् ।

स्पृहामाङ्‌गिरसश्चक्रे कुमारे सोम एव च ॥ १० ॥

ममायं न तवेत्युच्चैः तस्मिन् विवदमानयोः ।

पप्रच्छुः ऋषयो देवा नैवोचे व्रीडिता तु सा ॥ ११ ॥

कुमारो मातरं प्राह कुपितोऽलीकलज्जया ।

किं न वोचस्यसद्‌वृत्ते आत्मावद्यं वदाशु मे ॥ १२ ॥

ब्रह्मा तां रह आहूय समप्राक्षीच्च सान्त्वयन् ।

सोमस्येत्याह शनकैः सोमस्तं तावदग्रहीत् ॥ १३ ॥

तस्यात्मयोनिरकृत बुध इत्यभिधां नृप ।

बुद्ध्या गम्भीरया येन पुत्रेणापोडुराण्मुदम् ॥१४



तदनन्तर अङ्गिरा ऋषि ने ब्रह्माजी के पास जाकर यह युद्ध बंद कराने की प्रार्थना की। इसपर ब्रह्माजीने चन्द्रमा को बहुत डाँटा-फटकारा और तारा को उसके पति बृहस्पतिजी के हवाले कर दिया। जब बृहस्पतिजी को यह मालूम हुआ कि तारा तो गर्भवती है, तब उन्होंने कहा॥ ८ ॥ दुष्टे ! मेरे क्षेत्र में यह तो किसी दूसरे का गर्भ है। इसे तू अभी त्याग दे, तुरंत त्याग दे। डर मत, मैं तुझे जलाऊँगा नहीं। क्योंकि एक तो तू स्त्री है और दूसरे मुझे भी सन्तानकी कामना है। देवी होनेके कारण तू निर्दोष भी है ही॥ ९ ॥ अपने पतिकी बात सुनकर तारा अत्यन्त लज्ङ्क्षजत हुई। उसने सोनेके समान चमकता हुआ एक बालक अपने गर्भसे अलग कर दिया। उस बालकको देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों ही मोहित हो गये और चाहने लगे कि यह हमें मिल जाय ॥ १० ॥ अब वे एक-दूसरे से इस प्रकार जोर-जोर से झगड़ा करने लगे कि यह तुम्हारा नहीं, मेरा है।ऋषियों और देवताओं ने तारा से पूछा कि यह किसका लडक़ा है।परंतु तारा ने लज्जावश कोई उत्तर न दिया ॥ ११ ॥ बालक ने अपनी माता की झूठी लज्जा से क्रोधित होकर कहा—‘दुष्टे ! तू बतलाती क्यों नहीं ? तू अपना कुकर्म मुझे शीघ्र-से-शीघ्र बतला दे॥ १२ ॥ उसी समय ब्रह्माजी ने तारा को एकान्त में बुलाकर बहुत कुछ समझा-बुझाकर पूछा। तब तारा  ने धीरे से कहा कि चन्द्रमाका।इसलिये चन्द्रमा ने उस बालक को ले लिया ॥ १३ ॥ परीक्षित्‌ ! ब्रह्माजी ने उस बालक का नाम रखा बुध’, क्योंकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। ऐसा पुत्र प्राप्त करके चन्द्रमा को बहुत आनन्द हुआ ॥ १४ ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



चन्द्रवंश का वर्णन


श्रीशुक उवाच ।



अथातः श्रूयतां राजन् वंशः सोमस्य पावनः ।

यस्मिन्नैलादयो भूपाः कीर्त्यन्ते पुण्यकीर्तयः ॥ १ ॥

सहस्रशिरसः पुंसो नाभिह्रद सरोरुहात् ।

जातस्यासीत् सुतो धातुः अत्रिः पितृसमो गुणैः ॥ २ ॥

तस्य दृग्भ्योऽभवत् पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल ।

विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥ ३ ॥

सोऽयजद् राजसूयेन विजित्य भुवनत्रयम् ।

पत्‍नीं बृहस्पतेर्दर्पात् तारां नामाहरद् बलात् ॥ ४ ॥

यदा स देवगुरुणा याचितोऽभीक्ष्णशो मदात् ।

नात्यजत् तत्कृते जज्ञे सुरदानवविग्रहः ॥ ५ ॥

शुक्रो बृहस्पतेर्द्वेषाद् अग्रहीत् सासुरोडुपम् ।

हरो गुरुसुतं स्नेहात् सर्वभूतगणावृतः ॥ ६ ॥

सर्वदेवगणोपेतो महेन्द्रो गुरुमन्वयात् ।

सुरासुरविनाशोऽभूत् समरस्तारकामयः ॥ ७ ॥


श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अब मैं तुम्हें चन्द्रमा के पावन वंश का वर्णन सुनाता हूँ। इस वंश में पुरूरवा आदि बड़े-बड़े पवित्रकीर्ति राजाओं का कीर्तन किया जाता है ॥ १ ॥ सहस्रों सिरवाले विराट् पुरुष नारायण  के नाभि-सरोवर के कमल से ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्माजी के पुत्र हुए अत्रि। वे अपने गुणोंके कारण ब्रह्माजीके समान ही थे ॥ २ ॥ उन्हीं अत्रि के नेत्रों से  अमृतमय चन्द्रमा का जन्म हुआ। ब्रह्माजी ने चन्द्रमा को ब्राह्मण, ओषधि और नक्षत्रों का अधिपति बना दिया ॥ ३ ॥ उन्होंने तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त की और राजसूय यज्ञ किया। इससे उनका घमंड बढ़ गया और उन्होंने बलपूर्वक बृहस्पति की पत्नी तारा को हर लिया ॥ ४ ॥ देवगुरु बृहस्पति ने अपनी पत्नी को लौटा देने के लिये उनसे बार-बार याचना की, परंतु वे इतने मतवाले हो गये थे कि उन्होंने किसी प्रकार उनकी पत्नीको नहीं लौटाया। ऐसी परिस्थिति में उसके लिये देवता और दानव  में घोर संग्राम छिड़ गया ॥ ५ ॥ शुक्राचार्यजी ने बृहस्पतिजी के द्वेषसे असुरोंके साथ चन्द्रमाका पक्ष ले लिया और महादेवजीने स्नेहवश समस्त भूतगणोंके साथ अपने विद्यागुरु अङ्गिराजीके पुत्र बृहस्पतिका पक्ष लिया ॥ ६ ॥ देवराज इन्द्रने भी समस्त देवताओंके साथ अपने गुरु बृहस्पतिजीका ही पक्ष लिया। इस प्रकार ताराके निमित्तसे देवता और असुरोंका संहार करनेवाला घोर संग्राम हुआ ॥ ७ ॥



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बुधवार, 25 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



राजा निमि के वंश का वर्णन



तस्माद् उदावसुस्तस्य पुत्रोऽभूत् नन्दिवर्धनः ।

ततः सुकेतुस्तस्यापि देवरातो महीपते ॥ १४ ॥

तस्माद् बृहद्रथस्तस्य महावीर्यः सुधृत्पिता ।

सुधृतेर्धृष्टकेतुर्वै हर्यश्वोऽथ मरुस्ततः ॥ १५ ॥

मरोः प्रतीपकस्तस्मात् जातः कृतरथो यतः ।

देवमीढस्तस्य पुत्रो विश्रुतोऽथ महाधृतिः ॥ १६ ॥

कृतिरातः ततस्तस्मात् महारोमा च तत्सुतः ।

स्वर्णरोमा सुतस्तस्य ह्रस्वरोमा व्यजायत ॥ १७ ॥

ततः शीरध्वजो जज्ञे यज्ञार्थं कर्षतो महीम् ।

सीता शीराग्रतो जाता तस्मात् सीरध्वजः स्मृतः ॥ १८ ॥

कुशध्वजस्तस्य पुत्रः ततो धर्मध्वजो नृपः ।

धर्मध्वजस्य द्वौ पुत्रौ कृतध्वजमितध्वजौ ॥ १९ ॥

कृतध्वजात् केशिध्वजः खाण्डिक्यस्तु मितध्वजात् ।

कृतध्वजसुतो राजन् आत्मविद्याविशारदः ॥ २० ॥

खाण्डिक्यः कर्मतत्त्वज्ञो भीतः केशिध्वजाद् द्रुतः ।

भानुमांस्तस्य पुत्रोऽभूत् शतद्युम्नस्तु तत्सुतः ॥ २१ ॥

शुचिस्तु तनयस्तस्मात् सनद्वाजः सुतोऽभवत् ।

ऊर्जकेतुः सनद्वाजाद् अजोऽथ पुरुजित्सुतः ॥ २२ ॥

अरिष्टनेमिस्तस्यापि श्रुतायुः तत्सुपार्श्वकः ।

ततश्चित्ररथो यस्य क्षेमाधिर्मिथिलाधिपः ॥ २३ ॥

तस्मात् समरथस्तस्य सुतः सत्यरथस्ततः ।

आसीद् उपगुरुस्तस्माद् उपगुप्तोऽग्निसंभवः ॥ २४ ॥

वस्वनन्तोऽथ तत्पुत्रो युयुधो यत् सुभाषणः ।

श्रुतस्ततो जयस्तस्माद् विजयोऽस्मादृतः सुतः ॥ २५ ॥

शुनकस्तत्सुतो जज्ञे वीतहव्यो धृतिस्ततः ।

बहुलाश्वो धृतेस्तस्य कृतिरस्य महावशी ॥ २६ ॥

एते वै मैथिला राजन् आत्मविद्याविशारदाः ।

योगेश्वरप्रसादेन द्वन्द्वैर्मुक्ता गृहेष्वपि ॥ २७ ॥



परीक्षित्‌ ! जनक का उदावसु, उसका नन्दिवर्धन, नन्दिवर्धन का सुकेतु, उसका देवरात, देवरात का बृहद्रथ, बृहद्रथ का महावीर्य, महावीर्य का सुधृति, सुधृति का धृष्टकेतु, धृष्टकेतु का हर्यश्व और उसका मरु नामक पुत्र हुआ ॥ १४-१५ ॥ मरु से प्रतीपक, प्रतीपक से कृतिरथ, कृतिरथ से देवमीढ, देवमीढ से विश्रुत और विश्रुत से महाधृति का जन्म हुआ ॥ १६ ॥ महाधृति का कृतिरात, कृतिरात  का महारोमा, महारोमा का स्वर्णरोमा और स्वर्णरोमा का पुत्र हुआ ह्रस्वरोमा ॥ १७ ॥ इसी ह्रस्वरोमा के पुत्र महाराज सीरध्वज थे। वे जब यज्ञके लिये धरती जोत रहे थे, तब उनके सीर (हल) के अग्रभाग (फाल) से सीताजीकी उत्पत्ति हुई। इसीसे उनका नाम सीरध्वजपड़ा ॥ १८ ॥ सीरध्वजके कुशध्वज, कुशध्वजके धर्मध्वज और धर्मध्वजके दो पुत्र हुएकृतध्वज और मितध्वज ॥ १९ ॥ कृतध्वजके केशिध्वज और मितध्वजके खाण्डिक्य हुए। परीक्षित्‌ ! केशिध्वज आत्मविद्यामें बड़ा प्रवीण था ॥ २० ॥ खाण्डिक्य था कर्मकाण्डका मर्मज्ञ। वह केशिध्वजसे भयभीत होकर भाग गया। केशिध्वजका पुत्र भानुमान् और भानुमान्का शतद्युम्र था ॥ २१ ॥ शतद्युम्रसे शुचि, शुचिसे सनद्वाज, सनद्वाजसे ऊध्र्वकेतु, ऊध्र्वकेतुसे अज, अजसे पुरुजित्, पुरुजित्से अरिष्टनेमि, अरिष्टनेमिसे श्रुतायु, श्रुतायुसे सुपाश्र्वक, सुपाश्र्वकसे चित्ररथ और चित्ररथसे मिथिलापति क्षेमधिका जन्म हुआ ॥ २२-२३ ॥ क्षेमधिसे समरथ, समरथसे सत्यरथ, सत्यरथसे उपगुरु और उपगुरुसे उपगुप्त नामक पुत्र हुआ। यह अग्नि का अंश था ॥ २४ ॥ उपगुप्त का वस्वनन्त, वस्वनन्तका युयुध, युयुधका सुभाषण, सुभाषणका श्रुत, श्रुतका जय, जय का विजय और विजयका ऋत नामक पुत्र हुआ ॥ २५ ॥ ऋतका शुनक, शुनकका वीतहव्य, वीतहव्यका धृति, धृतिका बहुलाश्व, बहुलाश्वका कृति और कृतिका पुत्र हुआ महावशी ॥ २६ ॥ परीक्षित्‌ ! ये मिथिलके वंशमें उत्पन्न सभी नरपति मैथिलकहलाते हैं। ये सब-के-सब आत्मज्ञानसे सम्पन्न एवं गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंसे मुक्त थे। क्यों न हो, याज्ञवल्क्य आदि बड़े-बड़े योगेश्वरोंकी इनपर महान् कृपा जो थी ॥ २७ ॥



इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां नवमस्कन्धे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥



हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



राजा निमि के वंश का वर्णन


श्रीशुक उवाच ।

निमिरिक्ष्वाकुतनयो वसिष्ठं अवृतर्त्विजम् ।

आरभ्य सत्रं सोऽप्याह शक्रेण प्राग्वृतोऽस्मि भोः ॥ १ ॥

तं निर्वर्त्यागमिष्यामि तावन्मां प्रतिपालय ।

तूष्णीं आसीद् गृहपतिः सोऽपीन्द्रस्याकरोन् मखम् ॥ २ ॥

निमिश्चलमिदं विद्वान् सत्रमारभतामात्मवान् ।

ऋत्विग्भिः अपरैस्तावत् नागमद्यावता गुरुः ॥ ३ ॥

शिष्यव्यतिक्रमं वीक्ष्य तं निर्वर्त्य गुरुरागतः ।

अशपत् पतताद् देहो निमेः पण्डितमानिनः ॥ ४ ॥

निमिः प्रतिददौ शापं गुरवेऽधर्मवर्तिने ।

तवापि पतताद् देहो लोभाद् धर्ममजानतः ॥ ५ ॥

इत्युत्ससर्ज स्वं देहं निमिरध्यात्मकोविदः ।

मित्रावरुणयोर्जज्ञे उर्वश्यां प्रपितामहः ॥ ६ ॥

गन्धवस्तुषु तद् देहं निधाय मुनिसत्तमाः ।

समाप्ते सत्रयागेऽथ देवान् ऊचुः समागतान् ॥ ७ ॥

राज्ञो जीवतु देहोऽयं प्रसन्नाः प्रभवो यदि ।

तथेत्युक्ते निमिः प्राह मा भून्मे देहबन्धनम् ॥ ८ ॥

यस्य योगं न वाञ्छन्ति वियोगभयकातराः ।

भजन्ति चरणाम्भोजं मुनयो हरिमेधसः ॥ ९ ॥

देहं नावरुरुत्सेऽहं दुःखशोकभयावहम् ।

सर्वत्रास्य यतो मृत्युं मत्स्यानां उदके यथा ॥ १० ॥



देवा ऊचुः ।

विदेह उष्यतां कामं लोचनेषु शरीरिणाम् ।

उन्मेषणनिमेषाभ्यां लक्षितोऽध्यात्मसंस्थितः ॥ ११ ॥

अराजकभयं नॄणां मन्यमाना महर्षयः ।

देहं ममन्थुः स्म निमेः कुमारः समजायत ॥ १२ ॥

जन्मना जनकः सोऽभूद् वैदेहस्तु विदेहजः ।

मिथिलो मथनाज्जातो मिथिला येन निर्मिता ॥ १३॥


श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इक्ष्वाकु के पुत्र थे निमि। उन्होंने यज्ञ आरम्भ करके महर्षि वसिष्ठको ऋत्विज् के रूपमें वरण किया। वसिष्ठजी ने कहा कि राजन् ! इन्द्र अपने यज्ञ के लिये मुझे पहले ही वरण कर चुके हैं ॥ १ ॥ उनका यज्ञ पूरा करके मैं तुम्हारे पास आऊँगा। तबतक तुम मेरी प्रतीक्षा करना।यह बात सुनकर राजा निमि चुप हो रहे और वसिष्ठजी इन्द्रका यज्ञ कराने चले गये ॥ २ ॥ विचारवान् निमिने यह सोचकर कि जीवन तो क्षणभङ्गुर है, विलम्ब करना उचित न समझा और यज्ञ प्रारम्भ कर दिया। जबतक गुरु वसिष्ठजी न लौटें, तबतकके लिये उन्होंने दूसरे ऋत्विजोंको वरण कर लिया ॥ ३ ॥ गुरु वसिष्ठजी जब इन्द्रका यज्ञ सम्पन्न करके लौटे, तो उन्होंने देखा कि उनके शिष्य निमि ने तो उनकी बात न मानकर यज्ञ प्रारम्भ कर दिया है। उस समय उन्होंने शाप दिया कि निमिको अपनी विचारशीलता और पाण्डित्यका बड़ा घमंड है, इसलिये इसका शरीरपात हो जाय॥ ४ ॥ निमि की दृष्टिमें गुरु वसिष्ठका यह शाप धर्मके अनुकूल नहीं, प्रतिकूल था। इसलिये उन्होंने भी शाप दिया कि आपने लोभवश अपने धर्मका आदर नहीं किया, इसलिये आपका शरीर भी गिर जाय॥ ५ ॥ यह कहकर आत्मविद्यामें निपुण निमिने अपने शरीर का त्याग कर दिया। परीक्षित्‌ ! इधर हमारे वृद्ध प्रपितामह वसिष्ठजीने भी अपना शरीर त्याग कर मित्रावरुणके द्वारा उर्वशीके गर्भसे जन्म ग्रहण किया ॥ ६ ॥ राजा निमिके यज्ञमें आये हुए श्रेष्ठ मुनियोंने राजाके शरीरको सुगन्धित वस्तुओंमें रख दिया। जब सत्रयागकी समाप्ति हुई और देवतालोग आये, तब उन लोगोंने उनसे प्रार्थना की ॥ ७ ॥ महानुभावो ! आपलोग समर्थ हैं। यदि आप प्रसन्न हैं तो राजा निमिका यह शरीर पुन: जीवित हो उठे।देवताओंने कहा—‘ऐसा ही हो।उस समय निमिने कहा—‘मुझे देहका बन्धन नहीं चाहिये ॥ ८ ॥ विचारशील मुनिजन अपनी बुद्धिको पूर्णरूपसे श्रीभगवान्‌में ही लगा देते हैं और उन्हींके चरणकमलोंका भजन करते हैं। एक- न-एक दिन यह शरीर अवश्य ही छूटेगाइस भयसे भीत होनेके कारण वे इस शरीरका कभी संयोग ही नहीं चाहते; वे तो मुक्त ही होना चाहते हैं ॥ ९ ॥ अत: मैं अब दु:ख, शोक और भयके मूल कारण इस शरीरको धारण करना नहीं चाहता। जैसे जलमें मछलीके लिये सर्वत्र ही मृत्युके अवसर हैं, वैसे ही इस शरीरके लिये भी सब कहीं मृत्यु-ही-मृत्यु है॥ १० ॥
देवताओंने कहा—‘मुनियो ! राजा निमि बिना शरीरके ही प्राणियोंके नेत्रोंमें अपनी इच्छाके अनुसार निवास करें। वे वहाँ रहकर सूक्ष्मशरीरसे भगवान्‌का चिन्तन करते रहें। पलक उठने और गिरनेसे उनके अस्तित्वका पता चलता रहेगा ॥ ११ ॥ इसके बाद महर्षियोंने यह सोचकर कि राजाके न रहनेपर लोगोंमें अराजकता फैल जायगीनिमिके शरीरका मन्थन किया। उस मन्थनसे एक कुमार उत्पन्न हुआ ॥ १२ ॥ जन्म लेनेके कारण उसका नाम हुआ जनक। विदेहसे उत्पन्न होनेके कारण वैदेहऔर मन्थनसे उत्पन्न होनेके कारण उसी बालकका नाम मिथिलहुआ। उसीने मिथिलापुरी बसायी ॥ १३ ॥



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मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



इक्ष्वाकुवंश के शेष राजाओं का वर्णन

एते हि ईक्ष्वाकुभूपाला अतीताः श्रृण्वनागतान् ।

बृहद्‍बलस्य भविता पुत्रो नाम्ना बृहद्रणः ॥ ९ ॥

ऊरुक्रियः सुतस्तस्य वत्सवृद्धो भविष्यति ।

प्रतिव्योमस्ततो भानुः दिवाको वाहिनीपतिः ॥ १० ॥

सहदेवस्ततो वीरो बृहदश्वोऽथ भानुमान् ।

प्रतीकाश्वो भानुमतः सुप्रतीकोऽथ तत्सुतः ॥ ११ ॥

भविता मरुदेवोऽथ सुनक्षत्रोऽथ पुष्करः ।

तस्यान्तरिक्षः तत्पुत्रः सुतपास्तद् अमित्रजित् ॥ १२ ॥

बृहद्राजस्तु तस्यापि बर्हिस्तस्मात् कृतञ्जयः ।

रणञ्जयस्तस्य सुतः सञ्जयो भविता ततः ॥ १३ ॥

तस्माच्छाक्योऽथ शुद्धोदो लांगलस्तत्सुतः स्मृतः ।

ततः प्रसेनजित् तस्मात् क्षुद्रको भविता ततः ॥ १४ ॥

रणको भविता तस्मात् सुरथस्तनयस्ततः ।

सुमित्रो नाम निष्ठान्त एते बार्हद्‍बलान्वयाः ॥ १५ ॥

इक्ष्वाकूणां अयं वंशः सुमित्रान्तो भविष्यति ।

यतस्तं प्राप्य राजानं संस्थां प्राप्स्यति वै कलौ ॥ १६ ॥


परीक्षित्‌ ! इक्ष्वाकुवंश के इतने नरपति हो चुके हैं। अब आनेवालोंके विषयमें सुनो। बृहद्वलका पुत्र होगा बृहद्रण ॥ ९ ॥ बृहद्रणका उरुक्रिय, उसका वत्सवृद्ध, वत्सवृद्धका प्रतिव्योम, प्रतिव्योमका भानु और भानुका पुत्र होगा सेनापति दिवाक ॥ १० ॥ दिवाक का वीर सहदेव, सहदेवका बृहदश्व, बृहदश्व का भानुमान्, भानुमान् का प्रतीकाश्व और प्रतीकाश्व का पुत्र होगा सुप्रतीक ॥ ११ ॥ सुप्रतीकका मरुदेव, मरुदेवका सुनक्षत्र, सुनक्षत्रका पुष्कर, पुष्करका अन्तरिक्ष, अन्तरिक्षका सुतपा और उसका पुत्र होगा अमित्रजित् ॥ १२ ॥ अमित्रजित्से बृहद्राज, बृहद्राजसे बर्हि, बर्हिसे कृतञ्जय, कृतञ्जयसे रणञ्जय और उससे सञ्जय होगा ॥ १३ ॥ सञ्जयका शाक्य, उसका शुद्धोद और शुद्धोद का लाङ्गल, लाङ्गल का प्रसेनजित् और प्रसेनजित् का पुत्र क्षुद्रक होगा ॥ १४ ॥ क्षुद्रक से रणक, रणक से सुरथ और सुरथ से इस वंशके अन्तिम राजा सुमित्रका जन्म होगा। ये सब बृहद्वल के वंशधर होंगे ॥ १५ ॥ इक्ष्वाकु का यह वंश सुमित्र तक ही रहेगा। क्योंकि सुमित्र के राजा होने पर कलियुग में यह वंश समाप्त हो जायगा ॥ १६ ॥



इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां नवमस्कन्धे द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥



हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



इक्ष्वाकुवंश के शेष राजाओं का वर्णन

श्रीशुक उवाच ।

कुशस्य चातिथिस्तस्मात् निषधस्तत्सुतो नभः ।

पुण्डरीकोऽथ तत्पुत्रः क्षेमधन्वाभवत्ततः ॥ १ ॥

देवानीकस्ततोऽनीहः पारियात्रोऽथ तत्सुतः ।

ततो बलस्थलः तस्मात् वज्रनाभोऽर्कसंभवः ॥ २ ॥

खसगणः तत्सुतः तस्माद् विधृतिश्चाभवत्सुतः ।

ततो हिरण्यनाभोऽभूद् योगाचार्यस्तु जैमिनेः ॥ ३ ॥

शिष्यः कौशल्य आध्यात्मं याज्ञवल्क्योऽध्यगाद् यतः ।

योगं महोदयं ऋषिः हृदयग्रन्थि भेदकम् ॥ ४ ॥

पुष्यो हिरण्यनाभस्य ध्रुवसन्धिः ततोऽभवत् ।

सुदर्शनोऽथाग्निवर्णः शीघ्रस्तस्य मरुः सुतः ॥ ५ ॥

सोऽसावास्ते योगसिद्धः कलापग्राममास्थितः ।

कलेरन्ते सूर्यवंशं नष्टं भावयिता पुनः ॥ ६ ॥

तस्मात् प्रसुश्रुतः तस्य सन्धिः तस्याप्यमर्षणः ।

महस्वांन् तत्सुतः तस्माद् विश्वबाहुरजायत ॥ ७ ॥

ततः प्रसेनजित् तस्मात् तक्षको भविता पुनः ।

ततो बृहद्‍बलो यस्तु पित्रा ते समरे हतः ॥ ८ ॥


श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! कुश का पुत्र हुआ अतिथि, उसका निषध, निषध का नभ, नभ का पुण्डरीक और पुण्डरीक का क्षेमधन्वा ॥ १ ॥ क्षेमधन्वा का देवानीक, देवानीक का अनीह, अनीहका पारियात्र, पारियात्र का बलस्थल और बलस्थल का पुत्र हुआ वज्रनाभ। यह सूर्य का अंश था ॥ २ ॥ वज्रनाभ से खगण, खगण से विधृति और विधृति से हिरण्यनाभ की उत्पत्ति हुई। वह जैमिनि का  शिष्य और योगाचार्य था ॥ ३ ॥ कोसलदेशवासी याज्ञवल्क्य ऋषि ने उसकी  शिष्यता स्वीकार करके उससे अध्यात्मयोगकी शिक्षा ग्रहण की थी। वह योग हृदयकी गाँठ काट देनेवाला तथा परम सिद्धि देनेवाला है ॥ ४ ॥ हिरण्यनाभका पुष्य, पुष्यका ध्रुवसन्धि, ध्रुवसन्धिका सुदर्शन, सुदर्शन का अग्निवर्ण, अग्निवर्ण का शीघ्र और शीघ्र का पुत्र हुआ मरु ॥ ५ ॥ मरु ने योगसाधना से सिद्धि प्राप्त कर ली और वह इस समय भी कलाप नामक ग्राम में रहता है। कलियुगके अन्तमें सूर्यवंशके नष्ट हो जानेपर वह उसे फिरसे चलायेगा ॥ ६ ॥ मरुसे प्रसुश्रुत, उससे सन्धि और सन्धि से अमर्षणका जन्म हुआ। अमर्षणका महस्वान् और महस्वान्का विश्वसाह्व ॥ ७ ॥ विश्वसाह्व का प्रसेनजित्, प्रसेनजित् का तक्षक और तक्षक का पुत्र बृहद्वल हुआ। परीक्षित्‌ ! इसी बृहद्वल को तुम्हारे पिता अभिमन्यु ने युद्धमें मार डाला था ॥ ८ ॥



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से






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