॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
चन्द्रवंश का वर्णन
ततः
पुरूरवा जज्ञे इलायां य उदाहृतः ।
तस्य
रूपगुणौदार्य शीलद्रविणविक्रमान् ॥ १५ ॥
श्रुत्वोर्वशीन्द्रभवने
गीयमानान् सुरर्षिणा ।
तदन्तिकमुपेयाय
देवी स्मरशरार्दिता ॥ १६ ॥
मित्रावरुणयोः
शापाद् आपन्ना नरलोकताम् ।
निशम्य
पुरुषश्रेष्ठं कन्दर्पमिव रूपिणम् ।
धृतिं
विष्टभ्य ललना उपतस्थे तदन्तिके ॥ १७ ॥
स
तां विलोक्य नृपतिः हर्षेणोत्फुल्ललोचनः ।
उवाच
श्लक्ष्णया वाचा देवीं हृष्टतनूरुहः ॥ १८ ॥
श्रीराजोवाच
।
स्वागतं
ते वरारोहे आस्यतां करवाम किम् ।
संरमस्व
मया साकं रतिर्नौ शाश्वतीः समाः ॥ १९ ।।
उर्वश्युवाच
।
कस्यास्त्वयि
न सज्जेत मनो दृष्टिश्च सुन्दर ।
यदङ्गान्तरमासाद्य
च्यवते ह रिरंसया ॥ २० ॥
एतौ
उरणकौ राजन् न्यासौ रक्षस्व मानद ।
संरंस्ये
भवता साकं श्लाघ्यः स्त्रीणां वरः स्मृतः ॥ २१ ॥
घृतं
मे वीर भक्ष्यं स्यात् नेक्षे त्वान्यत्र मैथुनात् ।
विवाससं
तत् तथेति प्रतिपेदे महामनाः ॥ २२ ॥
अहो
रूपमहो भावो नरलोकविमोहनम् ।
को
न सेवेत मनुजो देवीं त्वां स्वयमागताम् ॥ २३ ॥
परीक्षित् ! बुध के द्वारा इला के गर्भ से पुरूरवा का जन्म हुआ। इसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ। एक दिन इन्द्रकी सभा में देवर्षि नारदजी पुरूरवा के रूप, गुण, उदारता, शील-स्वभाव, धन-सम्पत्ति और पराक्रमका गान कर रहे थे। उन्हें सुनकर उर्वशी के हृदयमें कामभावका उदय हो आया और उससे पीडि़त होकर वह देवाङ्गना पुरूरवाके पास चली आयी ॥ १५-१६ ॥ यद्यपि उर्वशीको मित्रावरुणके शापसे ही मृत्युलोकमें आना पड़ा था, फिर भी पुरुषशिरोमणि पुरूरवा मूर्तिमान् कामदेवके समान सुन्दर हैं—यह सुनकर सुर-सुन्दरी उर्वशीने धैर्य धारण किया और वह उनके पास चली आयी ॥ १७ ॥ देवाङ्गना उर्वशीको देखकर राजा पुरूरवाके नेत्र हर्षसे खिल उठे। उनके शरीरमें रोमाञ्च हो आया। उन्होंने बड़ी मीठी वाणीसे कहा— ॥ १८ ॥
राजा पुरूरवाने कहा—सुन्दरी ! तुम्हारा स्वागत है। बैठो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ ? तुम मेरे साथ विहार करो और हम दोनोंका यह विहार अनन्त कालतक चलता रहे ॥ १९ ॥
उर्वशीने कहा—‘राजन् ! आप सौन्दर्यके मूर्तिमान् स्वरूप हैं। भला, ऐसी कौन कामिनी है जिसकी दृष्टि और मन आपमें आसक्त न हो जाय ? क्योंकि आपके समीप आकर मेरा मन रमणकी इच्छासे अपना धैर्य खो बैठा है ॥ २० ॥ राजन् ! जो पुरुष रूप-गुण आदिके कारण प्रशंसनीय होता है, वही स्त्रियोंको अभीष्ट होता है। अत: मैं आपके साथ अवश्य विहार करूँगी। परंतु मेरे प्रेमी महाराज ! मेरी एक शर्त है। मैं आपको धरोहरके रूपमें भेडक़े दो बच्चे सौंपती हूँ। आप इनकी रक्षा करना ॥ २१ ॥ वीरशिरोमणे ! मैं केवल घी खाऊँगी और मैथुन के अतिरिक्त और किसी भी समय आपको वस्त्रहीन न देख सकूँगी।’ परम मनस्वी पुरूवा ने ठीक है—ऐसा कहकर उसकी शर्त स्वीकार कर ली ॥ २२ ॥ और फिर उर्वशीसे कहा—‘तुम्हारा यह सौन्दर्य अद्भुत है। तुम्हारा भाव अलौकिक है। यह तो सारी मनुष्यसृष्टिको मोहित करनेवाला है। और देवि ! कृपा करके तुम स्वयं यहाँ आयी हो। फिर कौन ऐसा मनुष्य है जो तुम्हारा सेवन न करेगा ? ॥ २३ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से