॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
भरतवंश का वर्णन,
राजा रन्तिदेव की कथा
अथान्यो भोक्ष्यमाणस्य विभक्तस्य महीपतेः ।
विभक्तं व्यभजत् तस्मै वृषलाय हरिं स्मरन् ॥ ७ ॥
याते शूद्रे तमन्योऽगाद् अतिथिः श्वभिरावृतः ।
राजन्मे दीयतां अन्नं सगणाय बुभुक्षते ॥ ८ ॥
स आदृत्यावशिष्टं यद् बहुमानपुरस्कृतम् ।
तच्च दत्त्वा नमश्चक्रे श्वभ्यः श्वपतये विभुः ॥ ९ ॥
पानीयमात्रमुच्छेषं तच्चैकपरितर्पणम् ।
पास्यतः पुल्कसोऽभ्यागाद् अपो देह्यशुभस्य मे ॥ १० ॥
तस्य तां करुणां वाचं निशम्य विपुलश्रमाम् ।
कृपया भृशसन्तप्त इदमाहामृतं वचः ॥ ११ ॥
न कामयेऽहं गतिमीश्वरात्परां
अष्टर्द्धियुक्तामपुनर्भवं वा ।
आर्तिं प्रपद्येऽखिलदेहभाजां
अन्तःस्थितो येन भवन्त्यदुःखाः ॥ १२ ॥
क्षुत्तृट्श्रमो गात्रपरिश्रमश्च
दैन्यं क्लमः शोकविषादमोहाः ।
सर्वे निवृत्ताः कृपणस्य जन्तोः
जिजीविषोर्जीवजलार्पणान्मे ॥ १३ ॥
इति प्रभाष्य पानीयं म्रियमाणः पिपासया ।
पुल्कसायाददाद् धीरो निसर्गकरुणो नृपः ॥ १४ ॥
तस्य त्रिभुवनाधीशाः फलदाः फलमिच्छताम् ।
आत्मानं दर्शयां चक्रुः माया विष्णुविनिर्मिताः ॥ १५ ॥
स वै तेभ्यो नमस्कृत्य निःसङ्गो विगतस्पृहः ।
वासुदेवे भगवति भक्त्या चक्रे मनः परम् ॥ १६ ॥
ईश्वरालम्बनं चित्तं कुर्वतोऽनन्यराधसः ।
माया गुणमयी राजन् स्वप्नवत् प्रत्यलीयत ॥ १७ ॥
तत्प्रसङ्गानुभावेन रन्तिदेवानुवर्तिनः ।
अभवन् योगिनः सर्वे नारायणपरायणाः ॥ १८ ॥
परीक्षित् ! अब बचे हुए अन्न को रन्तिदेव ने आपसमें बाँट लिया और भोजन करना चाहा। उसी समय एक दूसरा शूद्र-अतिथि आ गया। रन्तिदेवने भगवान्का स्मरण करते हुए उस बचे हुए अन्नमें से भी कुछ भाग शूद्रके रूपमें आये अतिथिको खिला दिया ॥ ७ ॥ जब शूद्र खा-पीकर चला गया, तब कुत्तोंको लिये हुए एक और अतिथि आया। उसने कहा—‘राजन् ! मैं और मेरे ये कुत्ते बहुत भूखे हैं। हमें कुछ खानेको दीजिये’ ॥ ८ ॥ रन्तिदेवने अत्यन्त आदरभावसे, जो कुछ बच रहा था, सब-का-सब उसे दे दिया और भगवन्मय होकर उन्होंने कुत्ते और कुत्तोंके स्वामीके रूपमें आये हुए भगवान् को नमस्कार किया ॥ ९ ॥ अब केवल जल ही बच रहा था और वह भी केवल एक मनुष्यके पीनेभरका था। वे उसे आपसमें बाँटकर पीना ही चाहते थे कि एक चाण्डाल और आ पहुँचा। उसने कहा—‘मैं अत्यन्त नीच हूँ। मुझे जल पिला दीजिये’ ॥ १० ॥ चाण्डालकी वह करुणापूर्ण वाणी, जिसके उच्चारणमें भी वह अत्यन्त कष्ट पा रहा था, सुनकर रन्तिदेव दयासे अत्यन्त सन्तप्त हो उठे और ये अमृतमय वचन कहने लगे ॥ ११ ॥ ‘मैं भगवान्से आठों सिद्धियोंसे युक्त परम गति नहीं चाहता। और तो क्या, मैं मोक्षकी भी कामना नहीं करता। मैं चाहता हूँ तो केवल यही कि मैं सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित हो जाऊँ और उनका सारा दु:ख मैं ही सहन करूँ, जिससे और किसी भी प्राणीको दु:ख न हो ॥ १२ ॥ यह दीन प्राणी जल पी करके जीना चाहता था। जल दे देनेसे इसके जीवनकी रक्षा हो गयी। अब मेरी भूख-प्यासकी पीड़ा, शरीरकी शिथिलता, दीनता, ग्लानि, शोक, विषाद और मोह—ये सब-के-सब जाते रहे। मैं सुखी हो गया’ ॥ १३ ॥ इस प्रकार कहकर रन्तिदेवने वह बचा हुआ जल भी उस चाण्डालको दे दिया। यद्यपि जलके बिना वे स्वयं मर रहे थे, फिर भी स्वभावसे ही उनका हृदय इतना करुणापूर्ण था कि वे अपनेको रोक न सके। उनके धैर्यकी भी कोई सीमा है ? ॥ १४ ॥ परीक्षित् ! ये अतिथि वास्तवमें भगवान्की रची हुई मायाके ही विभिन्न रूप थे। परीक्षा पूरी हो जानेपर अपने भक्तोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेवाले त्रिभुवनस्वामी ब्रह्मा, विष्णु और महेश—तीनों उनके सामने प्रकट हो गये ॥ १५ ॥ रन्तिदेवने उनके चरणोंमें नमस्कार किया। उन्हें कुछ लेना तो था नहीं। भगवान्की कृपासे वे आसक्ति और स्पृहासे भी रहित हो गये तथा परम प्रेममय भक्तिमात्रसे अपने मनको भगवान् वासुदेवमें तन्मय कर दिया। कुछ भी माँगा नहीं ॥ १६ ॥ परीक्षित् ! उन्हें भगवान्के सिवा और किसी भी वस्तुकी इच्छा तो थी नहीं, उन्होंने अपने मनको पूर्णरूपसे भगवान्में लगा दिया। इसलिये त्रिगुणमयी माया जागनेपर स्वप्न-दृश्यके समान नष्ट हो गयी ॥ १७ ॥ रन्तिदेव के अनुयायी भी उनके सङ्गके प्रभावसे योगी हो गये और सब भगवान्के ही आश्रित परम भक्त बन गये ॥ १८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से