सोमवार, 20 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



पाञ्चाल, कौरव और मगधदेशीय राजाओं के वंश का वर्णन



ततश्च क्रोधनस्तस्मात् देवातिथिरमुष्य च ।

ऋष्यस्तस्य दिलीपोऽभूत् प्रतीपस्तस्य चात्मजः ॥ ११ ॥

देवापिः शान्तनुस्तस्य बाह्लीक इति चात्मजाः ।

पितृराज्यं परित्यज्य देवापिस्तु वनं गतः ॥ १२ ॥

अभवत् शन्तनू राजा प्राङ्‌महाभिषसंज्ञितः ।

यं यं कराभ्यां स्पृशति जीर्णं यौवनमेति सः ॥ १३ ॥

शान्तिमाप्नोति चैवाग्र्यां कर्मणा तेन शन्तनुः ।

समा द्वादश तद्राज्ये न ववर्ष यदा विभुः ॥ १४ ॥

शन्तनुर्ब्राह्मणैरुक्तः परिवेत्तायमग्रभुक् ।

राज्यं देह्यग्रजायाशु पुरराष्ट्रविवृद्धये ॥ १५ ॥

एवमुक्तो द्विजैर्ज्येष्ठं छन्दयामास सोऽब्रवीत् ।

तन्मंत्रिप्रहितैर्विप्रैः वेदाद् विभ्रंशितो गिरा ॥ १६ ॥

वेदवादातिवादान् वै तदा देवो ववर्ष ह ।

देवापिर्योगमास्थाय कलापग्राममाश्रितः ॥ १७ ॥

सोमवंशे कलौ नष्टे कृतादौ स्थापयिष्यति ।

बाह्लीकात्सोमदत्तोऽभूद् भूरिर्भूरिश्रवास्ततः ॥ १८ ॥

शलश्च शन्तनोरासीद् गंगायां भीष्म आत्मवान् ।

सर्वधर्मविदां श्रेष्ठो महाभागवतः कविः ॥ १९ ॥

वीरयूथाग्रणीर्येन रामोऽपि युधि तोषितः ।

शन्तनोर्दाशकन्यायां जज्ञे चित्रांगदः सुतः ॥ २० ॥

विचित्रवीर्यश्चावरजो नाम्ना चित्रांगदो हतः ।

यस्यां पराशरात्साक्षाद् अवतीर्णो हरेः कला ॥ २१ ॥

वेदगुप्तो मुनिः कृष्णो यतोऽहं इदमध्यगाम् ।

हित्वा स्वशिष्यान् पैलादीन् भगवान् बादरायणः ॥ २२ ॥

मह्यं पुत्राय शान्ताय परं गुह्यमिदं जगौ ।

विचित्रवीर्योऽथोवाह काशीराजसुते बलात् ॥ २३ ॥

स्वयंवराद् उपानीते अम्बिकाम्बालिके उभे ।

तयोरासक्तहृदयो गृहीतो यक्ष्मणा मृतः ॥ २४ ॥

क्षेत्रेऽप्रजस्य वै भ्रातुः मात्रोक्तो बादरायणः ।

धृतराष्ट्रं च पाण्डुं च विदुरं चाप्यजीजनत् ॥ २५ ॥



अयुतका क्रोधन, क्रोधनका देवातिथि, देवातिथिका ऋष्य, ऋष्यका दिलीप और दिलीपका पुत्र प्रतीप हुआ ॥ ११ ॥ प्रतीपके तीन पुत्र थेदेवापि, शन्तनु और बाह्लीक। देवापि अपना पैतृक राज्य छोडक़र वनमें चला गया ॥ १२ ॥ इसलिये उसके छोटे भाई शन्तनु राजा हुए। पूर्वजन्ममें शन्तनुका नाम महाभिष था। इस जन्ममें भी वे अपने हाथोंसे जिसे छू देते थे, वह बूढ़ेसे जवान हो जाता था ॥ १३ ॥ उसे परम शान्ति मिल जाती थी। इसी करामात के कारण उनका नाम शन्तनुहुआ। एक बार शन्तनुके राज्यमें बारह वर्षतक इन्द्रने वर्षा नहीं की। इसपर ब्राह्मणोंने शन्तनुसे कहा कि तुमने अपने बड़े भाई देवापिसे पहले ही विवाह, अग्निहोत्र और राजपदको स्वीकार कर लिया, अत: तुम परिवेत्ता [1] हो; इसीसे तुम्हारे राज्यमें वर्षा नहीं होती। अब यदि तुम अपने नगर और राष्ट्रकी उन्नति चाहते हो तो शीघ्र-से-शीघ्र अपने बड़े भाईको राज्य लौटा दो॥ १४-१५ ॥ जब ब्राह्मणोंने शन्तनुसे इस प्रकार कहा, तब उन्होंने वनमें जाकर अपने बड़े भाई देवापिसे राज्य स्वीकार करनेका अनुरोध किया। परंतु शन्तनुके मन्त्री अश्मरातने पहलेसे ही उनके पास कुछ ऐसे ब्राह्मण भेज दिये थे, जो वेदको दूषित करनेवाले वचनोंसे देवापिको वेदमार्गसे विचलित कर चुके थे। इसका फल यह हुआ कि देवापि वेदोंके अनुसार गृहस्थाश्रम स्वीकार करनेकी जगह उनकी निन्दा करने लगे। इसलिये वे राज्यके अधिकारसे वञ्चित हो गये और तब शन्तनुके राज्यमें वर्षा हुई। देवापि इस समय भी योगसाधना कर रहे हैं और योगियोंके प्रसिद्ध निवासस्थान कलापग्राममें रहते हैं ॥ १६-१७ ॥ जब कलियुगमें चन्द्रवंशका नाश हो जायगा, तब सत्ययुगके प्रारम्भमें वे फिर उसकी स्थापना करेंगे। शन्तनुके छोटे भाई बाह्लीकका पुत्र हुआ सोमदत्त। सोमदत्तके तीन पुत्र हुएभूरि, भूरिश्रवा और शल। शन्तनुके द्वारा गङ्गाजीके गर्भसे नैष्ठिक ब्रह्मचारी भीष्मका जन्म हुआ। वे समस्त धर्मज्ञोंके सिरमौर, भगवान्‌के परम प्रेमी भक्त और परम ज्ञानी थे ॥ १८-१९ ॥ वे संसारके समस्त वीरोंके अग्रगण्य नेता थे। औरोंकी तो बात ही क्या, उन्होंने अपने गुरु भगवान्‌ परशुरामको भी युद्धमें सन्तुष्ट कर दिया था। शन्तनुके द्वारा दाशराजकी कन्या [2] के गर्भसे दो पुत्र हुएचित्राङ्गद और विचित्रवीर्य। चित्राङ्गदको चित्राङ्गद नामक गन्धर्वने मार डाला। इसी दाशराजकी कन्या सत्यवतीसे पराशरजीके द्वारा मेरे पिता, भगवान्‌ के कलावतार स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजी अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने वेदोंकी रक्षा की। परीक्षित्‌ ! मैंने उन्हींसे इस श्रीमद्भागवत-पुराणका अध्ययन किया था। यह पुराण परम गोपनीयअत्यन्त रहस्यमय है। इसीसे मेरे पिता भगवान्‌ व्यासजीने अपने पैल आदि शिष्योंको इसका अध्ययन नहीं कराया, मुझे ही इसके योग्य अधिकारी समझा। एक तो मैं उनका पुत्र था और दूसरे शान्ति आदि गुण भी मुझमें विशेषरूपसे थे। शन्तनु के दूसरे पुत्र विचित्रवीर्यने काशिराजकी कन्या अम्बिका और अम्बालिकासे विवाह किया। उन दोनोंको भीष्मजी स्वयंवरसे बलपूर्वक ले आये थे। विचित्रवीर्य अपनी दोनों पत्नियोंमें इतना आसक्त हो गया कि उसे राजयक्ष्मा रोग हो गया और उसकी मृत्यु हो गयी ॥ २०२४ ॥ माता सत्यवती के कहने से भगवान्‌ व्यासजी ने अपने सन्तानहीन भाईकी स्त्रियोंसे धृतराष्ट्र और पाण्डु दो पुत्र उत्पन्न किये। उनकी दासीसे तीसरे पुत्र विदुरजी हुए ॥ २५ ॥

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[1] दाराग्निहोत्रसंयोगं कुरुते योऽग्रजे स्थिते । परिवेत्ता स विज्ञेय: परिवित्तिस्तु पूर्वज: ।।
अर्थात् जो पुरुष अपने बड़े भाई के रहते हुए उससे पहले ही विवाह और अग्निहोत्र का संयोग करता है, उसे परिवेत्ता जानना चाहिये और उसका बड़ा भाई परिवित्तिकहलाता है।

[2] यह कन्या वास्तव में उपरिचरवसु के वीर्य से मछली के गर्भसे उत्पन्न हुई थी, किन्तु दाशों (केवटों) के द्वारा पालित होनेसे वह केवटों की कन्या कहलायी।


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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

पाञ्चाल, कौरव और मगधदेशीय राजाओं के वंश का वर्णन

श्रीशुक उवाच ।
मित्रेयुश्च दिवोदासात् च्यवनः तत्सुतो नृप ।
सुदासः सहदेवोऽथ सोमको जन्तुजन्मकृत् ॥ १ ॥
तस्य पुत्रशतं तेषां यवीयान् पृषतः सुतः ।
द्रुपदो द्रौपदी तस्यजज्ञे धृष्टद्युम्नादयः सुताः ॥ २ ॥
धृष्टद्युम्नात् धृष्टकेतुः भार्म्याः पाञ्चालका इमे ।
योऽजमीढसुतो ह्यन्य ऋक्षः संवरणस्ततः ॥ ३ ॥
तपत्यां सूर्यकन्यायां कुरुक्षेत्रपतिः कुरुः ।
परीक्षित् सुधनुर्जह्नुः निषधाश्व कुरोः सुताः ॥ ४ ॥
सुहोत्रोऽभूत् सुधनुषः च्यवनोऽथ ततः कृती ।
वसुस्तस्योपरिचरो बृहद्रथमुखास्ततः ॥ ५ ॥
कुशाम्बमत्स्यप्रत्यग्र चेदिपाद्याश्च चेदिपाः ।
बृहद्रथात्कुशाग्रोऽभूत् ऋषभस्तस्य तत्सुतः ॥ ६ ॥
जज्ञे सत्यहितोऽपत्यं पुष्पवान् तत्सुतो जहुः ।
अन्यस्यामपि भार्यायां शकले द्वे बृहद्रथात् ॥ ७ ॥
ये मात्रा बहिरुत्सृष्टे जरया चाभिसन्धिते ।
जीव जीवेति क्रीडन्त्या जरासन्धोऽभवत् सुतः ॥ ८ ॥
ततश्च सहदेवोऽभूत् सोमापिर्यत् श्रुतश्रवाः ।
परीक्षिद् अनपत्योऽभूत् सुरथो नाम जाह्नवः ॥ ९ ॥
ततो विदूरथस्तस्मात् सार्वभौमस्ततोऽभवत् ।
जयसेनस्तत् तनयो राधिकोऽतोऽयुताय्वभूत् ॥ १० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! दिवोदास का पुत्र था मित्रेयु। मित्रेयु के चार पुत्र हुएच्यवन सुदास, सहदेव और सोमक। सोमक के सौ पुत्र थे, उनमें सबसे बड़ा जन्तु और सबसे छोटा पृषत था। पृषत के पुत्र द्रुपद थे, द्रुपदके द्रौपदी नामकी पुत्री और धृष्टद्युम्र आदि पुत्र हुए ॥ १-२ ॥ धृष्टद्युम्न का पुत्र था धृष्टकेतु। भर्म्याश्व के वंशमें उत्पन्न हुए ये नरपति पाञ्चालकहलाये। अजमीढका दूसरा पुत्र था ऋक्ष। उनके पुत्र हुए संवरण ॥ ३ ॥ संवरणका विवाह सूर्यकी कन्या तपतीसे हुआ। उन्हींके गर्भसे कुरुक्षेत्रके स्वामी कुरुका जन्म हुआ। कुरुके चार पुत्र हुएपरीक्षित्‌, सुधन्वा, जह्नु और निषधाश्व ॥ ४ ॥ सुधन्वासे सुहोत्र, सुहोत्रसे च्यवन, च्यवनसे कृती, कृतीसे उपरिचरवसु और उपरिचरवसुसे बृहद्रथ आदि कई पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ५ ॥ उनमें बृहद्रथ, कुशाम्ब, मत्स्य, प्रत्यग्र और चेदिप आदि चेदिदेशके राजा हुए। बृहद्रथका पुत्र था कुशाग्र, कुशाग्रका ऋषभ, ऋषभका सत्यहित, सत्यहितका पुष्पवान् और पुष्पवान् के जहु नामक पुत्र हुआ। बृहद्रथकी दूसरी पत्नीके गर्भसे एक शरीरके दो टुकड़े उत्पन्न हुए ॥ ६-७ ॥ उन्हें माताने बाहर फेंकवा दिया। तब जरानामकी राक्षसीने जियो, जियोइस प्रकार कहकर खेल-खेलमें उन दोनों टुकड़ोंको जोड़ दिया। उसी जोड़े हुए बालकका नाम हुआ जरासन्ध ॥ ८ ॥ जरासन्धका सहदेव, सहदेव का सोमापि और सोमापिका पुत्र हुआ श्रुतश्रवा। कुरुके ज्येष्ठ पुत्र परीक्षित्‌ के कोई सन्तान न हुई। जह्नु का पुत्र था सुरथ ॥ ९ ॥ सुरथका विदूरथ, विदूरथका सार्वभौम, सार्वभौमका जयसेन, जयसेन का राधिक और राधिक का पुत्र हुआ अयुत ॥ १० ॥

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रविवार, 19 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

भरतवंश का वर्णन, राजा रन्तिदेव की कथा

यवीनरो द्विमीढस्य कृतिमान् तत्सुतः स्मृतः ।
नाम्ना सत्यधृतिस्तस्य दृढनेमिः सुपार्श्वकृत् ॥ २७ ॥
सुपार्श्वात् सुमतिस्तस्य पुत्रः सन्नतिमान् ततः ।
कृती हिरण्यनाभाद् यो योगं प्राप्य जगौ स्म षट् ॥ २८ ॥
संहिताः प्राच्यसाम्नां वै नीपो ह्युग्रायुधस्ततः ।
तस्य क्षेम्यः सुवीरोऽथ सुवीरस्य रिपुञ्जयः ॥ २९ ॥
ततो बहुरथो नाम पुरुमीढोऽप्रजोऽभवत् ।
नलिन्यां अजमीढस्य नीलः शान्तिः सुतस्ततः ॥ ३० ॥
शान्तेः सुशान्तिस्तत्पुत्रः पुरुजोऽर्कस्ततोऽभवत् ।
भर्म्याश्वः तनयस्तस्य पञ्चासन् मुद्‍गलादयः ॥ ३१ ॥
यवीनरो बृहद्विश्वः काम्पिल्यः सञ्जयः सुताः ।
भर्म्याश्वः प्राह पुत्रा मे पञ्चानां रक्षणाय हि ॥ ३२ ॥
विषयाणामलमिमे इति पञ्चालसंज्ञिताः ।
मुद्‍गलाद् ब्रह्मनिर्वृत्तं गोत्रं मौद्‍गल्यसंज्ञितम् ॥ ३३ ॥
मिथुनं मुद्‍गलाद् भार्म्याद् दिवोदासः पुमानभूत् ।
अहल्या कन्यका यस्यां शतानन्दस्तु गौतमात् ॥ ३४ ॥
तस्य सत्यधृतिः पुत्रो धनुर्वेदविशारदः ।
शरद्वान् तत्सुतो यस्माद् उर्वशीदर्शनात् किल ॥ ३५ ॥
शरस्तम्बेऽपतद् रेतो मिथुनं तदभूच्छुभम् ।
तद्दृष्ट्वा कृपयागृह्णात् शन्तनुर्मृगयां चरन् ।
कृपः कुमारः कन्या च द्रोणपत्‍न्यभवत् कृपी ॥ ३६ ॥

द्विमीढका पुत्र था यवीनर, यवीनरका कृतिमान्, कृतिमान् का  सत्यधृति, सत्यधृतिका दृढनेमि और दृढनेमि का पुत्र सुपार्श्व हुआ ॥ २७ ॥ सुपार्श्व से सुमति, सुमति से सन्नतिमान् और सन्नतिमान् से  कृतिका जन्म हुआ। उसने हिरण्यनाभसे योगविद्या प्राप्त की थी और प्राच्यसामनामक ऋचाओंकी छ: संहिताएँ कही थीं। कृतिका पुत्र नीप था, नीपका उग्रायुध, उग्रायुधका क्षेम्य, क्षेम्यका सुवीर और सुवीरका पुत्र था रिपुञ्जय ॥ २८-२९ ॥ रिपुञ्जयका पुत्र था बहुरथ। द्विमीढके भाई पुरुमीढको कोई सन्तान न हुई। अजमीढकी दूसरी पत्नीका नाम था नलिनी। उसके गर्भसे नीलका जन्म हुआ। नीलका शान्ति, शान्तिका सुशान्ति, सुशान्तिका पुरुज, पुरुजका अर्क और अर्कका पुत्र हुआ भर्म्याश्व। भर्म्याश्व के पाँच पुत्र थेमुद्गल, यवीनर, बृहदिषु, काम्पिल्य और सञ्जय। भर्म्याश्व ने कहा—‘ये मेरे पुत्र पाँच देशोंका शासन करनेमें समर्थ (पञ्च अलम्) हैं।इसलिये ये पञ्चालनामसे प्रसिद्ध हुए। इनमें मुद्गलसे मौद्गल्यनामक ब्राह्मणगोत्रकी प्रवृत्ति हुई ॥ ३०३३ ॥
भर्म्याश्वके पुत्र मुद्गलसे यमज (जुड़वाँ) सन्तान हुई। उनमें पुत्रका नाम था दिवोदास और कन्याका अहल्या। अहल्याका विवाह महर्षि गौतमसे हुआ। गौतमके पुत्र हुए शतानन्द ॥ ३४ ॥ शतानन्दका पुत्र सत्यधृति था, वह धनुर्विद्यामें अत्यन्त निपुण था। सत्यधृतिके पुत्रका नाम था शरद्वान्। एक दिन उर्वशीको देखनेसे शरद्वान्का वीर्य मूँजके झाड़पर गिर पड़ा, उससे एक शुभ लक्षणवाले पुत्र और पुत्रीका जन्म हुआ। महाराज शन्तनुकी उसपर दृष्टि पड़ गयी, क्योंकि वे उधर शिकार खेलनेके लिये गये हुए थे। उन्होंने दयावश दोनोंको उठा लिया। उनमें जो पुत्र था, उसका नाम कृपाचार्य हुआ और जो कन्या थी, उसका नाम हुआ कृपी। यही कृपी द्रोणाचार्यकी पत्नी हुर्ई ॥ ३५-३६ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

भरतवंश का वर्णन, राजा रन्तिदेव की कथा

गर्गाच्छिनिस्ततो गार्ग्यः क्षत्राद् ब्रह्म ह्यवर्तत ।
दुरितक्षयो महावीर्यात् तस्य त्रय्यारुणिः कविः ॥ १९ ॥
पुष्करारुणिरित्यत्र ये ब्राह्मणगतिं गताः ।
बृहत्क्षत्रस्य पुत्रोऽभूत् हस्ती यद् हस्तिनापुरम् ॥ २० ॥
अजमीढो द्विमीढश्च पुरुमीढश्च हस्तिनः ।
अजमीढस्य वंश्याः स्युः प्रियमेधादयो द्विजाः ॥ २१ ॥
अजमीढाद् बृहदिषुः तस्य पुत्रो बृहद्धनुः ।
बृहत्कायः ततस्तस्य पुत्र आसीत् जयद्रथः ॥ २२ ॥
तत्सुतो विशदस्तस्य सेनजित् समजायत ।
रुचिराश्वो दृढहनुः काश्यो वत्सश्च तत्सुताः ॥ २३ ॥
रुचिराश्वसुतः पारः पृथुसेनः तदात्मजः ।
पारस्य तनयो नीपः तस्य पुत्रशतं त्वभूत् ॥ २४ ॥
स कृत्व्यां शुककन्यायां ब्रह्मदत्तमजीजनत् ।
योगी स गवि भार्यायां विष्वक्सेनं अधात् सुतम् ॥ २५ ॥
जैगीषव्योपदेशेन योगतंत्रं चकार ह ।
उदक्सेनः ततस्तस्माद् भल्लाटो बार्हदीषवाः ॥ २६ ॥

मन्युपुत्र गर्गसे शिनि और शिनिसे गार्ग्य का जन्म हुआ। यद्यपि गार्ग्य क्षत्रिय था, फिर भी उससे ब्राह्मणवंश चला। महावीर्यका पुत्र था दुरितक्षय। दुरितक्षयके तीन पुत्र हुएत्रय्यारुणि, कवि और पुष्करारुणि। ये तीनों ब्राह्मण हो गये। बृहत्क्षत्रका पुत्र हुआ हस्ती, उसीने हस्तिनापुर बसाया था ॥ १९-२० ॥ हस्तीके तीन पुत्र थेअजमीढ, द्विमीढ और पुरुमीढ। अजमीढके पुत्रोंमें प्रियमेध आदि ब्राह्मण हुए ॥ २१ ॥ इन्हीं अजमीढके एक पुत्रका नाम था बृहदिषु। बृहदिषुका पुत्र हुआ बृहद्धनु, बृहद्धनुका बृहत्काय और बृहत्कायका जयद्रथ हुआ ॥ २२ ॥ जयद्रथका पुत्र हुआ विशद और विशदका सेनजित्। सेनजित्के चार पुत्र हुएरुचिराश्व, दृढहनु, काश्य और वत्स ॥ २३ ॥ रुचिराश्वका पुत्र पार था और पारका पृथुसेन। पारके दूसरे पुत्रका नाम नीप था। उसके सौ पुत्र थे ॥ २४ ॥ इसी नीपने (छाया) [1] शुककी कन्या कृत्वीसे विवाह किया था। उससे ब्रह्मदत्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मदत्त बड़ा योगी था। उसने अपनी पत्नी सरस्वतीके गर्भसे विष्वक्सेन नामक पुत्र उत्पन्न किया ॥ २५ ॥ इसी विष्वक्सेनने जैगीषव्यके उपदेशसे योगशास्त्रकी रचना की। विष्वक्सेनका पुत्र था उदक्स्वन और उदक्स्वनका भल्लाद। ये सब बृहदिषुके वंशज हुए ॥ २६ ॥
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[1] श्री शुकदेवजी असंग थे, पर वे वन जाते समय एक छाया शुक रचकर छोड़ गये थे। उस छाया शुक ने ही गृहस्थोचित व्यवहार किये थे।

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शनिवार, 18 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

भरतवंश का वर्णन, राजा रन्तिदेव की कथा

अथान्यो भोक्ष्यमाणस्य विभक्तस्य महीपतेः ।
विभक्तं व्यभजत् तस्मै वृषलाय हरिं स्मरन् ॥ ७ ॥
याते शूद्रे तमन्योऽगाद् अतिथिः श्वभिरावृतः ।
राजन्मे दीयतां अन्नं सगणाय बुभुक्षते ॥ ८ ॥
स आदृत्यावशिष्टं यद् बहुमानपुरस्कृतम् ।
तच्च दत्त्वा नमश्चक्रे श्वभ्यः श्वपतये विभुः ॥ ९ ॥
पानीयमात्रमुच्छेषं तच्चैकपरितर्पणम् ।
पास्यतः पुल्कसोऽभ्यागाद् अपो देह्यशुभस्य मे ॥ १० ॥
तस्य तां करुणां वाचं निशम्य विपुलश्रमाम् ।
कृपया भृशसन्तप्त इदमाहामृतं वचः ॥ ११ ॥
न कामयेऽहं गतिमीश्वरात्परां
अष्टर्द्धियुक्तामपुनर्भवं वा ।
आर्तिं प्रपद्येऽखिलदेहभाजां
अन्तःस्थितो येन भवन्त्यदुःखाः ॥ १२ ॥
क्षुत्तृट्श्रमो गात्रपरिश्रमश्च
दैन्यं क्लमः शोकविषादमोहाः ।
सर्वे निवृत्ताः कृपणस्य जन्तोः
जिजीविषोर्जीवजलार्पणान्मे ॥ १३ ॥
इति प्रभाष्य पानीयं म्रियमाणः पिपासया ।
पुल्कसायाददाद् धीरो निसर्गकरुणो नृपः ॥ १४ ॥
तस्य त्रिभुवनाधीशाः फलदाः फलमिच्छताम् ।
आत्मानं दर्शयां चक्रुः माया विष्णुविनिर्मिताः ॥ १५ ॥
स वै तेभ्यो नमस्कृत्य निःसङ्‌गो विगतस्पृहः ।
वासुदेवे भगवति भक्त्या चक्रे मनः परम् ॥ १६ ॥
ईश्वरालम्बनं चित्तं कुर्वतोऽनन्यराधसः ।
माया गुणमयी राजन् स्वप्नवत् प्रत्यलीयत ॥ १७ ॥
तत्प्रसङ्‌गानुभावेन रन्तिदेवानुवर्तिनः ।
अभवन् योगिनः सर्वे नारायणपरायणाः ॥ १८ ॥

परीक्षित्‌ ! अब बचे हुए अन्न को रन्तिदेव ने आपसमें बाँट लिया और भोजन करना चाहा। उसी समय एक दूसरा शूद्र-अतिथि आ गया। रन्तिदेवने भगवान्‌का स्मरण करते हुए उस बचे हुए अन्नमें से भी कुछ भाग शूद्रके रूपमें आये अतिथिको खिला दिया ॥ ७ ॥ जब शूद्र खा-पीकर चला गया, तब कुत्तोंको लिये हुए एक और अतिथि आया। उसने कहा—‘राजन् ! मैं और मेरे ये कुत्ते बहुत भूखे हैं। हमें कुछ खानेको दीजिये॥ ८ ॥ रन्तिदेवने अत्यन्त आदरभावसे, जो कुछ बच रहा था, सब-का-सब उसे दे दिया और भगवन्मय होकर उन्होंने कुत्ते और कुत्तोंके स्वामीके रूपमें आये हुए भगवान्‌ को नमस्कार किया ॥ ९ ॥ अब केवल जल ही बच रहा था और वह भी केवल एक मनुष्यके पीनेभरका था। वे उसे आपसमें बाँटकर पीना ही चाहते थे कि एक चाण्डाल और आ पहुँचा। उसने कहा—‘मैं अत्यन्त नीच हूँ। मुझे जल पिला दीजिये॥ १० ॥ चाण्डालकी वह करुणापूर्ण वाणी, जिसके उच्चारणमें भी वह अत्यन्त कष्ट पा रहा था, सुनकर रन्तिदेव दयासे अत्यन्त सन्तप्त हो उठे और ये अमृतमय वचन कहने लगे ॥ ११ ॥ मैं भगवान्‌से आठों सिद्धियोंसे युक्त परम गति नहीं चाहता। और तो क्या, मैं मोक्षकी भी कामना नहीं करता। मैं चाहता हूँ तो केवल यही कि मैं सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित हो जाऊँ और उनका सारा दु:ख मैं ही सहन करूँ, जिससे और किसी भी प्राणीको दु:ख न हो ॥ १२ ॥ यह दीन प्राणी जल पी करके जीना चाहता था। जल दे देनेसे इसके जीवनकी रक्षा हो गयी। अब मेरी भूख-प्यासकी पीड़ा, शरीरकी शिथिलता, दीनता, ग्लानि, शोक, विषाद और मोहये सब-के-सब जाते रहे। मैं सुखी हो गया॥ १३ ॥ इस प्रकार कहकर रन्तिदेवने वह बचा हुआ जल भी उस चाण्डालको दे दिया। यद्यपि जलके बिना वे स्वयं मर रहे थे, फिर भी स्वभावसे ही उनका हृदय इतना करुणापूर्ण था कि वे अपनेको रोक न सके। उनके धैर्यकी भी कोई सीमा है ? ॥ १४ ॥ परीक्षित्‌ ! ये अतिथि वास्तवमें भगवान्‌की रची हुई मायाके ही विभिन्न रूप थे। परीक्षा पूरी हो जानेपर अपने भक्तोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेवाले त्रिभुवनस्वामी ब्रह्मा, विष्णु और महेशतीनों उनके सामने प्रकट हो गये ॥ १५ ॥ रन्तिदेवने उनके चरणोंमें नमस्कार किया। उन्हें कुछ लेना तो था नहीं। भगवान्‌की कृपासे वे आसक्ति और स्पृहासे भी रहित हो गये तथा परम प्रेममय भक्तिमात्रसे अपने मनको भगवान्‌ वासुदेवमें तन्मय कर दिया। कुछ भी माँगा नहीं ॥ १६ ॥ परीक्षित्‌ ! उन्हें भगवान्‌के सिवा और किसी भी वस्तुकी इच्छा तो थी नहीं, उन्होंने अपने मनको पूर्णरूपसे भगवान्‌में लगा दिया। इसलिये त्रिगुणमयी माया जागनेपर स्वप्न-दृश्यके समान नष्ट हो गयी ॥ १७ ॥ रन्तिदेव के अनुयायी भी उनके सङ्गके प्रभावसे योगी हो गये और सब भगवान्‌के ही आश्रित परम भक्त बन गये ॥ १८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

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भरतवंश का वर्णन, राजा रन्तिदेव की कथा

श्रीशुक उवाच ।
वितथस्य सुतान् मन्योः बृहत्क्षत्रो जयस्ततः ।
महावीर्यो नरो गर्गः सङ्‌कृतिस्तु नरात्मजः ॥ १ ॥
गुरुश्च रन्तिदेवश्च सङ्‌कृतेः पाण्डुनन्दन ।
रन्तिदेवस्य महिमा इहामुत्र च गीयते ॥ २ ॥
वियद्वित्तस्य ददतो लब्धं लब्धं बुभुक्षतः ।
निष्किञ्चनस्य धीरस्य सकुटुम्बस्य सीदतः ॥ ३ ॥
व्यतीयुः अष्टचत्वारिंशत् अहनि अपिबतः किल ।
घृतपायससंयावं तोयं प्रातरुपस्थितम् ॥ ४ ॥
कृच्छ्रप्राप्तकुटुम्बस्य क्षुत्तृड्भ्यां जातवेपथोः ।
अतिथिर्ब्राह्मणः काले भोक्तुकामस्य चागमत् ॥ ५ ॥
तस्मै संव्यभजत् सोऽन्नं आदृत्य श्रद्धयान्वितः ।
हरिं सर्वत्र संपश्यन् स भुक्त्वा प्रययौ द्विजः ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! वितथ अथवा भरद्वाजका पुत्र था मन्यु। मन्युके पाँच पुत्र हुएबृहत्क्षत्र, जय, महावीर्य, नर और गर्ग। नरका पुत्र था संकृति ॥ १ ॥ संकृतिके दो पुत्र हुएगुरु और रन्तिदेव। परीक्षित्‌ ! रन्तिदेवका निर्मल यश इस लोक और परलोकमें सब जगह गाया जाता है ॥ २ ॥ रन्तिदेव आकाशके समान बिना उद्योगके ही दैववश प्राप्त वस्तुका उपभोग करते और दिनोंदिन उनकी पूँजी घटती जाती। जो कुछ मिल जाता उसे भी दे डालते और स्वयं भूखे रहते। वे संग्रह-परिग्रह, ममता से रहित तथा बड़े धैर्यशाली थे और अपने कुटुम्बके साथ दु:ख भोग रहे थे ॥ ३ ॥ एक बार तो लगातार अड़तालीस दिन ऐसे बीत गये कि उन्हें पानीतक पीनेको न मिला। उनचासवें दिन प्रात:काल ही उन्हें कुछ घी, खीर, हलवा और जल मिला ॥ ४ ॥ उनका परिवार बड़े संकटमें था । भूख और प्यास के मारे वे लोग काँप रहे थे। परंतु ज्यों ही उन लोगों ने भोजन करना चाहा, त्यों ही एक ब्राह्मण अतिथि के रूपमें आ गया ॥ ५ ॥ रन्तिदेव सबमें श्रीभगवान्‌ के ही दर्शन करते थे। अतएव उन्होंने बड़ी श्रद्धा से आदरपूर्वक उसी अन्नमें से ब्राह्मण को भोजन कराया। ब्राह्मणदेवता भोजन करके चले गये ॥ ६ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

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