॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
अनु, द्रुह्यु, तुर्वसु और यदुके
वंशका वर्णन
जयध्वजात् तालजंघ तस्य पुत्रशतं त्वभूत् ।
क्षत्रं यत् तालजंघाख्यं और्वतेजोपसंहृतम् ॥ २८ ॥
तेषां ज्येष्ठो वीतिहोत्रो वृष्णिः पुत्रो मधोः स्मृतः ।
तस्य पुत्रशतं त्वासीत् वृष्णिज्येष्ठं यतः कुलम् ॥ २९ ॥
माधवा वृष्णयो राजन् यादवाश्चेति संज्ञिताः ।
यदुपुत्रस्य च क्रोष्टोः पुत्रो वृजिनवांस्ततः ॥ ३० ॥
स्वाहितोऽतो रुशेकुर्वै तस्य चित्ररथस्ततः ।
शशबिन्दुर्महायोगी महाभागो महानभूत् ॥ ३१ ॥
चतुर्दशमहारत्नः चक्रवर्ति अपराजितः ।
तस्य पत्नीसहस्राणां दशानां सुमहायशाः ॥ ३२ ॥
दशलक्षसहस्राणि पुत्राणां तास्वजीजनत् ।
तेषां तु षट्प्रधानानां पृथुश्रवस आत्मजः ॥ ३३ ॥
धर्मो नामोशना तस्य हयमेधशतस्य याट् ।
तत्सुतो रुचकस्तस्य पञ्चासन्नात्मजाः श्रृणु ॥ ३४ ॥
पुरुजित् रुक्म रुक्मेषु पृथु ज्यामघ संज्ञिताः ।
ज्यामघस्त्वप्रजोऽप्यन्यां भार्यां शैब्यापतिर्भयात् ॥ ३५ ॥
नाविन्दत् शत्रुभवनाद् भोज्यां कन्यामहारषीत् ।
रथस्थां तां निरीक्ष्याह शैब्या पतिममर्षिता ॥ ३६ ॥
केयं कुहक मत्स्थानं रथमारोपितेति वै ।
स्नुषा तवेत्यभिहिते स्मयन्ती पतिमब्रवीत् ॥ ३७ ॥
अहं बन्ध्यासपत्नी च स्नुषा मे युज्यते कथम् ।
जनयिष्यसि यं राज्ञि तस्येयमुपयुज्यते ॥ ३८ ॥
अन्वमोदन्त तद्विश्वे देवाः पितर एव च ।
शैब्या गर्भं अधात्काले कुमारं सुषुवे शुभम् ।
स विदर्भ इति प्रोक्त उपयेमे स्नुषां सतीम् ॥ ३९ ॥
जयध्वज के पुत्रका नाम था तालजङ्घ। तालजङ्घके सौ पुत्र हुए। वे ‘तालजङ्घ’ नामक क्षत्रिय कहलाये। महर्षि और्वकी शक्तिसे राजा सगरने उनका संहार कर डाला ॥ २८ ॥ उन सौ पुत्रोंमें सबसे बड़ा था वीतिहोत्र। वीतिहोत्रका पुत्र मधु हुआ। मधुके सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़ा था वृष्णि ॥ २९ ॥ परीक्षित् ! इन्हीं मधु, वृष्णि और यदुके कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादवके नामसे प्रसिद्ध हुआ। यदुनन्दन क्रोष्टुके पुत्रका नाम था वृजिनवान् ॥३०॥ वृजिनवान् का पुत्र श्वाहि, श्वाहिका रुशेकु, रुशेकुका चित्ररथ और चित्ररथके पुत्रका नाम था शशबिन्दु। वह परम योगी, महान् भोगैश्वर्यसम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था ॥ ३१ ॥ वह चौदह रत्नों[*] का स्वामी, चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था। परम यशस्वी शशबिन्दु के दस हजार पत्नियाँ थीं। उनमेंसे एक-एक के लाख-लाख सन्तान हुई थीं। इस प्रकार उसके सौ करोड़—एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुर्ईं। उनमें पृथुश्रवा आदि छ: पुत्र प्रधान थे। पृथुश्रवाके पुत्रका नाम था धर्म। धर्मका पुत्र उशना हुआ। उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे। उशनाका पुत्र हुआ रुचक। रुचकके पाँच पुत्र हुए, उनके नाम सुनो ॥ ३२—३४ ॥ पुरुजित्, रुक्म, रुक्मेषु, पृथु और ज्यामघ। ज्यामघकी पत्नीका नाम था शैब्या। ज्यामघके बहुत दिनोंतक कोई सन्तान न हुई। परंतु उसने अपनी पत्नीके भयसे दूसरा विवाह नहीं किया। एक बार वह अपने शत्रुके घरसे भोज्या नामकी कन्या हर लाया। जब शैब्याने पतिके रथपर उस कन्याको देखा, तब वह चिढक़र अपने पतिसे बोली—‘कपटी ! मेरे बैठनेकी जगहपर आज किसे बैठाकर लिये आ रहे हो ?’ ज्यामघ ने कहा—‘यह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।’ शैब्या ने मुसकराकर अपने पतिसे कहा ॥ ३५—३७ ॥ ‘मैं तो जन्मसे ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है। फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है ?’ ज्यामघने कहा—‘रानी ! तुमको जो पुत्र होगा, उसकी यह पत्नी बनेगी’ ॥ ३८ ॥ राजा ज्यामघके इस वचनका विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया। फिर क्या था, समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया। उसका नाम हुआ विदर्भ। उसीने शैब्या की साध्वी पुत्रवधू भोज्या से विवाह किया ॥ ३९ ॥
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[*] चौदह रत्न ये है—हाथी, घोड़ा, रथ, स्त्री, बाण, खजाना, माला, वस्त्र, वृक्ष, शक्ति, पाश, मणि, छत्र और विमान।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से