सोमवार, 13 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीकृष्ण का अभिषेक

 

श्रीभगवानुवाच -

मया तेऽकारि मघवन् मखभङ्‌गोऽनुगृह्णता ।

मदनुस्मृतये नित्यं मत्तस्येन्द्रश्रिया भृशम् ॥ १५ ॥

मामैश्वर्यश्रीमदान्धो दण्डपाणिं न पश्यति ।

तं भ्रंशयामि सम्पद्‍भ्यो यस्य चेच्छाम्यनुग्रहम् ॥ १६ ॥

गम्यतां शक्र भद्रं वः क्रियतां मेऽनुशासनम् ।

स्थीयतां स्वाधिकारेषु युक्तैर्वः स्तम्भवर्जितैः ॥ १७ ॥

अथाह सुरभिः कृष्णं अभिवन्द्य मनस्विनी ।

स्वसन्तानैरुपामन्त्र्य गोपरूपिणमीश्वरम् ॥ १८ ॥

 

सुरभिरुवाच -

कृष्ण कृष्ण महायोगिन् विश्वात्मन् विश्वसम्भव ।

भवता लोकनाथेन सनाथा वयमच्युत ॥ १९ ॥

त्वं नः परमकं दैवं त्वं न इन्द्रो जगत्पते ।

भवाय भव गोविप्र देवानां ये च साधवः ॥ २० ॥

इन्द्रं नस्त्वाभिषेक्ष्यामो ब्रह्मणा चोदिता वयम् ।

अवतीर्णोऽसि विश्वात्मम् भूमेर्भारापनुत्तये ॥ २१ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

एवं कृष्णमुपामन्त्र्य सुरभिः पयसात्मनः ।

जलैराकाशगङ्‌गाया ऐरावतकरोद्‌धृतैः ॥ २२ ॥

इन्द्रः सुरर्षिभिः साकं चोदितो देवमातृभिः ।

अभ्यसिञ्चत दाशार्हं गोविन्द इति चाभ्यधात् ॥ २३ ॥

तत्रागतास्तुम्बुरुनारदादयो

गन्धर्वविद्याधरसिद्धचारणाः ।

जगुर्यशो लोकमलापहं हरेः

सुराङ्‌गनाः संननृतुर्मुदान्विताः ॥ २४ ॥

तं तुष्टुवुर्देवनिकायकेतवो

व्यवाकिरन् चाद्‍भुतपुष्पवृष्टिभिः ।

लोकाः परां निर्वृतिमाप्नुवंस्त्रयो

गावस्तदा गामनयन् पयोद्रुताम् ॥ २५ ॥

नानारसौघाः सरितो वृक्षा आसन् मधुस्रवाः ।

अकृष्टपच्यौषधयो गिरयोऽबिभ्रदुन्मणीन् ॥ २६ ॥

कृष्णेऽभिषिक्त एतानि सत्त्वानि कुरुनन्दन ।

निर्वैराण्यभवंस्तात क्रूराण्यपि निसर्गतः ॥ २७ ॥

इति गोगोकुलपतिं गोविन्दमभिषिच्य सः ।

अनुज्ञातो ययौ शक्रो वृतो देवादिभिर्दिवम् ॥ २८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब देवराज इन्द्रने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी इस प्रकार स्तुति की, तब उन्होंने हँसते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीसे इन्द्रको सम्बोधन करके कहा॥ १४ ॥

 

श्रीभगवान्‌ ने कहाइन्द्र ! तुम ऐश्वर्य और धन सम्पत्तिके मदसे पूरे-पूरे मतवाले हो रहे थे। इसलिये तुमपर अनुग्रह करके ही मैंने तुम्हारा यज्ञ भङ्ग किया है। यह इसलिये कि अब तुम मुझे नित्य-निरन्तर स्मरण रख सको ॥ १५ ॥ जो ऐश्वर्य और धन-सम्पत्तिके मदसे अंधा हो जाता है, वह यह नहीं देखता कि मैं कालरूप परमेश्वर हाथमें दण्ड लेकर उसके सिरपर सवार हूँ। मैं जिसपर अनुग्रह करना चाहता हूँ, उसे ऐश्वर्यभ्रष्ट कर देता हूँ ॥ १६ ॥ इन्द्र ! तुम्हारा मङ्गल हो। अब तुम अपनी राजधानी अमरावतीमें जाओ और मेरी आज्ञाका पालन करो। अब कभी घमंड न करना। नित्य-निरन्तर मेरी सन्निधिका, मेरे संयोगका अनुभव करते रहना और अपने अधिकारके अनुसार उचित रीतिसे मर्यादाका पालन करना ॥ १७ ॥

 

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ इस प्रकार आज्ञा दे ही रहे थे कि मनस्विनी कामधेनु ने अपनी सन्तानों के साथ गोपवेषधारी परमेश्वर श्रीकृष्णकी वन्दना की और उनको सम्बोधित करके कहा॥ १८ ॥

 

कामधेनुने कहासच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप महायोगीयोगेश्वर हैं। आप स्वयं विश्व हैं, विश्वके परमकारण हैं, अच्युत हैं। सम्पूर्ण विश्वके स्वामी आपको अपने रक्षकके रूपमें प्राप्तकर हम सनाथ हो गयीं ॥ १९ ॥ आप जगत्के स्वामी हैं। परंतु हमारे तो परम पूजनीय आराध्यदेव ही हैं। प्रभो ! इन्द्र त्रिलोकीके इन्द्र हुआ करें, परंतु हमारे इन्द्र तो आप ही हैं। अत: आप ही गौ, ब्राह्मण, देवता और साधुजनों की रक्षाके लिये हमारे इन्द्र बन जाइये ॥ २० ॥ हम गौएँ ब्रह्माजी की प्रेरणासे आपको अपना इन्द्र मानकर अभिषेक करेंगी। विश्वात्मन् ! आपने पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही अवतार धारण किया है ॥ २१ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णसे ऐसा कहकर कामधेनुने अपने दूधसे और देवमाताओंकी प्रेरणासे देवराज इन्द्रने ऐरावतकी सूँडके द्वारा लाये हुए आकाशगङ्गा के जलसे देवर्षियोंके साथ यदुनाथ श्रीकृष्णका अभिषेक किया और उन्हें गोविन्दनामसे सम्बोधित किया ॥ २२-२३ ॥ उस समय वहाँ नारद, तुम्बुरु आदि गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध और चारण पहलेसे ही आ गये थे। वे समस्त संसारके पाप-तापको मिटा देनेवाले भगवान्‌के लोकमलापह यशका गान करने लगे और अप्सराएँ आनन्दसे भरकर नृत्य करने लगीं ॥ २४ ॥ मुख्य-मुख्य देवता भगवान्‌ की स्तुति करके उनपर नन्दनवनके दिव्य पुष्पोंकी वर्षा करने लगे। तीनों लोकोंमें परमानन्दकी बाढ़ आ गयी और गौओंके स्तनों से आप-ही-आप इतना दूध गिरा कि पृथ्वी गीली हो गयी ॥ २५ ॥ नदियोंमें विविध रसोंकी बाढ़ आ गयी। वृक्षोंसे मधुधारा बहने लगी। बिना जोते-बोये पृथ्वीमें अनेकों प्रकारकी ओषधियाँ, अन्न पैदा हो गये। पर्वतोमें छिपे हुए मणि-माणिक्य स्वयं ही बाहर निकल आये ॥ २६ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण का अभिषेक होनेपर जो जीव स्वभावसे ही क्रूर हैं, वे भी वैरहीन हो गये, उनमें भी परस्पर मित्रता हो गयी ॥ २७ ॥ इन्द्र ने इस प्रकार गौ और गोकुल के स्वामी श्रीगोविन्द का अभिषेक किया और उनसे अनुमति प्राप्त होनेपर देवता, गन्धर्व आदि के साथ स्वर्गकी यात्रा की ॥ २८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्ण का अभिषेक

 

श्रीशुक उवाच -

गोवर्धने धृते शैले आसाराद् रक्षिते व्रजे ।

गोलोकादाव्रजज् कृष्णं सुरभिः शक्र एव च ॥ १ ॥

विविक्त उपसङ्‌गम्य व्रीडीतः कृतहेलनः ।

पस्पर्श पादयोरेनं किरीटेनार्कवर्चसा ॥ २ ॥

दृष्टश्रुतानुभावोऽस्य कृष्णस्यामिततेजसः ।

नष्टत्रिलोकेशमद इदमाह कृताञ्जलिः ॥ ३ ॥

 

इन्द्र उवाच -

विशुद्धसत्त्वं तव धाम शान्तं

तपोमयं ध्वस्तरजस्तमस्कम् ।

मायामयोऽयं गुणसम्प्रवाहो

न विद्यते ते ग्रहणानुबन्धः ॥ ४ ॥

कुतो नु तद्धेतव ईश तत्कृता

लोभादयो येऽबुधलिन्गभावाः ।

तथापि दण्डं भगवान्बिभर्ति

धर्मस्य गुप्त्यै खलनिग्रहाय ॥ ५ ॥

पिता गुरुस्त्वं जगतामधीशो

दुरत्ययः काल उपात्तदण्डः ।

हिताय स्वेच्छातनुभिः समीहसे

मानं विधुन्वन् जगदीशमानिनाम् ॥ ६ ॥

ये मद्विधाज्ञा जगदीशमानिनः

त्वां वीक्ष्य कालेऽभयमाशु तन्मदम् ।

हित्वाऽऽर्यमार्गं प्रभजन्त्यपस्मया

ईहा खलानामपि तेऽनुशासनम् ॥ ७ ॥

स त्वं ममैश्वर्यमदप्लुतस्य

कृतागसस्तेऽविदुषः प्रभावम् ।

क्षन्तुं प्रभोऽथार्हसि मूढचेतसो

मैवं पुनर्भून्मतिरीश मेऽसती ॥ ८ ॥

तवावतारोऽयमधोक्षजेह

भुवो भराणां उरुभारजन्मनाम् ।

चमूपतीनामभवाय देव

भवाय युष्मत् चरणानुवर्तिनाम् ॥ ९ ॥

नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महात्मने ।

वासुदेवाय कृष्णाय सात्वतां पतये नमः ॥ १० ॥

स्वच्छन्दोपात्तदेहाय विशुद्धज्ञानमूर्तये ।

सर्वस्मै सर्वबीजाय सर्वभूतात्मने नमः ॥ ११ ॥

मयेदं भगवन् गोष्ठ नाशायासारवायुभिः ।

चेष्टितं विहते यज्ञे मानिना तीव्रमन्युना ॥ १२ ॥

त्वयेशानुगृहीतोऽस्मि ध्वस्तस्तम्भो वृथोद्यमः ।

ईश्वरं गुरुमात्मानं त्वामहं शरणं गतः ॥ १३ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने गिरिराज गोवर्धन  को धारण करके मूसलधार वर्षा से व्रज को बचा लिया, तब उनके पास गोलोक से कामधेनु (बधाई देनेके लिये) और स्वर्ग से देवराज इन्द्र (अपने अपराध को क्षमा कराने के लिये) आये ॥ १ ॥ भगवान्‌ का तिरस्कार करने के कारण इन्द्र बहुत ही लज्जित थे। इसलिये उन्होंने एकान्त-स्थान में भगवान्‌ के पास जाकर अपने सूर्यके समान तेजस्वी मुकुटसे उनके चरणोंका स्पर्श किया ॥ २ ॥ परम तेजस्वी भगवान्‌ श्रीकृष्णका प्रभाव देख-सुनकर इन्द्रका यह घमंड जाता रहा कि मैं ही तीनों लोकोंका स्वामी हूँ। अब उन्होंने हाथ जोडक़र उनकी स्तुति की ॥ ३ ॥

 

इन्द्रने कहाभगवन् ! आपका स्वरूप परम शान्त, ज्ञानमय, रजोगुण तथा तमोगुणसे रहित एवं विशुद्ध अप्राकृत सत्त्वमय है। यह गुणोंके प्रवाहरूपसे प्रतीत होनेवाला प्रपञ्च केवल मायामय है। क्योंकि आपका स्वरूप न जाननेके कारण ही आपमें इसकी प्रतीति होती है ॥ ४ ॥ जब आपका सम्बन्ध अज्ञान और उसके कारण प्रतीत होनेवाले देहादिसे है ही नहीं, फिर उन देह आदिकी प्राप्तिके कारण तथा उन्हींसे होनेवाले लोभ-क्रोध आदि दोष तो आपमें हो ही कैसे सकते हैं ? प्रभो ! इन दोषोंका होना तो अज्ञानका लक्षण है। इस प्रकार यद्यपि अज्ञान और उससे होनेवाले जगत्से आपका कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर भी धर्मकी रक्षा और दुष्टोंका दमन करनेके लिये आप अवतार ग्रहण करते हैं और निग्रह-अनुग्रह भी करते हैं ॥ ५ ॥ आप जगत् के पिता, गुरु और स्वामी हैं। आप जगत् का नियन्त्रण करनेके लिये दण्ड धारण किये हुए दुस्तर काल हैं। आप अपने भक्तों की लालसा पूर्ण करने के लिये स्वच्छन्दता से लीला-शरीर प्रकट करते हैं और जो लोग हमारी तरह अपने को ईश्वर मान बैठते हैं, उनका मान मर्दन करते हुए अनेकों प्रकार की लीलाएँ करते हैं ॥ ६ ॥ प्रभो ! जो मेरे-जैसे अज्ञानी और अपने को जगत् का  ईश्वर माननेवाले हैं, वे जब देखते हैं कि बड़े-बड़े भयके अवसरों पर भी आप निर्भय रहते हैं, तब वे अपना घमंड छोड़ देते हैं और गर्वरहित होकर संतपुरुषों के द्वारा सेवित भक्तिमार्गका आश्रय लेकर आपका भजन करते हैं। प्रभो ! आपकी एक-एक चेष्टा दुष्टोंके लिये दण्डविधान है ॥ ७ ॥ प्रभो ! मैंने ऐश्वर्य के मद से चूर होकर आपका अपराध किया है। क्योंकि मैं आपकी शक्ति और प्रभावके सम्बन्धमें बिलकुल अनजान था। परमेश्वर ! आप कृपा करके मुझ मूर्ख अपराधीका यह अपराध क्षमा करें और ऐसी कृपा करें कि मुझे फिर कभी ऐसे दुष्ट अज्ञानका शिकार न होना पड़े ॥८॥ स्वयंप्रकाश, इन्द्रियातीत परमात्मन् ! आपका यह अवतार इसलिये हुआ है कि जो असुर सेनापति केवल अपना पेट पालने में ही लग रहे हैं और पृथ्वी के लिये बड़े भारी भार के कारण बन रहे हैं, उनका वध करके उन्हें मोक्ष दिया जाय, और जो आपके चरणों के सेवक हैंआज्ञाकारी भक्तजन हैं, उनका अभ्युदय होउनकी रक्षा हो ॥ ९ ॥ भगवन् ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप सर्वान्तर्यामी पुरुषोत्तम तथा सर्वात्मा वासुदेव हैं। आप यदुवंशियोंके एकमात्र स्वामी, भक्तवत्सल एवं सबके चित्तको आकर्षित करनेवाले हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ १० ॥ आपने जीवोंके समान कर्मवश होकर नहीं, स्वतन्त्रतासे अपने भक्तोंकी तथा अपनी इच्छाके अनुसार शरीर स्वीकार किया है। आपका यह शरीर भी विशुद्धज्ञानस्वरूप है। आप सब कुछ हैं, सबके कारण हैं और सबके आत्मा हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ ११ ॥ भगवन् ! मेरे अभिमानका अन्त नहीं है और मेरा क्रोध भी बहुत ही तीव्र, मेरे वशके बाहर है। जब मैंने देखा कि मेरा यज्ञ तो नष्ट कर दिया गया, तब मैंने मूसलधार वर्षा और आँधीके द्वारा सारे व्रजमण्डलको नष्ट कर देना चाहा ॥ १२ ॥ परंतु प्रभो ! आपने मुझपर बहुत ही अनुग्रह किया। मेरी चेष्टा व्यर्थ होनेसे मेरे घमंडकी जड़ उखड़ गयी। आप मेरे स्वामी हैं, गुरु हैं और मेरे आत्मा हैं। मैं आपकी शरणमें हूँ ॥ १३ ॥

 

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रविवार, 12 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

नन्दबाबा से गोपों की श्रीकृष्ण के प्रभाव के विषय में बातचीत

 

श्रीनन्द उवाच -

श्रूयतां मे वचो गोपा व्येतु शङ्‌का च वोऽर्भके ।

एनं कुमारमुद्दिश्य गर्गो मे यदुवाच ह ॥ १५ ॥

वर्णास्त्रयः किलास्यासन् गृह्णतोऽनुयुगं तनूः ।

शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः ॥ १६ ॥

प्रागयं वसुदेवस्य क्वचित् जातः तवात्मजः ।

वासुदेव इति श्रीमान् अभिज्ञाः सम्प्रचक्षते ॥ १७ ॥

बहूनि सन्ति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते ।

गुण कर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद नो जनाः ॥ १८ ॥

एष वः श्रेय आधास्यद् गोपगोकुलनन्दनः ।

अनेन सर्वदुर्गाणि यूयमञ्जस्तरिष्यथ ॥ १९ ॥

पुरानेन व्रजपते साधवो दस्युपीडिताः ।

अराजके रक्ष्यमाणा जिग्युर्दस्यून्समेधिताः ॥ २० ॥

य एतस्मिन् महाभागाः प्रीतिं कुर्वन्ति मानवाः ।

नारयोऽभिभवन्त्येतान् विष्णुपक्षानिवासुराः ॥ २१ ॥

तस्मान् नन्द कुमारोऽयं नारायणसमो गुणैः ।

श्रिया कीर्त्यानुभावेन तत्कर्मसु न विस्मयः ॥ २२ ॥

इत्यद्धा मां समादिश्य गर्गे च स्वगृहं गते ।

मन्ये नारायणस्यांशं कृष्णं अक्लिष्टकारिणम् ॥ २३ ॥

इति नन्दवचः श्रुत्वा गर्गगीतं व्रजौकसः ।

दृष्टश्रुतानुभावास्ते कृष्णस्यामिततेजसः ।

मुदिता नन्दमानर्चुः कृष्णं च गतविस्मयाः ॥ २४ ॥

देवे वर्षति यज्ञविप्लवरुषा

वज्रास्मवर्षानिलैः ।

सीदत्पालपशुस्त्रि आत्मशरणं

दृष्ट्वानुकम्प्युत्स्मयन् ।

उत्पाट्यैककरेण शैलमबलो

लीलोच्छिलीन्ध्रं यथा ।

बिभ्रद् गोष्ठमपान्महेन्द्रमदभित्

प्रीयान्न इन्द्रो गवाम् ॥ २५ ॥

 

नन्दबाबा ने कहागोपो ! तुमलोग सावधान होकर मेरी बात सुनो। मेरे बालक के विषय में तुम्हारी शङ्का दूर हो जाय। क्योंकि महर्षि गर्ग ने इस बालक को देखकर इसके विषय में ऐसा ही कहा था ॥ १५ ॥ तुम्हारा यह बालक प्रत्येक युग में शरीर ग्रहण करता है। विभिन्न युगों में इसने श्वेत, रक्त और पीतये भिन्न-भिन्न रंग स्वीकार किये थे। इस बार यह कृष्णवर्ण हुआ है ॥ १६ ॥ नन्दजी ! यह तुम्हारा पुत्र पहले कहीं वसुदेव के घर भी पैदा हुआ था, इसलिये इस रहस्य को जाननेवाले लोग इसका नाम श्रीमान् वासुदेव है’—ऐसा कहते हैं ॥ १७ ॥ तुम्हारे पुत्रके गुण और कर्मोंके अनुरूप और भी बहुत-से नाम हैं तथा बहुत-से रूप। मैं तो उन नामोंको जानता हूँ, परंतु संसारके साधारण लोग नहीं जानते ॥ १८ ॥ यह तुमलोगोंका परम कल्याण करेगा, समस्त गोप और गौओंको यह बहुत ही आनन्दित करेगा । इसकी सहायतासे तुमलोग बड़ी-बड़ी विपत्तियोंको बड़ी सुगमतासे पार कर लोगे ॥ १९ ॥ व्रजराज ! पूर्वकालमें एक बार पृथ्वीमें कोई राजा नहीं रह गया था । डाकुओंने चारों ओर लूट-खसोट मचा रखी थी । तब तुम्हारे इसी पुत्रने सज्जन पुरुषोंकी रक्षा की और इससे बल पाकर उन लोगोंने लुटेरोंपर विजय प्राप्त की ॥ २० ॥ नन्दबाबा ! जो तुम्हारे इस साँवले शिशुसे प्रेम करते हैं, वे बड़े भाग्यवान् हैं । जैसे विष्णुभगवान्‌ के करकमलों- की छत्र-छायामें रहनेवाले देवताओंको असुर नहीं जीत सकते, वैसे ही इससे प्रेम करनेवालोंको भीतरी या बाहरीकिसी भी प्रकारके शत्रु नहीं जीत सकते ॥ २१ ॥ नन्दजी ! चाहे जिस दृष्टिसे देखेंगुणसे, ऐश्वर्य और सौन्दर्यसे, कीर्ति और प्रभावसे तुम्हारा बालक स्वयं भगवान्‌ नारायणके ही समान है । अत: इस बालकके अलौकिक कार्योंको देखकर आश्चर्य न करना चाहिये ॥ २२ ॥ गोपो ! मुझे स्वयं गर्गाचार्यजी यह आदेश देकर अपने घर चले गये । तबसे मैं अलौकिक और परम सुखद कर्म करनेवाले इस बालकको भगवान्‌ नारायणका ही अंश मानता हूँ ॥ २३ ॥ जब व्रजवासियोंने नन्दबाबाके मुखसे गर्गजीकी यह बात सुनी, तब उनका विस्मय जाता रहा । क्योंकि अब वे अमित-तेजस्वी श्रीकृष्णके प्रभावको पूर्णरूपसे देख और सुन चुके थे । आनन्दमें भरकर उन्होंने नन्दबाबा और श्रीकृष्णकी भूरि-भूरि प्रशंसा की ॥ २४ ॥

जिस समय अपना यज्ञ भङ्ग हो जानेके कारण इन्द्र क्रोधके मारे आग-बबूला हो गये थे और मूसलधार वर्षा करने लगे थे, उस समय वज्रपात, ओलोंकी बौछार और प्रचण्ड आँधीसे स्त्री, पशु तथा ग्वाले अत्यन्त पीडि़त हो गये थे । अपनी शरणमें रहनेवाले व्रजवासियों की यह दशा देखकर भगवान्‌ का हृदय करुणासे भर आया । परंतु फिर एक नयी लीला करनेके विचारसे वे तुरंत ही मुसकराने लगे । जैसे कोई नन्हा-सा निर्बल बालक खेल-खेलमें ही बरसाती छत्तेका पुष्प उखाड़ ले, वैसे ही उन्होंने एक हाथसे ही गिरिराज गोवर्धन को उखाडक़र धारण कर लिया और सारे व्रजकी रक्षा की । इन्द्रका मद चूर करनेवाले वे ही भगवान्‌ गोविन्द हम पर प्रसन्न हों ॥ २५ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे षड्‌विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

नन्दबाबा से गोपों की श्रीकृष्ण के प्रभाव के विषय में बातचीत

 

श्रीशुक उवाच -

एवंविधानि कर्माणि गोपाः कृष्णस्य वीक्ष्य ते ।

अतद्वीर्यविदः प्रोचुः समभ्येत्य सुविस्मिताः ॥ १ ॥

बालकस्य यदेतानि कर्माणि अति अद्‍भुतानि वै ।

कथमर्हत्यसौ जन्म ग्राम्येष्वात्मजुगुप्सितम् ॥ २ ॥

यः सप्तहायनो बालः करेणैकेन लीलया ।

कथं बिभ्रद् गिरिवरं पुष्करं गजराडिव ॥ ३ ॥

तोकेनामीलिताक्षेण पूतनाया महौजसः ।

पीतः स्तनः सह प्राणैः कालेनेव वयस्तनोः ॥ ४ ॥

हिन्वतोऽधः शयानस्य मास्यस्य चरणावुदक् ।

अनोऽपतद् विपर्यस्तं रुदतः प्रपदाहतम् ॥ ५ ॥

एकहायन आसीनो ह्रियमाणो विहायसा ।

दैत्येन यस्तृणावर्त महन् कण्ठग्रहातुरम् ॥ ६ ॥

क्वचिद् हैयङ्‌गवस्तैन्ये मात्रा बद्ध उलूखले ।

गच्छन् अर्जुनयोर्मध्ये बाहुभ्यां तावपातयत् ॥ ७ ॥

वने सञ्चारयन् वत्सान् सरामो बालकैर्वृतः ।

हन्तुकामं बकं दोर्भ्यां मुखतोऽरिमपाटयत् ॥ ८ ॥

वत्सेषु वत्सरूपेण प्रविशन्तं जिघांसया ।

हत्वा न्यपातयत्तेन कपित्थानि च लीलया ॥ ९ ॥

हत्वा रासभदैतेयं तद्‍बन्धूंश्च बलान्वितः ।

चक्रे तालवनं क्षेमं परिपक्व फलान्वितम् ॥ १० ॥

प्रलम्बं घातयित्वोग्रं बलेन बलशालिना ।

अमोचयद् व्रजपशून् गोपांश्चारण्यवह्नितः ॥ ११ ॥

आशीविषतमाहीन्द्रं दमित्वा विमदं ह्रदात् ।

प्रसह्योद्वास्य यमुनां चक्रेऽसौ निर्विषोदकाम् ॥ १२ ॥

दुस्त्यजश्चानुरागोऽस्मिन् सर्वेषां नो व्रजौकसाम् ।

नन्द ते तनयेऽस्मासु तस्याप्यौत्पत्तिकः कथम् ॥ १३ ॥

क्व सप्तहायनो बालः क्व महाद्रिविधारणम् ।

ततो नो जायते शङ्‌का व्रजनाथ तवात्मजे ॥ १४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! व्रजके गोप भगवान्‌ श्रीकृष्णके ऐसे अलौकिक कर्म देखकर बड़े आश्चर्यमें पड़ गये। उन्हें भगवान्‌ की अनन्त शक्तिका तो पता था नहीं, वे इकट्ठे होकर आपसमें इस प्रकार कहने लगे॥ १ ॥ इस बालकके ये कर्म बड़े अलौकिक हैं। इसका हमारे-जैसे गँवार ग्रामीणों में जन्म लेना तो इसके लिये बड़ी निन्दाकी बात है। यह भला कैसे उचित हो सकता है ॥ २ ॥ जैसे गजराज कोई कमल उखाडक़र उसे ऊपर उठा ले और धारण करे, वैसे ही इस नन्हें-से सात वर्षके बालकने एक ही हाथसे गिरिराज गोवद्र्धनको उखाड़ लिया और खेल- खेलमें सात दिनोंतक उठाये रखा ॥ ३ ॥ यह साधारण मनुष्यके लिये भला, कैसे सम्भव है ? जब यह नन्हा-सा बच्चा था, उस समय बड़ी भयङ्कर राक्षसी पूतना आयी और इसने आँख बंद किये- किये ही उसका स्तन तो पिया ही, प्राण भी पी डालेठीक वैसे ही, जैसे काल शरीरकी आयुको निगल जाता है ॥ ४ ॥ जिस समय यह केवल तीन महीनेका था और छकड़ेके नीचे सोकर रो रहा था, उस समय रोते-रोते इसने ऐसा पाँव उछाला कि उसकी ठोकरसे वह बड़ा भारी छकड़ा उलटकर गिर ही पड़ा ॥ ५ ॥ उस समय तो यह एक ही वर्षका था, जब दैत्य बवंडरके रूपमें इसे बैठे-बैठे आकाशमें उड़ा ले गया था। तुम सब जानते ही हो कि इसने उस तृणावर्त दैत्यको गला घोंटकर मार डाला ॥ ६ ॥ उस दिनकी बात तो सभी जानते हैं कि माखनचोरी करनेपर यशोदारानीने इसे ऊखलसे बाँध दिया था। यह घुटनोंके बल बकैंया खींचते-खींचते उन दोनों विशाल अर्जुन वृक्षोंके बीचमेंसे निकल गया और उन्हें उखाड़ ही डाला ॥ ७ ॥ जब यह ग्वालबाल और बलरामजीके साथ बछड़ोंको चरानेके लिये वनमें गया हुआ था, उस समय इसको मार डालनेके लिये एक दैत्य बगुलेके रूपमें आया और इसने दोनों हाथोंसे उसके दोनों ठोर पकडक़र उसे तिनकेकी तरह चीर डाला ॥ ८ ॥ जिस समय इसको मार डालनेकी इच्छासे एक दैत्य बछड़ेके रूपमें बछड़ों के झुंडमें घुस गया था, उस समय इसने उस दैत्यको खेल-ही-खेलमें मार डाला और उसे कैथके पेड़ोंपर पटककर उन पेड़ोंको भी गिरा दिया ॥ ९ ॥ इसने बलरामजी के साथ मिलकर गधे के रूपमें रहनेवाले धेनुकासुर तथा उसके भाई-बन्धुओं को मार डाला और पके हुए फलोंसे पूर्ण तालवन को सबके लिये उपयोगी और मङ्गलमय बना दिया ॥ १० ॥ इसीने बलशाली बलरामजीके द्वारा क्रूर प्रलम्बासुरको मरवा डाला तथा दावानलसे गौओं और ग्वालबालोंको उबार लिया ॥ ११ ॥ यमुनाजलमें रहनेवाला कालियनाग कितना विषैला था ? परंतु इसने उसका भी मान मर्दन कर उसे बलपूर्वक दहसे निकाल दिया और यमुनाजीका जल सदाके लिये विषरहितअमृतमय बना दिया ॥ १२ ॥ नन्दजी ! हम यह भी देखते हैं कि तुम्हारे इस साँवले बालकपर हम सभी व्रजवासियोंका अनन्त प्रेम है और इसका भी हमपर स्वाभाविक ही स्नेह है। क्या आप बतला सकते हैं कि इसका क्या कारण है ॥ १३ ॥ भला, कहाँ तो यह सात वर्षका नन्हा-सा बालक और कहाँ इतने बड़े गिरिराजको सात दिनोंतक उठाये रखना ! व्रजराज ! इसीसे तो तुम्हारे पुत्रके सम्बन्धमें हमें बड़ी शङ्का हो रही है ॥ १४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शनिवार, 11 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

गोवर्धनधारण

 

तं प्रेमवेगान् निभृता व्रजौकसो

यथा समीयुः परिरम्भणादिभिः ।

गोप्यश्च सस्नेहमपूजयन् मुदा

दध्यक्षताद्‌भिर्युयुजुः सदाशिषः ॥ २९ ॥

यशोदा रोहिणी नन्दो रामश्च बलिनां वरः ।

कृष्णमालिङ्‌ग्य युयुजुः आशिषः स्नेहकातराः ॥ ३० ॥

दिवि देवगणाः सिद्धाः साध्या गन्धर्वचारणाः ।

तुष्टुवुर्मुमुचुस्तुष्टाः पुष्पवर्षाणि पार्थिव ॥ ३१ ॥

शङ्‌खदुन्दुभयो नेदुर्दिवि देवप्रचोदिताः ।

जगुर्गन्धर्वपतयः तुंबुरुप्रमुखा नृप ॥ ३२ ॥

ततोऽनुरक्तैः पशुपैः परिश्रितो

राजन् स्वगोष्ठं सबलोऽव्रजद्धरिः ।

तथाविधान्यस्य कृतानि गोपिका

गायन्त्य ईयुर्मुदिता हृदिस्पृशः ॥ ३३ ॥

 

व्रजवासियों का हृदय प्रेम के आवेग से भर रहा था। पर्वत को रखते ही वे भगवान्‌ श्रीकृष्ण के पास दौड़ आये। कोई उन्हें हृदय से लगाने और कोई चूमने लगा। सबने उनका सत्कार किया। बड़ी-बूढ़ी गोपियों ने बड़े आनन्द और स्नेहसे दही, चावल, जल आदि से उनका मङ्गल-तिलक किया और उन्मुक्त हृदयसे शुभ आशीर्वाद दिये ॥ २९ ॥ यशोदारानी, रोहिणीजी, नन्दबाबा और बलवानोंमें श्रेष्ठ बलरामजीने स्नेहातुर होकर श्रीकृष्णको हृदयसे लगा लिया तथा आशीर्वाद दिये ॥ ३० ॥ परीक्षित्‌ ! उस समय आकाशमें स्थित देवता, साध्य, सिद्ध, गन्धर्व और चारण आदि प्रसन्न होकर भगवान्‌ की स्तुति करते हुए उनपर फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ ३१ ॥ राजन् ! स्वर्गमें देवतालोग शङ्ख और नौबत बजाने लगे। तुम्बुरु आदि गन्धर्वराज भगवान्‌ की मधुर लीला का गान करने लगे ॥ ३२ ॥ इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने व्रज की यात्रा की। उनके बगल में बलराम जी चल रहे थे और उनके प्रेमी ग्वालबाल उनकी सेवा कर रहे थे । उनके साथ ही प्रेममयी गोपियाँ भी अपने हृदय को आकर्षित करनेवाले, उसमें प्रेम जगाने वाले भगवान्‌ की गोवर्धनधारण आदि लीलाओंका गान करती हुई बड़े आनन्दसे व्रजमें लौट आयीं ॥ ३३ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...