॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
श्रीकृष्ण
के विरह में गोपियों की दशा
इत्येवं
दर्शयन्त्यस्ताश्चेरुर्गोप्यो विचेतसः ।
यां
गोपीमनयत्कृष्णो विहायान्याः स्त्रियो वने ॥ ३६ ॥
सा
च मेने तदात्मानं वरिष्ठं सर्वयोषिताम् ।
हित्वा
गोपीः कामयाना मामसौ भजते प्रियः ॥ ३७ ॥
ततो
गत्वा वनोद्देशं दृप्ता केशवमब्रवीत् ।
न
पारयेऽहं चलितुं नय मां यत्र ते मनः ॥ ३८ ॥
एवमुक्तः
प्रियामाह स्कन्ध आरुह्यतामिति ।
ततश्चान्तर्दधे
कृष्णः सा वधूरन्वतप्यत ॥ ३९ ॥
हा
नाथ रमण प्रेष्ठ क्वासि क्वासि महाभुज ।
दास्यास्ते
कृपणाया मे सखे दर्शय सन्निधिम् ॥ ४० ॥
श्रीशुक
उवाच
अन्विच्छन्त्यो
भगवतो मार्गं गोप्योऽविदूरितः ।
ददृशुः
प्रियविश्लेषान्मोहितां दुःखितां सखीम् ॥ ४१ ॥
तया
कथितमाकर्ण्य मानप्राप्तिं च माधवात् ।
अवमानं
च दौरात्म्याद्विस्मयं परमं ययुः ॥ ४२ ॥
ततोऽविशन्
वनं चन्द्र ज्योत्स्ना यावद्विभाव्यते ।
तमः
प्रविष्टमालक्ष्य ततो निववृतुः स्त्रियः ॥ ४३ ॥
तन्मनस्कास्तदलापास्तद्विचेष्टास्तदात्मिकाः
।
तद्गुणानेव
गायन्त्यो नात्मगाराणि सस्मरुः ॥ ४४ ॥
पुनः
पुलिनमागत्य कालिन्द्याः कृष्णभावनाः ।
समवेता
जगुः कृष्णं तदागमनकाङ्क्षिताः ॥ ४५ ॥
इस
प्रकार गोपियाँ मतवाली-सी होकर—अपनी सुधबुध खोकर एक-दूसरेको
भगवान् श्रीकृष्णके चरणचिह्न दिखलाती हुई वन-वनमें भटक रही थीं। इधर भगवान्
श्रीकृष्ण दूसरी गोपियोंको वनमें छोडक़र जिस भाग्यवती गोपीको एकान्तमें ले गये थे,
उसने समझा कि ‘मैं ही समस्त गोपियोंमें
श्रेष्ठ हूँ। इसीलिये तो हमारे प्यारे श्रीकृष्ण दूसरी गोपियोंको छोडक़र, जो उन्हें इतना चाहती हैं, केवल मेरा ही मान करते
हैं। मुझे ही आदर दे रहे हैं ॥ ३६-३७ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्मा और शङ्करके भी
शासक हैं। वह गोपी वनमें जाकर अपने प्रेम और सौभाग्यके मदसे मतवाली हो गयी और
उन्हीं श्रीकृष्णसे कहने लगीं—‘प्यारे ! मुझसे अब तो और नहीं
चला जाता। मेरे सुकुमार पाँव थक गये हैं। अब तुम जहाँ चलना चाहो, मुझे अपने कंधेपर चढ़ाकर ले चलो’ ॥ ३८ ॥ अपनी प्रियतमाकी
यह बात सुनकर श्यामसुन्दरने कहा—‘अच्छा प्यारी ! तुम अब मेरे
कंधेपर चढ़ लो।’ यह सुनकर वह गोपी ज्यों ही उनके कंधेपर चढऩे
चली, त्यों ही श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और वह सौभाग्यवती
गोपी रोने-पछताने लगी ॥ ३९ ॥ ‘हा नाथ ! हा रमण ! हा प्रेष्ठ
! हा महाभुज ! तुम कहाँ हो ! कहाँ हो !! मेरे सखा ! मैं तुम्हारी दीन-हीन दासी
हूँ। शीघ्र ही मुझे अपने सान्निध्यका अनुभव कराओ, मुझे दर्शन
दो’ ॥ ४० ॥ परीक्षित् ! गोपियाँ भगवान् के चरणचिह्नोंके
सहारे उनके जानेका मार्ग ढूँढ़ती-ढूँढ़ती वहाँ जा पहुँची। थोड़ी दूरसे ही उन्हेंने
देखा कि उनकी सखी अपने प्रियतम के वियोग से दुखी होकर अचेत हो गयी है ॥ ४१ ॥ जब
उन्होंने उसे जगाया, तब उसने भगवान् श्रीकृष्णसे उसे जो
प्यार और सम्मान प्राप्त हुआ था, वह उनको सुनाया। उसने यह भी
कहा कि ‘मैंने कुटिलतावश उनका अपमान किया, इसीसे वे अन्तर्धान हो गये।’ उसकी बात सुनकर
गोपियोंके आश्चर्यकी सीमा न रही ॥ ४२ ॥
इसके
बाद वनमें जहाँतक चन्द्रदेवकी चाँदनी छिटक रही थी, वहाँतक वे
उन्हें ढूँढ़ती हुई गयीं। परंतु जब उन्होंने देखा कि आगे घना अन्धकार है—घोर जंगल है—हम ढूँढ़ती जायँगी तो श्रीकृष्ण और भी
उसके अंदर घुस जायँगे, तब वे उधरसे लौट आयीं ॥ ४३ ॥
परीक्षित् ! गोपियोंका मन श्रीकृष्णमय हो गया था। उनकी वाणीसे कृष्णचर्चाके
अतिरिक्त और कोई बात नहीं निकलती थी। उनके शरीरसे केवल श्रीकृष्णके लिये और केवल
श्रीकृष्णकी चेष्टाएँ हो रही थीं। कहाँतक कहूँ; उनका रोम-रोम,
उनकी आत्मा श्रीकृष्णमय हो रही थी। वे केवल उनके गुणों और लीलाओंका
ही गान कर रही थीं और उनमें इतनी तन्मय हो रही थीं कि उन्हें अपने शरीरकी भी सुध
नहीं थी, फिर घरकी याद कौन करता ? ॥ ४४
॥ गोपियोंका रोम-रोम इस बातकी प्रतीक्षा और आकाङ्क्षा कर रहा था कि जल्दी-से-जल्दी
श्रीकृष्ण आयें। श्रीकृष्णकी ही भावना में डूबी हुई गोपियाँ यमुनाजी के पावन पुलिन
पर—रमणरेती में लौट आयीं और एक साथ मिल कर श्रीकृष्ण के
गुणों का गान करने लगीं ॥ ४५ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे रासक्रीडायां कृष्णान्वेषणं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से