सोमवार, 20 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दशा

 

इत्येवं दर्शयन्त्यस्ताश्चेरुर्गोप्यो विचेतसः ।

यां गोपीमनयत्कृष्णो विहायान्याः स्त्रियो वने ॥ ३६ ॥

सा च मेने तदात्मानं वरिष्ठं सर्वयोषिताम् ।

हित्वा गोपीः कामयाना मामसौ भजते प्रियः ॥ ३७ ॥

ततो गत्वा वनोद्देशं दृप्ता केशवमब्रवीत् ।

न पारयेऽहं चलितुं नय मां यत्र ते मनः ॥ ३८ ॥

एवमुक्तः प्रियामाह स्कन्ध आरुह्यतामिति ।

ततश्चान्तर्दधे कृष्णः सा वधूरन्वतप्यत ॥ ३९ ॥

हा नाथ रमण प्रेष्ठ क्वासि क्वासि महाभुज ।

दास्यास्ते कृपणाया मे सखे दर्शय सन्निधिम् ॥ ४० ॥

 

श्रीशुक उवाच

अन्विच्छन्त्यो भगवतो मार्गं गोप्योऽविदूरितः ।

ददृशुः प्रियविश्लेषान्मोहितां दुःखितां सखीम् ॥ ४१ ॥

तया कथितमाकर्ण्य मानप्राप्तिं च माधवात् ।

अवमानं च दौरात्म्याद्विस्मयं परमं ययुः ॥ ४२ ॥

ततोऽविशन् वनं चन्द्र ज्योत्स्ना यावद्विभाव्यते ।

तमः प्रविष्टमालक्ष्य ततो निववृतुः स्त्रियः ॥ ४३ ॥

तन्मनस्कास्तदलापास्तद्विचेष्टास्तदात्मिकाः ।

तद्गुणानेव गायन्त्यो नात्मगाराणि सस्मरुः ॥ ४४ ॥

पुनः पुलिनमागत्य कालिन्द्याः कृष्णभावनाः ।

समवेता जगुः कृष्णं तदागमनकाङ्क्षिताः ॥ ४५ ॥

 

 

इस प्रकार गोपियाँ मतवाली-सी होकरअपनी सुधबुध खोकर एक-दूसरेको भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणचिह्न दिखलाती हुई वन-वनमें भटक रही थीं। इधर भगवान्‌ श्रीकृष्ण दूसरी गोपियोंको वनमें छोडक़र जिस भाग्यवती गोपीको एकान्तमें ले गये थे, उसने समझा कि मैं ही समस्त गोपियोंमें श्रेष्ठ हूँ। इसीलिये तो हमारे प्यारे श्रीकृष्ण दूसरी गोपियोंको छोडक़र, जो उन्हें इतना चाहती हैं, केवल मेरा ही मान करते हैं। मुझे ही आदर दे रहे हैं ॥ ३६-३७ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण ब्रह्मा और शङ्करके भी शासक हैं। वह गोपी वनमें जाकर अपने प्रेम और सौभाग्यके मदसे मतवाली हो गयी और उन्हीं श्रीकृष्णसे कहने लगीं—‘प्यारे ! मुझसे अब तो और नहीं चला जाता। मेरे सुकुमार पाँव थक गये हैं। अब तुम जहाँ चलना चाहो, मुझे अपने कंधेपर चढ़ाकर ले चलो॥ ३८ ॥ अपनी प्रियतमाकी यह बात सुनकर श्यामसुन्दरने कहा—‘अच्छा प्यारी ! तुम अब मेरे कंधेपर चढ़ लो।यह सुनकर वह गोपी ज्यों ही उनके कंधेपर चढऩे चली, त्यों ही श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और वह सौभाग्यवती गोपी रोने-पछताने लगी ॥ ३९ ॥ हा नाथ ! हा रमण ! हा प्रेष्ठ ! हा महाभुज ! तुम कहाँ हो ! कहाँ हो !! मेरे सखा ! मैं तुम्हारी दीन-हीन दासी हूँ। शीघ्र ही मुझे अपने सान्निध्यका अनुभव कराओ, मुझे दर्शन दो॥ ४० ॥ परीक्षित्‌ ! गोपियाँ भगवान्‌ के चरणचिह्नोंके सहारे उनके जानेका मार्ग ढूँढ़ती-ढूँढ़ती वहाँ जा पहुँची। थोड़ी दूरसे ही उन्हेंने देखा कि उनकी सखी अपने प्रियतम के वियोग से दुखी होकर अचेत हो गयी है ॥ ४१ ॥ जब उन्होंने उसे जगाया, तब उसने भगवान्‌ श्रीकृष्णसे उसे जो प्यार और सम्मान प्राप्त हुआ था, वह उनको सुनाया। उसने यह भी कहा कि मैंने कुटिलतावश उनका अपमान किया, इसीसे वे अन्तर्धान हो गये।उसकी बात सुनकर गोपियोंके आश्चर्यकी सीमा न रही ॥ ४२ ॥

इसके बाद वनमें जहाँतक चन्द्रदेवकी चाँदनी छिटक रही थी, वहाँतक वे उन्हें ढूँढ़ती हुई गयीं। परंतु जब उन्होंने देखा कि आगे घना अन्धकार हैघोर जंगल हैहम ढूँढ़ती जायँगी तो श्रीकृष्ण और भी उसके अंदर घुस जायँगे, तब वे उधरसे लौट आयीं ॥ ४३ ॥ परीक्षित्‌ ! गोपियोंका मन श्रीकृष्णमय हो गया था। उनकी वाणीसे कृष्णचर्चाके अतिरिक्त और कोई बात नहीं निकलती थी। उनके शरीरसे केवल श्रीकृष्णके लिये और केवल श्रीकृष्णकी चेष्टाएँ हो रही थीं। कहाँतक कहूँ; उनका रोम-रोम, उनकी आत्मा श्रीकृष्णमय हो रही थी। वे केवल उनके गुणों और लीलाओंका ही गान कर रही थीं और उनमें इतनी तन्मय हो रही थीं कि उन्हें अपने शरीरकी भी सुध नहीं थी, फिर घरकी याद कौन करता ? ॥ ४४ ॥ गोपियोंका रोम-रोम इस बातकी प्रतीक्षा और आकाङ्क्षा कर रहा था कि जल्दी-से-जल्दी श्रीकृष्ण आयें। श्रीकृष्णकी ही भावना में डूबी हुई गोपियाँ यमुनाजी के पावन पुलिन पररमणरेती में लौट आयीं और एक साथ मिल कर श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगीं ॥ ४५ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडायां कृष्णान्वेषणं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दशा

 

एवं कृष्णं पृच्छमाना व्र्ण्दावनलतास्तरून् ।

व्यचक्षत वनोद्देशे पदानि परमात्मनः ॥ २४ ॥

पदानि व्यक्तमेतानि नन्दसूनोर्महात्मनः ।

लक्ष्यन्ते हि ध्वजाम्भोज वज्राङ्कुशयवादिभिः ॥ २५ ॥

तैस्तैः पदैस्तत्पदवीमन्विच्छन्त्योऽग्रतोऽबलाः ।

वध्वाः पदैः सुपृक्तानि विलोक्यार्ताः समब्रुवन् ॥ २६ ॥

कस्याः पदानि चैतानि याताया नन्दसूनुना ।

अंसन्यस्तप्रकोष्ठायाः करेणोः करिणा यथा ॥ २७ ॥

अनयाराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः ।

यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद्रहः ॥ २८ ॥

धन्या अहो अमी आल्यो गोविन्दाङ्घ्र्यब्जरेणवः ।

यान् ब्रह्मेशौ रमा देवी दधुर्मूर्ध्न्यघनुत्तये ॥ २९ ॥

तस्या अमूनि नः क्षोभं कुर्वन्त्युच्चैः पदानि यत्-

यैकापहृत्य गोपीनां रहो भुन्क्तेऽच्युताधरम् ॥ ३० ॥

न लक्ष्यन्ते पदान्यत्र तस्या नूनं तृणाङ्कुरैः

खिद्यत्सुजाताङ्घ्रितलामुन्निन्ये प्रेयसीं प्रियः ॥ ३१ ॥

इमान्यधिकमग्नानि पदानि वहतो वधूम् ।

गोप्यः पश्यत कृष्णस्य भाराक्रान्तस्य कामिनः ॥ ३२ ॥

अत्रावरोपिता कान्ता पुष्पहेतोर्महात्मना  

अत्र प्रसूनावचयः प्रियार्थे प्रेयसा कृतः ।

प्रपदाक्रमण एते पश्यतासकले पदे ॥ ३३ ॥

केशप्रसाधनं त्वत्र कामिन्याः कामिना कृतम् ।

तानि चूडयता कान्तामुपविष्टमिह ध्रुवम् ॥ ३४ ॥

रेमे तया चात्मरत आत्मारामोऽप्यखण्डितः ।

कामिनां दर्शयन् दैन्यं स्त्रीणां चैव दुरात्मताम् ॥ ३५ ॥

 

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार लीला करते-करते गोपियाँ वृन्दावनके वृक्ष और लता आदिसे फिर भी श्रीकृष्णका पता पूछने लगीं। इसी समय उन्होंने एक स्थानपर भगवान्‌के चरणचिह्न देखे ॥ २४ ॥ वे आपसमें कहने लगीं—‘अवश्य ही ये चरणचिह्न उदारशिरोमणि नन्दनन्दन श्यामसुन्दरके हैं; क्योंकि इनमें ध्वजा, कमल, वज्र, अङ्कुश और जौ आदिके चिह्न स्पष्ट ही दीख रहे हैं॥ २५ ॥ उन चरणचिह्नोंके द्वारा व्रजवल्लभ भगवान्‌को ढूँढ़ती हुई गोपियाँ आगे बढ़ीं, तब उन्हें श्रीकृष्णके साथ किसी व्रजयुवतीके भी चरणचिह्न दीख पड़े। उन्हें देखकर वे व्याकुल हो गयीं। और आपसमें कहने लगीं॥ २६ ॥ जैसे हथिनी अपने प्रियतम गजराजके साथ गयी हो, वैसे ही नन्दनन्दन श्यामसुन्दरके साथ उनके कंधेपर हाथ रखकर चलनेवाली किस बड़भागिनीके ये चरणचिह्न हैं ? ॥ २७ ॥ अवश्य ही सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्णकी यह आराधिकाहोगी। इसीलिये इसपर प्रसन्न होकर हमारे प्राणप्यारे श्यामसुन्दरने हमें छोड़ दिया है और इसे एकान्तमें ले गये हैं ॥ २८ ॥ प्यारी सखियो ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने चरणकमलसे जिस रजका स्पर्श कर देते हैं, वह धन्य हो जाती है, उसके अहोभाग्य हैं; क्योंकि ब्रह्मा, शङ्कर और लक्ष्मी आदि भी अपने अशुभ नष्ट करनेके लिये उस रजको अपने सिरपर धारण करते हैं॥ २९ ॥ अरी सखी ! चाहे कुछ भी होयह जो सखी हमारे सर्वस्व श्रीकृष्णको एकान्तमें ले जाकर अकेले ही उनकी अधर-सुधाका रस पी रही है, इस गोपीके उभरे हुए चरणचिह्न तो हमारे हृदयमें बड़ा ही क्षोभ उत्पन्न कर रहे हैं॥ ३० ॥ यहाँ उस गोपीके पैर नहीं दिखायी देते। मालूम होता है, यहाँ प्यारे श्यामसुन्दरने देखा होगा कि मेरी प्रेयसीके सुकुमार चरणकमलोंमें घासकी नोक गड़ती होगी; इसलिये उन्होंने उसे अपने कंधेपर चढ़ा लिया होगा ॥ ३१ ॥ सखियो ! यहाँ देखो, प्यारे श्रीकृष्णके चरणचिह्न अधिक गहरेबालूमें धँसे हुए हैं। इससे सूचित होता है कि यहाँ वे किसी भारी वस्तुको उठाकर चले हैं, उसीके बोझसे उनके पैर जमीनमें धँस गये हैं। हो-न-हो यहाँ उस कामीने अपनी प्रियतमाको अवश्य कंधेपर चढ़ाया होगा ॥ ३२ ॥ देखो-देखो, यहाँ परमप्रेमी व्रजवल्लभने फूल चुननेके लिये अपनी प्रेयसीको नीचे उतार दिया है और यहाँ परम प्रियतम श्रीकृष्णने अपनी प्रेयसीके लिये फूल चुने हैं। उचक-उचककर फूल तोडऩेके कारण यहाँ उनके पंजे तो धरतीमें गड़े हुए हैं और एड़ीका पता ही नहीं है ॥ ३३ ॥ परम प्रेमी श्रीकृष्णने कामी पुरुषके समान यहाँ अपनी प्रेयसीके केश सँवारे हैं। देखो, अपने चुने हुए फूलोंको प्रेयसीकी चोटीमें गूँथनेके लिये वे यहाँ अवश्य ही बैठे रहे होंगे ॥ ३४ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण आत्माराम हैं। वे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट और पूर्ण हैं। जब वे अखण्ड हैं, उनमें दूसरा कोई है ही नहीं, तब उनमें कामकी कल्पना कैसे हो सकती है ? फिर भी उन्होंने कामियोंकी दीनता-स्त्रीपरवशता और स्त्रियोंकी कुटिलता दिखलाते हुए वहाँ उस गोपीके साथ एकान्तमें क्रीडा की थीएक खेल रचा था ॥ ३५ ॥

 

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रविवार, 19 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दशा

 

इत्युन्मत्तवचो गोप्यः कृष्णान्वेषणकातराः ।

लीला भगवतस्तास्ता ह्यनुचक्रुस्तदात्मिकाः ॥ १४ ॥

कस्याचित्पूतनायन्त्याः कृष्णायन्त्यपिबत्स्तनम् ।

तोकयित्वा रुदत्यन्या पदाहन् शकटायतीम् ॥ १५ ॥

दैत्यायित्वा जहारान्यामेको कृष्णार्भभावनाम् ।

रिङ्गयामास काप्यङ्घ्री कर्षन्ती घोषनिःस्वनैः ॥ १६ ॥

कृष्णरामायिते द्वे तु गोपायन्त्यश्च काश्चन ।

वत्सायतीं हन्ति चान्या तत्रैका तु बकायतीम् ॥ १७ ॥

आहूय दूरगा यद्वत्कृष्णस्तमनुवर्ततीम् ।

वेणुं क्वणन्तीं क्रीडन्तीमन्याः शंसन्ति साध्विति ॥ १८ ॥

कस्याञ्चित्स्वभुजं न्यस्य चलन्त्याहापरा ननु ।

कृष्णोऽहं पश्यत गतिं ललितामिति तन्मनाः ॥ १९ ॥

मा भैष्ट वातवर्षाभ्यां तत्त्राणं विहितं मय ।

इत्युक्त्वैकेन हस्तेन यतन्त्युन्निदधेऽम्बरम् ॥ २० ॥

आरुह्यैका पदाक्रम्य शिरस्याहापरां नृप ।

दुष्टाहे गच्छ जातोऽहं खलानां ननु दण्डधृक् ॥ २१ ॥

तत्रैकोवाच हे गोपा दावाग्निं पश्यतोल्बणम् ।

चक्षूंष्याश्वपिदध्वं वो विधास्ये क्षेममञ्जसा ॥ २२ ॥

बद्धान्यया स्रजा काचित्तन्वी तत्र उलूखले ।

भीता सुदृक्पिधायास्यं भेजे भीतिविडम्बनम् ॥ २३ ॥

 

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार मतवाली गोपियाँ प्रलाप करती हुई भगवान्‌ श्रीकृष्णको ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कातर हो रही थीं। अब और भी गाढ़ आवेश हो जानेके कारण वे भगवन्मय होकर भगवान्‌की विभिन्न लीलाओंका अनुकरण करने लगीं ॥ १४ ॥ एक पूतना बन गयी, तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसका स्तन पीने लगीं। कोई छकड़ा बन गयी, तो किसीने बालकृष्ण बनकर रोते हुए उसे पैरकी ठोकर मारकर उलट दिया ॥ १५ ॥ कोई सखी बालकृष्ण बनकर बैठ गयी तो कोई तृणावर्त दैत्यका रूप धारण करके उसे हर ले गयी। कोई गोपी पाँव घसीट-घसीटकर घुटनों के बल बकैयाँ चलने लगी और उस समय उसके पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोलने लगे ॥ १६ ॥ एक बनी कृष्ण, तो दूसरी बनी बलराम, और बहुत-सी गोपियाँ ग्वालबालों के रूपमें हो गयीं। एक गोपी बन गयी वत्सासुर, तो दूसरी बनी बकासुर। तब तो गोपियोंने अलग-अलग श्रीकृष्ण बनकर वत्सासुर और बकासुर बनी हुई गोपियोंको मारनेकी लीला की ॥ १७ ॥ जैसे श्रीकृष्ण वनमें करते थे, वैसे ही एक गोपी बाँसुरी बजा-बजाकर दूर गये हुए पशुओंको बुलानेका खेल खेलने लगी। तब दूसरी गोपियाँ वाह-वाहकरके उसकी प्रशंसा करने लगीं ॥ १८ ॥ एक गोपी अपनेको श्रीकृष्ण समझकर दूसरी सखीके गलेमें बाँह डालकर चलती और गोपियोंसे कहने लगती—‘मित्रो ! मैं श्रीकृष्ण हूँ। तुमलोग मेरी यह मनोहर चाल देखो॥ १९ ॥ कोई गोपी श्रीकृष्ण बनकर कहती— ‘अरे व्रजवासियो ! तुम आँधी-पानीसे मत डरो। मैंने उससे बचनेका उपाय निकाल लिया है।ऐसा कहकर गोवर्धन-धारणका अनुकरण करती हुई वह अपनी ओढऩी उठाकर ऊपर तान लेती ॥ २० ॥ परीक्षित्‌ ! एक गोपी बनी कालिय नाग, तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसके सिरपर पैर रखकर चढ़ी-चढ़ी बोलने लगी—‘रे दुष्ट साँप ! तू यहाँ से चला जा। मैं दुष्टों का दमन करनेके लिये ही उत्पन्न हुआ हूँ ॥ २१ ॥ इतनेमें ही एक गोपी बोली—‘अरे ग्वालो ! देखो, वनमें बड़ी भयङ्कर आग लगी है। तुमलोग जल्दी-से-जल्दी अपनी आँखे मूँद लो, मैं अनायास ही तुमलोगोंकी रक्षा कर लूँगा॥ २२ ॥ एक गोपी यशोदा बनी और दूसरी बनी श्रीकृष्ण। यशोदा ने फूलोंकी मालासे श्रीकृष्ण को ऊखलमें बाँध दिया। अब वह श्रीकृष्ण बनी हुई सुन्दरी गोपी हाथोंसे मुँह ढाँककर भयकी नकल करने लगी ॥ २३ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दशा

 

दृष्टो वः कच्चिदश्वत्थ प्लक्ष न्यग्रोध नो मनः ।

नन्दसूनुर्गतो हृत्वा प्रेमहासावलोकनैः ॥ ५ ॥

कच्चित्कुरबकाशोक नागपुन्नागचम्पकाः ।

रामानुजो मानिनीनामितो दर्पहरस्मितः ॥ ६ ॥

कच्चित्तुलसि कल्याणि गोविन्दचरणप्रिये ।

सह त्वालिकुलैर्बिभ्रद्दृष्टस्तेऽतिप्रियोऽच्युतः ॥ ७ ॥

मालत्यदर्शि वः कच्चिन्मल्लिके जातियूथिके ।

प्रीतिं वो जनयन् यातः करस्पर्शेन माधवः ॥ ८ ॥

चूतप्रियालपनसासनकोविदार-

जम्ब्वर्कबिल्वबकुलाम्रकदम्बनीपाः ।

येऽन्ये परार्थभवका यमुनोपकूलाः

शंसन्तु कृष्णपदवीं रहितात्मनां नः ॥ ९ ॥

किं ते कृतं क्षिति तपो बत केशवाङ्घ्रि-

स्पर्शोत्सवोत्पुलकिताङ्गनहैर्विभासि ।

अप्यङ्घ्रिसम्भव उरुक्रमविक्रमाद्- 

वा आहो वराहवपुषः परिरम्भणेन ॥ १० ॥

अप्येणपत्न्युपगतः प्रिययेह गात्रै-

स्तन्वन् दृशां सखि सुनिर्वृतिमच्युतो वः ।

कान्ताङ्गसङ्गकुचकुङ्कुमरञ्जितायाः

कुन्दस्रजः कुलपतेरिह वाति गन्धः ॥ ११ ॥

बाहुं प्रियांस उपधाय गृहीतपद्मो

रामानुजस्तुलसिकालिकुलैर्मदान्धैः ।

अन्वीयमान इह वस्तरवः प्रणामं

किं वाभिनन्दति चरन् प्रणयावलोकैः ॥ १२ ॥

पृच्छतेमा लता बाहूनप्याश्लिष्टा वनस्पतेः ।

नूनं तत्करजस्पृष्टा बिभ्रत्युत्पुलकान्यहो ॥ १३ ॥

 

(गोपियोंने पहले बड़े-बड़े वृक्षोंसे जाकर पूछा) हे पीपल, पाकर और बरगद ! नन्दनन्दन श्यामसुन्दर अपनी प्रेमभरी मुसकान और चितवनसे हमारा मन चुराकर चले गये हैं। क्या तुमलोगोंने उन्हें देखा है ? ॥ ५ ॥ कुरबक, अशोक, नागकेशर, पुन्नाग और चम्पा ! बलरामजीके छोटे भाई, जिनकी मुसकानमात्रसे बड़ी-बड़ी मानिनियोंका मानमर्दन हो जाता है, इधर आये थे क्या ?’ ॥ ६ ॥ (अब उन्होंने स्त्रीजातिके पौधोंसे कहा—) ‘बहिन तुलसी ! तुम्हारा हृदय तो बड़ा कोमल है, तुम तो सभी लोगोंका कल्याण चाहती हो। भगवान्‌के चरणोंमें तुम्हारा प्रेम तो है ही, वे भी तुमसे बहुत प्यार करते हैं। तभी तो भौंरोंके मँडराते रहनेपर भी वे तुम्हारी माला नहीं उतारते, सर्वदा पहने रहते हैं। क्या तुमने अपने परम प्रियतम श्यामसुन्दरको देखा है ? ॥ ७ ॥ प्यारी मालती ! मल्लिके ! जाती और जूही ! तुमलोगोंने कदाचित् हमारे प्यारे माधवको देखा होगा। क्या वे अपने कोमल करों से स्पर्श करके तुम्हें आनन्दित करते हुए इधरसे गये हैं ? ॥ ८ ॥ रसाल, प्रियाल, कटहल, पीतशाल, कचनार, जामुन, आक, बेल, मौलसिरी, आम, कदम्ब और नीम तथा अन्यान्य यमुनाके तटपर विराजमान सुखी तरुवरो ! तुम्हारा जन्म-जीवन केवल परोपकारके लिये है। श्रीकृष्णके बिना हमारा जीवन सूना हो रहा है। हम बेहोश हो रही हैं। तुम हमें उन्हें पानेका मार्ग बता दो॥ ९ ॥ भगवान्‌ की प्रेयसी पृथ्वीदेवी ! तुमने ऐसी कौन-सी तपस्या की है कि श्रीकृष्णके चरणकमलोंका स्पर्श प्राप्त करके तुम आनन्दसे भर रही हो और तृण-लता आदिके रूपमें अपना रोमाञ्च प्रकट कर रही हो ? तुम्हारा यह उल्लास-विलास श्रीकृष्णके चरणस्पर्श के कारण है अथवा वामनावतार में विश्वरूप धारण करके उन्होंने तुम्हें जो नापा था, उसके कारण है ? कहीं उनसे भी पहले वराहभगवान्‌ के अङ्ग-सङ्ग के कारण तो तुम्हारी यह दशा नहीं हो रही है ?’ ॥ १० ॥ अरी सखी ! हरिनियो ! हमारे श्यामसुन्दर के अङ्ग-सङ्ग से सुषमा-सौन्दर्य की धारा बहती रहती है, वे कहीं अपनी प्राणप्रिया के साथ तुम्हारे नयनों को परमानन्दका दान करते हुए इधरसे ही तो नहीं गये हैं ? देखो, देखो; यहाँ कुलपति श्रीकृष्ण की कुन्दकली की मालाकी मनोहर गन्ध आ रही है, जो उनकी परम प्रेयसी के अङ्ग-सङ्ग से लगे हुए कुच-कुङ्कुम से अनुरञ्जित रहती है॥ ११ ॥ तरुवरो ! उनकी मालाकी तुलसीमें ऐसी सुगन्ध है कि उसकी गन्धके लोभी मतवाले भौंरे प्रत्येक क्षण उसपर मँडराते रहते हैं। उनके एक हाथमें लीलाकमल होगा और दूसरा हाथ अपनी प्रेयसीके कंधेपर रखे होंगे। हमारे प्यारे श्यामसुन्दर इधरसे विचरते हुए अवश्य गये होंगे। जान पड़ता है, तुमलोग उन्हें प्रणाम करनेके लिये ही झुके हो। परंतु उन्होंने अपनी प्रेमभरी चितवनसे भी तुम्हारी वन्दनाका अभिनन्दन किया है या नहीं ?’ ॥ १२ ॥ अरी सखी ! इन लताओंसे पूछो। ये अपने पति वृक्षोंको भुजपाशमें बाँधकर आलिङ्गन किये हुए हैं, इससे क्या हुआ ? इनके शरीरमें जो पुलक है, रोमाञ्च है, वह तो भगवान्‌ के नखों के स्पर्शसे ही है। अहो ! इनका कैसा सौभाग्य है ?’ ॥ १३ ॥

 

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शनिवार, 18 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दशा

 

श्रीशुक उवाच

अन्तर्हिते भगवति सहसैव व्रजाङ्गनाः ।

अतप्यंस्तमचक्षाणाः करिण्य इव यूथपम् ॥ १ ॥

गत्यानुरागस्मितविभ्रमेक्षितै-

र्मनोरमालापविहारविभ्रमैः ।

आक्षिप्तचित्ताः प्रमदा रमापते-

स्तास्ता विचेष्टा जगृहुस्तदात्मिकाः ॥ २ ॥

गतिस्मितप्रेक्षणभाषणादिषु

प्रियाः प्रियस्य प्रतिरूढमूर्तयः ।

असावहं त्वित्यबलास्तदात्मिका

न्यवेदिषुः कृष्णविहारविभ्रमाः ॥ ३ ॥

गायन्त्य उच्चैरमुमेव संहता

विचिक्युरुन्मत्तकवद्वनाद्वनम् ।

पप्रच्छुराकाशवदन्तरं बहि-

र्भूतेषु सन्तं पुरुषं वनस्पतीन् ॥ ४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ सहसा अन्तर्धान हो गये। उन्हें न देखकर व्रजयुवतियों की वैसी ही दशा हो गयी, जैसे यूथपति गजराज के बिना हथिनियों की होती है। उनका हृदय विरहकी ज्वाला से जलने लगा ॥ १ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण की मदोन्मत्त गजराज की-सी चाल, प्रेमभरी मुसकान, विलासभरी चितवन, मनोरम प्रेमालाप, भिन्न-भिन्न प्रकार की लीलाओं तथा शृङ्गार-रस की भाव-भङ्गियोंने उनके चित्तको चुरा लिया था। वे प्रेमकी मतवाली गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गयीं और फिर श्रीकृष्णकी विभिन्न चेष्टाओंका अनुकरण करने लगीं ॥ २ ॥ अपने प्रियतम श्रीकृष्णकी चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन-बोलन आदिमें श्रीकृष्णकी प्यारी गोपियाँ उनके समान ही बन गयीं; उनके शरीरमें भी वही गति-मति, वही भाव-भङ्गी उतर आयी। वे अपने को सर्वथा भूलकर श्रीकृष्णस्वरूप हो गयीं और उन्हीं के लीला-विलास का अनुकरण करती हुई मैं श्रीकृष्ण ही हूँ’—इस प्रकार कहने लगीं ॥ ३ ॥ वे सब परस्पर मिलकर ऊँचे स्वरसे उन्हींके गुणोंका गान करने लगीं और मतवाली होकर एक वनसे दूसरे वनमें, एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी में जा-जाकर श्रीकृष्ण को ढूँढने लगीं। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहीं दूर थोड़े ही गये थे। वे तो समस्त जड-चेतन पदार्थोंमें तथा उनके बाहर भी आकाश के समान एकरस स्थित ही हैं। वे वहीं थे, उन्हीं में थे, परंतु उन्हें न देखकर गोपियाँ वनस्पतियों सेपेड़-पौधों से उनका पता पूछने लगीं ॥ ४ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

 

रासलीलाका आरम्भ

 

श्रीशुक उवाच -

इति विक्लवितं तासां श्रुत्वा योगेश्वरेश्वरः ।

प्रहस्य सदयं गोपीः आत्मारामोऽप्यरीरमत् ॥ ४२ ॥

ताभिः समेताभिरुदारचेष्टितः

प्रियेक्षणोत्फुल्लमुखीभिरच्युतः ।

उदारहासद्विजकुन्ददीधतिः

व्यरोचतैणाङ्‌क इवोडुभिर्वृतः ॥ ४३ ॥

उपगीयमान उद्‍गायन् वनिताशतयूथपः ।

मालां बिभ्रद् वैजयन्तीं व्यचरन् मण्डयन् वनम् ॥ ४४ ॥

नद्याः पुलिनमाविश्य गोपीभिर्हिमवालुकम् ।

रेमे तत्तरलानन्द कुमुदामोदवायुना ॥ ४५ ॥

बाहुप्रसारपरिरम्भकरालकोरु

नीवीस्तनालभननर्मनखाग्रपातैः ।

क्ष्वेल्यावलोकहसितैर्व्रजसुन्दरीणां

उत्तम्भयन् रतिपतिं रमयाञ्चकार ॥ ४६ ॥

एवं भगवतः कृष्णात् लब्धमाना महात्मनः ।

आत्मानं मेनिरे स्त्रीणां मानिन्योऽभ्यधिकं भुवि ॥ ४७ ॥

तासां तत् सौभगमदं वीक्ष्य मानं च केशवः ।

प्रशमाय प्रसादाय तत्रैवान्तरधीयत ॥ ४८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शिवादि योगेश्वरोंके भी ईश्वर हैं । जब उन्होंने गोपियोंकी व्यथा और व्याकुलतासे भरी वाणी सुनी, तब उनका हृदय दयासे भर गया और यद्यपि वे आत्माराम हैंअपने-आपमें ही रमण करते रहते हैं, उन्हें अपने अतिरिक्त और किसी भी बाह्य वस्तुकी अपेक्षा नहीं है, फिर भी उन्होंने हँसकर उनके साथ क्रीडा प्रारम्भ की ॥ ४२ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने अपनी भाव-भङ्गी और चेष्टाएँ गोपियोंके अनुकूल कर दीं; फिर भी वे अपने स्वरूप में ज्यों-के-त्यों एकरस स्थित थे, अच्युत थे। जब वे खुलकर हँसते, तब उनके उज्ज्वल-उज्ज्वल दाँत कुन्दकली के समान जान पड़ते थे। उनकी प्रेमभरी चितवनसे और उनके दर्शनके आनन्दसे गोपियोंका मुखकमल प्रफुल्लित हो गया। वे उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़ी हो गयीं। उस समय श्रीकृष्णकी ऐसी शोभा हुई, मानो अपनी पत्नी तारिकाओंसे घिरे हुए चन्द्रमा ही हों ॥ ४३ ॥ गोपियों के शत-शत यूथोंके स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्ण वैजयन्ती माला पहने वृन्दावन को शोभायमान करते हुए विचरण करने लगे। कभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के गुण और लीलाओं का गान करतीं, तो कभी श्रीकृष्ण गोपियों के प्रेम और सौन्दर्य के गीत गाने लगते ॥ ४४ ॥ इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ यमुनाजी के पावन पुलिन पर, जो कपूर के समान चमकीली बालू से जगमगा रहा था, पदार्पण किया। वह यमुनाजी की तरल तरङ्गों के स्पर्श से शीतल और कुमुदिनी की सहज सुगन्ध से सुवासित वायु के द्वारा सेवित हो रहा था। उस आनन्दप्रद पुलिनपर भगवान्‌ ने गोपियों के साथ क्रीडा की ॥ ४५ ॥ हाथ फैलाना, आलिङ्गन करना, गोपियों के हाथ दबाना, उनकी चोटी, जाँघ, नीवी और स्तन आदि का स्पर्श करना, विनोद करना, नखक्षत करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना और मुसकानाइन क्रियाओं के द्वारा गोपियों के दिव्य कामरस को, परमोज्ज्वल प्रेमभाव को उत्तेजित करते हुए भगवान्‌ श्रीकृष्ण उन्हें क्रीडा द्वारा आनन्दित करने लगे ॥ ४६ ॥ उदारशिरोमणि सर्वव्यापक भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने जब इस प्रकार गोपियों का सम्मान किया, तब गोपियों के मनमें ऐसा भाव आया कि संसार की समस्त स्त्रियों में हम ही सर्वश्रेष्ठ हैं, हमारे समान और कोई नहीं है। वे कुछ मानवती हो गयीं ॥ ४७ ॥ जब भगवान्‌ ने देखा कि इन्हें तो अपने सुहाग का कुछ गर्व हो आया है और अब मान भी करने लगी हैं, तब वे उनका गर्व शान्त करने के लिये तथा उनका मान दूर कर प्रसन्न करने के लिये वहींउनके बीच में ही अन्तर्धान हो गये ॥ ४८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे एकोन्त्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

 

रासलीलाका आरम्भ

 

यर्ह्यम्बुजाक्ष तव पादतलं रमाया

दत्तक्षणं क्वचिदरण्यजनप्रियस्य ।

अस्प्राक्ष्म तत्प्रभृति नान्यसमक्षमङ्ग

स्थातुं त्वयाभिरमिता बत पारयामः ॥ ३६ ॥

श्रीर्यत्पदाम्बुजरजश्चकमे तुलस्या

लब्ध्वापि वक्षसि पदं किल भृत्यजुष्टम् ।

यस्याः स्ववीक्षण कृतेऽन्यसुरप्रयासः

तद्वद् वयं च तव पादरजः प्रपन्नाः ॥ ३७ ॥

तन्नः प्रसीद वृजिनार्दन तेऽन्घ्रिमूलं

प्राप्ता विसृज्य वसतीस्त्वदुपासनाशाः ।

त्वत्सुन्दरस्मित निरीक्षणतीव्रकाम

तप्तात्मनां पुरुषभूषण देहि दास्यम् ॥ ३८ ॥

वीक्ष्यालकावृतमुखं तव कुण्डलश्री

गण्डस्थलाधरसुधं हसितावलोकम् ।

दत्ताभयं च भुजदण्डयुगं विलोक्य

वक्षः श्रियैकरमणं च भवाम दास्यः ॥ ३९ ॥

का स्त्र्यङ्‌ग ते कलपदायतमूर्च्छितेन

सम्मोहितार्यचरितान्न चलेत्त्रिलोक्याम् ।

त्रैलोक्यसौभगमिदं च निरीक्ष्य रूपं

यद् गोद्विजद्रुममृगाः पुलकान्यबिभ्रन् ॥ ४० ॥

व्यक्तं भवान् व्रजभयार्तिहरोऽभिजातो

देवो यथाऽऽदिपुरुषः सुरलोकगोप्ता ।

तन्नो निधेहि करपङ्‌कजमार्तबन्धो

तप्तस्तनेषु च शिरःसु च किङ्‌करीणाम् ॥ ४१ ॥

 

प्यारे कमलनयन ! तुम वनवासियों के प्यारे हो और वे भी तुमसे बहुत प्रेम करते हैं। इससे प्राय: तुम उन्हींके पास रहते हो। यहाँतक कि तुम्हारे जिन चरणकमलोंकी सेवाका अवसर स्वयं लक्ष्मीजीको भी कभी-कभी ही मिलता है, उन्हीं चरणोंका स्पर्श हमें प्राप्त हुआ। जिस दिन यह सौभाग्य हमें मिला और तुमने हमें स्वीकार करके आनन्दित किया, उसी दिनसे हम और किसीके सामने एक क्षणके लिये भी ठहरनेमें असमर्थ हो गयी हैंपति-पुत्रादिकोंकी सेवा तो दूर रही ॥ ३६ ॥ हमारे स्वामी ! जिन लक्ष्मीजीका कृपाकटाक्ष प्राप्त करनेके लिये बड़े-बड़े देवता तपस्या करते रहते हैं, वही लक्ष्मीजी तुम्हारे वक्ष:स्थलमें बिना किसीकी प्रतिद्वन्ङ्क्षद्वताके स्थान प्राप्त कर लेनेपर भी अपनी सौत तुलसी के साथ तुम्हारे चरणों की रज पानेकी अभिलाषा किया करती हैं। अबतक के सभी भक्तों ने उस चरणरज का सेवन किया है। उन्हींके समान हम भी तुम्हारी उसी चरणरज की शरणमें आयी हैं ॥ ३७ ॥ भगवन् ! अबतक जिसने भी तुम्हारे चरणों की शरण ली, उसके सारे कष्ट तुमने मिटा दिये। अब तुम हमपर कृपा करो। हमें भी अपने प्रसाद का भाजन बनाओ। हम तुम्हारी सेवा करनेकी आशा-अभिलाषासे घर, गाँव, कुटुम्बसब कुछ छोडक़र तुम्हारे युगल चरणोंकी शरणमें आयी हैं। प्रियतम ! वहाँ तो तुम्हारी आराधना के लिये अवकाश ही नहीं है। पुरुषभूषण ! पुरुषोत्तम ! तुम्हारी मधुर मुसकान और चारु चितवन ने हमारे हृदयमें प्रेमकीमिलनकी आकाङ्क्षाकी आग धधका दी है; हमारा रोम-रोम उससे जल रहा है। तुम हमें अपनी दासीके रूपमें स्वीकार कर लो। हमें अपनी सेवाका अवसर दो ॥ ३८ ॥ प्रियतम ! तुम्हारा सुन्दर मुखकमल जिसपर घुँघराली अलकें झलक रही हैं; तुम्हारे ये कमनीय कपोल, जिनपर सुन्दर- सुन्दर कुण्डल अपना अनन्त सौन्दर्य बिखेर रहे हैं; तुम्हारे ये मधुर अधर, जिनकी सुधा सुधाको भी लजानेवाली है; तुम्हारी यह नयनमनोहारी चितवन, जो मन्द-मन्द मुसकानसे उल्लसित हो रही है; तुम्हारी ये दोनों भुजाएँ, जो शरणागतोंको अभयदान देनेमें अत्यन्त उदार हैं और तुम्हारा यह वक्ष:स्थल, जो लक्ष्मीजीकासौन्दर्यकी एकमात्र देवीका नित्य क्रीडास्थल है, देखकर हम सब तुम्हारी दासी हो गयी हैं ॥ ३९ ॥ प्यारे श्यामसुन्दर ! तीनों लोकोंमें भी और ऐसी कौन-सी स्त्री है, जो मधुर-मधुर पद और आरोह-अवरोह-क्रमसे विविध प्रकारकी मूच्र्छनाओंसे युक्त तुम्हारी वंशीकी तान सुनकर तथा इस त्रिलोकसुन्दर मोहिनी मूर्तिकोजो अपने एक बूँद सौन्दर्यसे त्रिलोकीको सौन्दर्यका दान करती है एवं जिसे देखकर गौ, पक्षी, वृक्ष और हरिन भी रोमाञ्चित, पुलकित हो जाते हैंअपने नेत्रोंसे निहार- कर आर्य-मर्यादासे विचलित न हो जाय, कुल-कान और लोक-लज्जाको त्यागकर तुममें अनुरक्त न हो जाय ॥ ४० ॥ हमसे यह बात छिपी नहीं है कि जैसे भगवान्‌ नारायण देवताओंकी रक्षा करते हैं, वैसे ही तुम व्रजमण्डलका भय और दु:ख मिटानेके लिये ही प्रकट हुए हो ! और यह भी स्पष्ट ही है कि दीन-दुखियोंपर तुम्हारा बड़ा प्रेम, बड़ी कृपा है । प्रियतम ! हम भी बड़ी दु:खिनी हैं । तुम्हारे मिलन की आकाङ्क्षा की आगसे हमारा वक्ष:स्थल जल रहा है। तुम अपनी इन दासियोंके वक्ष:स्थल और सिरपर अपने कोमल करकमल रखकर इन्हें अपना लो; हमें जीवनदान दो ॥४१॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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