सोमवार, 3 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

युगलगीत

 

श्रीशुक उवाच -

गोप्यः कृष्णे वनं याते तमनुद्रुतचेतसः ।

कृष्णलीलाः प्रगायन्त्यो निन्युर्दुःखेन वासरान् ॥ १ ॥

 

श्रीगोप्य ऊचुः -

वामबाहुकृतवामकपोलो

वल्गितभ्रुरधरार्पितवेणुम् ।

कोमलाङ्‌गुलिभिराश्रितमार्गं

गोप्य ईरयति यत्र मुकुन्दः ॥ २ ॥

व्योमयानवनिताः सह सिद्धैः

विस्मितास्तदुपधार्य सलज्जाः ।

काममार्गणसमर्पितचित्ताः

कश्मलं ययुरपस्मृतनीव्यः ॥ ३ ॥

हन्त चित्रमबलाः श्रृणुतेदं

हारहास उरसि स्थिरविद्युत् ।

नन्दसूनुरयमार्तजनानां

नर्मदो यर्हि कूजितवेणुः ॥ ४ ॥

वृन्दशो व्रजवृषा मृगगावो

वेणुवाद्यहृतचेतस आरात् ।

दन्तदष्टकवला धृतकर्णा

निद्रिता लिखितचित्रमिवासन् ॥ ५ ॥

बर्हिणस्तबकधातुपलाशैः

बद्धमल्लपरिबर्हविडम्बः ।

कर्हिचित्सबल आलि स गोपैः

गाः समाह्वयति यत्र मुकुन्दः ॥ ६ ॥

तर्हि भग्नगतयः सरितो वै

तत्पदाम्बुजरजोऽनिलनीतम् ।

स्पृहयतीर्वयमिवाबहुपुण्याः

प्रेमवेपितभुजाः स्तिमितापः ॥ ७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके गौओंको चरानेके लिये प्रतिदिन वनमें चले जानेपर उनके साथ गोपियोंका चित्त भी चला जाता था। उनका मन श्रीकृष्णका चिन्तन करता रहता और वे वाणीसे उनकी लीलाओंका गान करती रहतीं। इस प्रकार वे बड़ी कठिनाईसे अपना दिन बितातीं ॥ १ ॥

 

गोपियाँ आपसमें कहतींअरी सखी ! अपने प्रेमीजनोंको प्रेम वितरण करनेवाले और द्वेष करनेवालोंतकको मोक्ष दे देनेवाले श्यामसुन्दर नटनागर जब अपने बायें कपोलको बायीं बाँहकी ओर लटका देते हैं और अपनी भौंहें नचाते हुए बाँसुरीको अधरोंसे लगाते हैं तथा अपनी सुकुमार अँगुलियोंको उसके छेदोंपर फिराते हुए मधुर तान छेड़ते हैं, उस समय सिद्धपत्नियाँ आकाशमें अपने पति सिद्धगणोंके साथ विमानोंपर चढक़र आ जाती हैं और उस तानको सुनकर अत्यन्त ही चकित तथा विस्मित हो जाती हैं। पहले तो उन्हें अपने पतियोंके साथ रहनेपर भी चित्तकी यह दशा देखकर लज्जा मालूम होती है; परंतु क्षणभरमें ही उनका चित्त कामबाणसे ङ्क्षबध जाता है, वे विवश और अचेत हो जाती हैं। उन्हें इस बातकी भी सुधि नहीं रहती कि उनकी नीवी खुल गयी है और उनके वस्त्र खिसक गये हैं ॥ २-३ ॥

 

अरी गोपियो ! तुम यह आश्चर्यकी बात सुनो ? ये नन्दनन्दन कितने सुन्दर हैं ? जब वे हँसते हैं तब हास्यरेखाएँ हारका रूप धारण कर लेती हैं, शुभ्र मोती-सी चमकने लगती हैं। अरी वीर ! उनके वक्ष:स्थलपर लहराते हुए हारमें हास्यकी किरणें चमकने लगती हैं। उनके वक्ष:स्थलपर जो श्रीवत्सकी सुनहली रेखा है, वह तो ऐसी जान पड़ती है, मानो श्याम मेघपर बिजली ही स्थिररूपसे बैठ गयी है। वे जब दु:खीजनोंको सुख देनेके लिये, विरहियोंके मृतक शरीरमें प्राणोंका सञ्चार करनेके लिये बाँसुरी बजाते हैं, तब व्रजके झुंड-के-झुंड बैल, गौएँ और हरिन उनके पास ही दौड़ आते हैं। केवल आते ही नहीं, सखी ! दाँतोंसे चबाया हुआ घासका ग्रास उनके मुँहमें ज्यों-का-त्यों पड़ा रह जाता है, वे उसे न निगल पाते और न तो उगल ही पाते हैं। दोनों कान खड़े करके इस प्रकार स्थिरभावसे खड़े हो जाते हैं, मानो सो गये हैं, या केवल भीतपर लिखे हुए चित्र हैं। उनकी ऐसी दशा होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि यह बाँसुरीकी तान उनके चित्तको चुरा लेती है ॥ ४-५ ॥

 

हे सखि ! जब वे नन्दके लाड़ले लाल अपने सिर पर मोरपंखका मुकुट बाँध लेते हैं, घुँघराली अलकोंमें फूलके गुच्छे खोंस लेते हैं, रंगीन धातुओंसे अपना अङ्ग-अङ्ग रँग लेते हैं और नये-नये पल्लवोंसे ऐसा वेष सजा लेते हैं, जैसे कोई बहुत बड़ा पहलवान हो और फिर बलरामजी तथा ग्वालबलोंके साथ बाँसुरीमें गौओंका नाम ले-लेकर उन्हें पुकारते हैं; उस समय प्यारी सखियो ! नदियोंकी गति भी रुक जाती है। वे चाहती हैं कि वायु उड़ाकर हमारे प्रियतमके चरणोंकी धूलि हमारे पास पहुँचा दे और उसे पाकर हम निहाल हो जायँ, परंतु सखियो ! वे भी हमारे ही-जैसी मन्दभागिनी हैं। जैसे नन्दनन्दन श्रीकृष्णका आलिङ्गन करते समय हमारी भुजाएँ काँप जाती हैं और जड़तारूप सञ्चारीभाव का उदय हो जानेसे हम अपने हाथों को हिला भी नहीं पातीं, वैसे ही वे भी प्रेमके कारण काँपने लगती हैं। दो चार बार अपनी तरङ्गरूप भुजाओंको काँपते-काँपते उठाती तो अवश्य हैं, परंतु फिर विवश होकर स्थिर हो जाती हैं, प्रेमावेशसे स्तम्भित हो जाती हैं ॥ ६-७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



रविवार, 2 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

सुदर्शन और शङ्खचूड का उद्धार

 

कदाचिदथ गोविन्दो रामश्चाद्भुतविक्रमः

विजह्रतुर्वने रात्र्यां मध्यगौ व्रजयोषिताम् ॥२०॥

उपगीयमानौ ललितं स्त्रीजनैर्बद्धसौहृदैः

स्वलङ्कृतानुलिप्ताङ्गौ स्रग्विनौ विरजोऽम्बरौ ॥२१॥

निशामुखं मानयन्तावुदितोडुपतारकम्

मल्लिकागन्धमत्तालि जुष्टं कुमुदवायुना ॥२२॥

जगतुः सर्वभूतानां मनःश्रवणमङ्गलम्

तौ कल्पयन्तौ युगपत्स्वरमण्डलमूर्च्छितम् ॥२३॥

गोप्यस्तद्गीतमाकर्ण्य मूर्च्छिता नाविदन्नृप

स्रंसद्दुकूलमात्मानं स्रस्तकेशस्रजं ततः ॥२४॥

एवं विक्रीडतोः स्वैरं गायतोः सम्प्रमत्तवत्

शङ्खचूड इति ख्यातो धनदानुचरोऽभ्यगात् ॥२५॥

तयोर्निरीक्षतो राजंस्तन्नाथं प्रमदाजनम्

क्रोशन्तं कालयामास दिश्युदीच्यामशङ्कितः ॥२६॥

क्रोशन्तं कृष्ण रामेति विलोक्य स्वपरिग्रहम्

यथा गा दस्युना ग्रस्ता भ्रातरावन्वधावताम् ॥२७॥

मा भैष्टेत्यभयारावौ शालहस्तौ तरस्विनौ

आसेदतुस्तं तरसा त्वरितं गुह्यकाधमम् ॥२८॥

स वीक्ष्य तावनुप्राप्तौ कालमृत्यू इवोद्विजन्

विसृज्य स्त्रीजनं मूढः प्राद्रवज्जीवितेच्छया ॥२९॥

तमन्वधावद्गोविन्दो यत्र यत्र स धावति

जिहीर्षुस्तच्छिरोरत्नं तस्थौ रक्षन्स्त्रियो बलः ॥३०॥

अविदूर इवाभ्येत्य शिरस्तस्य दुरात्मनः

जहार मुष्टिनैवाङ्ग सहचूडमणिं विभुः ॥३१॥

शङ्खचूडं निहत्यैवं मणिमादाय भास्वरम्

अग्रजायाददात्प्रीत्या पश्यन्तीनां च योषिताम् ॥३२॥

 

एक दिनकी बात है, अलौकिक कर्म करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी रात्रिके समय वनमें गोपियोंके साथ विहार कर रहे थे ॥ २० ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण निर्मल पीताम्बर और बलरामजी नीलाम्बर धारण किये हुए थे। दोनोंके गलेमें फूलोंके सुन्दर-सुन्दर हार लटक रहे थे तथा शरीरमें अङ्गराग, सुगन्धित चन्दन लगा हुआ था और सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहने हुए थे। गोपियाँ बड़े प्रेम और आनन्दसे ललित स्वरमें उन्हींके गुणोंका गान कर रही थीं ॥ २१ ॥ अभी-अभी सायंकाल हुआ था। आकाशमें तारे उग आये थे और चाँदनी छिटक रही थी। बेलाके सुन्दर गन्धसे मतवाले होकर भौंरे इधर-उधर गुनगुना रहे थे तथा जलाशयमें खिली हुई कुमुदिनीकी सुगन्ध लेकर वायु मन्द-मन्द चल रही थी। उस समय उनका सम्मान करते हुए भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने एक ही साथ मिलकर राग अलापा। उनका राग आरोह-अवरोह स्वरोंके चढ़ाव-उतारसे बहुत ही सुन्दर लग रहा था। वह जगत्के समस्त प्राणियोंके मन और कानोंको आनन्दसे भर देनेवाला था ॥ २२-२३ ॥ उनका वह गान सुनकर गोपियाँ मोहित हो गयीं। परीक्षित्‌ ! उन्हें अपने शरीरकी भी सुधि नहीं रही कि वे उसपरसे खिसकते हुए वस्त्रों और चोटियोंसे बिखरते हुए पुष्पोंको सँभाल सकें ॥ २४ ॥

जिस समय बलराम और श्याम दोनों भाई इस प्रकार स्वच्छन्द विहार कर रहे थे और उन्मत्तकी भाँति गा रहे थे, उसी समय वहाँ शङ्खचूड नामक एक यक्ष आया। वह कुबेरका अनुचर था ॥ २५ ॥ परीक्षित्‌ ! दोनों भाइयोंके देखते-देखते वह उन गोपियोंको लेकर बेखटके उत्तरकी ओर भाग चला। जिनके एकमात्र स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही हैं, वे गोपियाँ उस समय रो-रोकर चिल्लाने लगीं ॥ २६ ॥ दोनों भाइयोंने देखा कि जैसे कोई डाकू गौओंको लूट ले जाय, वैसे ही यह यक्ष हमारी प्रेयसियोंको लिये जा रहा है और वे हा कृष्ण ! हा राम !पुकारकर रो पीट रही हैं। उसी समय दोनों भाई उसकी ओर दौड़ पड़े ॥ २७ ॥ डरो मत, डरो मतइस प्रकार अभयवाणी कहते हुए हाथमें शालका वृक्ष लेकर बड़े वेगसे क्षणभरमें ही उस नीच यक्षके पास पहुँच गये ॥ २८ ॥ यक्षने देखा कि काल और मृत्युके समान ये दोनों भाई मेरे पास आ पहुँचे। तब वह मूढ़ घबड़ा गया। उसने गोपियोंको वहीं छोड़ दिया, स्वयं प्राण बचानेके लिये भागा ॥ २९ ॥ तब स्त्रियोंकी रक्षा करनेके लिये बलरामजी तो वहीं खड़े रह गये, परंतु भगवान्‌ श्रीकृष्ण जहाँ-जहाँ वह भागकर गया, उसके पीछे-पीछे दौड़ते गये। वे चाहते थे कि उसके सिरकी चूड़ामणि निकाल लें ॥ ३० ॥ कुछ ही दूर जानेपर भगवान्‌ ने उसे पकड़ लिया और उस दुष्टके सिरपर कसकर एक घूँसा जमाया और चूड़ामणिके साथ उसका सिर भी धड़से अलग कर दिया ॥ ३१ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण शङ्खचूड को मारकर और वह चमकीली मणि लेकर लौट आये तथा सब गोपियोंके सामने ही उन्होंने बड़े प्रेमसे वह मणि बड़े भाई बलरामजीको दे दी ॥ ३२ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे शङ्खचूडवधो नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 







श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

सुदर्शन और शङ्खचूड का उद्धार

 

श्रीशुक उवाच

एकदा देवयात्रायां गोपाला जातकौतुकाः

अनोभिरनडुद्युक्तैः प्रययुस्तेऽम्बिकावनम् ॥१॥

तत्र स्नात्वा सरस्वत्यां देवं पशुपतिं विभुम्

आनर्चुरर्हणैर्भक्त्या देवीं च णृपतेऽम्बिकाम् ॥२॥

गावो हिरण्यं वासांसि मधु मध्वन्नमादृताः

ब्राह्मणेभ्यो ददुः सर्वे देवो नः प्रीयतामिति ॥३॥

ऊषुः सरस्वतीतीरे जलं प्राश्य यतव्रताः

रजनीं तां महाभागा नन्दसुनन्दकादयः ॥४॥

कश्चिन्महानहिस्तस्मिन्विपिनेऽतिबुभुक्षितः

यदृच्छयागतो नन्दं शयानमुरगोऽग्रसीत् ॥५॥

स चुक्रोशाहिना ग्रस्तः कृष्ण कृष्ण महानयम्

सर्पो मां ग्रसते तात प्रपन्नं परिमोचय ॥६

तस्य चाक्रन्दितं श्रुत्वा गोपालाः सहसोत्थिताः

ग्रस्तं च दृष्ट्वा विभ्रान्ताः सर्पं विव्यधुरुल्मुकैः ॥७॥

अलातैर्दह्यमानोऽपि नामुञ्चत्तमुरङ्गमः

तमस्पृशत्पदाभ्येत्य भगवान्सात्वतां पतिः ॥८॥

स वै भगवतः श्रीमत्पादस्पर्शहताशुभः

भेजे सर्पवपुर्हित्वा रूपं विद्याधरार्चितम् ॥९॥

तमपृच्छद्धृषीकेशः प्रणतं समवस्थितम्

दीप्यमानेन वपुषा पुरुषं हेममालिनम् ॥१०॥

को भवान्परया लक्ष्म्या रोचतेऽद्भुतदर्शनः

कथं जुगुप्सितामेतां गतिं वा प्रापितोऽवशः ॥११॥

 

सर्प उवाच

अहं विद्याधरः कश्चित्सुदर्शन इति श्रुतः

श्रिया स्वरूपसम्पत्त्या विमानेनाचरन्दिशः ॥१२॥

ऋषीन्विरूपाङ्गिरसः प्राहसं रूपदर्पितः

तैरिमां प्रापितो योनिं प्रलब्धैः स्वेन पाप्मना ॥१३॥

शापो मेऽनुग्रहायैव कृतस्तैः करुणात्मभिः

यदहं लोकगुरुणा पदा स्पृष्टो हताशुभः ॥१४॥

तं त्वाहं भवभीतानां प्रपन्नानां भयापहम्

आपृच्छे शापनिर्मुक्तः पादस्पर्शादमीवहन् ॥१५॥

प्रपन्नोऽस्मि महायोगिन्महापुरुष सत्पते

अनुजानीहि मां देव सर्वलोकेश्वरेश्वर ॥१६॥

ब्रह्मदण्डाद्विमुक्तोऽहं सद्यस्तेऽच्युत दर्शनात्

यन्नाम गृह्णन्नखिलान्श्रोतॄनात्मानमेव च

सद्यः पुनाति किं भूयस्तस्य स्पृष्टः पदा हि ते ॥१७॥

इत्यनुज्ञाप्य दाशार्हं परिक्रम्याभिवन्द्य च

सुदर्शनो दिवं यातः कृच्छ्रान्नन्दश्च मोचितः ॥१८॥

निशाम्य कृष्णस्य तदात्मवैभवं

व्रजौकसो विस्मितचेतसस्ततः

समाप्य तस्मिन्नियमं पुनर्व्रजं

नृपाययुस्तत्कथयन्त आदृताः ॥१९॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! एक बार नन्दबाबा आदि गोपोंने शिवरात्रिके अवसरपर बड़ी उत्सुकता, कौतूहल और आनन्दसे भरकर बैलोंसे जुती हुई गाडिय़ोंपर सवार होकर अम्बिकावन की यात्रा की ॥ १ ॥ राजन् ! वहाँ उन लोगोंने सरस्वती नदीमें स्नान किया और सर्वान्तर्यामी पशुपति भगवान्‌ शङ्करजीका तथा भगवती अम्बिकाजीका बड़ी भक्तिसे अनेक प्रकारकी सामग्रियोंके द्वारा पूजन किया ॥ २ ॥ वहाँ उन्होंने आदरपूर्वक गौएँ, सोना, वस्त्र, मधु और मधुर अन्न ब्राह्मणोंको दिये तथा उनको खिलाया-पिलाया। वे केवल यही चाहते थे कि इनसे देवाधिदेव भगवान्‌ शङ्कर हमपर प्रसन्न हों ॥ ३ ॥ उस दिन परम भाग्यवान् नन्द-सुनन्द आदि गोपोंने उपवास कर रखा था, इसलिये वे लोग केवल जल पीकर रातके समय सरस्वती नदीके तटपर ही बेखटके सो गये ॥ ४ ॥

उस अम्बिकावनमें एक बड़ा भारी अजगर रहता था। उस दिन वह भूखा भी बहुत था। दैववश वह उधर ही आ निकला और उसने सोये हुए नन्दजीको पकड़ लिया ॥ ५ ॥ अजगरके पकड़ लेनेपर नन्दरायजी चिल्लाने लगे—‘बेटा ! कृष्ण ! कृष्ण ! दौड़ो, दौड़ो। देखो बेटा ! यह अजगर मुझे निगल रहा है। मैं तुम्हारी शरणमें हूँ। जल्दी मुझे इस संकटसे बचाओ॥ ६ ॥

नन्दबाबाका चिल्लाना सुनकर सब-के-सब गोप एकाएक उठ खड़े हुए और उन्हें अजगरके मुँहमें देखकर घबड़ा गये। अब वे लुकाठियों (अधजली लकडिय़ों) से उस अजगरको मारने लगे ॥ ७ ॥ किन्तु लुकाठियों से मारे जाने और जलनेपर भी अजगरने नन्दबाबाको छोड़ा नहीं। इतनेमें ही भक्तवत्सल भगवान्‌ श्रीकृष्णने वहाँ पहुँचकर अपने चरणोंसे उस अजगरको छू दिया ॥ ८ ॥ भगवान्‌के श्रीचरणोंका स्पर्श होते ही अजगर के सारे अशुभ भस्म हो गये और वह उसी क्षण अजगरका शरीर छोडक़र विद्याधरार्चित सर्वाङ्गसुन्दर रूपवान् बन गया ॥ ९ ॥ उस पुरुषके शरीरसे दिव्य ज्योति निकल रही थी। वह सोनेके हार पहने हुए था। जब वह प्रणाम करनेके बाद हाथ जोडक़र भगवान्‌ के सामने खड़ा हो गया, तब उन्होंने उससे पूछा॥ १० ॥ तुम कौन हो ? तुम्हारे अङ्ग-अङ्गसे सुन्दरता फूटी पड़ती है। तुम देखनेमें बड़े अद्भुत जान पड़ते हो। तुम्हें यह अत्यन्त निन्दनीय अजगर-योनि क्यों प्राप्त हुई थी ? अवश्य ही तुम्हें विवश होकर इसमें आना पड़ा होगा॥ ११ ॥

अजगरके शरीरसे निकला हुआ पुरुष बोलाभगवन् ! मैं पहले एक विद्याधर था। मेरा नाम था सुदर्शन। मेरे पास सौन्दर्य तो था ही, लक्ष्मी भी बहुत थी। इससे मैं विमानपर चढक़र यहाँ-से-वहाँ घूमता रहता था ॥ १२ ॥ एक दिन मैंने अङ्गिरा गोत्रके कुरूप ऋषियोंको देखा। अपने सौन्दर्यके घमंडसे मैंने उनकी हँसी उड़ायी। मेरे इस अपराधसे कुपित होकर उन लोगोंने मुझे अजगर-योनिमें जानेका शाप दे दिया। यह मेरे पापोंका ही फल था ॥ १३ ॥ उन कृपालु ऋषियोंने अनुग्रहके लिये ही मुझे शाप दिया था। क्योंकि यह उसीका प्रभाव है कि आज चराचरके गुरु स्वयं आपने अपने चरणकमलोंसे मेरा स्पर्श किया है, इससे मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गये ॥ १४ ॥ समस्त पापोंका नाश करनेवाले प्रभो ! जो लोग जन्म-मृत्युरूप संसारसे भयभीत होकर आपके चरणोंकी शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें आप समस्त भयोंसे मुक्त कर देते हैं। अब मैं आपके श्रीचरणोंके स्पर्शसे शापसे छूट गया हूँ और अपने लोकमें जानेकी अनुमति चाहता हूँ ॥ १५ ॥ भक्तवत्सल ! महायोगेश्वर पुरुषोत्तम ! मैं आपकी शरणमें हूँ। इन्द्रादि समस्त लोकेश्वरोंके परमेश्वर ! स्वयंप्रकाश परमात्मन् ! मुझे आज्ञा दीजिये ॥ १६ ॥ अपने स्वरूपमें नित्य-निरन्तर एकरस रहनेवाले अच्युत ! आपके दर्शनमात्रसे मैं ब्राह्मणोंके शापसे मुक्त हो गया, यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; क्योंकि जो पुरुष आपके नामोंका उच्चारण करता है, वह अपने-आपको और समस्त श्रोताओंको भी तुरंत पवित्र कर देता है। फिर मुझे तो आपने स्वयं अपने चरणकमलोंसे स्पर्श किया है। तब भला, मेरी मुक्तिमें क्या सन्देह हो सकता है ? ॥ १७ ॥ इस प्रकार सुदर्शनने भगवान्‌ श्रीकृष्णसे विनती की, परिक्रमा की और प्रणाम किया। फिर उनसे आज्ञा लेकर वह अपने लोकमें चला गया और नन्दबाबा इस भारी संकटसे छूट गये ॥ १८ ॥ राजन् ! जब व्रजवासियोंने भगवान्‌ श्रीकृष्णका यह अद्भुत प्रभाव देखा, तब उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। उन लोगोंने उस क्षेत्रमें जो नियम ले रखे थे, उनको पूर्ण करके वे बड़े आदर और प्रेमसे श्रीकृष्णकी उस लीलाका गान करते हुए पुन: व्रजमें लौट आये ॥ १९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




शनिवार, 1 अगस्त 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)

 

महारास

 

जो लोग भगवान् श्रीकृष्ण को केवल मनुष्य मानते हैं और केवल मानवीय भाव एवं आदर्श की कसौटी पर उनके चरित्र को कसना चाहते हैं, वे पहले ही शास्त्र से विमुख हो जाते हैं, उनके चित्त में धर्मं की कोई धारणा ही नहीं रहती और वे भगवान् को भी अपनी बुद्धि के पीछे चलाना चाहते हैं | इसलिए साधकों के सामने उनकी युक्तियों का कोई महत्त्व ही नहीं रहता | जो शास्त्र के “श्रीकृष्ण स्वयं भगवान् हैं” इस वचन को नहीं मानता,वह उनकी लीलाओं को किस आधार पर सत्य मानकर उनकी आलोचना करता है –यह समझ में नहीं आता | जैसे मानवधर्म, देवधर्म,पशुधर्म पृथक्-पृथक् होते हैं, वैसे ही भगवद्धर्म भी पृथक् होता है  और भगवान् के चरित्र का परीक्षण उसकी ही कसौटी पर होना चाहिए | भगवान् का एकमात्र धर्म है –प्रेमपरवशता, दयापरवशता और भक्तों की अभिलाषा की पूर्ति | यशोदा के हाथों से ऊखल में बंध जाने वाले श्रीकृष्ण अपने निजजन गोपियों के प्रेम के कारण उनके साथ नाचें, यह उनका सहज धर्म है |

 

यदि यह हठ ही हो कि श्रीकृष्ण का चरित्र मानवीय धारणाओं और आदर्शों के अनुकूल ही होना चाहिए, तो इसमें भी कोई आपत्ति की बात नहीं है |  श्रीकृष्ण की अवस्था उस समय दस वर्ष के लगभग थी, जैसा की भागवत में स्पष्ट वर्णन मिलता है | गाँवों में रहने वाले बहुत-से दस वर्ष के बच्चे तो नंगे ही रहते हैं | उन्हें कामवृत्ति और स्त्री-पुरुष सम्बन्ध का कुछ ज्ञान ही नहीं रहता | लड़के-लडकी एक साथ खेलते हैं,नाचते हैं,गाते हैं,त्यौहार मनाते हैं,गुड्डी-गुड्डे की शादी करते हैं,बरात ले जाते हैं और आपस में भोज-भात भी करते हैं | गाँव के बड़े बूढ़े लोग बच्चों का यह मनोरंजन देखकर प्रसन्न ही होते हैं, उनके मन में किसी प्रकार का दुर्भाव नहीं आता | ऐसे बच्चों को युवती स्त्रियाँ भी बड़े प्रेम से देखती हैं, आदर करती हैं, नहलाती हैं, खिलाती हैं | यह तो साधारण बच्चों की बात है | श्रीकृष्ण जैसे असाधारण धी-शक्तिसम्पन्न बालक जिनके अनेक सद्गुण बाल्यकाल में ही प्रकट हो चुके थे; जिनकी सम्मति, चातुर्य और शक्तिसे बड़ी-बड़ी विपत्तियों से व्रजवासियों ने त्राण पाया था; उनके प्रति वहाँ की स्त्रियों, बालिकाओं और बालकों का कितना आदर रहा होगाइसकी कल्पना नहीं की जा सकती। उनके सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्य से आकृष्ट होकर गाँव की बालक-बालिकाएँ उनके साथ ही रहती थीं और श्रीकृष्ण भी अपनी मौलिक प्रतिभा से राग, ताल आदि नये-नये ढंग से उनका मनोरञ्जन करते थे और उन्हें शिक्षा देते थे। ऐसे ही मनोरञ्जनों में से रासलीला भी एक थी, ऐसा समझना चाहिये। जो श्रीकृष्णको केवल मनुष्य समझते हैं, उनकी दृष्टि में भी यह दोष की बात नहीं होनी चाहिये। वे उदारता और बुद्धिमानीके साथ भागवत में आये हुए काम-रति आदि शब्दोंका ठीक वैसा ही अर्थ समझें, जैसा कि उपनिषद् और गीतामें इन शब्दोंका अर्थ होता है। वास्तवमें गोपियोंके निष्कपट प्रेमका ही नामान्तर काम है और भगवान्‌ श्रीकृष्णका आत्मरमण अथवा उनकी दिव्य क्रीडा ही रति है। इसीलिये स्थान-स्थानपर उनके लिये विभु, परमेश्वर, लक्ष्मीपति, भगवान्‌, योगेश्वरेश्वर, आत्माराम, मन्मथमन्मथ आदि शब्द आये हैंजिससे किसीको कोई भ्रम न हो जाय।

 

जब गोपियाँ श्रीकृष्णकी वंशीध्वनि सुनकर वनमें जाने लगी थीं, तब उनके सगे-सम्बन्धियोंने उन्हें जानेसे रोका था। रातमें अपनी बालिकाओंको भला कौन बाहर जाने देता। फिर भी वे चली गयीं और इससे घरवालोंको किसी प्रकारकी अप्रसन्नता नहीं हुई। और न तो उन्होंने श्रीकृष्णपर या गोपियोंपर किसी प्रकारका लाञ्छन ही लगाया। उनका श्रीकृष्णपर, गोपियोंपर विश्वास था और वे उनके बचपन और खेलोंसे परिचित थे। उन्हें तो ऐसा मालूम हुआ मानो गोपियाँ हमारे पास ही हैं। इसको दो प्रकारसे समझ सकते हैं। एक तो यह कि श्रीकृष्णके प्रति उनका इतना विश्वास था कि श्रीकृष्णके पास गोपियोंका रहना भी अपने ही पास रहना है। यह तो मानवीय दृष्टि है। दूसरी दृष्टि यह है कि श्रीकृष्णकी योगमायाने ऐसी व्यवस्था कर रखी थी, गोपोंको वे घरमें ही दीखती थीं। किसी भी दृष्टिसे रासलीला दूषित प्रसङ्ग नहीं है, बल्कि अधिकारी पुरुषोंके लिये तो यह सम्पूर्ण मनोमलको नष्ट करनेवाला है। रासलीलाके अन्तमें कहा गया है कि जो पुरुष श्रद्धा-भक्तिपूर्वक रासलीलाका श्रवण और वर्णन करता है, उसके हृदयका रोग-काम बहुत ही शीघ्र नष्ट हो जाता है और उसे भगवान्‌ का प्रेम प्राप्त होता है। भागवतमें अनेक स्थानपर ऐसा वर्णन आता है कि जो भगवान्‌ की मायाका वर्णन करता है, वह मायासे पार हो जाता है। जो भगवान्‌ के कामजय का वर्णन करता है, वह कामपर विजय प्राप्त करता है। राजा परीक्षित्‌ने अपने प्रश्नों  में जो शङ्काएँ की हैं, उनका उत्तर प्रश्नों के अनुरूप ही अध्याय २९ के श्लोक १३ से १६ तक और अध्याय ३३ के श्लोक ३० से ३७ तक श्रीशुकदेवजी ने दिया है।

 

उस उत्तर से वे शङ्काएँ तो हट गयी हैं, परंतु भगवान्‌ की दिव्यलीला का रहस्य नहीं खुलने पाया; सम्भवत: उस रहस्यको गुप्त रखनेके लिये ही ३३वें अध्यायमें रासलीलाप्रसङ्ग समाप्त कर दिया गया। वस्तुत: इस लीलाके गूढ़ रहस्यकी प्राकृत-जगत्में व्याख्या की भी नहीं जा सकती । क्योंकि यह इस जगत् की क्रीडा ही नहीं है। यह तो उस दिव्य आनन्दमय रसमय राज्यकी चमत्कारमयी लीला है, जिसके श्रवण और दर्शनके लिये परमहंस मुनिगण भी सदा उत्कण्ठित रहते हैं। कुछ लोग इस लीलाप्रसंगको भागवत में क्षेपक मानते हैं, वे वास्तवमें दुराग्रह करते हैं। क्योंकि प्राचीन-से-प्राचीन प्रतियोंमें भी यह प्रसंग मिलता है और जरा विचार करके देखनेसे यह सर्वथा सुसंगत और निर्दोष प्रतीत होता है। भगवान्‌ श्रीकृष्ण कृपा करके ऐसी विमल बुद्धि दें, जिससे हमलोग इसका कुछ रहस्य समझनेमें समर्थ हों।

 

भगवान्‌ के इस दिव्य-लीलाके वर्णनका यही प्रयोजन है कि जीव गोपियोंके उस अहैतुक प्रेमका, जो कि श्रीकृष्णको ही सुख पहुँचानेके लिये था, स्मरण करे और उसके द्वारा भगवान्‌ के रसमय दिव्यलीलालोक में भगवान्‌ के अनन्त प्रेमका अनुभव करे। हमें रासलीलाका अध्ययन करते समय किसी प्रकारकी भी शङ्का न करके इस भाव को जगाये रखना चाहिये।

 

हनुमानप्रसाद पोद्दार

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडावर्णनं नाम त्रयोत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

 

महारास

 

श्रीमद्भागवत पर, दशम स्कन्ध पर और रासपञ्चाध्यायी पर अब तक अनेकानेक भाष्य और टीकाएँ लिखी जा चुकी हैंजिनके लेखकों में जगद्गुरु श्रीवल्लभाचार्य, श्री श्रीधरस्वामी, श्रीजीवगोस्वामी आदि हैं। उन लोगोंने बड़े विस्तारसे रासलीलाकी महिमा समझायी है। किसीने इसे कामपर विजय बतलाया है, किसीने भगवान्‌ का दिव्य विहार बतलाया है और किसीने इसका आध्यात्मिक अर्थ किया है। भगवान्‌ श्रीकृष्ण आत्मा हैं, आत्माकार वृत्ति श्रीराधा हैं और शेष आत्माभिमुख वृत्तियाँ गोपियाँ हैं। उनका धाराप्रवाहरूपसे निरन्तर आत्मरमण ही रास है। किसी भी दृष्टिसे देखें, रासलीलाकी महिमा अधिकाधिक प्रकट होती है।

परंतु इससे ऐसा नहीं मानना चाहिये कि श्रीमद्भागवतमें वर्णित रास या रमण-प्रसङ्ग केवल रूपक या कल्पनामात्र है। वह सर्वथा सत्य है और जैसा वर्णन है, वैसा ही मिलन-विलासादिरूप सृंङ्गार का रसास्वादन भी हुआ था। भेद इतना ही है कि वह लौकिक स्त्री-पुरुषोंका मिलन न था। उनके नायक थे सच्चिदानन्दविग्रह, परात्परतत्त्व, पूर्णतम स्वाधीन और निरङ्कुश स्वेच्छाविहारी गोपीनाथ भगवान्‌ नन्दनन्दन; और नायिका थीं स्वयं ह्लादिनीशक्ति श्रीराधाजी और उनकी कायव्यूहरूपा, उनकी घनीभूत मूर्तियाँ श्रीगोपीजन ! अतएव इनकी यह लीला अप्राकृत थी। सर्वथा मीठी मिश्रीकी अत्यन्त कडुए इन्द्रायण (तूँबे)-जैसी कोई आकृति बना ली जाय, जो देखनेमें ठीक तूँबे-जैसी ही मालूम हो; परंतु इससे असलमें क्या वह मिश्रीका तूँबा कडुआ थोड़े ही हो जाता है ? क्या तूँबेके आकारकी होनेसे ही मिश्रीके स्वाभाविक गुण मधुरताका अभाव हो जाता है ? नहीं-नहीं, वह किसी भी आकारमें होसर्वत्र, सर्वदा और सर्वथा केवल मिश्री-ही-मिश्री है, बल्कि इसमें लीला-चमत्कारकी बात जरूर है। लोग समझते हैं कडुआ तूँबा और होती है वह मधुर मिश्री। इसी प्रकार अखिलरसामृतसिन्धु सच्चिदानन्दविग्रह भगवान्‌ श्रीकृष्ण और उनकी अन्तरङ्गा अभिन्नस्वरूपा गोपियोंकी लीला भी देखनेमें कैसी ही क्यों न हो, वस्तुत: वह सच्चिदानन्दमयी ही है। उसमें सांसारिक गंदे कामका कडुआ स्वाद है ही नहीं। हाँ, यह अवश्य है कि इस लीलाकी नकल किसीको नहीं करनी चाहिये, करना सम्भव भी नहीं है। मायिक पदार्थोंके द्वारा मायातीत भगवान्‌का अनुकरण कोई कैसे कर सकता है ? कडुए  तूँबेको चाहे जैसी सुन्दर मिठाई की आकृति दे दी जाय, उसका कडुआपन कभी मिट नहीं सकता। इसीलिये जिन मोहग्रस्त मनुष्योंने श्रीकृष्णकी रास आदि अन्तरङ्ग-लीलाओंका अनुकरण करके नायक-नायिकाका रसास्वादन करना चाहा या चाहते हैं, उनका घोर पतन हुआ है और होगा। श्रीकृष्णकी इन लीलाओंका अनुकरण तो केवल श्रीकृष्ण ही कर सकते हैं। इसीलिये शुकदेवजीने रासपञ्चाध्यायीके अन्तमें सबको सावधान करते हुए कह दिया है कि भगवान्‌के उपदेश तो सब मानने चाहिये, परंतु उनके सभी आचरणोंका अनुकरण नहीं करना चाहिये।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

 

महारास

 

जिन्होंने अध्यात्मशास्त्र का अध्ययन किया है, वे जानते हैं कि योगसिद्धिप्राप्त साधारण योगी भी कायव्यूह के द्वारा एकसाथ अनेक शरीरों का निर्माण कर सकते हैं और अनेक स्थानों पर उपस्थित रहकर पृथक्-पृथक् कार्य कर सकते हैं | इन्द्रादिदेवगण एक ही समय अनेक स्थानों पर उपस्थित होकर अनेक यज्ञों में युगपत् आहुति स्वीकार कर सकते हैं | निखिल योगियों और योगीश्वरों के ईश्वर सर्वसमर्थ भगवान् श्रीकृष्ण यदि एक ही साथ अनेक गोपियों के साथ क्रीडा करें तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है ? जो लोग भगवान् को भगवान् नहीं स्वीकार करते, वही अनेकों प्रकार की शंका-कुशंकाएँ करते हैं | भगवान् की निजलीला में इन तर्कों का सर्वथा प्रवेश नहीं है |

 

गोपियाँ श्रीकृष्ण की स्वकीया थीं या परकीया,यह प्रश्न भी श्रीकृष्ण के स्वरूप को भुलाकर ही उठाया जा सकता है | श्रीकृष्ण जीव नहीं हैं कि जगत की वस्तुओं में उनका हिस्सेदार दूसरा भी जीव हो | जो कुछ भी था,है और आगे होगा—उसके एकमात्र पति श्रीकृष्ण ही हैं | अपनी प्रार्थना में गोपियों ने और परीक्षित के प्रश्न के उत्तर में श्रीशुकदेवजी ने यही बात कही है कि गोपी,गोपियों के पति, उनके पुत्र सगे-संबंधी और जगत के समस्त प्राणियों के हृदय में आत्मारूप से,परमात्मारूप से जो प्रभु स्थित हैं—वही श्रीकृष्ण हैं |कोई भ्रम से, अज्ञान से, भले ही श्रीकृष्ण को पराया समझे; वे किसी के पराये नहीं हैं, सबके अपने हैं , सब उनके हैं | श्रीकृष्ण की दृष्टि से, जो कि वास्तविक दृष्टि है, कोई परकीया है ही नहीं; सब स्वकीया हैं, सब केवल अपना ही लीलाविलास हैं, सभी स्वरूपभूता अंतरंगा शक्ति हैं | गोपियाँ इस बात को जानती थीं और स्थान स्थान पर  उन्होंने ऐसा कहा है |

 

ऐसी स्थितिमें जारभावऔर औपपत्यका कोई लौकिक अर्थ नहीं रह जाता। जहाँ काम नहीं है, अङ्ग-सङ्ग नहीं है, वहाँ औपपत्यऔर जारभावकी कल्पना ही कैसे हो सकती है ? गोपियाँ परकीया नहीं थीं, स्वकीया थीं; परंतु उनमें परकीया-भाव था। परकीया होनेमें और परकीयाभाव होनेमें आकाश- पातालका अन्तर है। परकीयाभावमें तीन बातें बड़े महत्त्वकी होती हैंअपने प्रियतमका निरन्तर चिन्तन, मिलनकी उत्कट उत्कण्ठा और दोषदृष्टिका सर्वथा अभाव। स्वकीयाभावमें निरन्तर एक साथ रहनेके कारण ये तीनों बातें गौण हो जाती हैं; परंतु परकीया-भावमें ये तीनों भाव बने रहते हैं। कुछ गोपियाँ जारभावसे श्रीकृष्णको चाहती थीं, इसका इतना ही अर्थ है कि वे श्रीकृष्णका निरन्तर चिन्तन करती थीं, मिलनेके लिये उत्कण्ठित रहती थीं और श्रीकृष्णके प्रत्येक व्यवहारको प्रेमकी आँखोंसे ही देखती थीं। चौथा भाव विशेष महत्त्वका और हैवह यह कि स्वकीया अपने घरका, अपना और अपने पुत्र एवं कन्याओंका पालन-पोषण, रक्षणावेक्षण पतिसे चाहती है। वह समझती है कि इनकी देखरेख करना पतिका कर्तव्य है; क्योंकि ये सब उसीके आश्रित हैं, और वह पतिसे ऐसी आशा भी रखती है। कितनी ही पतिपरायणा क्यों न हो, स्वकीयामें यह सकामभाव छिपा रहता ही है। परंतु परकीया अपने प्रियतमसे कुछ नहीं चाहती, कुछ भी आशा नहीं रखती; वह तो केवल अपनेको देकर ही उसे सुखी करना चाहती है। श्रीगोपियोंमें यह भाव भी भलीभाँति प्रस्फुटित था। इसी विशेषताके कारण संस्कृत-साहित्यके कई ग्रन्थोंमें निरन्तर चिन्तनके उदाहरणस्वरूप परकीयाभावका वर्णन आता है।

गोपियोंके इस भावके एक नहीं, अनेक दृष्टान्त श्रीमद्भागवतमें मिलते हैं; इसलिये गोपियोंपर परकीयापनका आरोप उनके भावको न समझनेके कारण है। जिसके जीवनमें साधारण धर्मकी एक हलकी-सी प्रकाशरेखा आ जाती है। उसीका जीवन परम पवित्र और दूसरोंके लिये आदर्श-स्वरूप बन जाता है। फिर वे गोपियाँ, जिनका जीवन साधनाकी चरम सीमापर पहुँच चुका है, अथवा जो नित्यसिद्धा एवं भगवान्‌की स्वरूपभूता हैं, या जिन्होंने कल्पोंतक साधना करके श्रीकृष्णकी कृपासे उनका सेवाधिकार प्राप्त कर लिया है, सदाचारका उल्लङ्घन कैसे कर सकती हैं और समस्त धर्म-मर्यादाओंके संस्थापक श्रीकृष्णपर धर्मोल्लङ्घनका लाञ्छन कैसे लगाया जा सकता है ? श्रीकृष्ण और गोपियोंके सम्बन्धमें इस प्रकारकी कुकल्पनाएँ उनके दिव्य स्वरूप और दिव्यलीलाके विषयमें अनभिज्ञता ही प्रकट करती हैं।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...