गुरुवार, 6 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

केशी और व्योमासुर का उद्धार तथा नारदजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

 

श्रीशुक उवाच -

केशी तु कंसप्रहितः खुरैर्महीं

महाहयो निर्जरयन्मनोजवः ।

सटावधूताभ्रविमानसङ्‌कुलं

कुर्वन्नभो हेषितभीषिताखिलः ॥ १ ॥

विशालनेत्रो विकटास्यकोटरो

बृहद्‌गलो नीलमहाम्बुदोपमः ।

दुराशयः कंसहितं चिकीर्षुः

व्रजं स नम्दस्य जगाम कम्पयन् ॥ २ ॥

तं त्रासयन्तं भगवान् स्वगोकुलं

तद्धेषितैर्वालविघूर्णिताम्बुदम् ।

आत्मानमाजौ मृगयन्तमग्रणीः

उपाह्वयत् स व्यनदन् मृगेन्द्रवत् ॥ ३ ॥

स तं निशाम्याभिमुखो मखेन खं

पिबन्निवाभ्यद्रवदत्यमर्षणः ।

जघान पद्‍भ्यामरविन्दलोचनं

दुरासदश्चण्डजवो दुरत्ययः ॥ ४ ॥

तद् वञ्चयित्वा तमधोक्षजो रुषा

प्रगृह्य दोर्भ्यां परिविध्य पादयोः ।

सावज्ञमुत्सृज्य धनुःशतान्तरे

यथोरगं तार्क्ष्यसुतो व्यवस्थितः ॥ ५ ॥

सः लब्धसंज्ञः पुनरुत्थितो रुषा

व्यादाय केशी तरसाऽऽपतद्धरिम् ।

सोऽप्यस्य वक्त्रे भुजमुत्तरं स्मयन्

प्रवेशयामास यथोरगं बिले ॥ ६ ॥

दन्ता निपेतुर्भगवद्‍भुजस्पृशः

ते केशिनस्तप्तमयस्पृशो यथा ।

बाहुश्च तद्देहगतो महात्मनो

यथाऽऽमयः संववृधे उपेक्षितः ॥ ७ ॥

समेधमानेन स कृष्णबाहुना

निरुद्धवायुश्चरणांश्च विक्षिपन् ।

प्रस्विन्नगात्रः परिवृत्तलोचनः

पपात लेण्डं विसृजन् क्षितौ व्यसुः ॥ ८ ॥

तद्देहतः कर्कटिकाफलोपमाद्

व्यसोरपाकृष्य भुजं महाभुजः ।

अविस्मितोऽयत्‍नहतारिरुत्स्मयैः

प्रसूनवर्षैर्दिविषद्‌भिरीडितः ॥ ९ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! कंसने जिस केशी नामक दैत्यको भेजा था, वह बड़े भारी घोड़ेके रूपमें मनके समान वेगसे दौड़ता हुआ व्रजमें आया। वह अपनी टापों से धरती खोदता आ रहा था ! उसकी गरदनके छितराये हुए बालोंके झटकेसे आकाशके बादल और विमानोंकी भीड़ तीतर-बितर हो रही थी। उसकी भयानक हिनहिनाहट से सब-के-सब भयसे काँप रहे थे। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें थीं, मुँह क्या था, मानो किसी वृक्षका खोडऱ ही हो। उसे देखनेसे ही डर लगता था। बड़ी मोटी गरदन थी। शरीर इतना विशाल था कि मालूम होता था काली-काली बादलकी घटा है। उसकी नीयतमें पाप भरा था। वह श्रीकृष्णको मारकर अपने स्वामी कंसका हित करना चाहता था। उसके चलनेसे भूकम्प होने लगता था ॥ १-२ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि उसकी हिनहिनाहट से उनके आश्रित रहनेवाला गोकुल भयभीत हो रहा है और उसकी पूँछके बालोंसे बादल तितर-बितर हो रहे हैं, तथा वह लडऩेके लिये उन्हींको ढूँढ़ भी रहा हैतब वे बढक़र उसके सामने आ गये और उन्होंने सिंहके समान गरजकर उसे ललकारा ॥ ३ ॥ भगवान्‌को सामने आया देख वह और भी चिढ़ गया तथा उनकी ओर इस प्रकार मुँह फैलाकर दौड़ा, मानो आकाशको पी जायगा। परीक्षित्‌ ! सचमुच केशीका वेग बड़ा प्रचण्ड था। उसपर विजय पाना तो कठिन था ही, उसे पकड़ लेना भी आसान नहीं था। उसने भगवान्‌के पास पहुँचकर दुलत्ती झाड़ी ॥ ४ ॥ परंतु भगवान्‌ने उससे अपनेको बचा लिया। भला, वह इन्द्रियातीतको कैसे मार पाता ! उन्होंने अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों पिछले पैर पकड़ लिये और जैसे गरुड़ साँपको पकडक़र झटक देते हैं, उसी प्रकार क्रोधसे उसे घुमाकर बड़े अपमानके साथ चार सौ हाथकी दूरीपर फेंक दिया और स्वयं अकडक़र खड़े हो गये ॥ ५ ॥ थोड़ी ही देरके बाद केशी फिर सचेत हो गया और उठ खड़ा हुआ। इसके बाद वह क्रोधसे तिलमिलाकर और मुँह फाडक़र बड़े वेगसे भगवान्‌की ओर झपटा। उसको दौड़ते देख भगवान्‌ मुसकराने लगे। उन्होंने अपना बायाँ हाथ उसके मुँहमें इस प्रकार डाल दिया,जैसे सर्प बिना किसी आशङ्काके अपने बिलमें घुस जाता है ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌का अत्यन्त कोमल करकमल भी उस समय ऐसा हो गया, मानो तपाया हुआ लोहा हो। उसका स्पर्श होते ही केशीके दाँत टूट-टूटकर गिर गये और जैसे जलोदर रोग उपेक्षा कर देनेपर बहुत बढ़ जाता है, वैसे ही श्रीकृष्णका भुजदण्ड उसके मुँहमें बढऩे लगा ॥ ७ ॥ अचिन्त्यशक्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णका हाथ उसके मुँहमें इतना बढ़ गया कि उसकी साँसके भी आने-जानेका मार्ग न रहा। अब तो दम घुटनेके कारण वह पैर पीटने लगा। उसका शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया, आँखोंकी पुतली उलट गयी, वह मल-त्याग करने लगा। थोड़ी ही देरमें उसका शरीर निश्चेष्ट होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा तथा उसके प्राण-पखेरू उड़ गये ॥ ८ ॥ उसका निष्प्राण शरीर फूला हुआ होनेके कारण गिरते ही पकी ककड़ीकी तरह फट गया। महाबाहु भगवान्‌ श्रीकृष्णने उसके शरीरसे अपनी भुजा खींच ली। उन्हें इससे कुछ भी आश्चर्य या गर्व नहीं हुआ। बिना प्रयत्नके ही शत्रुका नाश हो गया। देवताओंको अवश्य ही इससे बड़ा आश्चर्य हुआ। वे प्रसन्न हो-होकर भगवान्‌ के ऊपर पुष्प बरसाने और उनकी स्तुति करने लगे ॥ ९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



बुधवार, 5 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

अरिष्टासुर का उद्धार और कंस का श्री अक्रूरजी को व्रज में भेजना

 

अरिष्टे निहते दैत्ये कृष्णेनाद्‍भुतकर्मणा ।

कंसायाथाह भगवान् नारदो देवदर्शनः ॥ १६ ॥

यशोदायाः सुतां कन्यां देवक्याः कृष्णमेव च ।

रामं च रोहिणीपुत्रं वसुदेवेन बिभ्यता ॥ १७ ॥

न्यस्तौ स्वमित्रे नन्दे वै याभ्यां ते पुरुषा हताः ।

निशम्य तद्‍भोजपतिः कोपात् प्रचलितेन्द्रियः ॥ १८ ॥

निशातमसिमादत्त वसुदेवजिघांसया

निवारितो नारदेन तत्सुतौ मृत्युमात्मनः ॥ १९ ॥

ज्ञात्वा लोहमयैः पाशैः बबन्ध सह भार्यया ।

प्रतियाते तु देवर्षौ कंस आभाष्य केशिनम् ॥ २० ॥

प्रेषयामास हन्येतां भवता रामकेशवौ ।

ततो मुष्टिकचाणूर शलतोशलकादिकान् ॥ २१ ॥

अमात्यान् हस्तिपांश्चैव समाहूयाह भोजराट् ।

भो भो निशम्यतामेतद् वीरचाणूरमुष्टिकौ ॥ २२ ॥

नन्दव्रजे किलासाते सुतावानकदुन्दुभेः ।

रामकृष्णौ ततो मह्यं मृत्युः किल निदर्शितः ॥ २३ ॥

भवद्‍भ्यामिह सम्प्राप्तौ हन्येतां मल्ललीलया ।

मञ्चाः क्रियन्तां विविधा मल्लरङ्‌गपरिश्रिताः ।

पौरा जानपदाः सर्वे पश्यन्तु स्वैरसंयुगम् ॥ २४ ॥

महामात्र त्वया भद्र रङ्‌गद्वार्युपनीयताम् ।

द्विपः कुवलयापीडो जहि तेन ममाहितौ ॥ २५ ॥

आरभ्यतां धनुर्यागः चतुर्दश्यां यथाविधि ।

विशसन्तु पशून् मेध्यान् भूतराजाय मीढुषे ॥ २६ ॥

इत्याज्ञाप्यार्थतन्त्रज्ञ आहूय यदुपुङ्‌गवम् ।

गृहीत्वा पाणिना पाणिं ततोऽक्रूरमुवाच ह ॥ २७ ॥

भो भो दानपते मह्यं क्रियतां मैत्रमादृतः ।

नान्यस्त्वत्तो हिततमो विद्यते भोजवृष्णिषु ॥ २८ ॥

अतस्त्वामाश्रितः सौम्य कार्यगौरवसाधनम् ।

यथेन्द्रो विष्णुमाश्रित्य स्वार्थमध्यगमद् विभुः ॥ २९ ॥

गच्छ नन्दव्रजं तत्र सुतौ आवानकदुन्दुभेः ।

आसाते तौ इहानेन रथेनानय मा चिरम् ॥ ३० ॥

निसृष्टः किल मे मृत्युः देवैर्वैकुण्ठसंश्रयैः ।

तावानय समं गोपैः नन्दाद्यैः साभ्युपायनैः ॥ ३१ ॥

घातयिष्य इहानीतौ कालकल्पेन हस्तिना ।

यदि मुक्तौ ततो मल्लैः घातये वैद्युतोपमैः ॥ ३२ ॥

तयोर्निहतयोस्तप्तान् वसुदेवपुरोगमान् ।

तद्‍बन्धून् निहनिष्यामि वृष्णिभोजदशार्हकान् ॥ ३३ ॥

उग्रसेनं च पितरं स्थविरं राज्यकामुकम् ।

तद्‍भ्रातरं देवकं च ये चान्ये विद्विषो मम ॥ ३४ ॥

ततश्चैषा मही मित्र भवित्री नष्टकण्टका ।

जरासन्धो मम गुरुः द्विविदो दयितः सखा ॥ ३५ ॥

शम्बरो नरको बाणो मय्येव कृतसौहृदाः ।

तैरहं सुरपक्षीयान् हत्वा भोक्ष्ये महीं नृपान् ॥ ३६ ॥

एतज्ज्ञात्वाऽनय क्षिप्रं रामकृष्णाविहार्भकौ ।

धनुर्मखनिरीक्षार्थं द्रष्टुं यदुपुरश्रियम् ॥ ३७ ॥

 

श्रीअक्रूर उवाच -

राजन् मनीषितं सध्र्यक् तव स्वावद्यमार्जनम् ।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समं कुर्याद् दैवं हि फलसाधनम् ॥ ३८ ॥

मनोरथान् करोत्युच्चैः जनो दैवहतानपि ।

युज्यते हर्षशोकाभ्यां तथाप्याज्ञां करोमि ते ॥ ३९ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

एवमादिश्य चाक्रूरं मन्त्रिणश्च विषृज्य सः ।

प्रविवेश गृहं कंसः तथाक्रूरः स्वमालयम् ॥ ४० ॥

 

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ की लीला अत्यन्त अद्भुत है। इधर जब उन्होंने अरिष्टासुरको मार डाला, तब भगवन्मय नारद, जो लोगोंको शीघ्र-से-शीघ्र भगवान्‌का दर्शन कराते रहते हैं, कंसके पास पहुँचे। उन्होंने उससे कहा॥ १६ ॥ कंस ! जो कन्या तुम्हारे हाथसे छूटकर आकाशमें चली गयी, वह तो यशोदाकी पुत्री थी। और व्रजमें जो श्रीकृष्ण हैं, वे देवकीके पुत्र हैं। वहाँ जो बलरामजी हैं, वे रोहिणीके पुत्र हैं। वसुदेवने तुमसे डरकर अपने मित्र नन्दके पास उन दोनोंको रख दिया है। उन्होंने ही तुम्हारे अनुचर दैत्योंका वध किया है।यह बात सुनते ही कंसकी एक-एक इन्द्रिय क्रोधके मारे काँप उठी ॥ १७-१८ ॥ उसने वसुदेवजीको मार डालनेके लिये तुरंत तीखी तलवार उठा ली, परंतु नारदजीने रोक दिया। जब कंसको यह मालूम हो गया कि वसुदेवके लडक़े ही हमारी मृत्युके कारण हैं, तब उसने देवकी और वसुदेव दोनों ही पति-पत्नीको हथकड़ी और बेड़ीसे जकडक़र फिर जेलमें डाल दिया। जब देवर्षि नारद चले गये, तब कंसने केशीको बुलाया और कहा—‘तुम व्रजमें जाकर बलराम और कृष्णको मार डालो।वह चला गया। इसके बाद कंसने मुष्टिक, चाणूर, शल, तोशल, आदि पहलवानों, मन्ङ्क्षत्रयों और महावतोंको बुलाकर कहा— ‘वीरवर चाणूर और मुष्टिक! तुमलोग ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनो ॥ १९२२ ॥ वसुदेवके दो पुत्र बलराम और कृष्ण नन्दके व्रजमें रहते हैं। उन्हींके हाथसे मेरी मृत्यु बतलायी जाती है ॥ २३ ॥ अत: जब वे यहाँ आवें, तब तुमलोग उन्हें कुश्ती लडऩे-लड़ानेके बहाने मार डालना। अब तुमलोग भाँति- भाँतिके मंच बनाओ और उन्हें अखाड़ेके चारों ओर गोल-गोल सजा दो। उनपर बैठकर नगरवासी और देशकी दूसरी प्रजा इस स्वच्छन्द दंगलको देखें ॥ २४ ॥ महावत! तुम बड़े चतुर हो। देखो भाई! तुम दंगलके घेरेके फाटकपर ही अपने कुवलयापीड हाथीको रखना और जब मेरे शत्रु उधरसे निकलें, तब उसीके द्वारा उन्हें मरवा डालना ॥ २५ ॥ इसी चतुर्दशीको विधिपूर्वक धनुषयज्ञ प्रारम्भ कर दो और उसकी सफलताके लिये वरदानी भूतनाथ भैरवको बहुत-से पवित्र पशुओंकी बलि चढ़ाओ ॥ २६ ॥

 

परीक्षित्‌! कंस तो केवल स्वार्थ-साधनका सिद्धान्त जानता था। इसलिये उसने मन्त्री, पहलवान और महावतको इस प्रकार आज्ञा देकर श्रेष्ठ यदुवंशी अक्रूरको बुलवाया और उनका हाथ अपने हाथमें लेकर बोला॥ २७ ॥ अक्रूरजी! आप तो बड़े उदार दानी हैं। सब तरहसे मेरे आदरणीय हैं। आज आप मेरा एक मित्रोचित काम कर दीजिये; क्योंकि भोजवंशी और वृष्णिवंशी यादवोंमें आपसे बढक़र मेरी भलाई करनेवाला दूसरा कोई नहीं है ॥ २८ ॥ यह काम बहुत बड़ा है, इसलिये मेरे मित्र! मैंने आपका आश्रय लिया है। ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्र समर्थ होनेपर भी विष्णुका आश्रय लेकर अपना स्वार्थ साधता रहता है ॥ २९ ॥ आप नन्दरायके व्रजमें जाइये। वहाँ वसुदेवजीके दो पुत्र हैं। उन्हें इसी रथपर चढ़ाकर यहाँ ले आइये। बस, अब इस काममें देर नहीं होनी चाहिये ॥ ३० ॥ सुनते हैं, विष्णुके भरोसे जीनेवाले देवताओंने उन दोनोंको मेरी मृत्युका कारण निश्चित किया है। इसलिये आप उन दोनोंको तो ले ही आइये, साथ ही नन्द आदि गोपोंको भी बड़ी-बड़ी भेटोंके साथ ले आइये ॥ ३१ ॥ यहाँ आनेपर मैं उन्हें अपने कालके समान कुवलयापीड हाथीसे मरवा डालूँगा। यद िवे कदाचित् उस हाथीसे बच गये, तो मैं अपने वज्रके सामन मजबूत और फुर्तीले पहलवान मुष्टिक-चाणूर आदिसे उन्हें मरवा डालूँगा ॥ ३२ ॥ उनके मारे जानेपर वसुदेव आदि वृष्णि, भोज और दशाहर्वंशी उनके भाई-बन्धु शोकाकुल हो जायँगे। फिर उन्हें मैं अपने हाथों मार डालूँगा ॥ ३३ ॥ मेरा पिता उग्रसेन यों तो बूढ़ा हो गया है, परंतु अभी उसको राज्यका लोभ बना हुआ है। यह सब कर चुकनेके बाद मैं उसको, उसके भाई देवकको और दूसरे भी जो-जो मुझसे द्वेष करनेवाले हैंउन सबको तलवारके घाट उतार दूँगा ॥ ३४ ॥ मेरे मित्र अक्रूरजी! फिर तो मैं होऊँगा और आप होंगे तथा होगा इस पृथ्वीका अकण्टक राज्य। जरासन्ध हमारे बड़े-बूढ़े ससुर हैं और वानरराज द्विविद मेरे प्यारे सखा हैं ॥ ३५ ॥ शम्बरासुर, नरकासुर और बाणासुरये तो मुझसे मित्रता करते ही हैं, मेरा मुँह देखते रहते हैं; इन सबकी सहायतासे मैं देवताओंके पक्षपाती नरपतियोंको मारकर पृथ्वीका अकण्टक राज्य भोगूँगा ॥ ३६ ॥ यह सब अपनी गुप्त बातें मैंने आपको बतला दीं। अब आप जल्दी-से-जल्दी बलराम और कृष्णको यहाँ ले आइये। अभी तो वे बच्चे ही हैं। उनको मार डालनेमें क्या लगता है? उनसे केवल इतनी ही बात कहियेगा कि वे लोग धनुषयज्ञके दर्शन और यदुवंशियोंकी राजधानी मथुराकी शोभा देखनेके लिये यहाँ आ जायँ॥ ३७ ॥

 

अक्रूरजीने कहामहाराज ! आप अपनी मृत्यु, अपना अरिष्ट दूर करना चाहते हैं, इसलिये आपका ऐसा सोचना ठीक ही है। मनुष्यको चाहिये कि चाहे सफलता हो या असफलता, दोनोंके प्रति समभाव रखकर अपना काम करता जाय। फल तो प्रयत्नसे नहीं, दैवी प्रेरणासे मिलते हैं ॥ ३८ ॥ मनुष्य बड़े-बड़े मनोरथोंके पुल बाँधता रहता है, परंतु वह यह नहीं जानता कि दैवने, प्रारब्धने इसे पहलेसे ही नष्ट कर रखा है। यही कारण है कि कभी प्रारब्धके अनुकूल होनेपर प्रयत्न सफल हो जाता है, तो वह हर्षसे फूल उठता है और प्रतिकूल होनेपर विफल हो जाता है तो शोकग्रस्त हो जाता है। फिर भी मैं आपकी आज्ञाका पालन तो कर ही रहा हूँ ॥ ३९ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंकंसने मन्त्रियों और अक्रूरजीको इस प्रकारकी आज्ञा देकर सबको विदा कर दिया। तदनन्तर वह अपने महलमें चला गया और अक्रूरजी अपने घर लौट आये ॥ ४० ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अक्रूरसंप्रेषणं नाम षट्‌त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

अरिष्टासुर का उद्धार और कंस का श्री अक्रूरजी को व्रज में भेजना

 

श्री शुक उवाच -

अथ तर्ह्यागतो गोष्ठं अरिष्टो वृषभासुरः ।

महीं महाककुत्कायः कम्पयन् खुरविक्षताम् ॥ १ ॥

रम्भमाणः खरतरं पदा च विलिखन् महीम् ।

उद्यम्य पुच्छं वप्राणि विषाणाग्रेण चोद्धरन् ॥ २ ॥

किञ्चित्किञ्चित् शकृन् मुञ्चन् मूत्रयन् स्तब्धलोचनः ।

यस्य निर्ह्रादितेनाङ्‌ग निष्ठुरेण गवां नृणाम् ॥ ३ ॥

पतन्त्यकालतो गर्भाः स्रवन्ति स्म भयेन वै ।

निर्विशन्ति घना यस्य ककुद्यचलशङ्‌कया ॥ ४ ॥

तं तीक्ष्णशृङ्‌गमुद्वीक्ष्य गोप्यो गोपाश्च तत्रसुः ।

पशवो दुद्रुवुर्भीता राजन् संत्यज्य गोकुलम् ॥ ५ ॥

कृष्ण कृष्णेति ते सर्वे गोविन्दं शरणं ययुः ।

भगवानपि तद्वीक्ष्य गोकुलं भयविद्रुतम् ॥ ६ ॥

मा भैष्टेति गिराश्वास्य वृषासुरमुपाह्वयत् ।

गोपालैः पशुभिर्मन्द त्रासितैः किमसत्तम ॥ ७ ॥

बलदर्पहाहं दुष्टानां त्वद्विधानां दुरात्मनाम् ।

इत्यास्फोट्याच्युतोऽरिष्टं तलशब्देन कोपयन् ॥ ८ ॥

सख्युरंसे भुजाभोगं प्रसार्यावस्थितो हरिः ।

सोऽप्येवं कोपितोऽरिष्टः खुरेणावनिमुल्लिखन् ।

उद्यत्पुच्छभ्रमन्मेघः क्रुद्धः कृष्णमुपाद्रवत् ॥ ९ ॥

अग्रन्यस्तविषाणाग्रः स्तब्धासृग् लोचनोऽच्युतम् ।

कटाक्षिप्याद्रवत् तूर्ण् इन्द्रमुक्तोऽशनिर्यथा ॥ १० ॥

गृहीत्वा शृङ्‌गयोस्तं वा अष्टादश पदानि सः ।

प्रत्यपोवाह भगवान् गजः प्रतिगजं यथा ॥ ११ ॥

सोऽपविद्धो भगवता पुनरुत्थाय सत्वरम् ।

आपतत् स्विन्नसर्वाङ्‌गो निःश्वसन् क्रोधमूर्च्छितः ॥ १२ ॥

तं आपतन्तं स निगृह्य शृङ्‌गयोः

पदा समाक्रम्य निपात्य भूतले ।

निष्पीडयामास यथाऽऽर्द्रमम्बरं

कृत्वा विषाणेन जघान सोऽपतत् ॥ १३ ॥

असृग् वमन् मूत्रशकृत् समुत्सृजन्

क्षिपंश्च पादाननवस्थितेक्षणः ।

जगाम कृच्छ्रं निर्‌ऋतेरथ क्षयं

पुष्पैः किरन्तो हरिमीडिरे सुराः ॥ १४ ॥

एवं कुकुद्मिनं हत्वा स्तूयमानः द्विजातिभिः ।

विवेश गोष्ठं सबलो गोपीनां नयनोत्सवः ॥ १५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जिस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण व्रजमें प्रवेश कर रहे थे और वहाँ आनन्दोत्सवकी धूम मची हुई थी, उसी समय अरिष्टासुर नामका एक दैत्य बैलका रूप धारण करके आया। उसका ककुद् (कंधेका पुट्ठा) या थुआ और डील-डौल दोनों ही बहुत बड़े-बड़े थे। वह अपने खुरोंको इतने जोरसे पटक रहा था कि उससे धरती काँप रही थी ॥ १ ॥ वह बड़े जोरसे गर्ज रहा था और पैरोंसे धूल उछालता जाता था। पूँछ खड़ी किये हुए था और सींगोंसे चहारदीवारी, खेतोंकी मेंड़ आदि तोड़ता जाता था ॥ २ ॥ बीच-बीचमें बार-बार मूतता और गोबर छोड़ता जाता था। आँखें फाडक़र इधर-उधर दौड़ रहा था। परीक्षित्‌ ! उसके जोरसे हँकडऩेसेनिष्ठुर गर्जनासे भयवश स्त्रियों और गौओंके तीन-चार महीनेके गर्भ स्रवित हो जाते थे और पाँच छ:-महीनेके गिर जाते थे। और तो क्या कहूँ, उसके ककुद्को पर्वत समझकर बादल उसपर आकर ठहर जाते थे ॥ ३-४ ॥ परीक्षित्‌ ! उस तीखे सींगवाले बैलको देखकर गोपियाँ और गोप सभी भयभीत हो गये। पशु तो इतने डर गये कि अपने रहनेका स्थान छोडक़र भाग ही गये ॥ ५ ॥ उस समय सभी व्रजवासी श्रीकृष्ण ! श्रीकृष्ण ! हमें इस भयसे बचाओइस प्रकार पुकारते हुए भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शरणमें आये। भगवान्‌ ने देखा कि हमारा गोकुल अत्यन्त भयातुर हो रहा है ॥ ६ ॥ तब उन्होंने डरनेकी कोई बात नहीं है’—यह कहकर सबको ढाढ़स बँधाया और फिर वृषासुरको ललकारा, ‘अरे मूर्ख ! महादुष्ट ! तू इन गौओं और ग्वालोंको क्यों डरा रहा है ? इससे क्या होगा ॥ ७ ॥ देख, तुझ-जैसे दुरात्मा दुष्टोंके बलका घमंड चूर-चूर कर देनेवाला यह मैं हूँ।इस प्रकार ललकारकर भगवान्‌ने ताल ठोंकी और उसे क्रोधित करनेके लिये वे अपने एक सखाके गलेमें बाँह डालकर खड़े हो गये। भगवान्‌ श्रीकृष्णकी इस चुनौतीसे वह क्रोधके मारे तिलमिला उठा और अपने खुरोंसे बड़े जोरसे धरती खोदता हुआ श्रीकृष्णकी ओर झपटा। उस समय उसकी उठायी हुई पूँछके धक्केसे आकाशके बादल तितर-बितर होने लगे ॥ ८-९ ॥ उसने अपने तीखे सींग आगे कर लिये। लाल-लाल आँखोंसे टकटकी लगाकर श्रीकृष्णकी ओर टेढ़ी नजरसे देखता हुआ वह उनपर इतने वेगसे टूटा, मानो इन्द्रके हाथसे छोड़ा हुआ वज्र हो ॥ १० ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों सींग पकड़ लिये और जैसे एक हाथी अपनेसे भिडऩेवाले दूसरे हाथीको पीछे हटा देता है, वैसे ही उन्होंने उसे अठारह पग पीछे ठेलकर गिरा दिया ॥ ११ ॥ भगवान्‌ के इस प्रकार ठेल देनेपर वह फिर तुरंत ही उठ खड़ा हुआ और क्रोधसे अचेत होकर लंबी- लंबी साँस छोड़ता हुआ फिर उनपर झपटा। उस समय उसका सारा शरीर पसीनेसे लथपथ हो रहा था ॥ १२ ॥ भगवान्‌ ने जब देखा कि वह अब मुझपर प्रहार करना ही चाहता है, तब उन्होंने उसके सींग पकड़ लिये और उसे लात मारकर जमीनपर गिरा दिया और फिर पैरोंसे दबाकर इस प्रकार उसका कचूमर निकाला, जैसे कोई गीला कपड़ा निचोड़ रहा हो। इसके बाद उसीका सींग उखाडक़र उसको खूब पीटा, जिससे वह पड़ा ही रह गया ॥ १३ ॥ परीक्षित्‌ ! इस प्रकार वह दैत्य मुँहसे खून उगलता और गोबर-मूत करता हुआ पैर पटकने लगा। उसकी आँखें उलट गयीं और उसने बड़े कष्टके साथ प्राण छोड़े। अब देवतालोग भगवान्‌पर फूल बरसा-बरसाकर उनकी स्तुति करने लगे ॥ १४ ॥ जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार बैलके रूपमें आनेवाले अरिष्टासुरको मार डाला, तब सभी गोप उनकी प्रशंसा करने लगे। उन्होंने बलरामजीके साथ गोष्ठमें प्रवेश किया और उन्हें देख-देखकर गोपियोंके नयन-मन आनन्दसे भर गये ॥ १५ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



मंगलवार, 4 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

युगलगीत

 

कुन्ददामकृतकौतुकवेषो

गोपगोधनवृतो यमुनायाम् ।

नन्दसूनुरनघे तव वत्सो

नर्मदः प्रणयिणां विजहार ॥ २० ॥

मन्दवायुरुपवात्यनकूलं

मानयन् मलयजस्पर्शेन ।

वन्दिनस्तमुपदेवगणा ये

वाद्यगीतबलिभिः परिवव्रुः ॥ २१ ॥

वत्सलो व्रजगवां यदगध्रो

वन्द्यमानचरणः पथि वृद्धैः ।

कृत्स्नगोधनमुपोह्य दिनान्ते

गीतवेणुरनुगेडितकीर्तिः ॥ २२ ॥

उत्सवं श्रमरुचापि दृशीनां

उन्नय खुररजश्छुरितस्रक् ।

दित्सयैति सुहृदासिष एष

देवकीजठरभूरुडुराजः ॥ २३ ॥

मदविघूर्णितलोचन ईषन्

मानदः स्वसुहृदां वनमाली ।

बदरपाण्डुवदनो मृदुगण्डं

मण्डयन् कनककुण्डललक्ष्म्या ॥ २४ ॥

यदुपतिर्द्विरदराजविहारो

यामिनीपतिरिवैष दिनान्ते ।

मुदितवक्त्र उपयाति दुरन्तं

मोचयन् व्रजगवां दिनतापम् ॥ २५ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

एवं व्रजस्त्रियो राजन् कृष्णलीलानुगायतीः ।

रेमिरेऽहःसु तच्चित्ताः तन्मनस्का महोदयाः ॥ २६ ॥

 

नन्दरानी यशोदाजी ! वास्तवमें तुम बड़ी पुण्यवती हो। तभी तो तुम्हें ऐसे पुत्र मिले हैं। तुम्हारे वे लाड़ले लाल बड़े प्रेमी हैं, उनका चित्त बड़ा कोमल है। वे प्रेमी सखाओंको तरह-तरहसे हास- परिहासके द्वारा सुख पहुँचाते हैं। कुन्दकलीका हार पहनकर जब वे अपनेको विचित्र वेषमें सजा लेते हैं और ग्वालबाल तथा गौओंके साथ यमुनाजीके तटपर खेलने लगते हैं, उस समय मलयज चन्दनके समान शीतल और सुगन्धित स्पर्शसे मन्द-मन्द अनुकूल बहकर वायु तुम्हारे लालकी सेवा करती है और गन्धर्व आदि उपदेवता वंदीजनोंके समान गा-बजाकर उन्हें सन्तुष्ट करते हैं तथा अनेकों प्रकारकी भेंटें देते हुए सब ओरसे घेरकर उनकी सेवा करते हैं ॥ २०-२१ ॥

 

अरी सखी ! श्यामसुन्दर व्रजकी गौओंसे बड़ा प्रेम करते हैं। इसीलिये तो उन्होंने गोवर्धन धारण किया था। अब वे सब गौओंको लौटाकर आते ही होंगे; देखो, सायंकाल हो चला है। तब इतनी देर क्यों होती है, सखी ? रास्तेमें बड़े-बड़े ब्रह्मा आदि वयोवृद्ध और शङ्कर आदि ज्ञानवृद्ध उनके चरणोंकी वन्दना जो करने लगते हैं। अब गौओंके पीछे-पीछे बाँसुरी बजाते हुए वे आते ही होंगे। ग्वालबाल उनकी कीर्तिका गान कर रहे होंगे। देखो न, यह क्या आ रहे हैं। गौओंके खुरोंसे उड़-उडक़र बहुत-सी धूल वनमालापर पड़ गयी है। वे दिनभर जंगलोंमें घूमते-घूमते थक गये हैं। फिर भी अपनी इस शोभासे हमारी आँखोंको कितना सुख, कितना आनन्द दे रहे हैं। देखो, ये यशोदाकी कोखसे प्रकट हुए सबको आह्लादित करनेवाले चन्द्रमा हम प्रेमीजनोंकी भलाईके लिये, हमारी आशा-अभिलाषाओंको पूर्ण करनेके लिये ही हमारे पास चले आ रहे हैं ॥२२-२३ ॥

 

सखी ! देखो कैसा सौन्दर्य है ! मदभरी आँखें कुछ चढ़ी हुई हैं। कुछ-कुछ ललाई लिये हुए कैसी भली जान पड़ती हैं। गलेमें वनमाला लहरा रही है। सोनेके कुण्डलोंकी कान्तिसे वे अपने कोमल कपोलोंको अलंकृत कर रहे हैं। इसीसे मुँहपर अधपके बेरके समान कुछ पीलापन जान पड़ता है और रोम-रोमसे विशेष करके मुखकमलसे प्रसन्नता फूटी पड़ती है। देखो, अब वे अपने सखा ग्वालबालोंका सम्मान करके उन्हें विदा कर रहे हैं। देखो, देखो सखी ! व्रजविभूषण श्रीकृष्ण गजराजके समान मदभरी चालसे इस सन्ध्या-वेलामें हमारी ओर आ रहे हैं। अब व्रजमें रहनेवाली गौओंका, हमलोगोंका दिनभरका असह्य विरह-ताप मिटानेके लिये उदित होनेवाले चन्द्रमाकी भाँति ये हमारे प्यारे श्यामसुन्दर समीप चले आ रहे हैं ॥ २४-२५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! बड़भागिनी गोपियोंका मन श्रीकृष्णमें ही लगा रहता था। वे श्रीकृष्णमय हो गयी थीं। जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण दिनमें गौओंको चरानेके लिये वनमें चले जाते, तब वे उन्हींका चिन्तन करती रहतीं और अपनी-अपनी सखियोंके साथ अलग-अलग उन्हींकी लीलाओंका गान करके उसीमें रम जातीं। इस प्रकार उनके दिन बीत जाते ॥ २६ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे गोपिकायुगलगीतं नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

युगलगीत

 

विविधगोपचरणेषु विदग्धो

वेणुवाद्य उरुधा निजशिक्षाः ।

तव सुतः सति यदाधरबिम्बे

दत्तवेणुरनयत् स्वरजातीः ॥ १४ ॥

सवनशस्तदुपधार्य सुरेशाः

शक्रशर्वपरमेष्ठिपुरोगाः ।

कवय आनतकन्धरचित्ताः

कश्मलं ययुरनिश्चिततत्त्वाः ॥ १५ ॥

निजपदाब्जदलैर्ध्वजवज्र

नीरजाङ्‌कुशविचित्रललामैः ।

व्रजभुवः शमयन् खुरतोदं

वर्ष्मधुर्यगतिरीडितवेणुः ॥ १६ ॥

व्रजति तेन वयं सविलास

वीक्षणार्पितमनोभववेगाः ।

कुजगतिं गमिता न विदामः

कश्मलेन कवरं वसनं वा ॥ १७ ॥

मणिधरः क्वचिदागणयन् गा

मालया दयितगन्धतुलस्याः ।

प्रणयिनोऽनुचरस्य कदांसे

प्रक्षिपन् भुजमगायत यत्र ॥ १८ ॥

क्वणितवेणुरववञ्चितचित्ताः

कृष्णमन्वसत कृष्णगृहिण्यः ।

गुणगणार्णमनुगत्य हरिण्यो

गोपिका इव विमुक्तगृहाशाः ॥ १९ ॥

 

सतीशिरोमणि यशोदाजी ! तुम्हारे सुन्दर कुँवर ग्वालबालोंके साथ खेल खेलनेमें बड़े निपुण हैं। रानीजी ! तुम्हारे लाड़ले लाल सबके प्यारे तो हैं ही, चतुर भी बहुत हैं। देखो, उन्होंने बाँसुरी बजाना किसीसे सीखा नहीं। अपने ही अनेकों प्रकारकी राग-रागिनियाँ उन्होंने निकाल लीं। जब वे अपने बिम्बा-फल सदृश लाल-लाल अधरोंपर बाँसुरी रखकर ऋषभ, निषाद आदि स्वरोंकी अनेक जातियाँ बजाने लगते हैं, उस समय वंशीकी परम मोहिनी और नयी तान सुनकर ब्रह्मा, शङ्कर और इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता भीजो सर्वज्ञ हैंउसे नहीं पहचान पाते। वे इतने मोहित हो जाते हैं कि उनका चित्त तो उनके रोकनेपर भी उनके हाथसे निकलकर वंशीध्वनिमें तल्लीन हो ही जाता है, सिर भी झुक जाता है, और वे अपनी सुध-बुध खोकर उसीमें तन्मय हो जाते हैं ॥ १४-१५ ॥

 

अरी वीर ! उनके चरणकमलोंमें ध्वजा, वज्र, कमल, अङ्कुश आदिके विचित्र और सुन्दर- सुन्दर चिह्न हैं। जब व्रजभूमि गौओंके खुरसे खुद जाती है, तब वे अपने सुकुमार चरणोंसे उसकी पीड़ा मिटाते हुए गजराजके समान मन्दगतिसे आते हैं और बाँसुरी भी बजाते रहते हैं। उनकी वह वंशीध्वनि, उनकी वह चाल और उनकी वह विलासभरी चितवन हमारे हृदयमें प्रेमके मिलनकी आकांक्षाका आवेग बढ़ा देती है। हम उस समय इतनी मुग्ध, इतनी मोहित हो जाती हैं कि हिल- डोलतक नहीं सकतीं, मानो हम जड़ वृक्ष हों ! हमें तो इस बातका भी पता नहीं चलता कि हमारा जूड़ा खुल गया है या बँधा है, हमारे शरीरपरका वस्त्र उतर गया है या है ॥ १६-१७ ॥

 

अरी वीर ! उनके गलेमें मणियोंकी माला बहुत ही भली मालूम होती है। तुलसीकी मधुर गन्ध उन्हें बहुत प्यारी है। इसीसे तुलसीकी मालाको तो वे कभी छोड़ते ही नहीं, सदा धारण किये रहते हैं। जब वे श्यामसुन्दर उस मणियोंकी मालासे गौओंकी गिनती करते-करते किसी प्रेमी सखाके गलेमें बाँह डाल देते हैं और भाव बता-बताकर बाँसुरी बजाते हुए गाने लगते हैं, उस समय बजती हुई उस बाँसुरीके मधुर स्वरसे मोहित होकर कृष्णसार मृगोंकी पत्नी हरिनियाँ भी अपना चित्त उनके चरणोंपर निछावर कर देती हैं और जैसे हम गोपियाँ अपने घर-गृहस्थीकी आशा-अभिलाषा छोडक़र गुणसागर नागर नन्दनन्दनको घेरे रहतीं हैं, वैसे ही वे भी उनके पास दौड़ आती हैं और वहीं एकटक देखती हुई खड़ी रह जाती हैं, लौटनेका नाम भी नहीं लेतीं ॥ १८-१९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...