शनिवार, 8 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अड़तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) अड़तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

अक्रूरजी की व्रज-यात्रा

 

श्रीशुक उवाच -

इति सञ्चिन्तयन्कृष्णं श्वफल्कतनयोऽध्वनि ।

रथेन गोकुलं प्राप्तः सूर्यश्चास्तगिरिं नृप ॥ २४ ॥

पदानि तस्याखिललोकपाल

किरीटजुष्टामलपादरेणोः ।

ददर्श गोष्ठे क्षितिकौतुकानि

विलक्षितान्यब्जयवाङ्‌कुशाद्यैः ॥ २५ ॥

तद्दर्शनाह्लादविवृद्धसम्भ्रमः

प्रेम्णोर्ध्वरोमाश्रुकलाकुलेक्षणः ।

रथादवस्कन्द्य स तेष्वचेष्टत

प्रभोरमून्यङ्‌घ्रिरजांस्यहो इति ॥ २६ ॥

देहंभृतामियानर्थो हित्वा दम्भं भियं शुचम् ।

सन्देशाद्यो हरेर्लिङ्‌ग दर्शनश्रवणादिभिः ॥ २७ ॥

ददर्श कृष्णं रामं च व्रजे गोदोहनं गतौ ।

पीतनीलाम्बरधरौ शरदम्बुरहेक्षणौ ॥ २८ ॥

किशोरौ श्यामलश्वेतौ श्रीनिकेतौ बृहद्‍भुजौ ।

सुमुखौ सुन्दरवरौ बलद्विरदविक्रमौ ॥ २९ ॥

ध्वजवज्राङ्‌कुशाम्भोजैः चिह्नितैरङ्‌घ्रिभिर्व्रजम् ।

शोभयन्तौ महात्मानौ सानुक्रोशस्मितेक्षणौ ॥ ३० ॥

उदाररुचिरक्रीडौ स्रग्विणौ वनमालिनौ ।

पुण्यगन्धानुलिप्ताङ्‌गौ स्नातौ विरजवाससौ ॥ ३१ ॥

प्रधानपुरुषावाद्यौ जगद्धेतू जगत्पती ।

अवतीर्णौ जगत्यर्थे स्वांशेन बलकेशवौ ॥ ३२ ॥

दिशो वितिमिरा राजन् कुर्वाणौ प्रभया स्वया ।

यथा मारकतः शैलो रौप्यश्च कनकाचितौ ॥ ३३ ॥

रथात् तूर्णं अवप्लुत्य सोऽक्रूरः स्नेहविह्वलः ।

पपात चरणोपान्ते दण्डवत् रामकृष्णयोः ॥ ३४ ॥

भगवद्दर्शनाह्लाद बाष्पपर्याकुलेक्षणः ।

पुलकचिताङ्‌ग औत्कण्ठ्यात् स्वाख्याने नाशकन् नृप ॥ ३५ ॥

भगवान् तमभिप्रेत्य रथाङ्‌गाङ्‌कितपाणिना ।

परिरेभेऽभ्युपाकृष्य प्रीतः प्रणतवत्सलः ॥ ३६ ॥

सङ्‌कर्षणश्च प्रणतं उपगुह्य महामनाः ।

गृहीत्वा पाणिना पाणी अनयत् सानुजो गृहम् ॥ ३७ ॥

पृष्ट्वाथ स्वागतं तस्मै निवेद्य च वरासनम् ।

प्रक्षाल्य विधिवत् पादौ मधुपर्कार्हणमाहरत् ॥ ३८ ॥

निवेद्य गां चातिथये संवाह्य श्रान्तमादृतः ।

अन्नं बहुगुणं मेध्यं श्रद्धयोपाहरद् विभुः ॥ ३९ ॥

तस्मै भुक्तवते प्रीत्या रामः परमधर्मवित् ।

मखवासैर्गन्धमाल्यैः परां प्रीतिं व्यधात् पुनः ॥ ४० ॥

पप्रच्छ सत्कृतं नन्दः कथं स्थ निरनुग्रहे ।

कंसे जीवति दाशार्ह सौनपाला इवावयः ॥ ४१ ॥

योऽवधीत् स्वस्वसुस्तोकान् क्रोशन्त्या असुतृप् खलः ।

किं नु स्वित्तत्प्रजानां वः कुशलं विमृशामहे ॥ ४२ ॥

इत्थं सूनृतया वाचा नन्देन सुसभाजितः ।

अक्रूरः परिपृष्टेन जहावध्वपरिश्रमम् ॥ ४३ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! श्वफल्कनन्दन अक्रूर मार्गमें इसी चिन्तन में डूबे-डूबे रथसे नन्दगाँव पहुँच गये और सूर्य अस्ताचलपर चले गये ॥ २४ ॥ जिनके चरणकमलकी रजका सभी लोकपाल अपने किरीटोंके द्वारा सेवन करते हैं, अक्रूरजीने गोष्ठमें उनके चरणचिह्नोंके दर्शन किये। कमल, यव, अङ्कुश आदि असाधारण चिह्नोंके द्वारा उनकी पहचान हो रही थी और उनसे पृथ्वीकी शोभा बढ़ रही थी ॥ २५ ॥ उन चरणचिह्नोंके दर्शन करते ही अक्रूरजीके हृदयमें इतना आह्लाद हुआ कि वे अपनेको सँभाल न सके, विह्वल हो गये। प्रेमके आवेगसे उनका रोम-रोम खिल उठा, नेत्रोंमें आँसू भर आये और टपटप टपकने लगे। वे रथसे कूदकर उस धूलिमें लोटने लगे और कहने लगे—‘अहो ! यह हमारे प्रभुके चरणोंकी रज है॥ २६ ॥ परीक्षित्‌ ! कंसके सन्देशसे लेकर यहाँतक अक्रूरजीके चित्तकी जैसी अवस्था रही है, यही जीवोंके देह धारण करनेका परम लाभ है। इसलिये जीवमात्रका यही परम कर्तव्य है कि दम्भ, भय और शोक त्यागकर भगवान्‌की मूर्ति (प्रतिमा, भक्त आदि) चिह्न, लीला, स्थान तथा गुणोंके दर्शन-श्रवण आदिके द्वारा ऐसा ही भाव सम्पादन करें ॥ २७ ॥

 

व्रजमें पहुँचकर अक्रूरजीने श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाइयोंको गाय दुहनेके स्थानमें विराजमान देखा। श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण पीताम्बर धारण किये हुए थे और गौरसुन्दर बलराम नीलाम्बर। उनके नेत्र शरत्कालीन कमलके समान खिले हुए थे ॥ २८ ॥ उन्होंने अभी किशोर- अवस्थामें प्रवेश ही किया था। वे दोनों गौर-श्याम निखिल सौन्दर्यकी खान थे। घुटनोंका स्पर्श करनेवाली लंबी-लंबी भुजाएँ, सुन्दर बदन, परम मनोहर और गजशावकके समान ललित चाल थी ॥ २९ ॥ उनके चरणोंमें ध्वजा, वज्र, अङ्कुश और कमलके चिह्न थे। जब वे चलते थे, उनसे चिह्नित होकर पृथ्वी शोभायमान हो जाती थी। उनकी मन्द-मन्द मुसकान और चितवन ऐसी थी, मानो दया बरस रही हो। वे उदारताकी तो मानो मूर्ति ही थे ॥ ३० ॥ उनकी एक-एक लीला उदारता और सुन्दर कलासे भरी थी। गलेमें वनमाला और मणियोंके हार जगमगा रहे थे। उन्होंने अभी- अभी स्नान करके निर्मल वस्त्र पहने थे और शरीरमें पवित्र अङ्गराग तथा चन्दनका लेप किया था ॥ ३१ ॥ परीक्षित्‌ ! अक्रूरने देखा कि जगत्के आदिकारण, जगत्के परमपति, पुरुषोत्तम ही संसारकी रक्षाके लिये अपने सम्पूर्ण अंशोंसे बलरामजी और श्रीकृष्णके रूपमें अवतीर्ण होकर अपनी अङ्गकान्तिसे दिशाओंका अन्धकार दूर कर रहे हैं। वे ऐसे भले मालूम होते थे, जैसे सोनेसे मढ़े हुए मरकतमणि और चाँदीके पर्वत जगमगा रहे हों ॥ ३२-३३ ॥ उन्हें देखते ही अक्रूरजी प्रेमावेगसे अधीर होकर रथसे कूद पड़े और भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा बलरामके चरणोंके पास साष्टाङ्ग लोट गये ॥ ३४ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌के दर्शनसे उन्हें इतना आह्लाद हुआ कि उनके नेत्र आँसूसे सर्वथा भर गये। सारे शरीरमें पुलकावली छा गयी। उत्कण्ठावश गला भर आनेके कारण वे अपना नाम भी न बतला सके ॥ ३५ ॥ शरणागतवत्सल भगवान्‌ श्रीकृष्ण उनके मनका भाव जान गये। उन्होंने बड़ी प्रसन्नतासे चक्राङ्कित हाथोंके द्वारा उन्हें खींचकर उठाया और हृदयसे लगा लिया ॥ ३६ ॥ इसके बाद जब वे परम मनस्वी श्रीबलरामजीके सामने विनीत भावसे खड़े हो गये, तब उन्होंने उनको गले लगा लिया और उनका एक हाथ श्रीकृष्णने पकड़ा तथा दूसरा बलरामजीने। दोनों भाई उन्हें घर ले गये ॥ ३७ ॥ घर ले जाकर भगवान्‌ ने उनका बड़ा स्वागत-सत्कार किया। कुशल-मङ्गल पूछकर श्रेष्ठ आसनपर बैठाया और विधिपूर्वक उनके पाँव पखारकर मधुपर्क (शहद मिला हुआ दही) आदि पूजाकी सामग्री भेंट की ॥ ३८ ॥ इसके बाद भगवान्‌ने अतिथि अक्रूरजीको एक गाय दी और पैर दबाकर उनकी थकावट दूर की तथा बड़े आदर एवं श्रद्धासे उन्हें पवित्र और अनेक गुणोंसे युक्त अन्नका भोजन कराया ॥ ३९ ॥ जब वे भोजन कर चुके, तब धर्मके परम मर्मज्ञ भगवान्‌ बलरामजीने बड़े प्रेमसे मुखवास (पान-इलायची आदि) और सुगन्धित माला आदि देकर उन्हें अत्यन्त आनन्दित किया ॥ ४० ॥ इस प्रकार सत्कार हो चुकनेपर नन्दरायजीने उनके पास आकर पूछा—‘अक्रूरजी ! आपलोग निर्दयी कंसके जीते-जी किस प्रकार अपने दिन काटते हैं ? अरे ! उसके रहते आप लोगोंकी वही दशा है, जो कसाई द्वारा पाली हुई भेड़ोंकी होती है ॥ ४१ ॥ जिस इन्द्रियाराम पापीने अपनी बिलखती हुई बहनके नन्हे-नन्हे बच्चोंको मार डाला। आपलोग उसकी प्रजा हैं। फिर आप सुखी हैं, यह अनुमान तो हम कर ही कैसे सकते हैं ? ॥ ४२ ॥ अक्रूरजीने नन्दबाबासे पहले ही कुशल-मङ्गल पूछ लिया था। जब इस प्रकार नन्दबाबाने मधुर वाणीसे अक्रूरजीसे कुशल-मङ्गल पूछा और उनका सम्मान किया तब अक्रूरजीके शरीरमें रास्ता चलनेकी जो कुछ थकावट थी, वह सब दूर हो गयी ॥ ४३ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अक्रूरागमनं नाम अष्टत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अड़तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) अड़तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

अक्रूरजी की व्रज-यात्रा

 

अथावरूढः सपदीशयो रथात्

प्रधानपुंसोश्चरणं स्वलब्धये ।

धिया धृतं योगिभिरप्यहं ध्रुवं

नमस्य आभ्यां च सखीन् वनौकसः ॥ १५ ॥

अप्यङ्‌घ्रिमूले पतितस्य मे विभुः

शिरस्यधास्यन् निजहस्तपङ्‌कजम् ।

दत्ताभयं कालभुजाङ्‌गरंहसा

प्रोद्वेजितानां शरणैषिणां णृनाम् ॥ १६ ॥

समर्हणं यत्र निधाय कौशिकः

तथा बलिश्चाप जगत्त्रयेन्द्रताम् ।

यद्वा विहारे व्रजयोषितां श्रमं

स्पर्शेन सौगन्धिकगन्ध्यपानुदत् ॥ १७ ॥

न मय्युपैष्यत्यरिबुद्धिमच्युतः

कंसस्य दूतः प्रहितोऽपि विश्वदृक् ।

योऽन्तर्बहिश्चेतस एतदीहितं

क्षेत्रज्ञ ईक्षत्यमलेन चक्षुषा ॥ १८ ॥

अप्यङ्‌घ्रिमूलेऽवहितं कृताञ्जलिं

मामीक्षिता सस्मितमार्द्रया दृशा ।

सपद्यपध्वस्तसमस्तकिल्बिषो

वोढा मुदं वीतविशङ्‌क ऊर्जिताम् ॥ १९ ॥

सुहृत्तमं ज्ञातिमनन्यदैवतं

दोर्भ्यां बृहद्‍भ्यां परिरप्स्यतेऽथ माम् ।

आत्मा हि तीर्थीक्रियते तदैव मे

बन्धश्च कर्मात्मक उच्छ्वसित्यतः ॥ २० ॥

लब्ध्वाङ्‌गसङ्‌गं प्रणतं कृताञ्जलिं

मां वक्ष्यतेऽक्रूर ततेत्युरुश्रवाः ।

तदा वयं जन्मभृतो महीयसा

नैवादृतो यो धिगमुष्य जन्म तत् ॥ २१ ॥

न तस्य कश्चिद् दयितः सुहृत्तमो

न चाप्रियो द्वेष्य उपेक्ष्य एव वा ।

तथापि भक्तान् भजते यथा तथा

सुरद्रुमो यद्वदुपाश्रितोऽर्थदः ॥ २२ ॥

किं चाग्रजो मावनतं यदूत्तमः

स्मयन् परिष्वज्य गृहीतमञ्जलौ ।

गृहं प्रवेष्याप्तसमस्तसत्कृतं

सम्प्रक्ष्यते कंसकृतं स्वबन्धुषु ॥ २३ ॥

 

जब मैं उन्हें देखूँगा तब सर्वश्रेष्ठ पुरुष बलराम तथा श्रीकृष्णके चरणोंमें नमस्कार करनेके लिये तुरंत रथसे कूद पडूंगा। उनके चरण पकड़ लूँगा। ओह ! उनके चरण कितने दुर्लभ हैं। बड़े-बड़े योगी-यति आत्म-साक्षात्कारके लिये मन-ही-मन अपने हृदयमें उनके चरणोंकी धारणा करते हैं और मैं तो उन्हें प्रत्यक्ष पा जाऊँगा और लोट जाऊँगा उनपर। उन दोनोंके साथ ही उनके वनवासी सखा एक-एक ग्वालबालके चरणोंकी भी वन्दना करूँगा ॥ १५ ॥ मेरे अहोभाग्य ! जब मैं उनके चरणकमलोंमें गिर जाऊँगा, तब क्या वे अपना करकमल मेरे सिरपर रख देंगे ? उनके वे करकमल उन लोगोंको सदाके लिये अभयदान दे चुके हैं, जो कालरूपी साँपके भयसे अत्यन्त घबड़ाकर उनकी शरण चाहते और शरणमें आ जाते हैं ॥ १६ ॥ इन्द्र तथा दैत्यराज बलिने भगवान्‌ के उन्हीं करकमलोंमें पूजाकी भेंट समर्पित करके तीनों लोकोंका प्रभुत्वइन्द्रपद प्राप्त कर लिया। भगवान्‌ के उन्हीं करकमलोंने, जिनमेंसे दिव्य कमलकी-सी सुगन्ध आया करती है, अपने स्पर्शसे रासलीलाके समय व्रजयुवतियोंकी सारी थकान मिटा दी थी ॥ १७ ॥ मैं कंसका दूत हूँ। उसीके भेजनेसे उनके पास जा रहा हूँ। कहीं वे मुझे अपना शत्रु तो न समझ बैठेंगे ? राम-राम ! वे ऐसा कदापि नहीं समझ सकते। क्योंकि वे निर्विकार हैं, सम हैं, अच्युत हैं, सारे विश्वके साक्षी हैं, सर्वज्ञ हैं, वे चित्त के बाहर भी हैं और भीतर भी। वे क्षेत्रज्ञरूप से स्थित होकर अन्त:करणकी एक-एक चेष्टा को अपनी निर्मल ज्ञानदृष्टि के द्वारा देखते रहते हैं ॥ १८ ॥ तब मेरी शङ्का व्यर्थ है। अवश्य ही मैं उनके चरणोंमें हाथ जोडक़र विनीतभाव से खड़ा हो जाऊँगा। वे मुसकराते हुए दयाभरी स्निग्ध दृष्टिसे मेरी ओर देखेंगे। उस समय मेरे जन्म-जन्मके समस्त अशुभ संस्कार उसी क्षण नष्ट हो जायँगे और मैं नि:शङ्क होकर सदाके लिये परमानन्दमें मग्र हो जाऊँगा ॥ १९ ॥ मैं उनके कुटुम्बका हूँ और उनका अत्यन्त हित चाहता हूँ। उनके सिवा और कोई मेरा आराध्यदेव भी नहीं है। ऐसी स्थितिमें वे अपनी लंबी-लंबी बाँहोंसे पकडक़र मुझे अवश्य अपने हृदयसे लगा लेंगे। अहा ! उस समय मेरी तो देह पवित्र होगी ही, वह दूसरोंको पवित्र करनेवाली भी बन जायगी और उसी समयउनका आलिङ्गन प्राप्त होते हीमेरे कर्ममय बन्धन, जिनके कारण मैं अनादिकालसे भटक रहा हूँ, टूट जायँगे ॥ २० ॥ जब वे मेरा आलिङ्गन कर चुकेंगे और मैं हाथ जोड़, सिर झुकाकर उनके सामने खड़ा हो जाऊँगा तब वे मुझे चाचा अक्रूर !इस प्रकार कहकर सम्बोधन करेंगे ! क्यों न हो, इसी पवित्र और मधुर यशका विस्तार करनेके लिये ही तो वे लीला कर रहे हैं। तब मेरा जीवन सफल हो जायगा। भगवान्‌ श्रीकृष्णने जिसको अपनाया नहीं, जिसे आदर नहीं दियाउसके उस जन्मको, जीवनको धिक्कार है ॥ २१ ॥ न तो उन्हें कोई प्रिय है और न तो अप्रिय। न तो उनका कोई आत्मीय सुहृद् है और न तो शत्रु। उनकी उपेक्षाका पात्र भी कोई नहीं है। फिर भी जैसे कल्पवृक्ष अपने निकट आकर याचना करनेवालोंको उनकी मुँहमाँगी वस्तु देता है, वैसे ही भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी, जो उन्हें जिस प्रकार भजता है, उसे उसी रूपमें भजते हैंवे अपने प्रेमी भक्तोंसे ही पूर्ण प्रेम करते हैं ॥ २२ ॥ मैं उनके सामने विनीत भावसे सिर झुकाकर खड़ा हो जाऊँगा और बलरामजी मुसकराते हुए मुझे अपने हृदयसे लगा लेंगे और फिर मेरे दोनों हाथ पकडक़र मुझे घरके भीतर ले जायँगे। वहाँ सब प्रकारसे मेरा सत्कार करेंगे। इसके बाद मुझसे पूछेंगे कि कंस हमारे घरवालोंके साथ कैसा व्यवहार करता है ?’ ॥ २३ ॥

 

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शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अड़तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) अड़तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

अक्रूरजी की व्रज-यात्रा

 

श्रीशुक उवाच -

अक्रूरोऽपि च तां रात्रिं मधुपुर्यां महामतिः ।

उषित्वा रथमास्थाय प्रययौ नन्दगोकुलम् ॥ १ ॥

गच्छन् पथि महाभागो भगवत्यम्बुजेक्षणे ।

भक्तिं परामुपगत एवमेतदचिन्तयत् ॥ २ ॥

किं मयाऽऽचरितं भद्रं किं तप्तं परमं तपः ।

किं वाथाप्यर्हते दत्तं यद् द्रक्ष्याम्यद्य केशवम् ॥ ३ ॥

ममैतद् दुर्लभं मन्ये उत्तमःश्लोकदर्शनम् ।

विषयात्मनो यथा ब्रह्म कीर्तनं शूद्रजन्मनः ॥ ४ ॥

मैवं ममाधमस्यापि स्यादेवाच्युतदर्शनम् ।

ह्रियमाणः कलनद्या क्वचित्तरति कश्चन ॥ ५ ॥

ममाद्यामङ्‌गलं नष्टं फलवांश्चैव मे भवः ।

यन्नमस्ये भगवतो योगिध्येयांघ्रिपङ्‌कजम् ॥ ६ ॥

कंसो बताद्याकृत मेऽत्यनुग्रहं

द्रक्ष्येऽङ्‌घ्रिपद्मं प्रहितोऽमुना हरेः ।

कृतावतारस्य दुरत्ययं तमः

पूर्वेऽतरन् यन्नखमण्डलत्विषा ॥ ७ ॥

यदर्चितं ब्रह्मभवादिभिः सुरैः

श्रिया च देव्या मुनिभिः ससात्वतैः ।

गोचारणायानुचरैश्चरद्‌वने

यद्‍गोपिकानां कुचकुङ्‌कुमाङ्‌कितम् ॥ ८ ॥

द्रक्ष्यामि नूनं सुकपोलनासिकं

स्मितावलोकारुणकञ्जलोचनम् ।

मुखं मुकुन्दस्य गुडालकावृतं

प्रदक्षिणं मे प्रचरन्ति वै मृगाः ॥ ९ ॥

अप्यद्य विष्णोर्मनुजत्वमीयुषो

भारावताराय भुवो निजेच्छया ।

लावण्यधाम्नो भवितोपलम्भनं

मह्यं न न स्यात् फलमञ्जसा दृशः ॥ १० ॥

य ईक्षिताहंरहितोऽप्यसत्सतोः

स्वतेजसापास्ततमोभिदाभ्रमः ।

स्वमाययाऽऽत्मन् रचितैस्तदीक्षया

प्राणाक्षधीभिः सदनेष्वभीयते ॥ ११ ॥

यस्याखिलामीवहभिः सुमङ्‌गलैः

वाचो विमिश्रा गुणकर्मजन्मभिः ।

प्राणन्ति शुम्भन्ति पुनन्ति वै जगत्

यास्तद्विरक्ताः शवशोभना मताः ॥ १२ ॥

स चावतीर्णः किल सत्वतान्वये

स्वसेतुपालामरवर्यशर्मकृत् ।

यशो वितन्वन् व्रज आस्त ईश्वरो

गायन्ति देवा यदशेषमङ्‌गलम् ॥ १३ ॥

तं त्वद्य नूनं महतां गतिं गुरुं

त्रैलोक्यकान्तं दृशिमन्महोत्सवम् ।

रूपं दधानं श्रिय ईप्सितास्पदं

द्रक्ष्ये ममासन्नुषसः सुदर्शनाः ॥ १४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! महामति अक्रूरजी भी वह रात मथुरापुरी में बिताकर प्रात:काल होते ही रथपर सवार हुए और नन्दबाबाके गोकुलकी ओर चल दिये ॥ १ ॥ परम भाग्यवान् अक्रूरजी व्रजकी यात्रा करते समय मार्गमें कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्णकी परम प्रेममयी भक्तिसे परिपूर्ण हो गये। वे इस प्रकार सोचने लगे ॥ २ ॥ मैने ऐसा कौन-सा शुभ कर्म किया है, ऐसी कौन-सी श्रेष्ठ तपस्या की है अथवा किसी सत्पात्रको ऐसा कौन-सा महत्त्वपूर्ण दान दिया है, जिसके फलस्वरूप आज मैं भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शन करूँगा ॥ ३ ॥ मैं बड़ा विषयी हूँ। ऐसी स्थितिमें, बड़े-बड़े सात्त्विक पुरुष भी जिनके गुणोंका ही गान करते रहते हैं, दर्शन नहीं कर पातेउन भगवान्‌ के दर्शन मेरे लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं, ठीक वैसे ही , जैसे शूद्रकुलके बालकके लिये वेदोंका कीर्तन ॥ ४ ॥ परंतु नहीं, मुझ अधमको भी भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शन होंगे ही। क्योंकि जैसे नदीमें बहते हुए तिनके कभी-कभी इस पारसे उस पार लग जाते हैं, वैसे ही समयके प्रवाहसे भी कहीं कोई इस संसारसागरको पार कर सकता है ॥ ५ ॥ अवश्य ही आज मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गये। आज मेरा जन्म सफल हो गया। क्योंकि आज मैं भगवान्‌के उन चरणकमलोंमें साक्षात् नमस्कार करूँगा, जो बड़े-बड़े योगी-यतियोंके भी केवल ध्यानके ही विषय हैं ॥ ६ ॥ अहो ! कंसने तो आज मेरे ऊपर बड़ी ही कृपा की है। उसी कंसके भेजनेसे मैं इस भूतलपर अवतीर्ण स्वयं भगवान्‌ के चरणकमलोंके दर्शन पाऊँगा। जिनके नखमण्डलकी कान्तिका ध्यान करके पहले युगोंके ऋषि-महर्षि इस अज्ञानरूप अपार अन्धकार-राशिको पार कर चुके हैं, स्वयं वही भगवान्‌ तो अवतार ग्रहण करके प्रकट हुए हैं ॥ ७ ॥ ब्रह्मा, शङ्कर, इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता जिन चरणकमलोंकी उपासना करते रहते हैं, स्वयं भगवती लक्ष्मी एक क्षणके लिये भी जिनकी सेवा नहीं छोड़तीं, प्रेमी भक्तोंके साथ बड़े-बड़े ज्ञानी भी जिनकी आराधनामें संलग्र रहते हैंभगवान्‌ के वे ही चरण-कमल गौओंको चरानेके लिये ग्वालबालोंके साथ वन-वनमें विचरते हैं। वे ही सुर-मुनि-वन्दित श्रीचरण गोपियोंके वक्ष:स्थलपर लगी हुई केसरसे रँग जाते हैं, चिह्नित हो जाते हैं ॥ ८ ॥ मैं अवश्य-अवश्य उनका दर्शन करूँगा। मरकतमणिके समान सुस्निग्ध कान्तिमान् उनके कोमल कपोल हैं, तोतेकी ठोरके समान नुकीली नासिका है, होठोंपर मन्द-मन्द मुसकान, प्रेमभरी चितवन, कमल-से-कोमल रतनारे लोचन और कपोलोंपर घुँघराली अलकें लटक रही हैं। मैं प्रेम और मुक्तिके परम दानी श्रीमुकुन्दके उस मुखकमलका आज अवश्य दर्शन करूँगा। क्योंकि हरिन मेरी दायीं ओरसे निकल रहे हैं ॥ ९ ॥ भगवान्‌ विष्णु पृथ्वीका भार उतारनेके लिये स्वेच्छासे मनुष्यकी-सी लीला कर रहे हैं ! वे सम्पूर्ण लावण्यके धाम हैं। सौन्दर्यकी मूर्तिमान् निधि हैं। आज मुझे उन्हींका दर्शन होगा ! अवश्य होगा ! आज मुझे सहजमें ही आँखोंका फल मिल जायगा ॥ १० ॥ भगवान्‌ इस कार्य-कारणरूप जगत्के द्रष्टामात्र हैं, और ऐसा होनेपर भी द्रष्टापनका अहंकार उन्हें छूतक नहीं गया है। उनकी चिन्मयी शक्तिसे अज्ञानके कारण होनेवाला भेदभ्रम अज्ञानसहित दूरसे ही निरस्त रहता है। वे अपनी योगमायासे ही अपने-आपमें भ्रूविलास- मात्रसे प्राण, इन्द्रिय और बुद्धि आदिके सहित अपने स्वरूपभूत जीवोंकी रचना कर लेते हैं और उनके साथ वृन्दावनकी कुञ्जोंमें तथा गोपियोंके घरोंमेे. तरह-तरहकी लीलाएँ करते हुए प्रतीत होते हैं ॥ ११ ॥ जब समस्त पापोंके नाशक उनके परम मङ्गलमय गुण, कर्म और जन्मकी लीलाओंसे युक्त होकर वाणी उनका गान करती है, तब उस गानसे संसारमें जीवनकी स्फूर्ति होने लगती है, शोभाका सञ्चार हो जाता है, सारी अपवित्रताएँ धुलकर पवित्रताका साम्राज्य छा जाता है; परंतु जिस वाणीसे उनके गुण, लीला और जन्मकी कथाएँ नहीं गायी जातीं, वह तो मुर्दोंको ही शोभित करनेवाली है, होनेपर भी नहींके समानव्यर्थ है ॥ १२ ॥ जिनके गुणगानका ही ऐसा माहात्म्य है, वे ही भगवान्‌ स्वयं यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हैं। किसलिये ? अपनी ही बनायी मर्यादाका पालन करनेवाले श्रेष्ठ देवताओंका कल्याण करनेके लिये। वे ही परम ऐश्वर्यशाली भगवान्‌ आज व्रजमें निवास कर रहे हैं। और वहींसे अपने यशका विस्तार कर रहे हैं। उनका यश कितना पवित्र है ! अहो, देवतालोग भी उस सम्पूर्ण मङ्गलमय यशका गान करते रहते हैं ॥ १३ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि आज मैं अवश्य ही उन्हें देखूँगा। वे बड़े-बड़े संतों और लोकपालोंके भी एकमात्र आश्रय हैं। सबके परम गुरु हैं। और उनका रूप-सौन्दर्य तीनों लोकोंके मनको मोह लेनेवाला है। जो नेत्रवाले हैं, उनके लिये वह आनन्द और रसकी चरम सीमा है। इसीसे स्वयं लक्ष्मीजी भी, जो सौन्दर्यकी अधीश्वरी हैं, उन्हें पानेके लिये ललकती रहती हैं। हाँ, तो मैं उन्हें अवश्य देखूँगा। क्योंकि आज मेरा मङ्गलप्रभात है, आज मुझे प्रात:कालसे ही अच्छे-अच्छे शकुन दीख रहे हैं ॥ १४ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

केशी और व्योमासुर का उद्धार तथा नारदजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

 

श्रीशुक उवाच -

एवं यदुपतिं कृष्णं भागवतप्रवरो मुनिः ।

प्रणिपत्याभ्यनुज्ञातो ययौ तद्दर्शनोत्सवः ॥ २५ ॥

भगवानपि गोविन्दो हत्वा केशिनमाहवे ।

पशूनपालयत् पालैः प्रीतैर्व्रजसुखावहः ॥ २६ ॥

एकदा ते पशून् पालाःन् चारयन्तोऽद्रिसानुषु ।

चक्रुर्निलायनक्रीडाः चोरपालापदेशतः ॥ २७ ॥

तत्रासन्कतिचिच्चोराः पालाश्च कतिचिन्नृप ।

मेषायिताश्च तत्रैके विजह्रुरकुतोभयाः ॥ २८ ॥

मयपुत्रो महामायो व्योमो गोपालवेषधृक् ।

मेषायितानपोवाह प्रायश्चोरायितो बहून् ॥ २९ ॥

गिरिदर्यां विनिक्षिप्य नीतं नीतं महासुरः ।

शिलया पिदधे द्वारं चतुःपञ्चावशेषिताः ॥ ३० ॥

तस्य तत्कर्म विज्ञाय कृष्णः शरणदः सताम् ।

गोपान् नयन्तं जग्राह वृकं हरिरिवौजसा ॥ ३१ ॥

स निजं रूपमास्थाय गिरीन्द्रसदृशं बली ।

इच्छन् विमोक्तुमात्मानं नाशक्नोद् ग्रहणातुरः ॥ ३२ ॥

तं निगृह्याच्युतो दोर्भ्यां पातयित्वा महीतले ।

पश्यतां दिवि देवानां पशुमारममारयत् ॥ ३३ ॥

गुहापिधानं निर्भिद्य गोपान् निःसार्य कृच्छ्रतः ।

स्तूयमानः सुरैर्गोपैः प्रविवेश स्वगोकुलम् ॥ ३४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ के परमप्रेमी भक्त देवर्षि नारदजीने इस प्रकार भगवान्‌की स्तुति और प्रणाम किया। भगवान्‌ के दर्शनोंके आह्लाद से नारदजी का रोम-रोम खिल उठा। तदनन्तर उनकी आज्ञा प्राप्त करके वे चले गये ॥ २५ ॥ इधर भगवान्‌ श्रीकृष्ण केशी को लड़ाईमें मारकर फिर अपने प्रेमी एवं प्रसन्नचित्त ग्वालबालोंके साथ पूर्ववत् पशुपालनके काममें लग गये तथा व्रजवासियोंको परमानन्द वितरण करने लगे ॥ २६ ॥ एक समय वे सब ग्वालबाल पहाडक़ी चोटियोंपर गाय आदि पशुओंको चरा रहे थे तथा कुछ चोर और कुछ रक्षक बनकर छिपने-छिपानेकालुका-लुकीका खेल खेल रहे थे ॥ २७ ॥ राजन् ! उन लोगोंमेंसे कुछ तो चोर और कुछ रक्षक तथा कुछ भेड़ बन गये थे। इस प्रकार वे निर्भय होकर खेलमें रम गये थे ॥ २८ ॥ उसी समय ग्वालका वेष धारण करके व्योमासुर वहाँ आया। वह मायावियोंके आचार्य मयासुरका पुत्र था और स्वयं भी बड़ा मायावी था। वह खेलमें बहुधा चोर ही बनता और भेड़ बने हुए बहुत-से बालकोंको चुराकर छिपा आता ॥ २९ ॥ वह महान् असुर बार-बार उन्हें ले जाकर एक पहाडक़ी गुफामें डाल देता और उसका दरवाजा एक बड़ी चट्टानसे ढक देता। इस प्रकार ग्वालबालोंमें केवल चार-पाँच बालक ही बच रहे ॥ ३० ॥ भक्तवत्सल भगवान्‌ उसकी यह करतूत जान गये। जिस समय वह ग्वालबालोंको लिये जा रहा था, उसी समय उन्होंने, जैसे सिंह भेडिय़ेको दबोच ले, उसी प्रकार उसे धर दबाया ॥ ३१ ॥ व्योमासुर बड़ा बली था। उसने पहाडक़े समान अपना असली रूप प्रकट कर दिया और चाहा कि अपनेको छुड़ा लूँ। परंतु भगवान्‌ने उसको इस प्रकार अपने शिकंजेमें फाँस लिया था कि वह अपनेको छुड़ा न सका ॥ ३२ ॥ तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने दोनों हाथोंसे जकडक़र उसे भूमिपर गिरा दिया और पशुकी भाँति गला घोंटकर मार डाला। देवतालोग विमानोंपर चढक़र उनकी यह लीला देख रहे थे ॥ ३३ ॥ अब भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने गुफाके द्वारपर लगे हुए चट्टानोंके पिहान तोड़ डाले और ग्वालबालोंको उस संकटपूर्ण स्थानसे निकाल लिया। बड़े-बड़े देवता और ग्वालबाल उनकी स्तुति करने लगे और भगवान्‌ श्रीकृष्ण व्रजमें चले आये ॥ ३४ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे व्योमासुरवधो नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३७ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गुरुवार, 6 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

केशी और व्योमासुर का उद्धार तथा नारदजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

 

देवर्षिरुपसङ्‌गम्य भागवतप्रवरो नृप ।

कृष्णमक्लिष्टकर्माणं रहस्येतदभाषत ॥ १० ॥

कृष्ण कृष्णाप्रमेयात्मन् योगेश जगदीश्वर ।

वासुदेवाखिलावास सात्वतां प्रवर प्रभो ॥ ११ ॥

त्वमात्मा सर्वभूतानां एको ज्योतिरिवैधसाम् ।

गूढो गुहाशयः साक्षी महापुरुष ईश्वरः ॥ १२ ॥

आत्मनाऽऽत्माश्रयः पूर्वं मायया ससृजे गुणान् ।

तैरिदं सत्यसङ्‌कल्पः सृजस्यत्स्यवसीश्वरः ॥ १३ ॥

स त्वं भूधरभूतानां दैत्यप्रमथरक्षसाम् ।

अवतीर्णो विनाशाय साधुनां रक्षणाय च ॥ १४ ॥

दिष्ट्या ते निहतो दैत्यो लीलयायं हयाकृतिः ।

यस्य हेषितसन्त्रस्ताः त्यजन्त्यनिमिषा दिवम् ॥ १५ ॥

चाणूरं मुष्टिकं चैव मल्लानन्यांश्च हस्तिनम् ।

कंसं च निहतं द्रक्ष्ये परश्वोऽहनि ते विभो ॥ १६ ॥

तस्यानु शङ्‌खयवन मुराणां नरकस्य च ।

पारिजातापहरणं इन्द्रस्य च पराजयम् ॥ १७ ॥

उद्वाहं वीरकन्यानां वीर्यशुल्कादिलक्षणम् ।

नृगस्य मोक्षणं शापाद् द्वारकायां जगत्पते ॥ १८ ॥

स्यमन्तकस्य च मणेः आदानं सह भार्यया ।

मृतपुत्रप्रदानं च ब्राह्मणस्य स्वधामतः ॥ १९ ॥

पौण्ड्रकस्य वधं पश्चात् काशिपुर्याश्च दीपनम् ।

दन्तवक्रस्य निधनं चैद्यस्य च महाक्रतौ ॥ २० ॥

यानि चान्यानि वीर्याणि द्वारकामावसन् भवान् ।

कर्ता द्रक्ष्याम्यहं तानि गेयानि कविभिर्भुवि ॥ २१ ॥

अथ ते कालरूपस्य क्षपयिष्णोरमुष्य वै ।

अक्षौहिणीनां निधनं द्रक्ष्याम्यर्जुनसारथेः ॥ २२ ॥

विशुद्धविज्ञानघनं स्वसंस्थया

समाप्तसर्वार्थममोघवाञ्छितम् ।

स्वतेजसा नित्यनिवृत्तमाया

गुणप्रवाहं भगवन्तमीमहि ॥ २३ ॥

त्वामीश्वरं स्वाश्रयमात्ममायया

विनिर्मिताशेषविशेषकल्पनम् ।

क्रीडार्थमद्यात्तमनुष्यविग्रहं

नतोऽस्मि धुर्यं यदुवृष्णिसात्वताम् ॥ २४ ॥

 

परीक्षित्‌! देवर्षि नारदजी भगवान्‌ के परम प्रेमी और समस्त जीवोंके सच्चे हितैषी हैं। कंसके यहाँसे लौटकर वे अनायास ही अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णके पास आये और एकान्तमें उनसे कहने लगे॥ १० ॥ सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आपका स्वरूप मन और वाणीका विषय नहीं है। आप योगेश्वर हैं। सारे जगत्का नियन्त्रण आप ही करते हैं। आप सबके हृदयमें निवास करते हैं और सब-के-सब आपके हृदयमें निवास करते हैं। आप भक्तों के एकमात्र वाञ्छनीय, यदुवंश-शिरोमणि और हमारे स्वामी हैं ॥ ११ ॥ जैसे एक ही अग्नि सभी लकडिय़ों में व्याप्त रहती है, वैसे एक ही आप समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं। आत्माके रूपमें होनेपर भी आप अपनेको छिपाये रखते हैं; क्योंकि आप पञ्चकोशरूप गुफाओंके भीतर रहते हैं। फिर भी पुरुषोत्तमके रूपमें, सबके नियन्ताके रूपमें और सबके साक्षीके रूपमें आपका अनुभव होता ही है ॥ १२ ॥ प्रभो! आप सबके अधिष्ठान और स्वयं अधिष्ठानरहित हैं। आपने सृष्टिके प्रारम्भमें अपनी मायासे ही गुणोंकी सृष्टि की और उन गुणोंको ही स्वीकार करके आप जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करते रहते हैं। यह सब करनेके लिये आपको अपनेसे अतिरिक्त और किसी भी वस्तुकी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि आप सर्वशक्तिमान् और सत्यसंकल्प हैं ॥ १३ ॥ वही आप दैत्य, प्रमथ और राक्षसोंका, जिन्होंने आजकल राजाओंका वेष धारण कर रखा है, विनाश करनेके लिये तथा धर्मकी मर्यादाओंकी रक्षा करनेके लिये यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ १४ ॥ यह बड़े आनन्दकी बात है कि आपने खेल-ही-खेलमें घोड़ेके रूपमें रहनेवाले इस केशी दैत्यको मार डाला। इसकी हिनहिनाहटसे डरकर देवतालोग अपना स्वर्ग छोडक़र भाग जाया करते थे ॥ १५ ॥

 

प्रभो! अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर, मुष्टिक, दूसरे पहलवान, कुवलयापीड हाथी और स्वयं कंसको भी मरते देखूँगा ॥ १६ ॥ उसके बाद शङ्खासुर, कालयवन, मुर और नरकासुरका वध देखूँगा। आप स्वर्गसे कल्पवृक्ष उखाड़ लायेंगे और इन्द्रके चीं-चपड़ करनेपर उनको उसका मजा चखायेंगे ॥ १७ ॥ आप अपनी कृपा, वीरता, सौन्दर्य आदिका शुल्क देकर वीर-कन्याओंसे विवाह करेंगे, और जगदीश्वर! आप द्वारकामें रहते हुए नृगको पापसे छुड़ायेंगे ॥ १८ ॥ आप जाम्बवतीके साथ स्यमन्तक मणिको जाम्बवान्से ले आयेंगे और अपने धामसे ब्राह्मणके मरे हुए पुत्रोंको ला देंगे ॥ १९ ॥ इसके पश्चात् आप पौण्ड्रिकमिथ्यावासुदेव का वध करेंगे। काशीपुरीको जला देंगे। युधिष्ठिरके राजसूय-यज्ञमें चेदिराज शिशुपालको और वहाँसे लौटते समय उसके मौसेरे भाई दन्तवक्त्रको नष्ट करेंगे ॥ २० ॥ प्रभो! द्वारकामें निवास करते समय आप और भी बहुत-से पराक्रम प्रकट करेंगे, जिन्हें पृथ्वीके बड़े-बड़े ज्ञानी और प्रतिभाशील पुरुष आगे चलकर गायेंगे। मैं वह सब देखूँगा ॥ २१ ॥ इसके बाद आप पृथ्वीका भार उतारनेके लिये कालरूपसे अर्जुनके सारथि बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेनाका संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आँखोंसे देखूँगा ॥ २२ ॥

 

प्रभो! आप विशुद्ध विज्ञानघन हैं। आपके स्वरूपमें और किसीका अस्तित्व है ही नहीं। आप नित्य-निरन्तर अपने परमानन्दस्वरूपमें स्थित रहते हैं। इसलिये सारे पदार्थ आपको नित्य प्राप्त ही हैं। आपका संकल्प अमोघ है। आपकी चिन्मयी शक्तिके सामने माया और मायासे होनेवाला यह त्रिगुणमय संसार-चक्र नित्यनिवृत्त हैकभी हुआ ही नहीं। ऐसे आप अखण्ड, एकरस, सच्चिदानन्द- स्वरूप, निरतिशय ऐश्वर्यसम्पन्न भगवान्‌की मैं शरण ग्रहण करता हूँ ॥ २३ ॥ आप सबके अन्तर्यामी और नियन्ता हैं। अपने-आपमें स्थित, परम स्वतन्त्र हैं। जगत् और उसके अशेष-विशेषोंभाव- अभावरूप सारे भेद-विभेदों की कल्पना केवल आपकी माया से ही हुई है। इस समय आपने अपनी लीला प्रकट करने के लिये मनुष्य का-सा श्रीविग्रह प्रकट किया है और आप यदु,वृष्णि तथा सात्वतवंशियों के शिरोमणि बने हैं। प्रभो ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥२४॥

 

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