सोमवार, 10 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

अक्रूरजी के द्वारा भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति

 

श्रीअक्रूर उवाच -

नतोऽस्म्यहं त्वाखिलहेतुहेतुं

नारायणं पूरुषमाद्यमव्ययम् ।

यन्नाभिजातादरविन्दकोषाद्

ब्रह्माऽऽविरासीद् यत एष लोकः ॥ १ ॥

भूस्तोयमग्निः पवनं खमादिः

महानजादिर्मन इन्द्रियाणि ।

सर्वेन्द्रियार्था विबुधाश्च सर्वे

ये हेतवस्ते जगतोऽङ्‌गभूताः ॥ २ ॥

नैते स्वरूपं विदुरात्मनस्ते

ह्यजादयोऽनात्मतया गृहीताः ।

अजोऽनुबद्धः स गुणैरजाया

गुणात् परं वेद न ते स्वरूपम् ॥ ३ ॥

त्वां योगिनो यजन्त्यद्धा महापुरुषमीश्वरम् ।

साध्यात्मं साधिभूतं च साधिदैवं च साधवः ॥ ४ ॥

त्रय्या च विद्यया केचित् त्वां वै वैतानिका द्विजाः ।

यजन्ते विततैर्यज्ञैः नानारूपामराख्यया ॥ ५ ॥

एके त्वाखिलकर्माणि सन्न्यस्योपशमं गताः ।

ज्ञानिनो ज्ञानयज्ञेन यजन्ति ज्ञानविग्रहम् ॥ ६ ॥

अन्ये च संस्कृतात्मानो विधिनाभिहितेन ते ।

यजन्ति त्वन्मयास्त्वां वै बहुमूर्त्येकमूर्तिकम् ॥ ७ ॥

त्वामेवान्ये शिवोक्तेन मार्गेण शिवरूपिणम् ।

बह्वाचार्यविभेदेन भगवन् समुपासते ॥ ८ ॥

सर्व एव यजन्ति त्वां सर्वदेवमयेश्वरम् ।

येऽप्यन्यदेवताभक्ता यद्यप्यन्यधियः प्रभो ॥ ९ ॥

यथाद्रिप्रभवा नद्यः पर्जन्यापूरिताः प्रभो ।

विशन्ति सर्वतः सिन्धुं तद्वत्त्वां गतयोऽन्ततः ॥ १० ॥

 

अक्रूरजी बोलेप्रभो ! आप प्रकृति आदि समस्त कारणोंके परम कारण हैं। आप ही अविनाशी पुरुषोत्तम नारायण हैं तथा आपके ही नाभिकमलसे उन ब्रह्माजीका आविर्भाव हुआ है, जिन्होंने इस चराचर जगत् की सृष्टि की है। मैं आपके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥ पृथ्वी, जल, अग्रि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व, प्रकृति, पुरुष, मन, इन्द्रिय, सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषय और उनके अधिष्ठातृदेवतायही सब चराचर जगत् तथा उसके व्यवहारके कारण हैं और ये सब के-सब आपके ही अङ्गस्वरूप हैं ॥ २ ॥ प्रकृति और प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले समस्त पदार्थ इदंवृत्तिके द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, इसलिये ये सब अनात्मा हैं। अनात्मा होनेके कारण जड़ हैं और इसलिये आपका स्वरूप नहीं जान सकते। क्योंकि आप तो स्वयं आत्मा ही ठहरे। ब्रह्माजी अवश्य ही आपके स्वरूप हैं। परंतु वे प्रकृतिके गुण रजस्से युक्त हैं, इसलिये वे भी आपकी प्रकृतिका और उसके गुणोंसे परेका स्वरूप नहीं जानते ॥ ३ ॥ साधु योगी स्वयं अपने अन्त:करण में स्थित अन्तर्यामीके रूपमें, समस्त भूत-भौतिक पदार्थोंमें व्याप्त परमात्माकेरूपमें और सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि देवमण्डलमें स्थित इष्टदेवताके रूपमें तथा उनके साक्षी महापुरुष एवं नियन्ता ईश्वरके रूपमें साक्षात् आपकी ही उपासना करते हैं ॥ ४ ॥ बहुत-से कर्मकाण्डी ब्राह्मण कर्ममार्गका उपदेश करनेवाली त्रयीविद्याके द्वारा, जो आपके इन्द्र, अग्नि आदि अनेक देववाचक नाम तथा वज्रहस्त, सप्तार्चि आदि अनेक रूप बतलाती है, बड़े-बड़े यज्ञ करते हैं और उनसे आपकी ही उपासना करते हैं ॥ ५ ॥ बहुत-से ज्ञानी अपने समस्त कर्मोंका संन्यास कर देते हैं और शान्तभावमें स्थित हो जाते हैं। वे इस प्रकार ज्ञानयज्ञके द्वारा ज्ञानस्वरूप आपकी ही आराधना करते हैं ॥ ६ ॥ और भी बहुत-से संस्कारसम्पन्न अथवा शुद्धचित्त वैष्णवजन आपकी बतलायी हुई पाञ्चरात्र आदि विधियोंसे तन्मय होकर आपके चतुव्र्यूह आदि अनेक और नारायणरूप एक स्वरूपकी पूजा करते हैं ॥ ७ ॥ भगवन् ! दूसरे लोग शिवजीके द्वारा बतलाये हुए मार्गसे, जिसके आचार्य-भेदसे अनेक अवान्तर-भेद भी हैं, शिवस्वरूप आपकी ही पूजा करते हैं ॥ ८ ॥ स्वामिन् ! जो लोग दूसरे देवताओंकी भक्ति करते हैं और उन्हें आपसे भिन्न समझते हैं, वे सब भी वास्तवमें आपकी ही आराधना करते हैं; क्योंकि आप ही समस्त देवताओंके रूपमें हैं और सर्वेश्वर भी हैं ॥ ९ ॥ प्रभो ! जैसे पर्वतोंसे सब ओर बहुत-सी नदियाँ निकलती हैं और वर्षाके जलसे भरकर घूमती-घामती समुद्रमें प्रवेश कर जाती हैं, वैसे ही सभी प्रकारके उपासना-मार्ग घूम-घामकर देर-सबेर आपके ही पास पहुँच जाते हैं ॥ १० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

श्रीकृष्ण-बलराम का मथुरागमन

 

श्रीशुक उवाच -

एवं ब्रुवाणा विरहातुरा भृशं

व्रजस्त्रियः कृष्णविषक्तमानसाः ।

विसृज्य लज्जां रुरुदुः स्म सुस्वरं

गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ३१ ॥

स्त्रीणामेवं रुदन्तीनां उदिते सवितर्यथ ।

अक्रूरश्चोदयामास कृतमैत्रादिको रथम् ॥ ३२ ॥

गोपास्तमन्वसज्जन्त नन्दाद्याः शकटैस्ततः ।

आदायोपायनं भूरि कुम्भान् गोरससम्भृतान् ॥ ३३ ॥

गोप्यश्च दयितं कृष्णं अनुव्रज्यानुरञ्जिताः ।

प्रत्यादेशं भगवतः काङ्‌क्षन्त्यश्चावतस्थिरे ॥ ३४ ॥

तास्तथा तप्यतीर्वीक्ष्य स्वप्रस्थाणे यदूत्तमः ।

सान्त्वयामस सप्रेमैः आयास्य इति दौत्यकैः ॥ ३५ ॥

यावदालक्ष्यते केतुः यावद्रेणू रथस्य च ।

अनुप्रस्थापितात्मानो लेख्यानीवोपलक्षिताः ॥ ३६ ॥

ता निराशा निववृतुः गोविन्दविनिवर्तने ।

विशोका अहनी निन्युः गायन्त्यः प्रियचेष्टितम् ॥ ३७ ॥

भगवानपि सम्प्राप्तो रामाक्रूरयुतो नृप ।

रथेन वायुवेगेन कालिन्दीं अघनाशिनीम् ॥ ३८ ॥

तत्रोपस्पृश्य पानीयं पीत्वा मृष्टं मणिप्रभम् ।

वृक्षषण्डमुपव्रज्य सरामो रथमाविशत् ॥ ॥

अक्रूरस्तावुपामन्त्र्य निवेश्य च रथोपरि ।

कालिन्द्या ह्रदमागत्य स्नानं विधिवदाचरत् ॥ ४० ॥

निमज्ज्य तस्मिन् सलिले जपन् ब्रह्म सनातनम् ।

तावेव ददृशेऽक्रूरो रामकृष्णौ समन्वितौ ॥ ४१ ॥

तौ रथस्थौ कथमिह सुतौ आनकदुन्दुभेः ।

तर्हि स्वित् स्यन्दने न स्त इत्युन्मज्ज्य व्यचष्ट सः ॥ ४२ ॥

तत्रापि च यथापूर्वं आसीनौ पुनरेव सः ।

न्यमज्जद् दर्शनं यन्मे मृषा किं सलिले तयोः ॥ ४३ ॥

भूयस्तत्रापि सोऽद्राक्षीत् स्तूयमानमहीश्वरम् ।

सिद्धचारणगन्धर्वैः असुरैर्नतकन्धरैः ॥ ४४ ॥

सहस्रशिरसं देवं सहस्रफणमौलिनम् ।

नीलाम्बरं विसश्वेतं शृङ्‌गैः श्वेतमिव स्थितम् ॥ ४५ ॥

तस्योत्सङ्‌गे घनश्यामं पीतकौशेयवाससम् ।

पुरुषं चतुर्भुजं शान्तं पद्मपत्रारुणेक्षणम् ॥ ४६ ॥

चारुप्रसन्नवदनं चारुहासनिरीक्षणम् ।

सुभ्रून्नसं चरुकर्णं सुकपोलारुणाधरम् ॥ ४७ ॥

प्रलम्बपीवरभुजं तुङ्‌गांसोरःस्थलश्रियम् ।

कम्बुकण्ठं निम्ननाभिं वलिमत्पल्लवोदरम् ॥ ४८ ॥

बृहत्कतिततश्रोणि करभोरुद्वयान्वितम् ।

चारुजानुयुगं चारु जङ्‌घायुगलसंयुतम् ॥ ४९ ॥

तुङ्‌गगुल्फारुणनख व्रातदीधितिभिर्वृतम् ।

नवाङ्‌गुल्यङ्‌गुष्ठदलैः विलसत् पादपङ्‌कजम् ॥ ५० ॥

सुमहार्हमणिव्रात किरीटकटकाङ्‌गदैः ।

कटिसूत्रब्रह्मसूत्र हारनूपुरकुण्डलैः ॥ ५१ ॥

भ्राजमानं पद्मकरं शङ्‌खचक्रगदाधरम् ।

श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत् कौस्तुभं वनमालिनम् ॥ ५२ ॥

सुनन्दनन्दप्रमुखैः पर्षदैः सनकादिभिः ।

सुरेशैर्ब्रह्मरुद्राद्यैः नवभिश्च द्विजोत्तमैः ॥ ५३ ॥

प्रह्रादनारदवसु प्रमुखैर्भागवतोत्तमैः ।

स्तूयमानं पृथग्भावैः वचोभिरमलात्मभिः ॥ ५४ ॥

श्रिया पुष्ट्या गिरा कान्त्या कीर्त्या तुष्ट्येलयोर्जया ।

विद्ययाविद्यया शक्त्या मायया च निषेवितम् ॥ ५५ ॥

विलोक्य सुभृशं प्रीतो भक्त्या परमया युतः ।

हृष्यत्तनूरुहो भाव परिक्लिन्नात्मलोचनः ॥ ५६ ॥

गिरा गद्‍गदयास्तौषीत् सत्त्वमालम्ब्य सात्वतः ।

प्रणम्य मूर्ध्नावहितः कृताञ्जलिपुटः शनैः ॥ ५७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! गोपियाँ वाणीसे तो इस प्रकार कह रही थीं; परंतु उनका एक-एक मनोभाव भगवान्‌ श्रीकृष्णका स्पर्श, उनका आलिङ्गन कर रहा था। वे विरह की सम्भावना से अत्यन्त व्याकुल हो गयीं और लाज छोडक़र हे गोविन्द ! हे दामोदर! हे माधव!’—इस प्रकार ऊँची आवाजसे पुकार-पुकारकर सुललित स्वरसे रोने लगीं ॥ ३१ ॥ गोपियाँ इस प्रकार रो रही थीं ! रोते-रोते सारी रात बीत गयी, सूर्योदय हुआ। अक्रूरजी सन्ध्या- वन्दन आदि नित्य कर्मोंसे निवृत्त होकर रथपर सवार हुए और उसे हाँक ले चले ॥ ३२ ॥ नन्दबाबा आदि गोपोंने भी दूध, दही, मक्खन, घी आदिसे भरे मटके और भेंटकी बहुत-सी सामग्रियाँ ले लीं तथा वे छकड़ोंपर चढक़र उनके पीछे-पीछे चले ॥ ३३ ॥ इसी समय अनुरागके रंगमें रँगी हुई गोपियाँ अपने प्राणप्यारे श्रीकृष्णके पास गयीं और उनकी चितवन, मुसकान आदि निरखकर कुछ-कुछ सुखी हुर्ईं। अब वे अपने प्रियतम श्यामसुन्दरसे कुछ सन्देश पानेकी आकाङ्क्षासे वहीं खड़ी हो गयीं ॥ ३४ ॥ यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि मेरे मथुरा जानेसे गोपियोंके हृदयमें बड़ी जलन हो रही है, वे सन्तप्त हो रही हैं, तब उन्होंने दूतके द्वारा मैं आऊँगायह प्रेम-सन्देश भेजकर उन्हें धीरज बँधाया ॥ ३५ ॥ गोपियोंको जबतक रथकी ध्वजा और पहियोंसे उड़ती हुई धूल दीखती रही, तबतक उनके शरीर चित्रलिखित-से वहीं ज्यों-के-त्यों खड़े रहे। परंतु उन्होंने अपना चित्त तो मनमोहन प्राणवल्लभ श्रीकृष्णके साथ ही भेज दिया था ॥ ३६ ॥ अभी उनके मनमें आशा थी कि शायद श्रीकृष्ण कुछ दूर जाकर लौट आयें ! परंतु जब नहीं लौटे, तब वे निराश हो गयीं और अपने-अपने घर चली आयीं। परीक्षित्‌ ! वे रात-दिन अपने प्यारे श्यामसुन्दरकी लीलाओंका गान करती रहतीं और इस प्रकार अपने शोकसन्तापको हलका करतीं ॥ ३७ ॥

 

परीक्षित्‌ ! इधर भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी बलरामजी और अक्रूरजीके साथ वायुके समान वेगवाले रथपर सवार होकर पापनाशिनी यमुनाजीके किनारे जा पहुँचे ॥ ३८ ॥ वहाँ उन लोगोंने हाथ-मुँह धोकर यमुनाजीका मरकतमणिके समान नीला और अमृतके समान मीठा जल पिया। इसके बाद बलरामजीके साथ भगवान्‌ वृक्षोंके झुरमुटमें खड़े रथपर सवार हो गये ॥ ३९ ॥ अक्रूरजीने दोनों भाइयोंको रथपर बैठाकर उनसे आज्ञा ली और यमुनाजीके कुण्ड (अनन्त-तीर्थ या ब्रह्मह्रद) पर आकर वे विधिपूर्वक स्नान करने लगे ॥ ४० ॥ उस कुण्डमें स्नान करनेके बाद वे जलमें डुबकी लगाकर गायत्रीका जप करने लगे। उसी समय जलके भीतर अक्रूरजीने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई एक साथ ही बैठे हुए हैं ॥ ४१ ॥ अब उनके मनमें यह शङ्का हुई कि वसुदेवजीके पुत्रोंको तो मैं रथपर बैठा आया हूँ, अब वे यहाँ जलमें कैसे आ गये ? जब यहाँ हैं तो शायद रथपर नहीं होंगे।ऐसा सोचकर उन्होंने सिर बाहर निकालकर देखा ॥ ४२ ॥ वे उस रथपर भी पूर्ववत् बैठे हुए थे। उन्होंने यह सोचकर कि मैंने उन्हें जो जलमें देखा था, वह भ्रम ही रहा होगा, फिर डुबकी लगायी ॥ ४३ ॥ परंतु फिर उन्होंने वहाँ भी देखा कि साक्षात् अनन्तदेव श्रीशेषजी विराजमान हैं और सिद्ध, चारण, गन्धर्व एवं असुर अपने-अपने सिर झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे हैं ॥ ४४ ॥ शेषजीके हजार सिर हैं और प्रत्येक फणपर मुकुट सुशोभित है। कमलनालके समान उज्ज्वल शरीरपर नीलाम्बर धारण किये हुए हैं और उनकी ऐसी शोभा हो रही है, मानो सहस्र शिखरोंसे युक्त श्वेतगिरि कैलास शोभायमान हो ॥ ४५ ॥ अक्रूरजीने देखा कि शेषजीकी गोद में श्याम मेघके समान घनश्याम विराजमान हो रहे हैं। वे रेशमी पीताम्बर पहने हुए हैं। बड़ी ही शान्त चतुर्भुज मूर्ति है और कमलके रक्तदलके समान रतनारे नेत्र हैं ॥४६॥ उनका वदन बड़ा ही मनोहर और प्रसन्नताका सदन है। उनका मधुर हास्य और चारु चितवन चित्तको चुराये लेती है। भौंहें सुन्दर और नासिका तनिक ऊँची तथा बड़ी ही सुघड़ है। सुन्दर कान, कपोल और लाल-लाल अधरोंकी छटा निराली ही है ॥ ४७ ॥ बाँहें घुटनोंतक लंबी और हृष्ट-पुष्ट हैं। कंधे ऊँचे और वक्ष:स्थल लक्ष्मीजीका आश्रयस्थान है। शङ्खके समान उतार-चढ़ाववाला सुडौल गला, गहरी नाभि और त्रिवलीयुक्त उदर पीपलके पत्तेके समान शोभायमान है ॥ ४८ ॥ स्थूल कटिप्रदेश और नितम्ब, हाथीकी सूँडके समान जाँघें, सुन्दर घुटने एवं ङ्क्षपडलियाँ हैं। एड़ी के ऊपरकी गाँठें उभरी हुई हैं और लाल-लाल नखोंसे दिव्य ज्योतिर्मय किरणें फैल रही हैं। चरणकमलकी अंगुलियाँ और अँगूठे नयी और कोमल पँखुडिय़ों के समान सुशोभित हैं ॥ ४९-५० ॥ अत्यन्त बहुमूल्य मणियों से जड़ा हुआ मुकुट, कड़े, बाजूबंद, करधनी, हार, नूपुर और कुण्डलोंसे तथा यज्ञोपवीतसे वह दिव्य मूर्ति अलंकृत हो रही है। एक हाथमें पद्म शोभा पा रहा है और शेष तीन हाथोंमें शङ्ख, चक्र, और गदा, वक्ष:स्थलपर श्रीवत्सका चिह्न, गलेमें कौस्तुभमणि और वनमाला लटक रही है ॥ ५१-५२ ॥ नन्द-सुनन्द आदि पार्षद अपने स्वामी’, सनकादि परमर्षि परब्रह्म’, ब्रह्मा, महादेव आदि देवता सर्वेश्वर’, मरीचि आदि नौ ब्राह्मण प्रजापतिऔर प्रह्लाद-नारद आदि भगवान्‌के परम प्रेमी भक्त तथा आठों वसु अपने परम प्रियतम भगवान्‌समझकर भिन्न-भिन्न भावोंके अनुसार निर्दोष वेदवाणीसे भगवान्‌की स्तुति कर रहे हैं ॥ ५३-५४ ॥ साथ ही लक्ष्मी, पुष्टि, सरस्वती, कान्ति, कीर्ति और तुष्टि (अर्थात् ऐश्वर्य, बल, ज्ञान, श्री, यश और वैराग्यये षडैश्वर्यरूप शक्तियाँ), इला (सन्धिनीरूप पृथ्वी-शक्ति), ऊर्जा (लीलाशक्ति), विद्या-अविद्या (जीवोंके मोक्ष और बन्धनमें कारणरूपा बहिरङ्ग शक्ति), ह्लादिनी, संवित् (अन्तरङ्गा शक्ति) और माया आदि शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनकी सेवा कर रही हैं ॥ ५५ ॥

 

भगवान्‌ की यह झाँकी निरखकर अक्रूरजीका हृदय परमानन्द से लबालब भर गया। उन्हें परम भक्ति प्राप्त हो गयी। सारा शरीर हर्षावेशसे पुलकित हो गया। प्रेमभावका उद्रेक होनेसे उनके नेत्र आँसूसे भर गये ॥ ५६ ॥ अब अक्रूरजीने अपना साहस बटोरकर भगवान्‌ के चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया और वे उसके बाद हाथ जोडक़र बड़ी सावधानीसे धीरे-धीरे गद्गद स्वरसे भगवान्‌ की स्तुति करने लगे ॥ ५७ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अक्रूरप्रतियाने एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ३९ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



रविवार, 9 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीकृष्ण-बलराम का मथुरागमन

 

श्रीगोप्य ऊचुः -

अहो विधातस्तव न क्वचिद् दया

संयोज्य मैत्र्या प्रणयेन देहिनः ।

तांश्चाकृतार्थान् वियुनङ्‌क्ष्यपार्थकं

विक्रीडितं तेऽर्भकचेष्टितं यथा ॥ १९ ॥

यस्त्वं प्रदर्श्यासितकुन्तलावृतं

मुकुन्दवक्त्रं सुकपोलमुन्नसम् ।

शोकापनोदस्मितलेशसुन्दरं

करोषि पारोक्ष्यमसाधु ते कृतम् ॥ २० ॥

क्रूरस्त्वमक्रूरसमाख्यया स्म नः

चक्षुर्हि दत्तं हरसे बताज्ञवत् ।

येनैकदेशेऽखिलसर्गसौष्ठवं

त्वदीयमद्राक्ष्म वयं मधुद्विषः ॥ २१ ॥

न नन्दसूनुः क्षणभङ्‌गसौहृदः

समीक्षते नः स्वकृतातुरा बत ।

विहाय गेहान् स्वजनान् तान् पतीन्

तद्दास्यमद्धोपगता नवप्रियः ॥ २२ ॥

सुखं प्रभाता रजनीयमाशिषः

सत्या बभूवुः पुरयोषितां ध्रुवम् ।

याः संप्रविष्टस्य मुखं व्रजस्पतेः

पास्यन्त्यपाङ्‌गोत् कलितस्मितासवम् ॥ २३ ॥

तासां मुकुन्दो मधुमञ्जुभाषितैरः

गृहीतचित्तः परवान् मनस्व्यपि ।

कथं पुनर्नः प्रतियास्यतेऽबला

ग्राम्याः सलज्जस्मितविभ्रमैर्भ्रमन् ॥ २४ ॥

अद्य ध्रुवं तत्र दृशो भविष्यते

दाशार्हभोजान्धक वृष्णिसात्वताम् ।

महोत्सवः श्रीरमणं गुणास्पदं

द्रक्ष्यन्ति ये चाध्वनि देवकीसुतम् ॥ २५ ॥

मैतद्विधस्याकरुणस्य नाम भूद्

अक्रूर इत्येतदतीव दारुणः ।

योऽसावनाश्वास्य सुदुःखितं जनं

प्रियात्प्रियं नेष्यति पारमध्वनः ॥ २६ ॥

अनार्द्रधीरेष समास्थितो रथं

तमन्वमी च त्वरयन्ति दुर्मदाः ।

गोपा अनोभिः स्थविरैरुपेक्षितं

दैवं च नोऽद्य प्रतिकूलमीहते ॥ २७ ॥

निवारयामः समुपेत्य माधवं

किं नोऽकरिष्यन् कुलवृद्धबान्धवाः ।

मुकुन्दसङ्‌गान्निमिषार्धदुस्त्यजाद्

दैवेन विध्वंसितदीनचेतसाम् ॥ २८ ॥

यस्यानुरागललितस्मितवल्गुमन्त्र

लीलावलोकपरिरम्भणरासगोष्ठाम् ।

नीताः स्म नः क्षणमिव क्षणदा विना तं

गोप्यः कथं न्वतितरेम तमो दुरन्तम् ॥ २९ ॥

योऽह्नः क्षये व्रजमनन्तसखः परीतो

गोपैर्विशन् खुररजश्छुरितालकस्रक् ।

वेणुं क्वणन् स्मितकटाक्षनिरीक्षणेन

चित्तं क्षिणोत्यमुमृते नु कथं भवेम ॥ ३० ॥

 

गोपियोंने कहाधन्य हो विधाता ! तुम सब कुछ विधान तो करते हो, परंतु तुम्हारे हृदयमें दयाका लेश भी नहीं है। पहले तो तुम सौहार्द और प्रेमसे जगत् के प्राणियोंको एक-दूसरेके साथ जोड़ देते हो, उन्हें आपसमें एक कर देते हो; मिला देते हो परंतु अभी उनकी आशा-अभिलाषाएँ पूरी भी नहीं हो पातीं, वे तृप्त भी नहीं हो पाते कि तुम उन्हें व्यर्थ ही अलग-अलग कर देते हो ! सच है, तुम्हारा यह खिलवाड़ बच्चोंके खेलकी तरह व्यर्थ ही है ॥ १९ ॥ यह कितने दु:खकी बात है ! विधाता ! तुमने पहले हमें प्रेमका वितरण करनेवाले श्यामसुन्दरका मुखकमल दिखलाया। कितना सुन्दर है वह ! काले-काले घुँघराले बाल कपोलोंपर झलक रहे हैं। मरकतमणि-से चिकने सुस्निग्ध कपोल और तोतेकी चोंच-सी सुन्दर नासिका तथा अधरोंपर मन्द-मन्द मुसकानकी सुन्दर रेखा, जो सारे शोकोंको तत्क्षण भगा देती है। विधाता ! तुमने एक बार तो हमें वह परम सुन्दर मुखकमल दिखाया और अब उसे ही हमारी आँखोंसे ओझल कर रहे हो ! सचमुच तुम्हारी यह करतूत बहुत ही अनुचित है ॥ २० ॥ हम जानती हैं, इसमें अक्रूरका दोष नहीं है; यह तो साफ तुम्हारी क्रूरता है। वास्तवमें तुम्हीं अक्रूरके नामसे यहाँ आये हो और अपनी ही दी हुई आँखें तुम हमसे मूर्खकी भाँति छीन रहे हो। इनके द्वारा हम श्यामसुन्दरके एक-एक अङ्गोंमें तुम्हारी सृष्टिका सम्पूर्ण सौन्दर्य निहारती रहती थीं। विधाता ! तुम्हें ऐसा नहीं चाहिये ॥ २१ ॥

 

अहो ! नन्दनन्दन श्यामसुन्दरको भी नये-नये लोगोंसे नेह लगानेकी चाट पड़ गयी है। देखो तो सहीइनका सौहार्द, इनका प्रेम एक क्षणमें ही कहाँ चला गया ? हम तो अपने घर-द्वार, स्वजन-सम्बन्धी, पति-पुत्र आदिको छोडक़र इनकी दासी बनीं और इन्हींके लिये आज हमारा हृदय शोकातुर हो रहा है, परंतु ये ऐसे हैं कि हमारी ओर देखतेतक नहीं ॥ २२ ॥ आजकी रातका प्रात:काल मथुराकी स्त्रियोंके लिये निश्चय ही बड़ा मङ्गलमय होगा। आज उनकी बहुत दिनोंकी अभिलाषाएँ अवश्य ही पूरी हो जायँगी। जब हमारे व्रजराज श्यामसुन्दर अपनी तिरछी चितवन और मन्द-मन्द मुसकानसे युक्त मुखारविन्दका मादक मधु वितरण करते हुए मथुरापुरीमें प्रवेश करेंगे, तब वे उसका पान करके धन्य-धन्य हो जायँगी ॥ २३ ॥ यद्यपि हमारे श्यामसुन्दर धैर्यवान् होनेके साथ ही नन्दबाबा आदि गुरुजनोंकी आज्ञामें रहते हैं, तथापि मथुराकी युवतियाँ अपने मधुके समान मधुर वचनोंसे इनका चित्त बरबस अपनी ओर खींच लेंगी और ये उनकी सलज्ज मुसकान तथा विलासपूर्ण भाव-भंगीसे वहीं रम जायँगे। फिर हम गँवार ग्वालिनोंके पास ये लौटकर क्यों आने लगे ॥ २४ ॥ धन्य है आज हमारे श्यामसुन्दरका दर्शन करके मथुराके दाशाहर्, भोज, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंके नेत्र अवश्य ही परमानन्दका साक्षात्कार करेंगे। आज उनके यहाँ महान् उत्सव होगा। साथ ही जो लोग यहाँ से मथुरा जाते हुए रमारमण गुणसागर नटनागर देवकीनन्दन श्यामसुन्दर का मार्ग में दर्शन करेंगे,वे भी निहाल हो जायँगे ॥२५ ॥

 

देखो सखी ! यह अक्रूर कितना निठुर, कितना हृदयहीन है। इधर तो हम गोपियाँ इतनी दु:खित हो रही हैं और यह हमारे परम प्रियतम नन्ददुलारे श्यामसुन्दरको हमारी आँखोंसे ओझल करके बहुत दूर ले जाना चाहता है और दो बात कहकर हमें धीरज भी नहीं बँधाता, आश्वासन भी नहीं देता। सचमुच ऐसे अत्यन्त क्रूर पुरुषका अक्रूरनाम नहीं होना चाहिये था ॥ २६ ॥ सखी ! हमारे ये श्यामसुन्दर भी तो कम निठुर नहीं हैं। देखो-देखो, वे भी रथपर बैठ गये। और मतवाले गोपगण छकड़ोंद्वारा उनके साथ जानेके लिये कितनी जल्दी मचा रहे हैं। सचमुच ये मूर्ख हैं। और हमारे बड़े-बूढ़े ! उन्होंने तो इन लोगोंकी जल्दबाजी देखकर उपेक्षा कर दी है कि जाओ जो मनमें आवे, करो !अब हम क्या करें ? आज विधाता सर्वथा हमारे प्रतिकूल चेष्टा कर रहा है ॥ २७ ॥ चलो, हम स्वयं ही चलकर अपने प्राणप्यारे श्यामसुन्दरको रोकेंगी; कुलके बड़े-बूढ़े और बन्धुजन हमारा क्या कर लेंगे ? अरी सखी ! हम आधे क्षणके लिये भी प्राणवल्लभ नन्दनन्दनका सङ्ग छोडऩेमें असमर्थ थीं। आज हमारे दुर्भाग्यने हमारे सामने उनका वियोग उपस्थित करके हमारे चित्तको विनष्ट एवं व्याकुल कर दिया है ॥ २८ ॥ सखियो ! जिनकी प्रेमभरी मनोहर मुसकान, रहस्यकी मीठी-मीठी बातें, विलासपूर्ण चितवन और प्रेमालिङ्गनसे हमने रासलीलाकी वे रात्रियाँजो बहुत विशाल थींएक क्षणके समान बिता दी थीं। अब भला, उनके बिना हम उन्हींकी दी हुई अपार विरहव्यथाका पार कैसे पावेंगी ॥ २९ ॥ एक दिनकी नहीं, प्रतिदिनकी बात है, सायंकालमें प्रतिदिन वे ग्वालबालोंसे घिरे हुए बलरामजीके साथ वनसे गौएँ चराकर लौटते हैं। उनकी काली-काली घुँघराली अलकें और गलेके पुष्पहार गौओंके खुरकी रजसे ढके रहते हैं। वे बाँसुरी बजाते हुए अपनी मन्द-मन्द मुसकान और तिरछी चितवनसे देख-देखकर हमारे हृदयको वेध डालते हैं। उनके बिना भला, हम कैसे जी सकेंगी ? ॥ ३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्ण-बलराम का मथुरागमन

 

श्रीशुक उवाच -

सुखोपविष्टः पर्यङ्‌के रमकृष्णोरुमानितः ।

लेभे मनोरथान् सर्वान् पन्पथि यान् स चकार ह ॥ १ ॥

किमलभ्यं भगवति प्रसन्ने श्रीनिकेतने ।

तथापि तत्परा राजन् न हि वाञ्छन्ति किञ्चन ॥ २ ॥

सायंतनाशनं कृत्वा भगवान् देवकीसुतः ।

सुहृत्सु वृत्तं कंसस्य पप्रच्छान्यच्चिकीर्षितम् ॥ ३ ॥

 

श्रीभगवानुवाच -

तात सौम्यागतः कच्चित् स्वागतं भद्रमस्तु वः ।

अपि स्वज्ञातिबन्धूनां अनमीवमनामयम् ॥ ४ ॥

किं नु नः कुशलं पृच्छे एधमाने कुलामये ।

कंसे मातुलनाम्न्यङ्‌ग स्वानां नस्तत्प्रजासु च ॥ ५ ॥

अहो अस्मदभूद् भूरि पित्रोर्वृजिनमार्ययोः ।

यद्धेतोः पुत्रमरणं यद्धेतोर्बन्धनं तयोः ॥ ६ ॥

दिष्ट्याद्य दर्शनं स्वानां मह्यं वः सौम्य काङ्‌क्षितम् ।

सञ्जातं वर्ण्यतां तात तवागमनकारणम् ॥ ७ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

पृष्टो भगवता सर्वं वर्णयामास माधवः ।

वैरानुबन्धं यदुषु वसुदेववधोद्यमम् ॥ ८ ॥

यत्सन्देशो यदर्थं वा दूतः सम्प्रेषितः स्वयम् ।

यदुक्तं नारदेनास्य स्वजन्मानकदुन्दुभेः ॥ ९ ॥

श्रुत्वाक्रूरवचः कृष्णो बलश्च परवीरहा ।

प्रहस्य नन्दं पितरं राज्ञा दिष्टं विजज्ञतुः ॥ १० ॥

गोपान् समादिशत् सोऽपि गृह्यतां सर्वगोरसः ।

उपायनानि गृह्णीध्वं युज्यन्तां शकटानि च ॥ ११ ॥

यास्यामः श्वो मधुपुरीं दास्यामो नृपते रसान् ।

द्रक्ष्यामः सुमहत्पर्व यान्ति जानपदाः किल ।

एवमाघोषयत्क्षत्रा नन्दगोपः स्वगोकुले ॥ १२ ॥

गोप्यस्तास्तद् उपश्रुत्य बभूवुर्व्यथिता भृशम् ।

रामकृष्णौ पुरीं नेतुं अक्रूरं व्रजमागतम् ॥ १३ ॥

काश्चित् तत्कृतहृत्ताप श्वासम्लानमुखश्रियः ।

स्रंसद्‌दुद्दुकूलवलय केशग्रंथ्यश्च काश्चन ॥ १४ ॥

अन्याश्च तदनुध्यान निवृत्ताशेषवृत्तयः ।

नाभ्यजानन् इमं लोकं आत्मलोकं गता इव ॥ १५ ॥

स्मरन्त्यश्चापराः शौरेः अनुरागस्मितेरिताः ।

हृदिस्पृशश्चित्रपदा गिरः संमुमुहुः स्त्रियः ॥ १६ ॥

गतिं सुललितां चेष्टां स्निग्धहासावलोकनम् ।

शोकापहानि नर्माणि प्रोद्दामचरितानि च ॥ १७ ॥

चिन्तयन्त्यो मुकुन्दस्य भीता विरहकातराः ।

समेताः सङ्‌घशः प्रोचुः अश्रुमुख्योऽच्युताशयाः ॥ १८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंभगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने अक्रूरजीका भलीभाँति सम्मान किया। वे आरामसे पलँगपर बैठ गये। उन्होंने मार्गमें जो-जो अभिलाषाएँ की थीं, वे सब पूरी हो गयीं ॥ १ ॥ परीक्षित्‌ ! लक्ष्मीके आश्रयस्थान भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रसन्न होनेपर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो प्राप्त नहीं हो सकती ? फिर भी भगवान्‌के परमप्रेमी भक्तजन किसी भी वस्तुकी कामना नहीं करते ॥ २ ॥ देवकीनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णने सायंकालका भोजन करनेके बाद अक्रूरजीके पास जाकर अपने स्वजन-सम्बन्धियोंके साथ कंसके व्यवहार और उसके अगले कार्यक्रमके सम्बन्धमें पूछा ॥ ३ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाचाचाजी ! आपका हृदय बड़ा शुद्ध है। आपको यात्रामें कोई कष्ट तो नहीं हुआ ? स्वागत है। मैं आपकी मङ्गलकामना करता हूँ। मथुराके हमारे आत्मीय सुहृद्, कुटुम्बी तथा अन्य सम्बन्धी सब कुशल और स्वस्थ हैं न ? ॥ ४ ॥ हमारा नाममात्रका मामा कंस तो हमारे कुलके लिये एक भयङ्कर व्याधि है। जबतक उसकी बढ़ती हो रही है, तबतक हम अपने वंशवालों और उनके बाल-बच्चोंका कुशल-मङ्गल क्या पूछें ॥ ५ ॥ चाचाजी ! हमारे लिये यह बड़े खेदकी बात है कि मेरे ही कारण मेरे निरपराध और सदाचारी माता-पिताको अनेकों प्रकारकी यातनाएँ झेलनी पड़ींतरह-तरहके कष्ट उठाने पड़े। और तो क्या कहूँ, मेरे ही कारण उन्हें हथकड़ी-बेड़ीसे जकडक़र जेलमें डाल दिया गया तथा मेरे ही कारण उनके बच्चे भी मार डाले गये ॥ ६ ॥ मैं बहुत दिनोंसे चाहता था कि आपलोगोंमेंसे किसी-न-किसीका दर्शन हो। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज मेरी वह अभिलाषा पूरी हो गयी, सौम्य-स्वभाव चाचाजी ! अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि आपका शुभागमन किस निमित्तसे हुआ ? ॥ ७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अक्रूरजीसे इस प्रकार प्रश्र किया, तब उन्होंने बतलाया कि कंसने तो सभी यदुवंशियोंसे घोर वैर ठान रखा है। वह वसुदेवजीको मार डालनेका भी उद्यम कर चुका है॥ ८ ॥ अक्रूरजीने कंसका सन्देश और जिस उद्देश्यसे उसने स्वयं अक्रूरजीको दूत बनाकर भेजा था और नारदजीने जिस प्रकार वसुदेवजीके घर श्रीकृष्णके जन्म लेनेका वृत्तान्त उसको बता दिया था, सो सब कह सुनाया ॥ ९ ॥ अक्रूरजीकी यह बात सुनकर विपक्षी शत्रुओंका दमन करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी हँसने लगे और इसके बाद उन्होंने अपने पिता नन्दजीको कंसकी आज्ञा सुना दी ॥ १० ॥ तब नन्दबाबाने सब गोपोंको आज्ञा दी कि सारा गोरस एकत्र करो। भेंटकी सामग्री ले लो और छकड़े जोड़ो ॥ ११ ॥ कल प्रात:काल ही हम सब मथुराकी यात्रा करेंगे और वहाँ चलकर राजा कंसको गोरस देंगे। वहाँ एक बहुत बड़ा उत्सव हो रहा है। उसे देखनेके लिये देशकी सारी प्रजा इक_ी हो रही है। हमलोग भी उसे देखेंगे।नन्दबाबाने गाँवके कोतवालके द्वारा यह घोषणा सारे व्रजमें करवा दी ॥ १२ ॥

 

परीक्षित्‌ ! जब गोपियोंने सुना कि हमारे मनमोहन श्यामसुन्दर और गौरसुन्दर बलरामजीको मथुरा ले जानेके लिये अक्रूरजी व्रजमें आये हैं, तब उनके हृदयमें बड़ी व्यथा हुई। वे व्याकुल हो गयीं ॥ १३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णके मथुरा जानेकी बात सुनते ही बहुतोंके हृदयमें ऐसी जलन हुई कि गरम साँस चलने लगी, मुखकमल कुम्हला गया। और बहुतोंकी ऐसी दशा हुईवे इस प्रकार अचेत हो गयीं कि उन्हें खिसकी हुई ओढऩी, गिरते हुए कंगन और ढीले हुए जूड़ोंतकका पता न रहा ॥ १४ ॥ भगवान्‌ के स्वरूपका ध्यान आते ही बहुत-सी गोपियोंकी चित्तवृत्तियाँ सर्वथा निवृत्त हो गयीं, मानो वे समाधिस्थआत्मामें स्थित हो गयी हों, और उन्हें अपने शरीर और संसारका कुछ ध्यान ही न रहा ॥ १५ ॥ बहुत-सी गोपियोंके सामने भगवान्‌ श्रीकृष्णका प्रेम, उनकी मन्द- मन्द मुसकान और हृदयको स्पर्श करनेवाली विचित्र पदोंसे युक्त मधुर वाणी नाचने लगी। वे उसमें तल्लीन हो गयीं। मोहित हो गयीं ॥ १६ ॥ गोपियाँ मन-ही-मन भगवान्‌की लटकीली चाल, भाव- भङ्गी, प्रेमभरी मुसकान, चितवन, सारे शोकोंको मिटा देनेवाली ठिठोलियाँ तथा उदारताभरी लीलाओंका चिन्तन करने लगीं और उनके विरहके भयसे कातर हो गयीं। उनका हृदय, उनका जीवनसब कुछ भगवान्‌के प्रति समर्पित था। उनकी आँखोंसे आँसू बह रहे थे। वे झुंड-की-झुंड इकठ्ठी होकर इस प्रकार कहने लगीं ॥ १७-१८ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...