॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
श्रीकृष्ण-बलराम
का मथुरागमन
श्रीशुक
उवाच -
एवं
ब्रुवाणा विरहातुरा भृशं
व्रजस्त्रियः
कृष्णविषक्तमानसाः ।
विसृज्य
लज्जां रुरुदुः स्म सुस्वरं
गोविन्द
दामोदर माधवेति ॥ ३१ ॥
स्त्रीणामेवं
रुदन्तीनां उदिते सवितर्यथ ।
अक्रूरश्चोदयामास
कृतमैत्रादिको रथम् ॥ ३२ ॥
गोपास्तमन्वसज्जन्त
नन्दाद्याः शकटैस्ततः ।
आदायोपायनं
भूरि कुम्भान् गोरससम्भृतान् ॥ ३३ ॥
गोप्यश्च
दयितं कृष्णं अनुव्रज्यानुरञ्जिताः ।
प्रत्यादेशं
भगवतः काङ्क्षन्त्यश्चावतस्थिरे ॥ ३४ ॥
तास्तथा
तप्यतीर्वीक्ष्य स्वप्रस्थाणे यदूत्तमः ।
सान्त्वयामस
सप्रेमैः आयास्य इति दौत्यकैः ॥ ३५ ॥
यावदालक्ष्यते
केतुः यावद्रेणू रथस्य च ।
अनुप्रस्थापितात्मानो
लेख्यानीवोपलक्षिताः ॥ ३६ ॥
ता
निराशा निववृतुः गोविन्दविनिवर्तने ।
विशोका
अहनी निन्युः गायन्त्यः प्रियचेष्टितम् ॥ ३७ ॥
भगवानपि
सम्प्राप्तो रामाक्रूरयुतो नृप ।
रथेन
वायुवेगेन कालिन्दीं अघनाशिनीम् ॥ ३८ ॥
तत्रोपस्पृश्य
पानीयं पीत्वा मृष्टं मणिप्रभम् ।
वृक्षषण्डमुपव्रज्य
सरामो रथमाविशत् ॥ ॥
अक्रूरस्तावुपामन्त्र्य
निवेश्य च रथोपरि ।
कालिन्द्या
ह्रदमागत्य स्नानं विधिवदाचरत् ॥ ४० ॥
निमज्ज्य
तस्मिन् सलिले जपन् ब्रह्म सनातनम् ।
तावेव
ददृशेऽक्रूरो रामकृष्णौ समन्वितौ ॥ ४१ ॥
तौ
रथस्थौ कथमिह सुतौ आनकदुन्दुभेः ।
तर्हि
स्वित् स्यन्दने न स्त इत्युन्मज्ज्य व्यचष्ट सः ॥ ४२ ॥
तत्रापि
च यथापूर्वं आसीनौ पुनरेव सः ।
न्यमज्जद्
दर्शनं यन्मे मृषा किं सलिले तयोः ॥ ४३ ॥
भूयस्तत्रापि
सोऽद्राक्षीत् स्तूयमानमहीश्वरम् ।
सिद्धचारणगन्धर्वैः
असुरैर्नतकन्धरैः ॥ ४४ ॥
सहस्रशिरसं
देवं सहस्रफणमौलिनम् ।
नीलाम्बरं
विसश्वेतं शृङ्गैः श्वेतमिव स्थितम् ॥ ४५ ॥
तस्योत्सङ्गे
घनश्यामं पीतकौशेयवाससम् ।
पुरुषं
चतुर्भुजं शान्तं पद्मपत्रारुणेक्षणम् ॥ ४६ ॥
चारुप्रसन्नवदनं
चारुहासनिरीक्षणम् ।
सुभ्रून्नसं
चरुकर्णं सुकपोलारुणाधरम् ॥ ४७ ॥
प्रलम्बपीवरभुजं
तुङ्गांसोरःस्थलश्रियम् ।
कम्बुकण्ठं
निम्ननाभिं वलिमत्पल्लवोदरम् ॥ ४८ ॥
बृहत्कतिततश्रोणि
करभोरुद्वयान्वितम् ।
चारुजानुयुगं
चारु जङ्घायुगलसंयुतम् ॥ ४९ ॥
तुङ्गगुल्फारुणनख
व्रातदीधितिभिर्वृतम् ।
नवाङ्गुल्यङ्गुष्ठदलैः
विलसत् पादपङ्कजम् ॥ ५० ॥
सुमहार्हमणिव्रात
किरीटकटकाङ्गदैः ।
कटिसूत्रब्रह्मसूत्र
हारनूपुरकुण्डलैः ॥ ५१ ॥
भ्राजमानं
पद्मकरं शङ्खचक्रगदाधरम् ।
श्रीवत्सवक्षसं
भ्राजत् कौस्तुभं वनमालिनम् ॥ ५२ ॥
सुनन्दनन्दप्रमुखैः
पर्षदैः सनकादिभिः ।
सुरेशैर्ब्रह्मरुद्राद्यैः
नवभिश्च द्विजोत्तमैः ॥ ५३ ॥
प्रह्रादनारदवसु
प्रमुखैर्भागवतोत्तमैः ।
स्तूयमानं
पृथग्भावैः वचोभिरमलात्मभिः ॥ ५४ ॥
श्रिया
पुष्ट्या गिरा कान्त्या कीर्त्या तुष्ट्येलयोर्जया ।
विद्ययाविद्यया
शक्त्या मायया च निषेवितम् ॥ ५५ ॥
विलोक्य
सुभृशं प्रीतो भक्त्या परमया युतः ।
हृष्यत्तनूरुहो
भाव परिक्लिन्नात्मलोचनः ॥ ५६ ॥
गिरा
गद्गदयास्तौषीत् सत्त्वमालम्ब्य सात्वतः ।
प्रणम्य
मूर्ध्नावहितः कृताञ्जलिपुटः शनैः ॥ ५७ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! गोपियाँ वाणीसे तो इस प्रकार कह रही थीं; परंतु उनका एक-एक मनोभाव भगवान् श्रीकृष्णका स्पर्श, उनका आलिङ्गन कर रहा था। वे विरह की सम्भावना से अत्यन्त व्याकुल हो गयीं
और लाज छोडक़र ‘हे गोविन्द ! हे दामोदर! हे माधव!’—इस प्रकार ऊँची आवाजसे पुकार-पुकारकर सुललित स्वरसे रोने लगीं ॥ ३१ ॥
गोपियाँ इस प्रकार रो रही थीं ! रोते-रोते सारी रात बीत गयी, सूर्योदय हुआ। अक्रूरजी सन्ध्या- वन्दन आदि नित्य कर्मोंसे निवृत्त होकर
रथपर सवार हुए और उसे हाँक ले चले ॥ ३२ ॥ नन्दबाबा आदि गोपोंने भी दूध, दही, मक्खन, घी आदिसे भरे मटके
और भेंटकी बहुत-सी सामग्रियाँ ले लीं तथा वे छकड़ोंपर चढक़र उनके पीछे-पीछे चले ॥
३३ ॥ इसी समय अनुरागके रंगमें रँगी हुई गोपियाँ अपने प्राणप्यारे श्रीकृष्णके पास
गयीं और उनकी चितवन, मुसकान आदि निरखकर कुछ-कुछ सुखी हुर्ईं।
अब वे अपने प्रियतम श्यामसुन्दरसे कुछ सन्देश पानेकी आकाङ्क्षासे वहीं खड़ी हो
गयीं ॥ ३४ ॥ यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि मेरे मथुरा जानेसे
गोपियोंके हृदयमें बड़ी जलन हो रही है, वे सन्तप्त हो रही
हैं, तब उन्होंने दूतके द्वारा ‘मैं
आऊँगा’ यह प्रेम-सन्देश भेजकर उन्हें धीरज बँधाया ॥ ३५ ॥
गोपियोंको जबतक रथकी ध्वजा और पहियोंसे उड़ती हुई धूल दीखती रही, तबतक उनके शरीर चित्रलिखित-से वहीं ज्यों-के-त्यों खड़े रहे। परंतु
उन्होंने अपना चित्त तो मनमोहन प्राणवल्लभ श्रीकृष्णके साथ ही भेज दिया था ॥ ३६ ॥
अभी उनके मनमें आशा थी कि शायद श्रीकृष्ण कुछ दूर जाकर लौट आयें ! परंतु जब नहीं
लौटे, तब वे निराश हो गयीं और अपने-अपने घर चली आयीं।
परीक्षित् ! वे रात-दिन अपने प्यारे श्यामसुन्दरकी लीलाओंका गान करती रहतीं और इस
प्रकार अपने शोकसन्तापको हलका करतीं ॥ ३७ ॥
परीक्षित्
! इधर भगवान् श्रीकृष्ण भी बलरामजी और अक्रूरजीके साथ वायुके समान वेगवाले रथपर
सवार होकर पापनाशिनी यमुनाजीके किनारे जा पहुँचे ॥ ३८ ॥ वहाँ उन लोगोंने हाथ-मुँह
धोकर यमुनाजीका मरकतमणिके समान नीला और अमृतके समान मीठा जल पिया। इसके बाद
बलरामजीके साथ भगवान् वृक्षोंके झुरमुटमें खड़े रथपर सवार हो गये ॥ ३९ ॥
अक्रूरजीने दोनों भाइयोंको रथपर बैठाकर उनसे आज्ञा ली और यमुनाजीके कुण्ड
(अनन्त-तीर्थ या ब्रह्मह्रद) पर आकर वे विधिपूर्वक स्नान करने लगे ॥ ४० ॥ उस
कुण्डमें स्नान करनेके बाद वे जलमें डुबकी लगाकर गायत्रीका जप करने लगे। उसी समय
जलके भीतर अक्रूरजीने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई एक साथ ही बैठे हुए
हैं ॥ ४१ ॥ अब उनके मनमें यह शङ्का हुई कि ‘वसुदेवजीके
पुत्रोंको तो मैं रथपर बैठा आया हूँ, अब वे यहाँ जलमें कैसे
आ गये ? जब यहाँ हैं तो शायद रथपर नहीं होंगे।’ ऐसा सोचकर उन्होंने सिर बाहर निकालकर देखा ॥ ४२ ॥ वे उस रथपर भी पूर्ववत्
बैठे हुए थे। उन्होंने यह सोचकर कि मैंने उन्हें जो जलमें देखा था, वह भ्रम ही रहा होगा, फिर डुबकी लगायी ॥ ४३ ॥ परंतु
फिर उन्होंने वहाँ भी देखा कि साक्षात् अनन्तदेव श्रीशेषजी विराजमान हैं और सिद्ध,
चारण, गन्धर्व एवं असुर अपने-अपने सिर झुकाकर
उनकी स्तुति कर रहे हैं ॥ ४४ ॥ शेषजीके हजार सिर हैं और प्रत्येक फणपर मुकुट
सुशोभित है। कमलनालके समान उज्ज्वल शरीरपर नीलाम्बर धारण किये हुए हैं और उनकी ऐसी
शोभा हो रही है, मानो सहस्र शिखरोंसे युक्त श्वेतगिरि कैलास
शोभायमान हो ॥ ४५ ॥ अक्रूरजीने देखा कि शेषजीकी गोद में श्याम मेघके समान घनश्याम
विराजमान हो रहे हैं। वे रेशमी पीताम्बर पहने हुए हैं। बड़ी ही शान्त चतुर्भुज
मूर्ति है और कमलके रक्तदलके समान रतनारे नेत्र हैं ॥४६॥ उनका वदन बड़ा ही मनोहर
और प्रसन्नताका सदन है। उनका मधुर हास्य और चारु चितवन चित्तको चुराये लेती है।
भौंहें सुन्दर और नासिका तनिक ऊँची तथा बड़ी ही सुघड़ है। सुन्दर कान, कपोल और लाल-लाल अधरोंकी छटा निराली ही है ॥ ४७ ॥ बाँहें घुटनोंतक लंबी और
हृष्ट-पुष्ट हैं। कंधे ऊँचे और वक्ष:स्थल लक्ष्मीजीका आश्रयस्थान है। शङ्खके समान
उतार-चढ़ाववाला सुडौल गला, गहरी नाभि और त्रिवलीयुक्त उदर
पीपलके पत्तेके समान शोभायमान है ॥ ४८ ॥ स्थूल कटिप्रदेश और नितम्ब, हाथीकी सूँडके समान जाँघें, सुन्दर घुटने एवं
ङ्क्षपडलियाँ हैं। एड़ी के ऊपरकी गाँठें उभरी हुई हैं और लाल-लाल नखोंसे दिव्य
ज्योतिर्मय किरणें फैल रही हैं। चरणकमलकी अंगुलियाँ और अँगूठे नयी और कोमल
पँखुडिय़ों के समान सुशोभित हैं ॥ ४९-५० ॥ अत्यन्त बहुमूल्य मणियों से जड़ा हुआ
मुकुट, कड़े, बाजूबंद, करधनी, हार, नूपुर और
कुण्डलोंसे तथा यज्ञोपवीतसे वह दिव्य मूर्ति अलंकृत हो रही है। एक हाथमें पद्म
शोभा पा रहा है और शेष तीन हाथोंमें शङ्ख, चक्र, और गदा, वक्ष:स्थलपर श्रीवत्सका चिह्न, गलेमें कौस्तुभमणि और वनमाला लटक रही है ॥ ५१-५२ ॥ नन्द-सुनन्द आदि पार्षद
अपने ‘स्वामी’, सनकादि परमर्षि ‘परब्रह्म’, ब्रह्मा, महादेव
आदि देवता ‘सर्वेश्वर’, मरीचि आदि नौ
ब्राह्मण ‘प्रजापति’ और प्रह्लाद-नारद
आदि भगवान्के परम प्रेमी भक्त तथा आठों वसु अपने परम प्रियतम ‘भगवान्’ समझकर भिन्न-भिन्न भावोंके अनुसार निर्दोष
वेदवाणीसे भगवान्की स्तुति कर रहे हैं ॥ ५३-५४ ॥ साथ ही लक्ष्मी, पुष्टि, सरस्वती, कान्ति,
कीर्ति और तुष्टि (अर्थात् ऐश्वर्य, बल,
ज्ञान, श्री, यश और
वैराग्य—ये षडैश्वर्यरूप शक्तियाँ), इला
(सन्धिनीरूप पृथ्वी-शक्ति), ऊर्जा (लीलाशक्ति), विद्या-अविद्या (जीवोंके मोक्ष और बन्धनमें कारणरूपा बहिरङ्ग शक्ति),
ह्लादिनी, संवित् (अन्तरङ्गा शक्ति) और माया
आदि शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनकी सेवा कर रही हैं ॥ ५५ ॥
भगवान्
की यह झाँकी निरखकर अक्रूरजीका हृदय परमानन्द से लबालब भर गया। उन्हें परम भक्ति प्राप्त
हो गयी। सारा शरीर हर्षावेशसे पुलकित हो गया। प्रेमभावका उद्रेक होनेसे उनके नेत्र
आँसूसे भर गये ॥ ५६ ॥ अब अक्रूरजीने अपना साहस बटोरकर भगवान् के चरणोंमें सिर
रखकर प्रणाम किया और वे उसके बाद हाथ जोडक़र बड़ी सावधानीसे धीरे-धीरे गद्गद स्वरसे
भगवान् की स्तुति करने लगे ॥ ५७ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे अक्रूरप्रतियाने एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ३९ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से