॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
श्रीकृष्णका
मथुराजी में प्रवेश
तां
सम्प्रविष्टौ वसुदेवनन्दनौ
वृतौ
वयस्यैर्नरदेववर्त्मना ।
द्रष्टुं
समीयुस्त्वरिताः पुरस्त्रियो
हर्म्याणि
चैवारुरुहुर्नृपोत्सुकाः ॥ २४ ॥
काश्चिग्
विपर्यग्धृतवस्त्रभूषणा
विस्मृत्य
चैकं युगलेष्वथापराः ।
कृतैकपत्रश्रवणैकनूपुरा
नाङ्क्त्वा
द्वितीयं त्वपराश्च लोचनम् ॥ २५ ॥
अश्नन्त्य
एकास्तदपास्य सोत्सवा
अभ्यज्यमाना
अकृतोपमज्जनाः ।
स्वपन्त्य
उत्थाय निशम्य निःस्वनं
प्रपाययन्त्योऽर्भमपोह्य
मातरः ॥ २६ ॥
मनांसि
तासामरविन्दलोचनः
प्रगल्भलीलाहसितावलोकनैः
।
जहार
मत्तद्विरदेन्द्रविक्रमो
दृशां
ददच्छ्रीरमणात्मनोत्सवम् ॥ २७ ॥
दृष्ट्वा
मुहुः श्रुतमनुद्रुतचेतसस्तं ।
तत्प्रेक्षणोत्स्मितसुधोक्षणलब्धमानाः
।
आनन्दमूर्तिमुपगुह्य
दृशात्मलब्धं ।
हृष्यत्त्वचो
जहुरनन्तमरिन्दमाधिम् ॥ २८ ॥
प्रासादशिखरारूढाः
प्रीत्युत्फुल्लमुखाम्बुजाः ।
अभ्यवर्षन्
सौमनस्यैः प्रमदा बलकेशवौ ॥ २९ ॥
दध्यक्षतैः
सोदपात्रैः स्रग्गन्धैरभ्युपायनैः ।
तावानर्चुः
प्रमुदिताः तत्र तत्र द्विजातयः ॥ ३० ॥
ऊचुः
पौरा अहो गोप्यः तपः किमचरन् महत् ।
या
ह्येतावनुपश्यन्ति नरलोकमहोत्सवौ ॥ ३१ ॥
रजकं
कञ्चिदायान्तं रङ्गकारं गदाग्रजः ।
दृष्ट्वायाचत
वासांसि धौतान्यत्युत्तमानि च ॥ ३२ ॥
देह्यावयोः
समुचितानि अङ्ग वासांसि चार्हतोः ।
भविष्यति
परं श्रेयो दातुस्ते नात्र संशयः ॥ ३३ ॥
स
याचितो भगवता परिपूर्णेन सर्वतः ।
साक्षेपं
रुषितः प्राह भृत्यो राज्ञः सुदुर्मदः ॥ ३४ ॥
ईदृशान्येव
वासांसी नित्यं गिरिवनेचराः ।
परिधत्त
किमुद्वृत्ता राजद्रव्याण्यभीप्सथ ॥ ३५ ॥
याताशु
बालिशा मैवं प्रार्थ्यं यदि जिजीवीषा ।
बध्नन्ति
घ्नन्ति लुम्पन्ति दृप्तं राजकुलानि वै ॥ ३६ ॥
एवं
विकत्थमानस्य कुपितो देवकीसुतः ।
रजकस्य
कराग्रेण शिरः कायादपातयत् ॥ ३७ ॥
तस्यानुजीविनः
सर्वे वासःकोशान् विसृज्य वै ।
दुद्रुवुः
सर्वतो मार्गं वासांसि जगृहेऽच्युतः ॥ ३८ ॥
वसित्वाऽऽत्मप्रिये
वस्त्रे कृष्णः सङ्कर्षणस्तथा ।
शेषाण्यादत्त
गोपेभ्यो विसृज्य भुवि कानिचित् ॥ ३९ ॥
ततस्तु
वायकः प्रीतः तयोर्वेषमकल्पयत् ।
विचित्रवर्णैश्चैलेयैः
आकल्पैरनुरूपतः ॥ ४० ॥
नानालक्षणवेषाभ्यां
कृष्णरामौ विरेजतुः ।
स्वलङ्कृतौ
बालगजौ पर्वणीव सितेतरौ ॥ ॥
तस्य
प्रसन्नो भगवान् प्रादात् सारूप्यमात्मनः ।
श्रियं
च परमां लोके बलैश्वर्यस्मृतीन्द्रियम् ॥ ४२ ॥
परीक्षित्
! वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने ग्वालबालोंके साथ राजपथसे मथुरा
नगरीमें प्रवेश किया। उस समय नगरकी नारियाँ बड़ी उत्सुकतासे उन्हें देखनेके लिये
झटपट अटारियोंपर चढ़ गयीं ॥ २४ ॥ किसी-किसीने जल्दीके कारण अपने वस्त्र और गहने
उलटे पहन लिये। किसीने भूलसे कुण्डल, कंगन आदि जोड़ेसे
पहने जानेवाले आभूषणोंमेंसे एक ही पहना और चल पड़ी। कोई एक ही कानमें पत्र नामक
आभूषण धारण कर पायी थी, तो किसीने एक ही पाँवमें पायजेब पहन
रखा था। कोई एक ही आँखमें अंजन आँज पायी थी और दूसरीमें बिना आँजे ही चल पड़ी ॥ २५
॥ कई रमणियाँ तो भोजन कर रही थीं, वे हाथका कौर फेंककर चल
पड़ीं। सबका मन उत्साह और आनन्दसे भर रहा था। कोई-कोई उबटन लगवा रही थीं, वे बिना स्नान किये ही दौड़ पड़ीं। जो सो रही थीं, वे
कोलाहल सुनकर उठ खड़ी हुर्ईं और उसी अवस्थामें दौड़ चलीं। जो माताएँ बच्चोंको दूध
पिला रही थीं, वे उन्हें गोदसे हटाकर भगवान् श्रीकृष्णको
देखनेके लिये चल पड़ीं ॥ २६ ॥ कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण मतवाले गजराजके समान बड़ी
मस्तीसे चल रहे थे। उन्होंने लक्ष्मीको भी आनन्दित करनेवाले अपने श्यामसुन्दर
विग्रहसे नगरनारियोंके नेत्रोंको बड़ा आनन्द दिया और अपनी विलासपूर्ण प्रगल्भ हँसी
तथा प्रेमभरी चितवनसे उनके मन चुरा लिये ॥ २७ ॥ मथुराकी स्त्रियाँ बहुत दिनोंसे
भगवान् श्रीकृष्णकी अद्भुत लीलाएँ सुनती आ रही थीं। उनके चित्त चिरकालसे
श्रीकृष्णके लिये चञ्चल, व्याकुल हो रहे थे। आज उन्होंने
उन्हें देखा। भगवान् श्रीकृष्णने भी अपनी प्रेमभरी चितवन और मन्द मुसकानकी सुधासे
सींचकर उनका सम्मान किया। परीक्षित् ! उन स्त्रियोंने नेत्रोंके द्वारा भगवान्को
अपने हृदयमें ले जाकर उनके आनन्दमय स्वरूपका आलिङ्गन किया। उनका शरीर पुलकित हो
गया और बहुत दिनोंकी विरह- व्याधि शान्त हो गयी ॥ २८ ॥ मथुराकी नारियाँ अपने-अपने
महलोंकी अटारियोंपर चढक़र बलराम और श्रीकृष्णपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगीं। उस समय
उन स्त्रियोंके मुखकमल प्रेमके आवेगसे खिल रहे थे ॥ २९ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंने स्थान-स्थानपर दही, अक्षत,
जलसे भरे पात्र, फूलोंके हार, चन्दन और भेंटकी सामग्रियोंसे आनन्दमग्र होकर भगवान् श्रीकृष्ण और
बलरामजीकी पूजा की ॥ ३० ॥ भगवान्को देखकर सभी पुरवासी आपसमें कहने लगे—‘धन्य है ! धन्य है !’ गोपियोंने ऐसी कौन-सी महान्
तपस्या की है, जिसके कारण वे मनुष्यमात्रको परमानन्द
देनेवाले इन दोनों मनोहर किशोरोंको देखती रहती हैं ॥ ३१ ॥
इसी
समय भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि एक धोबी, जो कपड़े रँगनेका
भी काम करता था, उनकी ओर आ रहा है। भगवान् श्रीकृष्णने उससे
धुले हुए उत्तम-उत्तम कपड़े माँगे ॥ ३२ ॥ भगवान् ने कहा—‘भाई
! तुम हमें ऐसे वस्त्र दो, जो हमारे शरीरमें पूरे-पूरे आ
जायँ। वास्तवमें हमलोग उन वस्त्रोंके अधिकारी हैं। इसमें सन्देह नहीं कि यदि तुम
हमलोगोंको वस्त्र दोगे, तो तुम्हारा परम कल्याण होगा’
॥ ३३ ॥ परीक्षित् ! भगवान् सर्वत्र परिपूर्ण हैं। सब कुछ उन्हींका
है। फिर भी उन्होंने इस प्रकार माँगनेकी लीला की। परंतु वह मूर्ख राजा कंसका सेवक
होनेके कारण मतवाला हो रहा था। भगवान् की वस्तु भगवान्को देना तो दूर रहा,
उसने क्रोधमें भरकर आक्षेप करते हुए कहा— ॥ ३४
॥ ‘तुमलोग रहते हो सदा पहाड़ और जंगलोंमें। क्या वहाँ ऐसे ही
वस्त्र पहनते हो ? तुमलोग बहुत उद्दण्ड हो गये हो, तभी तो ऐसी बढ़-बढक़र बातें करते हो। अब तुम्हें राजाका धन लूटनेकी इच्छा
हुई है ॥ ३५ ॥ अरे मूर्खो ! जाओ, भाग जाओ। यदि कुछ दिन
जीनेकी इच्छा हो तो फिर इस तरह मत माँगना। राजकर्मचारी तुम्हारे-जैसे
उच्छृङ्खलोंको कैद कर लेते हैं, मार डालते हैं और जो कुछ
उनके पास होता है, छीन लेते हैं’ ॥ ३६
॥ जब वह धोबी इस प्रकार बहुत कुछ बहक-बहककर बातें करने लगा, तब
भगवान् श्रीकृष्णने तनिक कुपित होकर उसे एक तमाचा जमाया और उसका सिर धड़ामसे
धड़से नीचे जा गिरा ॥ ३७ ॥ यह देखकर उस धोबीके अधीन काम करनेवाले सब-के-सब
कपड़ोंके ग_र वहीं छोडक़र इधर-उधर भाग गये। भगवान् ने उन
वस्त्रोंको ले लिया ॥ ३८ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने मनमाने वस्त्र पहन लिये
तथा बचे हुए वस्त्रोंमेंसे बहुत-से अपने साथी ग्वालबालोंको भी दिये। बहुत-से कपड़े
तो वहीं जमीनपर ही छोडक़र चल दिये ॥ ३९ ॥
भगवान्
श्रीकृष्ण और बलराम जब कुछ आगे बढ़े, तब उन्हें एक दर्जी
मिला। भगवान्का अनुपम सौन्दर्य देखकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने उन रंग-बिरंगे
सुन्दर वस्त्रोंको उनके शरीरपर ऐसे ढंगसे सजा दिया कि वे सब ठीक-ठीक फब गये ॥ ४० ॥
अनेक प्रकारके वस्त्रोंसे विभूषित होकर दोनों भाई और भी अधिक शोभायमान हुए ऐसे जान
पड़ते, मानो उत्सवके समय श्वेत और श्याम गजशावक भलीभाँति सजा
दिये गये हों ॥ ४१ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण उस दर्जीपर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे
इस लोकमें भरपूर धन-सम्पत्ति, बल-ऐश्वर्य, अपनी स्मृति और दूरतक देखने-सुनने आदि- की इन्द्रियसम्बन्धी शक्तियाँ दीं
और मृत्युके बादके लिये अपना सारूप्य मोक्ष भी दे दिया ॥ ४२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से