गुरुवार, 13 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

श्रीकृष्णका मथुराजी में प्रवेश

 

तां सम्प्रविष्टौ वसुदेवनन्दनौ

वृतौ वयस्यैर्नरदेववर्त्मना ।

द्रष्टुं समीयुस्त्वरिताः पुरस्त्रियो

हर्म्याणि चैवारुरुहुर्नृपोत्सुकाः ॥ २४ ॥

काश्चिग् विपर्यग्धृतवस्त्रभूषणा

विस्मृत्य चैकं युगलेष्वथापराः ।

कृतैकपत्रश्रवणैकनूपुरा

नाङ्‌क्त्वा द्वितीयं त्वपराश्च लोचनम् ॥ २५ ॥

अश्नन्त्य एकास्तदपास्य सोत्सवा

अभ्यज्यमाना अकृतोपमज्जनाः ।

स्वपन्त्य उत्थाय निशम्य निःस्वनं

प्रपाययन्त्योऽर्भमपोह्य मातरः ॥ २६ ॥

मनांसि तासामरविन्दलोचनः

प्रगल्भलीलाहसितावलोकनैः ।

जहार मत्तद्विरदेन्द्रविक्रमो

दृशां ददच्छ्रीरमणात्मनोत्सवम् ॥ २७ ॥

दृष्ट्वा मुहुः श्रुतमनुद्रुतचेतसस्तं ।

तत्प्रेक्षणोत्स्मितसुधोक्षणलब्धमानाः ।

आनन्दमूर्तिमुपगुह्य दृशात्मलब्धं ।

हृष्यत्त्वचो जहुरनन्तमरिन्दमाधिम् ॥ २८ ॥

प्रासादशिखरारूढाः प्रीत्युत्फुल्लमुखाम्बुजाः ।

अभ्यवर्षन् सौमनस्यैः प्रमदा बलकेशवौ ॥ २९ ॥

दध्यक्षतैः सोदपात्रैः स्रग्गन्धैरभ्युपायनैः ।

तावानर्चुः प्रमुदिताः तत्र तत्र द्विजातयः ॥ ३० ॥

ऊचुः पौरा अहो गोप्यः तपः किमचरन् महत् ।

या ह्येतावनुपश्यन्ति नरलोकमहोत्सवौ ॥ ३१ ॥

रजकं कञ्चिदायान्तं रङ्‌गकारं गदाग्रजः ।

दृष्ट्वायाचत वासांसि धौतान्यत्युत्तमानि च ॥ ३२ ॥

देह्यावयोः समुचितानि अङ्‌ग वासांसि चार्हतोः ।

भविष्यति परं श्रेयो दातुस्ते नात्र संशयः ॥ ३३ ॥

स याचितो भगवता परिपूर्णेन सर्वतः ।

साक्षेपं रुषितः प्राह भृत्यो राज्ञः सुदुर्मदः ॥ ३४ ॥

ईदृशान्येव वासांसी नित्यं गिरिवनेचराः ।

परिधत्त किमुद्‌वृत्ता राजद्रव्याण्यभीप्सथ ॥ ३५ ॥

याताशु बालिशा मैवं प्रार्थ्यं यदि जिजीवीषा ।

बध्नन्ति घ्नन्ति लुम्पन्ति दृप्तं राजकुलानि वै ॥ ३६ ॥

एवं विकत्थमानस्य कुपितो देवकीसुतः ।

रजकस्य कराग्रेण शिरः कायादपातयत् ॥ ३७ ॥

तस्यानुजीविनः सर्वे वासःकोशान् विसृज्य वै ।

दुद्रुवुः सर्वतो मार्गं वासांसि जगृहेऽच्युतः ॥ ३८ ॥

वसित्वाऽऽत्मप्रिये वस्त्रे कृष्णः सङ्‌कर्षणस्तथा ।

शेषाण्यादत्त गोपेभ्यो विसृज्य भुवि कानिचित् ॥ ३९ ॥

ततस्तु वायकः प्रीतः तयोर्वेषमकल्पयत् ।

विचित्रवर्णैश्चैलेयैः आकल्पैरनुरूपतः ॥ ४० ॥

नानालक्षणवेषाभ्यां कृष्णरामौ विरेजतुः ।

स्वलङ्‌कृतौ बालगजौ पर्वणीव सितेतरौ ॥ ॥

तस्य प्रसन्नो भगवान् प्रादात् सारूप्यमात्मनः ।

श्रियं च परमां लोके बलैश्वर्यस्मृतीन्द्रियम् ॥ ४२ ॥

 

परीक्षित्‌ ! वसुदेवनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने ग्वालबालोंके साथ राजपथसे मथुरा नगरीमें प्रवेश किया। उस समय नगरकी नारियाँ बड़ी उत्सुकतासे उन्हें देखनेके लिये झटपट अटारियोंपर चढ़ गयीं ॥ २४ ॥ किसी-किसीने जल्दीके कारण अपने वस्त्र और गहने उलटे पहन लिये। किसीने भूलसे कुण्डल, कंगन आदि जोड़ेसे पहने जानेवाले आभूषणोंमेंसे एक ही पहना और चल पड़ी। कोई एक ही कानमें पत्र नामक आभूषण धारण कर पायी थी, तो किसीने एक ही पाँवमें पायजेब पहन रखा था। कोई एक ही आँखमें अंजन आँज पायी थी और दूसरीमें बिना आँजे ही चल पड़ी ॥ २५ ॥ कई रमणियाँ तो भोजन कर रही थीं, वे हाथका कौर फेंककर चल पड़ीं। सबका मन उत्साह और आनन्दसे भर रहा था। कोई-कोई उबटन लगवा रही थीं, वे बिना स्नान किये ही दौड़ पड़ीं। जो सो रही थीं, वे कोलाहल सुनकर उठ खड़ी हुर्ईं और उसी अवस्थामें दौड़ चलीं। जो माताएँ बच्चोंको दूध पिला रही थीं, वे उन्हें गोदसे हटाकर भगवान्‌ श्रीकृष्णको देखनेके लिये चल पड़ीं ॥ २६ ॥ कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्ण मतवाले गजराजके समान बड़ी मस्तीसे चल रहे थे। उन्होंने लक्ष्मीको भी आनन्दित करनेवाले अपने श्यामसुन्दर विग्रहसे नगरनारियोंके नेत्रोंको बड़ा आनन्द दिया और अपनी विलासपूर्ण प्रगल्भ हँसी तथा प्रेमभरी चितवनसे उनके मन चुरा लिये ॥ २७ ॥ मथुराकी स्त्रियाँ बहुत दिनोंसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अद्भुत लीलाएँ सुनती आ रही थीं। उनके चित्त चिरकालसे श्रीकृष्णके लिये चञ्चल, व्याकुल हो रहे थे। आज उन्होंने उन्हें देखा। भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी अपनी प्रेमभरी चितवन और मन्द मुसकानकी सुधासे सींचकर उनका सम्मान किया। परीक्षित्‌ ! उन स्त्रियोंने नेत्रोंके द्वारा भगवान्‌को अपने हृदयमें ले जाकर उनके आनन्दमय स्वरूपका आलिङ्गन किया। उनका शरीर पुलकित हो गया और बहुत दिनोंकी विरह- व्याधि शान्त हो गयी ॥ २८ ॥ मथुराकी नारियाँ अपने-अपने महलोंकी अटारियोंपर चढक़र बलराम और श्रीकृष्णपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगीं। उस समय उन स्त्रियोंके मुखकमल प्रेमके आवेगसे खिल रहे थे ॥ २९ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंने स्थान-स्थानपर दही, अक्षत, जलसे भरे पात्र, फूलोंके हार, चन्दन और भेंटकी सामग्रियोंसे आनन्दमग्र होकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीकी पूजा की ॥ ३० ॥ भगवान्‌को देखकर सभी पुरवासी आपसमें कहने लगे—‘धन्य है ! धन्य है !गोपियोंने ऐसी कौन-सी महान् तपस्या की है, जिसके कारण वे मनुष्यमात्रको परमानन्द देनेवाले इन दोनों मनोहर किशोरोंको देखती रहती हैं ॥ ३१ ॥

 

इसी समय भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि एक धोबी, जो कपड़े रँगनेका भी काम करता था, उनकी ओर आ रहा है। भगवान्‌ श्रीकृष्णने उससे धुले हुए उत्तम-उत्तम कपड़े माँगे ॥ ३२ ॥ भगवान्‌ ने कहा—‘भाई ! तुम हमें ऐसे वस्त्र दो, जो हमारे शरीरमें पूरे-पूरे आ जायँ। वास्तवमें हमलोग उन वस्त्रोंके अधिकारी हैं। इसमें सन्देह नहीं कि यदि तुम हमलोगोंको वस्त्र दोगे, तो तुम्हारा परम कल्याण होगा॥ ३३ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ सर्वत्र परिपूर्ण हैं। सब कुछ उन्हींका है। फिर भी उन्होंने इस प्रकार माँगनेकी लीला की। परंतु वह मूर्ख राजा कंसका सेवक होनेके कारण मतवाला हो रहा था। भगवान्‌ की वस्तु भगवान्‌को देना तो दूर रहा, उसने क्रोधमें भरकर आक्षेप करते हुए कहा॥ ३४ ॥ तुमलोग रहते हो सदा पहाड़ और जंगलोंमें। क्या वहाँ ऐसे ही वस्त्र पहनते हो ? तुमलोग बहुत उद्दण्ड हो गये हो, तभी तो ऐसी बढ़-बढक़र बातें करते हो। अब तुम्हें राजाका धन लूटनेकी इच्छा हुई है ॥ ३५ ॥ अरे मूर्खो ! जाओ, भाग जाओ। यदि कुछ दिन जीनेकी इच्छा हो तो फिर इस तरह मत माँगना। राजकर्मचारी तुम्हारे-जैसे उच्छृङ्खलोंको कैद कर लेते हैं, मार डालते हैं और जो कुछ उनके पास होता है, छीन लेते हैं॥ ३६ ॥ जब वह धोबी इस प्रकार बहुत कुछ बहक-बहककर बातें करने लगा, तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने तनिक कुपित होकर उसे एक तमाचा जमाया और उसका सिर धड़ामसे धड़से नीचे जा गिरा ॥ ३७ ॥ यह देखकर उस धोबीके अधीन काम करनेवाले सब-के-सब कपड़ोंके ग_र वहीं छोडक़र इधर-उधर भाग गये। भगवान्‌ ने उन वस्त्रोंको ले लिया ॥ ३८ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने मनमाने वस्त्र पहन लिये तथा बचे हुए वस्त्रोंमेंसे बहुत-से अपने साथी ग्वालबालोंको भी दिये। बहुत-से कपड़े तो वहीं जमीनपर ही छोडक़र चल दिये ॥ ३९ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलराम जब कुछ आगे बढ़े, तब उन्हें एक दर्जी मिला। भगवान्‌का अनुपम सौन्दर्य देखकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने उन रंग-बिरंगे सुन्दर वस्त्रोंको उनके शरीरपर ऐसे ढंगसे सजा दिया कि वे सब ठीक-ठीक फब गये ॥ ४० ॥ अनेक प्रकारके वस्त्रोंसे विभूषित होकर दोनों भाई और भी अधिक शोभायमान हुए ऐसे जान पड़ते, मानो उत्सवके समय श्वेत और श्याम गजशावक भलीभाँति सजा दिये गये हों ॥ ४१ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण उस दर्जीपर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे इस लोकमें भरपूर धन-सम्पत्ति, बल-ऐश्वर्य, अपनी स्मृति और दूरतक देखने-सुनने आदि- की इन्द्रियसम्बन्धी शक्तियाँ दीं और मृत्युके बादके लिये अपना सारूप्य मोक्ष भी दे दिया ॥ ४२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



बुधवार, 12 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीकृष्णका मथुराजी में प्रवेश

 

श्रीअक्रूर उवाच -

नाहं भवद्‍भ्यां रहितः प्रवेक्ष्ये मथुरां प्रभो ।

त्यक्तुं नार्हसि मां नाथ भक्तं ते भक्तवत्सल ॥ ११ ॥

आगच्छ याम गेहान् नः सनाथान् कुर्वधोक्षज ।

सहाग्रजः सगोपालैः सुहृद्‌भिश्च सुहृत्तम ॥ १२ ॥

पुनीहि पादरजसा गृहान्नो गृहमेधिनाम् ।

यच्छौचेनानुतृप्यन्ति पितरः साग्नयः सुराः ॥ १३ ॥

अवनिज्याङ्‌घ्रियुगलं आसीत् श्लोक्यो बलिर्महान् ।

ऐश्वर्यं अतुलं लेभे गतिं चैकान्तिनां तु या ॥ १४ ॥

आपस्तेऽङ्‌घ्र्यवनेजन्यः त्रींल्लोकान् शुचयोऽपुनन् ।

शिरसाधत्त याः शर्वः स्वर्याताः सगरात्मजाः ॥ १५ ॥

देवदेव जगन्नाथ पुण्यश्रवणकीर्तन ।

यदूत्तमोत्तमःश्लोक नारायण नमोऽस्तु ते ॥ १६ ॥

 

श्रीभगवानुवाच ।

आयास्ये भवतो गेहं अहमार्यसमन्वितः ।

यदुचक्रद्रुहं हत्वा वितरिष्ये सुहृत्प्रियम् ॥ १७ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

एवमुक्तो भगवता सोऽक्रूरो विमना इव ।

पुरीं प्रविष्टः कंसाय कर्मावेद्य गृहं ययौ ॥ १८ ॥

अथापराह्ने भगवान् कृष्णः सङ्‌कर्षणान्वितः ।

मथुरां प्राविशद् गोपैः दिदृक्षुः परिवारितः ॥ १९ ॥

ददर्श तां स्फाटिकतुङ्ग गोपुर

द्वारां बृहद् हेमकपाटतोरणाम् ।

ताम्रारकोष्ठां परिखादुरासदां

उद्यान रम्योप वनोपशोभिताम् ॥ २० ॥

सौवर्णशृङ्‌गाटकहर्म्यनिष्कुटैः

श्रेणीसभाभिः भवनैरुपस्कृताम् ।

वैदूर्यवज्रामलनीलविद्रुमैः

मुक्ताहरिद्‌भिर्वलभीषु वेदिषु ॥ २१ ॥

जुष्टेषु जालामुखरन्ध्रकुट्टिमेषु

आविष्टपारावतबर्हिनादिताम् ।

संसिक्तरथ्यापणमार्गचत्वरां

प्रकीर्णमाल्याङ्‌कुरलाजतण्डुलाम् ॥ २२ ॥

आपूर्णकुम्भैर्दधिचन्दनोक्षितैः

प्रसूनदीपावलिभिः सपल्लवैः ।

सवृन्दरम्भाक्रमुकैः सकेतुभिः

स्वलङ्‌कृतत् द्वारगृहां सपट्टिकैः ॥ २३ ॥

 

अक्रूरजीने कहाप्रभो ! आप दोनोंके बिना मैं मथुरामें नहीं जा सकता। स्वामी ! मैं आपका भक्त हूँ ! भक्तवत्सल प्रभो ! आप मुझे मत छोडिय़े ॥ ११ ॥ भगवन् ! आइये, चलें। मेरे परम हितैषी और सच्चे सुहृद् भगवन् ! आप बलरामजी, ग्वालबालों तथा नन्दरायजी आदि आत्मीयोंके साथ चलकर हमारा घर सनाथ कीजिये ॥ १२ ॥ हम गृहस्थ हैं। आप अपने चरणोंकी धूलिसे हमारा घर पवित्र कीजिये। आपके चरणोंकी धोवन (गङ्गाजल या चरणामृत) से अग्रि, देवता, पितरसब-के-सब तृप्त हो जाते हैं ॥ १३ ॥ प्रभो ! आपके युगल चरणोंको पखारकर महात्मा बलिने वह यश प्राप्त किया, जिसका गान संत पुरुष करते हैं। केवल यश ही नहींउन्हें अतुलनीय ऐश्वर्य तथा वह गति प्राप्त हुई, जो अनन्य प्रेमी भक्तोंको प्राप्त होती है ॥ १४ ॥ आपके चरणोदकगङ्गाजीने तीनों लोक पवित्र कर दिये। सचमुच वे मूर्तिमान् पवित्रता हैं। उन्हींके स्पर्शसे सगरके पुत्रोंको सद्गति प्राप्त हुई और उसी जलको स्वयं भगवान्‌ शङ्करने अपने सिरपर धारण किया ॥ १५ ॥ यदुवंशशिरोमणे ! आप देवताओंके भी आराध्यदेव हैं। जगत्के स्वामी हैं। आपके गुण और लीलाओंका श्रवण तथा कीर्तन बड़ा ही मङ्गलकारी है। उत्तम पुरुष आपके गुणोंका कीर्तन करते रहते हैं। नारायण ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ १६ ॥

 

श्रीभगवान्‌ ने कहाचाचाजी ! मैं दाऊ भैयाके साथ आपके घर आऊँगा और पहले इस यदुवंशियोंके द्रोही कंसको मारकर तब अपने सभी सुहृद्-स्वजनोंका प्रिय करूँगा ॥ १७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ के इस प्रकार कहनेपर अक्रूरजी कुछ अनमने-से हो गये। उन्होंने पुरीमें प्रवेश करके कंससे श्रीकृष्ण और बलरामके ले आनेका समाचार निवेदन किया और फिर अपने घर गये ॥ १८ ॥ दूसरे दिन तीसरे पहर बलरामजी और ग्वालबालोंके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्णने मथुरापुरीको देखनेके लिये नगरमें प्रवेश किया ॥ १९ ॥ भगवान्‌ने देखा कि नगरके परकोटेमें स्फटिकमणि (बिल्लौर) के बहुत ऊँचे-ऊँचे गोपुर (प्रधान दरवाजे) तथा घरोंमें भी बड़े-बड़े फाटक बने हुए हैं। उनमें सोनेके बड़े-बड़े ङ्क्षकवाड़ लगे हैं और सोनेके ही तोरण (बाहरी दरवाजे) बने हुए हैं। नगरके चारों ओर ताँबे और पीतलकी चहारदीवारी बनी हुई है। खार्ईंके कारण और कहींसे उस नगरमें प्रवेश करना बहुत कठिन है। स्थान-स्थानपर सुन्दर-सुन्दर उद्यान और रमणीय उपवन (केवल स्त्रियोंके उपयोगमें आनेवाले बगीचे) शोभायमान हैं ॥ २० ॥ सुवर्णसे सजे हुए चौराहे, धनियोंके महल, उन्हींके साथके बगीचे, कारीगरोंके बैठनेके स्थान या प्रजावर्गके सभा-भवन (टाउनहाल) और साधारण लोगोंके निवासगृह नगरकी शोभा बढ़ा रहे हैं। वैदूर्य, हीरे, स्फटिक (बिल्लौर), नीलम, मूँगे, मोती और पन्ने आदिसे जड़े हुए छज्जे, चबूतरे, झरोखे एवं फर्श आदि जगमगा रहे हैं। उनपर बैठे हुए कबूतर, मोर आदि पक्षी भाँति-भाँतिकी बोली बोल रहे हैं। सडक़, बाजार, गली एवं चौराहोंपर खूब छिडक़ाव किया गया है। स्थान-स्थानपर फूलोंके गजरे, जवारे (जौके अङ्कुर), खील और चावल बिखरे हुए हैं ॥ २१-२२ ॥ घरोंके दरवाजोंपर दही और चन्दन आदिसे चॢचत जलसे भरे हुए कलश रखे हैं और वे फूल, दीपक, नयी-नयी कोंपलें फलसहित केले और सुपारीके वृक्ष, छोटी-छोटी झंडियों और रेशमी वस्त्रोंसे भलीभाँति सजाए हुए हैं ॥ २३ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्णका मथुराजी में प्रवेश

 

श्रीशुक उवाच -

स्तुवतस्तस्य भगवान् दर्शयित्वा जले वपुः ।

भूयः समाहरत् कृष्णो नटो नाट्यमिवात्मनः ॥ १ ॥

सोऽपि चान्तर्हितं वीक्ष्य जलाद् उन्मज्ज्य सत्वरः ।

कृत्वा चावश्यकं सर्वं विस्मितो रथमागमत् ॥ २ ॥

तं अपृच्छद् हृषीकेशः किं ते दृष्टमिवाद्‍भुतम् ।

भूमौ वियति तोये वा तथा त्वां लक्षयामहे ॥ ३ ॥

 

श्रीअक्रूर उवाच -

अद्‍भुतानीह यावन्ति भूमौ वियति वा जले ।

त्वयि विश्वात्मके तानि किं मेऽदृष्टं विपश्यतः ॥ ४ ॥

यत्राद्‍भुतानि सर्वाणि भूमौ वियति वा जले ।

तं त्वानुपश्यतो ब्रह्मन् किं मे दृष्टमिहाद्‍भुतम् ॥ ५ ॥

इत्युक्त्वा चोदयामास स्यन्दनं गान्दिनीसुतः ।

मथुरां अनयद् रामं कृष्णं चैव दिनात्यये ॥ ६ ॥

मार्गे ग्रामजना राजन् तत्र तत्रोपसङ्‌गताः ।

वसुदेवसुतौ वीक्ष्य प्रीता दृष्टिं न चाददुः ॥ ७ ॥

तावद् व्रजौकसस्तत्र नन्दगोपादयोऽग्रतः ।

पुरोपवनमासाद्य प्रतीक्षन्तोऽवतस्थिरे ॥ ८ ॥

तान् समेत्याह भगवान् अक्रूरं जगदीश्वरः ।

गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रश्रितं प्रहसन्निव ॥ ९ ॥

भवान् प्रविशतामग्रे सहयानः पुरीं गृहम् ।

वयं त्विहावमुच्याथ ततो द्रक्ष्यामहे पुरीम् ॥ १० ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अक्रूरजी इस प्रकार स्तुति कर रहे थे। उन्हें भगवान्‌ श्रीकृष्णने जलमें अपने दिव्यरूपके दर्शन कराये और फिर उसे छिपा लिया, ठीक वैसे ही जैसे कोई नट अभिनयमें कोई रूप दिखाकर फिर उसे परदेकी ओटमें छिपा दे ॥ १ ॥ जब अक्रूरजीने देखा कि भगवान्‌का वह दिव्यरूप अन्तर्धान हो गया, तब वे जलसे बाहर निकल आये और फिर जल्दी-जल्दी सारे आवश्यक कर्म समाप्त करके रथपर चले आये। उस समय वे बहुत ही विस्मित हो रहे थे ॥ २ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने उनसे पूछा—‘चाचाजी ! आपने पृथ्वी, आकाश या जलमें कोई अद्भुत वस्तु देखी है क्या ? क्योंकि आपकी आकृति देखनेसे ऐसा ही जान पड़ता है॥ ३ ॥

 

अक्रूरजीने कहा—‘प्रभो ! पृथ्वी, आकाश या जलमें और सारे जगत्में जितने भी अद्भुत पदार्थ हैं, वे सब आपमें ही हैं। क्योंकि आप विश्वरूप हैं। जब मैं आपको ही देख रहा हूँ तब ऐसी कौन-सी अद्भुत वस्तु रह जाती है, जो मैंने न देखी हो ॥ ४ ॥ भगवन् ! जितनी भी अद्भुत वस्तुएँ हैं, वे पृथ्वीमें हों या जल अथवा आकाशमेंसब-की-सब जिनमें हैं, उन्हीं आपको मैं देख रहा हूँ ! फिर भला, मैंने यहाँ अद्भुत वस्तु कौन-सी देखी ? ॥ ५ ॥ गान्दिनीनन्दन अक्रूरजीने यह कहकर रथ हाँक दिया और भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा बलरामजीको लेकर दिन ढलते-ढलते वे मथुरापुरी जा पहुँचे ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌ ! मार्गमें स्थान-स्थानपर गाँवोंके लोग मिलनेके लिये आते और भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा बलरामजीको देखकर आनन्दमग्र हो जाते। वे एकटक उनकी ओर देखने लगते, अपनी दृष्टि हटा न पाते ॥ ७ ॥ नन्दबाबा आदि व्रजवासी तो पहलेसे ही वहाँ पहुँच गये थे, और मथुरापुरीके बाहरी उपवनमें रुककर उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे ॥ ८ ॥ उनके पास पहुँचकर जगदीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णने विनीतभावसे खड़े अक्रूरजीका हाथ अपने हाथमें लेकर मुसकराते हुए कहा॥ ९ ॥ चाचाजी ! आप रथ लेकर पहले मथुरापुरीमें प्रवेश कीजिये और अपने घर जाइये। हमलोग पहले यहाँ उतरकर फिर नगर देखनेके लिये आयेंगे॥ १० ॥

 

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मंगलवार, 11 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

अक्रूरजी के द्वारा भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति

 

भगवन् जीवलोकोऽयं मोहितस्तव मायया ।

अहं ममेत्यसद्‍ग्राहो भ्राम्यते कर्मवर्त्मसु ॥ २३ ॥

अहं चात्मात्मजागार दारार्थस्वजनादिषु ।

भ्रमामि स्वप्नकल्पेषु मूढः सत्यधिया विभो ॥ २४ ॥

अनित्यानात्मदुःखेषु विपर्ययमतिर्ह्यहम् ।

द्वन्द्वारामस्तमोविष्टो न जाने त्वात्मनः प्रियम् ॥ २५ ॥

यथाबुधो जलं हित्वा प्रतिच्छन्नं तदुद्‍भवैः ।

अभ्येति मृगतृष्णां वै तद्वत्त्वाहं पराङ्‌मुखः ॥ २६ ॥

नोत्सहेऽहं कृपणधीः कामकर्महतं मनः ।

रोद्धुं प्रमाथिभिश्चाक्षैः ह्रियमाणमितस्ततः ॥ २७ ॥

सोऽहं तवाङ्‌घ्र्युपगतोऽस्म्यसतां दुरापं

तच्चाप्यहं भवदनुग्रह ईश मन्ये ।

पुंसो भवेद् यर्हि संसरणापवर्गः

त्वय्यब्जनाभ सदुपासनया मतिः स्यात् ॥ २८ ॥

नमो विज्ञानमात्राय सर्वप्रत्ययहेतवे ।

पुरुषेशप्रधानाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये ॥ २९ ॥

नमस्ते वासुदेवाय सर्वभूतक्षयाय च ।

हृषीकेश नमस्तुभ्यं प्रपन्नं पाहि मां प्रभो ॥ ३० ॥

 

भगवन् ! ये सब-के-सब जीव आपकी मायासे मोहित हो रहे हैं और इस मोहके कारण ही यह मैं हूँ और यह मेरा हैइस झूठे दुराग्रहमें फँसकर कर्मके मार्गोंमें भटक रहे हैं ॥ २३ ॥ मेरे स्वामी ! इसी प्रकार मैं भी स्वप्नमें दीखनेवाले पदार्थोंके समान झूठे देह-गेह, पत्नी-पुत्र और धन- स्वजन आदिको सत्य समझकर उन्हींके मोहमें फँस रहा हूँ और भटक रहा हूँ ॥ २४ ॥

 

मेरी मूर्खता तो देखिये, प्रभो ! मैंने अनित्य वस्तुओंको नित्य, अनात्माको आत्मा और दु:खको सुख समझ लिया। भला, इस उलटी बुद्धिकी भी कोई सीमा है ! इस प्रकार अज्ञानवश सांसारिक सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंमें ही रम गया और यह बात बिलकुल भूल गया कि आप ही हमारे सच्चे प्यारे हैं ॥ २५ ॥ जैसे कोई अनजान मनुष्य जलके लिये तालाबपर जाय और उसे उसीसे पैदा हुए सिवार आदि घासोंसे ढका देखकर ऐसा समझ ले कि यहाँ जल नहीं है, तथा सूर्यकी किरणोंमें झूठ-मूठ प्रतीत होनेवाले जलके लिये मृगतृष्णाकी ओर दौड़ पड़े, वैसे ही मैं अपनी ही मायासे छिपे रहनेके कारण आपको छोडक़र विषयोंमें सुखकी आशासे भटक रहा हूँ ॥ २६ ॥ मैं अविनाशी अक्षर वस्तुके ज्ञानसे रहित हूँ। इसीसे मेरे मनमें अनेक वस्तुओंकी कामना और उनके लिये कर्म करनेके संकल्प उठते ही रहते हैं। इसके अतिरिक्त ये इन्द्रियाँ भी जो बड़ी प्रबल एवं दुर्दमनीय हैं, मनको मथ-मथकर बलपूर्वक इधर-उधर घसीट ले जाती हैं। इसीलिये इस मनको मैं रोक नहीं पाता ॥ २७ ॥ इस प्रकार भटकता हुआ मैं आपके उन चरणकमलोंकी छत्रछायामें आ पहुँचा हूँ, जो दुष्टोंके लिये दुर्लभ हैं। मेरे स्वामी ! इसे भी मैं आपका कृपाप्रसाद ही मानता हूँ। क्योंकि पद्मनाभ ! जब जीवके संसारसे मुक्त होनेका समय आता है, तब सत्पुरुषोंकी उपासनासे चित्तवृत्ति आपमें लगती है ॥ २८ ॥ प्रभो ! आप केवल विज्ञानस्वरूप हैं, विज्ञानघन हैं। जितनी भी प्रतीतियाँ होती हैं, जितनी भी वृत्तियाँ हैं, उन सबके आप ही कारण और अधिष्ठान हैं। जीवके रूपमें एवं जीवोंके सुख-दु:ख आदिके निमित्त काल, कर्म, स्वभाव तथा प्रकृतिके रूपमें भी आप ही हैं तथा आप ही उन सबके नियन्ता भी हैं। आपकी शक्तियाँ अनन्त हैं। आप स्वयं ब्रह्म हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ २९ ॥ प्रभो ! आप ही वासुदेव, आप ही समस्त जीवोंके आश्रय (सङ्कर्षण) हैं; तथा आप ही बुद्धि और मनके अधिष्ठातृदेवता हृषीकेश (प्रद्युम्र और अनिरुद्ध) हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ। प्रभो ! आप मुझ शरणागतकी रक्षा कीजिये ॥ ३० ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अक्रूरस्तुतिर्नाम चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

अक्रूरजी के द्वारा भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति

 

सत्त्वं रजस्तम इति भवतः प्रकृतेर्गुणाः ।

तेषु हि प्राकृताः प्रोता आब्रह्मस्थावरादयः ॥ ११ ॥

तुभ्यं नमस्तेऽस्त्वविषक्तदृष्टये

सर्वात्मने सर्वधियां च साक्षिणे ।

गुणप्रवाहोऽयमविद्यया कृतः

प्रवर्तते देवनृतिर्यगात्मसु ॥ १२ ॥

अग्निर्मुखं तेऽवनिरङ्‌घ्रिरीक्षणं

सूर्यो नभो नाभिरथो दिशः श्रुतिः ।

द्यौः कं सुरेन्द्रास्तव बाहवोऽर्णवाः

कुक्षिर्मरुत् प्राणबलं प्रकल्पितम् ॥ १३ ॥

रोमाणि वृक्षौषधयः शिरोरुहा ।

मेघाः परस्यास्थिनखानि तेऽद्रयः ।

निमेषणं रात्र्यहनी प्रजापतिः

मेढ्रस्तु वृष्टिस्तव वीर्यमिष्यते ॥ १४ ॥

त्वय्यव्ययात्मन् पुरुषे प्रकल्पिता

लोकाः सपाला बहुजीवसङ्‌कुलाः ।

यथा जले सञ्जिहते जलौकसो

ऽप्युदुम्बरे वा मशका मनोमये ॥ १५ ॥

यानि यानीह रूपाणि क्रीडनार्थं बिभर्षि हि ।

तैरामृष्टशुचो लोका मुदा गायन्ति ते यशः ॥ १६ ॥

नमः कारणमत्स्याय प्रलयाब्धिचराय च ।

हयशीर्ष्णे नमस्तुभ्यं मधुकैटभमृत्यवे ॥ १७ ॥

अकूपाराय बृहते नमो मन्दरधारिणे ।

क्षित्युद्धारविहाराय नमः सूकरमूर्तये ॥ १८ ॥

नमस्तेऽद्‍भुतसिंहाय साधुलोकभयापह ।

वामनाय नमस्तुभ्यं क्रान्तत्रिभुवनाय च ॥ १९ ॥

नमो भृगूणां पतये दृप्तक्षत्रवनच्छिदे ।

नमस्ते रघुवर्याय रावणान्तकराय च ॥ २० ॥

नमस्ते वासुदेवाय नमः सङ्‌कर्षणाय च ।

प्रद्युम्नायनिरुद्धाय सात्वतां पतये नमः ॥ २१ ॥

नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने ।

म्लेच्छप्रायक्षत्रहन्त्रे नमस्ते कल्किरूपिणे ॥ २२ ॥

 

प्रभो ! आपकी प्रकृतिके तीन गुण हैंसत्त्व, रज और तम। ब्रह्मासे लेकर स्थावरपर्यन्त सम्पूर्ण चराचर जीव प्राकृत हैं और जैसे वस्त्र सूत्रोंसे ओतप्रोत रहते हैं, वैसे ही ये सब प्रकृतिके उन गुणोंसे ही ओतप्रोत हैं ॥ ११ ॥ परंतु आप सर्वस्वरूप होनेपर भी उनके साथ लिप्त नहीं हैं। आपकी दृष्टि निॢलप्त है, क्योंकि आप समस्त वृत्तियोंके साक्षी हैं। यह गुणोंके प्रवाहसे होनेवाली सृष्टि अज्ञानमूलक है और वह देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि समस्त योनियोंमें व्याप्त है; परंतु आप उससे सर्वथा अलग हैं। इसलिये मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ १२ ॥ अग्रि आपका मुख है। पृथ्वी चरण है। सूर्य और चन्द्रमा नेत्र हैं। आकाश नाभि है, दिशाएँ कान हैं। स्वर्ग सिर है। देवेन्द्रगण भुजाएँ हैं। समुद्र कोख है और यह वायु ही आपकी प्राणशक्तिके रूपमें उपासनाके लिये कल्पित हुई है ॥ १३ ॥ वृक्ष और ओषधियाँ रोम हैं। मेघ सिरके केश हैं। पर्वत आपके अस्थिसमूह और नख हैं। दिन और रात पलकोंका खोलना और मीचना है। प्रजापति जननेन्द्रिय हैं और वृष्टि ही आपका वीर्य है ॥ १४ ॥ अविनाशी भगवन् ! जैसे जलमें बहुत-से जलचर जीव और गूलरके फलोंमें नन्हें-नन्हें कीट रहते हैं, उसी प्रकार उपासनाके लिये स्वीकृत आपके मनोमय पुरुषरूपमें अनेक प्रकारके जीव-जन्तुओंसे भरे हुए लोक और उनके लोकपाल कल्पित किये गये हैं ॥ १५ ॥ प्रभो ! आप क्रीडा करनेके लिये पृथ्वीपर जो-जो रूप धारण करते हैं, वे सब अवतार लोगोंके शोक-मोहको धो-बहा देते हैं और फिर सब लोग बड़े आनन्दसे आपके निर्मल यशका गान करते हैं ॥ १६ ॥ प्रभो ! आपने वेदों, ऋषियों, ओषधियों और सत्यव्रत आदिकी रक्षा-दीक्षाके लिये मत्स्यरूप धारण किया था और प्रलयके समुद्रमें स्वच्छन्द विहार किया था। आपके मत्स्यरूपको मैं नमस्कार करता हूँ। आपने ही मधु और कैटभ नामके असुरोंका संहार करनेके लिये हयग्रीव- अवतार ग्रहण किया था। मैं आपके उस रूपको भी नमस्कार करता हूँ ॥ १७ ॥ आपने ही वह विशाल कच्छपरूप ग्रहण करके मन्दराचलको धारण किया था, आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आपने ही पृथ्वीके उद्धारकी लीला करनेके लिये वराहरूप स्वीकार किया था, आपको मेरे बार-बार नमस्कार ॥ १८ ॥ प्रह्लाद-जैसे साधुजनोंका भय मिटानेवाले प्रभो ! आपके उस अलौकिक नृसिंह- रूपको मैं नमस्कार करता हूँ। आपने वामनरूप ग्रहण करके अपने पगोंसे तीनों लोक नाप लिये थे, आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १९ ॥ धर्मका उल्लङ्घन करनेवाले घमंडी क्षत्रियोंके वनका छेदन कर देनेके लिये आपने भृगुपति परशुरामरूप ग्रहण किया था। मैं आपके उस रूपको नमस्कार करता हूँ। रावणका नाश करनेके लिये आपने रघुवंशमें भगवान्‌ रामके रूपसे अवतार ग्रहण किया था। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ २० ॥ वैष्णवजनों तथा यदुवंशियोंका पालन- पोषण करनेके लिये आपने ही अपनेको वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्र और अनिरुद्धइस चतुव्र्यूहके रूपमें प्रकट किया है। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ २१ ॥ दैत्य और दानवोंको मोहित करनेके लिये आप शुद्ध अहिंसामार्गके प्रवर्तक बुद्धका रूप ग्रहण करेंगे। मैं आपको नमस्कार करता हूँ और पृथ्वीके क्षत्रिय जब म्लेच्छप्राय हो जायँगे, तब उनका नाश करनेके लिये आप ही कल्किके रूपमें अवतीर्ण होंगे। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ २२ ॥

 

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