शनिवार, 15 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

कुवलयापीड का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश

 

श्रीशुक उवाच -

अथ कृष्णश्च रामश्च कृतशौचौ परन्तप ।

मल्लदुन्दुभिनिर्घोषं श्रुत्वा द्रष्टुमुपेयतुः ॥ १ ॥

रङ्‌गद्वारं समासाद्य तस्मिन् नागमवस्थितम् ।

अपश्यत्कुवलयापीडं कृष्णोऽम्बष्ठप्रचोदितम् ॥ २ ॥

बद्ध्वा परिकरं शौरिः समुह्य कुटिलालकान् ।

उवाच हस्तिपं वाचा मेघनादगभीरया ॥ ३ ॥

अम्बष्ठाम्बष्ठ मार्गं नौ देह्यपक्रम मा चिरम् ।

नो चेत्सकुञ्जरं त्वाद्य नयामि यमसादनम् ॥ ४ ॥

एवं निर्भर्त्सितोऽम्बष्ठः कुपितः कोपितं गजम् ।

चोदयामास कृष्णाय कालान्तक यमोपमम् ॥ ५ ॥

करीन्द्रस्तमभिद्रुत्य करेण तरसाग्रहीत् ।

कराद् विगलितः सोऽमुं निहत्याङ्‌घ्रिष्वलीयत ॥ ६ ॥

सङ्‌क्रुद्धस्तमचक्षाणो घ्राणदृष्टिः स केशवम् ।

परामृशत् पुष्करेण स प्रसह्य विनिर्गतः ॥ ७ ॥

पुच्छे प्रगृह्यातिबलं धनुषः पञ्चविंशतिम् ।

विचकर्ष यथा नागं सुपर्ण इव लीलया ॥ ८ ॥

स पर्यावर्तमानेन सव्यदक्षिणतोऽच्युतः ।

बभ्राम भ्राम्यमाणेन गोवत्सेनेव बालकः ॥ ९ ॥

ततोऽभिमखमभ्येत्य पाणिनाऽऽहत्य वारणम् ।

प्राद्रवन् पातयामास स्पृश्यमानः पदे पदे ॥ १० ॥

स धावन् क्रीडया भूमौ पतित्वा सहसोत्थितः ।

तं मत्वा पतितं क्रुद्धो दन्ताभ्यां सोऽहनत् क्षितिम् ॥ ११ ॥

स्वविक्रमे प्रतिहते कुंजरेन्द्रोऽत्यमर्षितः ।

चोद्यमानो महामात्रैः कृष्णमभ्यद्रवद् रुषा ॥ १२ ॥

तमापतन्तमासाद्य भगवान् मधुसूदनः ।

निगृह्य पाणिना हस्तं पातयामास भूतले ॥ १३ ॥

पतितस्य पदाऽऽक्रम्य मृगेन्द्र इव लीलया ।

दन्तमुत्पाट्य तेनेभं हस्तिपांश्चाहनद्धरिः ॥ १४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंकाम-क्रोधादि शत्रुओंको पराजित करनेवाले परीक्षित्‌ ! अब श्रीकृष्ण और बलराम भी स्नानादि नित्यकर्मसे निवृत्त हो दंगलके अनुरूप नगाड़ेकी ध्वनि सुनकर रङ्गभूमि देखनेके लिये चल पड़े ॥ १ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने रंगभूमिके दरवाजेपर पहुँचकर देखा कि वहाँ महावतकी प्रेरणासे कुवलयापीड़ नामका हाथी खड़ा है ॥ २ ॥ तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी कमर कस ली और घुँघराली अलकें समेट लीं तथा मेघके समान गम्भीर वाणीसे महावतको ललकारकर कहा ॥ ३ ॥ महावत, ओ महावत ! हमदोनों को रास्ता दे दे। हमारे मार्गसे हट जा। अरे, सुनता नहीं ? देर मत कर। नहीं तो मैं हाथीके साथ अभी तुझे यमराजके घर पहुँचाता हूँ॥ ४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने महावतको जब इस प्रकार धमकाया, तब वह क्रोधसे तिलमिला उठा और उसने काल, मृत्यु तथा यमराजके समान अत्यन्त भयंकर कुवलयापीडक़ो अङ्कुशकी मारसे क्रुद्ध करके श्रीकृष्णकी ओर बढ़ाया ॥ ५ ॥ कुवलयापीडऩे भगवान्‌की ओर झपटकर उन्हें बड़ी तेजीसे सूँड़में लपेट लिया; परंतु भगवान्‌ सूँड़से बाहर सरक आये और उसे एक घूँसा जमाकर उसके पैरोंके बीचमें जा छिपे ॥ ६ ॥ उन्हें अपने सामने न देखकर कुवलयापीडक़ो बड़ा क्रोध हुआ। उसने सूँघकर भगवान्‌को अपनी सूँड़से टटोल लिया और पकड़ा भी; परंतु उन्होंने बलपूर्वक अपनेको उससे छुड़ा लिया ॥ ७ ॥ इसके बाद भगवान्‌ उस बलवान् हाथीकी पूँछ पकडक़र खेल- खेलमें ही उसे सौ हाथतक पीछे घसीट लाये; जैसे गरुड़ साँपको घसीट लाते हैं ॥ ८ ॥ जिस प्रकार घूमते हुए बछड़ेके साथ बालक घूमता है अथवा स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण जिस प्रकार बछड़ोंसे खेलते थे, वैसे ही वे उसकी पूँछ पकडक़र उसे घुमाने और खेलने लगे। जब वह दायेंसे घूमकर उनको पकडऩा चाहता, तब वे बायें आ जाते और जब वह बायेंकी ओर घूमता, तब वे दायें घूम जाते ॥ ९ ॥ इसके बाद हाथीके सामने आकर उन्होंने उसे एक घूँसा जमाया और वे उसे गिरानेके लिये इस प्रकार उसके सामनेसे भागने लगे, मानो वह अब छू लेता है, तब छू लेता है ॥ १० ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने दौड़ते-दौड़ते एक बार खेल-खेलमें ही पृथ्वीपर गिरने का अभिनय किया और झट वहाँसे उठकर भाग खड़े हुए। उस समय वह हाथी क्रोधसे जल-भुन रहा था। उसने समझा कि वे गिर पड़े और बड़े जोरसे अपने दोनों दाँत धरतीपर मारे ॥ ११ ॥ जब कुवलयापीडक़ा यह आक्रमण व्यर्थ हो गया, तब वह और भी चिढ़ गया। महावतोंकी प्रेरणासे वह क्रुद्ध होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णपर टूट पड़ा ॥ १२ ॥ भगवान्‌ मधुसूदन ने जब उसे अपनी ओर झपटते देखा, तब उसके पास चले गये और अपने एक ही हाथसे उसकी सूँड़ पकडक़र उसे धरतीपर पटक दिया ॥ १३ ॥ उसके गिर जानेपर भगवान्‌ ने सिंह के समान खेल-ही-खेलमें उसे पैरोंसे दबाकर उसके दाँत उखाड़ लिये और उन्हींसे हाथी और महावतों का काम तमाम कर दिया ॥ १४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

कुवलयापीड का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश

 

श्रीशुक उवाच -

अथ कृष्णश्च रामश्च कृतशौचौ परन्तप ।

मल्लदुन्दुभिनिर्घोषं श्रुत्वा द्रष्टुमुपेयतुः ॥ १ ॥

रङ्‌गद्वारं समासाद्य तस्मिन् नागमवस्थितम् ।

अपश्यत्कुवलयापीडं कृष्णोऽम्बष्ठप्रचोदितम् ॥ २ ॥

बद्ध्वा परिकरं शौरिः समुह्य कुटिलालकान् ।

उवाच हस्तिपं वाचा मेघनादगभीरया ॥ ३ ॥

अम्बष्ठाम्बष्ठ मार्गं नौ देह्यपक्रम मा चिरम् ।

नो चेत्सकुञ्जरं त्वाद्य नयामि यमसादनम् ॥ ४ ॥

एवं निर्भर्त्सितोऽम्बष्ठः कुपितः कोपितं गजम् ।

चोदयामास कृष्णाय कालान्तक यमोपमम् ॥ ५ ॥

करीन्द्रस्तमभिद्रुत्य करेण तरसाग्रहीत् ।

कराद् विगलितः सोऽमुं निहत्याङ्‌घ्रिष्वलीयत ॥ ६ ॥

सङ्‌क्रुद्धस्तमचक्षाणो घ्राणदृष्टिः स केशवम् ।

परामृशत् पुष्करेण स प्रसह्य विनिर्गतः ॥ ७ ॥

पुच्छे प्रगृह्यातिबलं धनुषः पञ्चविंशतिम् ।

विचकर्ष यथा नागं सुपर्ण इव लीलया ॥ ८ ॥

स पर्यावर्तमानेन सव्यदक्षिणतोऽच्युतः ।

बभ्राम भ्राम्यमाणेन गोवत्सेनेव बालकः ॥ ९ ॥

ततोऽभिमखमभ्येत्य पाणिनाऽऽहत्य वारणम् ।

प्राद्रवन् पातयामास स्पृश्यमानः पदे पदे ॥ १० ॥

स धावन् क्रीडया भूमौ पतित्वा सहसोत्थितः ।

तं मत्वा पतितं क्रुद्धो दन्ताभ्यां सोऽहनत् क्षितिम् ॥ ११ ॥

स्वविक्रमे प्रतिहते कुंजरेन्द्रोऽत्यमर्षितः ।

चोद्यमानो महामात्रैः कृष्णमभ्यद्रवद् रुषा ॥ १२ ॥

तमापतन्तमासाद्य भगवान् मधुसूदनः ।

निगृह्य पाणिना हस्तं पातयामास भूतले ॥ १३ ॥

पतितस्य पदाऽऽक्रम्य मृगेन्द्र इव लीलया ।

दन्तमुत्पाट्य तेनेभं हस्तिपांश्चाहनद्धरिः ॥ १४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंकाम-क्रोधादि शत्रुओंको पराजित करनेवाले परीक्षित्‌ ! अब श्रीकृष्ण और बलराम भी स्नानादि नित्यकर्मसे निवृत्त हो दंगलके अनुरूप नगाड़ेकी ध्वनि सुनकर रङ्गभूमि देखनेके लिये चल पड़े ॥ १ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने रंगभूमिके दरवाजेपर पहुँचकर देखा कि वहाँ महावतकी प्रेरणासे कुवलयापीड़ नामका हाथी खड़ा है ॥ २ ॥ तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी कमर कस ली और घुँघराली अलकें समेट लीं तथा मेघके समान गम्भीर वाणीसे महावतको ललकारकर कहा ॥ ३ ॥ महावत, ओ महावत ! हमदोनों को रास्ता दे दे। हमारे मार्गसे हट जा। अरे, सुनता नहीं ? देर मत कर। नहीं तो मैं हाथीके साथ अभी तुझे यमराजके घर पहुँचाता हूँ॥ ४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने महावतको जब इस प्रकार धमकाया, तब वह क्रोधसे तिलमिला उठा और उसने काल, मृत्यु तथा यमराजके समान अत्यन्त भयंकर कुवलयापीडक़ो अङ्कुशकी मारसे क्रुद्ध करके श्रीकृष्णकी ओर बढ़ाया ॥ ५ ॥ कुवलयापीडऩे भगवान्‌की ओर झपटकर उन्हें बड़ी तेजीसे सूँड़में लपेट लिया; परंतु भगवान्‌ सूँड़से बाहर सरक आये और उसे एक घूँसा जमाकर उसके पैरोंके बीचमें जा छिपे ॥ ६ ॥ उन्हें अपने सामने न देखकर कुवलयापीडक़ो बड़ा क्रोध हुआ। उसने सूँघकर भगवान्‌को अपनी सूँड़से टटोल लिया और पकड़ा भी; परंतु उन्होंने बलपूर्वक अपनेको उससे छुड़ा लिया ॥ ७ ॥ इसके बाद भगवान्‌ उस बलवान् हाथीकी पूँछ पकडक़र खेल- खेलमें ही उसे सौ हाथतक पीछे घसीट लाये; जैसे गरुड़ साँपको घसीट लाते हैं ॥ ८ ॥ जिस प्रकार घूमते हुए बछड़ेके साथ बालक घूमता है अथवा स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण जिस प्रकार बछड़ोंसे खेलते थे, वैसे ही वे उसकी पूँछ पकडक़र उसे घुमाने और खेलने लगे। जब वह दायेंसे घूमकर उनको पकडऩा चाहता, तब वे बायें आ जाते और जब वह बायेंकी ओर घूमता, तब वे दायें घूम जाते ॥ ९ ॥ इसके बाद हाथीके सामने आकर उन्होंने उसे एक घूँसा जमाया और वे उसे गिरानेके लिये इस प्रकार उसके सामनेसे भागने लगे, मानो वह अब छू लेता है, तब छू लेता है ॥ १० ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने दौड़ते-दौड़ते एक बार खेल-खेलमें ही पृथ्वीपर गिरने का अभिनय किया और झट वहाँसे उठकर भाग खड़े हुए। उस समय वह हाथी क्रोधसे जल-भुन रहा था। उसने समझा कि वे गिर पड़े और बड़े जोरसे अपने दोनों दाँत धरतीपर मारे ॥ ११ ॥ जब कुवलयापीडक़ा यह आक्रमण व्यर्थ हो गया, तब वह और भी चिढ़ गया। महावतोंकी प्रेरणासे वह क्रुद्ध होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णपर टूट पड़ा ॥ १२ ॥ भगवान्‌ मधुसूदन ने जब उसे अपनी ओर झपटते देखा, तब उसके पास चले गये और अपने एक ही हाथसे उसकी सूँड़ पकडक़र उसे धरतीपर पटक दिया ॥ १३ ॥ उसके गिर जानेपर भगवान्‌ ने सिंह के समान खेल-ही-खेलमें उसे पैरोंसे दबाकर उसके दाँत उखाड़ लिये और उन्हींसे हाथी और महावतों का काम तमाम कर दिया ॥ १४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बयालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बयालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

कुब्जापर कृपा, धनुषभङ्ग और कंसकी घबड़ाहट

 

कंसस्तु धनुषो भङ्‌गं रक्षिणां स्वबलस्य च ।

वधं निशम्य गोविन्द रामविक्रीडितं परम् ॥ २६ ॥

दीर्घप्रजागरो भीतो दुर्निमित्तानि दुर्मतिः ।

बहून्यचष्टोभयथा मृत्योर्दौत्यकराणि च ॥ २७ ॥

अदर्शनं स्वशिरसः प्रतिरूपे च सत्यपि ।

असत्यपि द्वितीये च द्वैरूप्यं ज्योतिषां तथा ॥ २८ ॥

छिद्रप्रतीतिश्छायायां प्राणघोषानुपश्रुतिः ।

स्वर्णप्रतीतिर्वृक्षेषु स्वपदानामदर्शनम् ॥ २९ ॥

स्वप्ने प्रेतपरिष्वङ्‌गः खरयानं विषादनम् ।

यायान्नलदमाल्येकः तैलाभ्यक्तो दिगम्बरः ॥ ३० ॥

अन्यानि चेत्थं भूतानि स्वप्नजागरितानि च ।

पश्यन् मरणसन्त्रस्तो निद्रां लेभे न चिन्तया ॥ ३१ ॥

व्युष्टायां निशि कौरव्य सूर्ये चाद्‍भ्यः समुत्थिते ।

कारयामास वै कंसो मल्लक्रीडामहोत्सवम् ॥ ३२ ॥

आनर्चुः पुरुषा रङ्‌गं तूर्यभेर्यश्च जघ्निरे ।

मञ्चाश्चालङ्‌कृताः स्रग्भिः पताकाचैलतोरणैः ॥ ३३ ॥

तेषु पौरा जानपदा ब्रह्मक्षत्रपुरोगमाः ।

यथोपजोषं विविशू राजानश्च कृतासनाः ॥ ३४ ॥

कंसः परिवृतोऽमात्यै राजमञ्च उपाविशत् ।

मण्डलेश्वरमध्यस्थो हृदयेन विदूयता ॥ ३५ ॥

वाद्यमानेसु तूर्येषु मल्लतालोत्तरेषु च ।

मल्लाः स्वलङ्‌कृताः दृप्ताः सोपाध्यायाः समाविशन् ॥ ३६ ॥

चाणूरो मुष्टिकः कूतः शलस्तोशल एव च ।

त आसेदुरुपस्थानं वल्गुवाद्यप्रहर्षिताः ॥ ३७ ॥

नन्दगोपादयो गोपा भोजराजसमाहुताः ।

निवेदितोपायनास्ते एकस्मिन् मञ्च आविशन् ॥ ३८ ॥

 

जब कंस ने सुना कि श्रीकृष्ण और बलराम ने धनुष तोड़ डाला, रक्षकों तथा उनकी सहायता के लिये भेजी हुई सेनाका भी संहार कर डाला और यह सब उनके लिये केवल एक खिलवाड़ ही थाइसके लिये उन्हें कोई श्रम या कठिनाई नहीं उठानी पड़ी ॥ २६ ॥ तब वह बहुत ही डर गया, उस दुर्बुद्धिको बहुत देरतक नींद न आयी। उसे जाग्रत्-अवस्थामें तथा स्वप्नमें भी बहुत-से ऐसे अपशकुन हुए, जो उसकी मृत्यु के सूचक थे ॥ २७ ॥ जाग्रत्-अवस्थामें उसने देखा कि जल या दर्पणमें शरीरकी परछार्ईं तो पड़ती है, परंतु सिर नहीं दिखायी देता; अँगुली आदिकी आड़ न होनेपर भी चन्द्रमा, तारे और दीपक आदिकी ज्योतियाँ उसे दो-दो दिखायी पड़ती हैं ॥ २८ ॥ छायामें छेद दिखायी पड़ता है और कानोंमें अँगुली डालकर सुननेपर भी प्राणोंका घूँ-घूँ शब्द नहीं सुनायी पड़ता। वृक्ष सुनहले प्रतीत होते हैं और बालू या कीचड़में अपने पैरोंके चिह्न नहीं दीख पड़ते ॥ २९ ॥ कंसने स्वप्नावस्थामें देखा कि वह प्रेतोंके गले लग रहा है, गधेपर चढक़र चलता है और विष खा रहा है। उसका सारा शरीर तेलसे तर है, गलेमें जपाकुसुम (अड़हुल) की माला है और नग्न होकर कहीं जा रहा है ॥ ३० ॥ स्वप्न और जाग्रत्-अवस्थामें उसने इसी प्रकारके और भी बहुत-से अपशकुन देखे। उनके कारण उसे बड़ी चिन्ता हो गयी, वह मृत्युसे डर गया और उसे नींद न आयी ॥ ३१ ॥

 

परीक्षित्‌ ! जब रात बीत गयी और सूर्यनारायण पूर्व समुद्रसे ऊपर उठे, तब राजा कंसने मल्ल- क्रीड़ा-(दंगल-) का महोत्सव प्रारम्भ कराया ॥ ३२ ॥ राजकर्मचारियोंने रंगभूमिको भलीभाँति सजाया। तुरही, भेरी आदि बाजे बजने लगे। लोगोंके बैठनेके मञ्च फूलोंके गजरों, झंडियों, वस्त्र और बंदनवारोंसे सजा दिये गये ॥ ३३ ॥ उनपर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि नागरिक तथा ग्रामवासीसब यथास्थान बैठ गये। राजालोग भी अपने-अपने निश्चित स्थानपर जा डटे ॥ ३४ ॥ राजा कंस अपने मन्ङ्क्षत्रयोंके साथ मण्डलेश्वरों (छोटे-छोटे राजाओं) के बीचमें सबसे श्रेष्ठ राज-सिंहासनपर जा बैठा। इस समय भी अपशकुनोंके कारण उसका चित्त घबड़ाया हुआ था ॥ ३५ ॥ तब पहलवानोंके ताल ठोंकनेके साथ ही बाजे बजने लगे और गरबीले पहलवान खूब सज-धजकर अपने-अपने उस्तादोंके साथ अखाड़ेमें आ उतरे ॥ ३६ ॥ चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल आदि प्रधान-प्रधान पहलवान बाजोंकी सुमधुर ध्वनिसे उत्साहित होकर अखाड़ेमें आ-आकर बैठ गये ॥ ३७ ॥ इसी समय भोजराज कंसने नन्द आदि गोपोंको बुलवाया। उन लोगोंने आकर उसे तरह-तरहकी भेंटें दीं और फिर जाकर वे एक मञ्चपर बैठ गये ॥ ३८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे मल्लरङोपवर्णनं नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४२ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बयालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बयालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

कुब्जापर कृपा, धनुषभङ्ग और कंसकी घबड़ाहट

 

श्रीशुक उवाच -

अथ व्रजन्राजपथेन माधवः

स्त्रियं गृहीताङ्‌गविलेपभाजनाम् ।

विलोक्य कुब्जां युवतीं वराननां

पप्रच्छ यान्तीं प्रहसन् रसप्रदः ॥ १ ॥

का त्वं वरोर्वेतदु हानुलेपनं

कस्याङ्‌गने वा कथयस्व साधु नः ।

देह्यावयोरङ्‌गविलेपमुत्तमं

श्रेयः ततस्ते न चिराद् भविष्यति ॥ २ ॥

 

सैरन्ध्रि उवाच -

दास्यस्म्यहं सुन्दर कंससम्मता

त्रिवक्रनामा ह्यनुलेपकर्मणि ।

मद्‍भावितं भोजपतेरतिप्रियं

विना युवां कोऽन्यतमस्तदर्हति ॥ ३ ॥

रूपपेशलमाधुर्य हसितालापवीक्षितैः ।

धर्षितात्मा ददौ सान्द्रं उभयोरनुलेपनम् ॥ ४ ॥

ततस्तावङ्‌गरागेण स्ववर्णेतरशोभिना ।

सम्प्राप्तपरभागेन शुशुभातेऽनुरञ्जितौ ॥ ५ ॥

प्रसन्नो भगवान् कुब्जां त्रिवक्रां रुचिराननाम् ।

ऋज्वीं कर्तुं मनश्चक्रे दर्शयन् दर्शने फलम् ॥ ६ ॥

पद्‍भ्यामाक्रम्य प्रपदे द्र्यङ्‌गुल्युत्तान पाणिना ।

प्रगृह्य चिबुकेऽध्यात्मं उदनीनमदच्युतः ॥ ७ ॥

सा तदर्जुसमानाङ्‌गी बृहच्छ्रोणिपयोधरा ।

मुकुन्दस्पर्शनात् सद्यो बभूव प्रमदोत्तमा ॥ ८ ॥

ततो रूपगुणौदार्य संपन्ना प्राह केशवम् ।

उत्तरीयान् तमकृष्य स्मयन्ती जातहृच्छया ॥ ९ ॥

एहि वीर गृहं यामो न त्वां त्यक्तुमिहोत्सहे ।

त्वयोन्मथितचित्तायाः प्रसीद पुरुषर्षभ ॥ १० ॥

एवं स्त्रिया याच्यमानः कृष्णो रामस्य पश्यतः ।

मुखं वीक्ष्यानुगानां च प्रहसन् तामुवाच ह ॥ ११ ॥

एष्यामि ते गृहं सुभ्रु पुंसामाधिविकर्शनम् ।

साधितार्थोऽगृहाणां नः पान्थानां त्वं परायणम् ॥ १२ ॥

विसृज्य माध्व्या वाण्या तां व्रजन् मार्गे वणिक्पथैः ।

नानोपायनताम्बूल स्रग्गन्धैः साग्रजोऽर्चितः ॥ १३ ॥

तद्दर्शनस्मरक्षोभाद् आत्मानं नाविदन् स्त्रियः ।

विस्रस्तवासःकबर वलया लेख्यमूर्तयः ॥ १४ ॥

ततः पौरान् पृच्छमानो धनुषः स्थानमच्युतः ।

तस्मिन् प्रविष्टो ददृशे धनुरैन्द्रं इवाद्‍भुतम् ॥ १५ ॥

पुरुषैर्बहुभिर्गुप्तं अर्चितं परमर्द्धिमत् ।

वार्यमाणो नृभिः कृष्णः प्रसह्य धनुराददे ॥ १६ ॥

करेण वामेन सलीलमुद्‌धृतं

सज्यं च कृत्वा निमिषेण पश्यताम् ।

नृणां विकृष्य प्रबभञ्ज मध्यतो

यथेक्षुदण्डं मदकर्युरुक्रमः ॥ १७ ॥

धनुषो भज्यमानस्य शब्दः खं रोदसी दिशः ।

पूरयामास यं श्रुत्वा कंसस्त्रासमुपागमत् ॥ १८ ॥

तद् रक्षिणः सानुचरं कुपिता आततायिनः ।

गृहीतुकामा आवव्रुः गृह्यतां वध्यतामिति ॥ १९ ॥

अथ तान् दुरभिप्रायान् विलोक्य बलकेशवौ ।

क्रुद्धौ धन्वन आदाय शकले तांश्च जघ्नतुः ॥ २० ॥

बलं च कंसप्रहितं हत्वा शालामुखात्ततः ।

निष्क्रम्य चेरतुर्हृष्टौ निरीक्ष्य पुरसम्पदः ॥ २१ ॥

तयोस्तदद्‍भुतं वीर्यं निशाम्य पुरवासिनः ।

तेजः प्रागल्भ्यं रूपं च मेनिरे विबुधोत्तमौ ॥ २२ ॥

तयोर्विचरतोः स्वैरं आदित्योऽस्तमुपेयिवान् ।

कृष्णरामौ वृतौ गोपैः पुराच्छकटमीयतुः ॥ २३ ॥

गोप्यो मुकुन्दविगमे विरहातुरा या

आशासताशिष ऋता मधुपुर्यभूवन् ।

संपश्यतां पुरुषभूषणगात्रलक्ष्मीं

हित्वेतरान् नु भजतश्चकमेऽयनं श्रीः ॥ २४ ॥

अवनिक्ताङ्‌घ्रियुगलौ भुक्त्वा क्षीरोपसेचनम् ।

ऊषतुस्तां सुखं रात्रिं ज्ञात्वा कंसचिकीर्षितम् ॥ २५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण जब अपनी मण्डली के साथ राजमार्गसे आगे बढ़े, तब उन्होंने एक युवती स्त्रीको देखा। उसका मुँह तो सुन्दर था, परंतु वह शरीरसे कुबड़ी थी। इसीसे उसका नाम पड़ गया था कुब्जा। वह अपने हाथमें चन्दनका पात्र लिये हुए जा रही थी। भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रेमरसका दान करनेवाले हैं, उन्होंने कुब्जापर कृपा करनेके लिये हँसते हुए उससे पूछा॥ १ ॥ सुन्दरी ! तुम कौन हो ? यह चन्दन किसके लिये ले जा रही हो ? कल्याणि ! हमें सब बात सच-सच बतला दो। यह उत्तम चन्दन, यह अङ्गराग हमें भी दो। इस दानसे शीघ्र ही तुम्हारा परम कल्याण होगा॥ २ ॥

उबटन आदि लगानेवाली सैरन्ध्री कुब्जाने कहा—‘परम सुन्दर ! मैं कंसकी प्रिय दासी हूँ। महाराज मुझे बहुत मानते हैं। मेरा नाम त्रिवक्रा (कुब्जा) है। मैं उनके यहाँ चन्दन, अङ्गराग लगानेका काम करती हूँ। मेरे द्वारा तैयार किये हुए, चन्दन और अङ्गराग भोजराज कंसको बहुत भाते हैं। परंतु आप दोनोंसे बढक़र उसका और कोई उत्तम पात्र नहीं है॥ ३ ॥ भगवान्‌के सौन्दर्य, सुकुमारता, रसिकता, मन्दहास्य, प्रेमालाप और चारु चितवनसे कुब्जाका मन हाथसे निकल गया। उसने भगवान्‌ पर अपना हृदय न्योछावर कर दिया। उसने दोनों भाइयोंको वह सुन्दर और गाढ़ा अङ्गराग दे दिया ॥ ४ ॥ तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने साँवले शरीरपर पीले रंगका और बलरामजीने अपने गोरे शरीरपर लाल रंगका अङ्गराग लगाया तथा नाभिसे ऊपरके भागमें अनुरञ्जित होकर वे अत्यन्त सुशोभित हुए ॥ ५ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण उस कुब्जापर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने दर्शनका प्रत्यक्ष फल दिखलानेके लिये तीन जगहसे टेढ़ी किन्तु सुन्दर मुखवाली कुब्जाको सीधी करनेका विचार किया ॥ ६ ॥ भगवान्‌ने अपने चरणोंसे कुब्जाके पैरके दोनों पंजे दबा लिये और हाथ ऊँचा करके दो अँगुलियाँ उसकी ठोड़ीमें लगायीं तथा उसके शरीरको तनिक उचका दिया ॥ ७ ॥ उचकाते ही उसके सारे अङ्ग सीधे और समान हो गये। प्रेम और मुक्तिके दाता भगवान्‌के स्पर्शसे वह तत्काल विशाल नितम्ब तथा पीन पयोधरोंसे युक्त एक उत्तम युवती बन गयी ॥ ८ ॥ उसी क्षण कुब्जा रूप, गुण और उदारतासे सम्पन्न हो गयी। उसके मनमें भगवान्‌के मिलनकी कामना जाग उठी। उसने उनके दुपट्टेका छोर पकडक़र मुसकराते हुए कहा॥ ९ ॥ वीरशिरोमणे ! आइये, घर चलें । अब मैं आपको यहाँ नहीं छोड़ सकती। क्योंकि आपने मेरे चित्त को मथ डाला है। पुरुषोत्तम ! मुझ दासी पर प्रसन्न होइये॥ १० ॥ जब बलरामजी के सामने ही कुब्जा ने इस प्रकार प्रार्थना की, तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने साथी ग्वालबालोंके मुँहकी ओर देखकर हँसते हुए उससे कहा॥ ११ ॥ सुन्दरी ! तुम्हारा घर संसारी लोगोंके लिये अपनी मानसिक व्याधि मिटानेका साधन है। मैं अपना कार्य पूरा करके अवश्य वहाँ आऊँगा। हमारे-जैसे बेघरके बटोहियोंको तुम्हारा ही तो आसरा है॥ १२ ॥ इस प्रकार मीठी-मीठी बातें करके भगवान्‌ श्रीकृष्णने उसे विदा कर दिया। जब वे व्यापारियोंके बाजारमें पहुँचे, तब उन व्यापारियोंने उनका तथा बलरामजीका पान, फूलोंके हार, चन्दन और तरह-तरहकी भेंटउपहारोंसे पूजन किया ॥ १३ ॥ उनके दर्शनमात्रसे स्त्रियोंके हृदयमें प्रेमका आवेग, मिलनकी आकाङ्क्षा जग उठती थी। यहाँतक कि उन्हें अपने शरीरकी भी सुध न रहती। उनके वस्त्र, जूड़े और कंगन ढीले पड़ जाते थे तथा वे चित्रलिखित मूर्तियोंके समान ज्यों-की-त्यों खड़ी रह जाती थीं ॥ १४ ॥

इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण पुरवासियोंसे धनुषयज्ञका स्थान पूछते हुए रंगशालामें पहुँचे और वहाँ उन्होंने इन्द्रधनुषके समान एक अद्भुत धनुष देखा ॥ १५ ॥ उस धनुषमें बहुत-सा धन लगाया गया था, अनेक बहुमूल्य अलंकारोंसे उसे सजाया गया था। उसकी खूब पूजा की गयी थी और बहुत-से सैनिक उसकी रक्षा कर रहे थे। भगवान्‌ श्रीकृष्णने रक्षकोंके रोकनेपर भी उस धनुषको बलात् उठा लिया ॥ १६ ॥ उन्होंने सबके देखते-देखते उस धनुषको बायें हाथसे उठाया, उसपर डोरी चढ़ायी और एक क्षणमें खींचकर बीचो-बीचसे उसी प्रकार उसके दो टुकड़े कर डाले, जैसे बहुत बलवान् मतवाला हाथी खेल-ही-खेलमें ईखको तोड़ डालता है ॥ १७ ॥ जब धनुष टूटा तब उसके शब्दसे आकाश, पृथ्वी और दिशाएँ भर गयीं; उसे सुनकर कंस भी भयभीत हो गया ॥ १८ ॥ अब धनुषके रक्षक आततायी असुर अपने सहायकोंके साथ बहुत ही बिगड़े। वे भगवान्‌ श्रीकृष्णको घेरकर खड़े हो गये और उन्हें पकड़ लेनेकी इच्छासे चिल्लाने लगे—‘पकड़ लो, बाँध लो, जाने न पावे॥ १९ ॥ उनका दुष्ट अभिप्राय जानकर बलरामजी और श्रीकृष्ण भी तनिक क्रोधित हो गये और उस धनुषके टुकड़ोंको उठाकर उन्हींसे उनका काम तमाम कर दिया ॥ २० ॥ उन्हीं धनुषखण्डोंसे उन्होंने उन असुरोंकी सहायताके लिये कंसकी भेजी हुई सेनाका भी संहार कर डाला। इसके बाद वे यज्ञशालाके प्रधान द्वारसे होकर बाहर निकल आये और बड़े आनन्दसे मथुरापुरीकी शोभा देखते हुए विचरने लगे ॥ २१ ॥ जब नगरनिवासियोंने दोनों भाइयोंके इस अद्भुत पराक्रमकी बात सुनी और उनके तेज, साहस तथा अनुपम रूपको देखा तब उन्होंने यही निश्चय किया कि हो-न-हो ये दोनों कोई श्रेष्ठ देवता हैं ॥ २२ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी पूरी स्वतन्त्रतासे मथुरापुरीमें विचरण करने लगे। जब सूर्यास्त हो गया तब दोनों भाई ग्वालबालोंसे घिरे हुए नगरसे बाहर अपने डेरेपर, जहाँ छकड़े थे, लौट आये ॥ २३ ॥ तीनों लोकोंके बड़े-बड़े देवता चाहते थे कि लक्ष्मी हमें मिलें, परंतु उन्होंने सबका परित्याग कर दिया और न चाहनेवाले भगवान्‌का वरण किया। उन्हींको सदाके लिये अपना निवासस्थान बना लिया। मथुरावासी उन्हीं पुरुषभूषण भगवान्‌ श्रीकृष्णके अङ्ग-अङ्गका सौन्दर्य देख रहे हैं। उनका कितना सौभाग्य है ! व्रजमें भगवान्‌की यात्राके समय गोपियोंने विरहातुर होकर मथुरावासियोंके सम्बन्धमें जो-जो बातें कही थीं, वे सब यहाँ अक्षरश: सत्य हुर्ईं। सचमुच वे परमानन्दमें मग्न हो गये ॥ २४ ॥ फिर हाथ-पैर धोकर श्रीकृष्ण और बलरामजीने दूधमें बने हुए खीर आदि पदार्थोंका भोजन किया और कंस आगे क्या करना चाहता है, इस बातका पता लगाकर उस रातको वहीं आरामसे सो गये ॥ २५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




गुरुवार, 13 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

श्रीकृष्णका मथुराजी में प्रवेश

 

ततः सुदाम्नो भवनं मालाकारस्य जग्मतुः ।

तौ दृष्ट्वा स समुत्थाय ननाम शिरसा भुवि ॥ ४३ ॥

तयोरासनमानीय पाद्यं चार्घ्यार्हणादिभिः ।

पूजां सानुगयोश्चक्रे स्रक्‌ताम्बूलानुलेपनैः ॥ ४४ ॥

प्राह नः सार्थकं जन्म पावितं च कुलं प्रभो ।

पितृदेवर्षयो मह्यं तुष्टा ह्यागमनेन वाम् ॥ ४५ ॥

भवन्तौ किल विश्वस्य जगतः कारणं परम् ।

अवतीर्णाविहांशेन क्षेमाय च भवाय च ॥ ४६ ॥

न हि वां विषमा दृष्टिः सुहृदोर्जगदात्मनोः ।

समयोः सर्वभूतेषु भजन्तं भजतोरपि ॥ ४७ ॥

तावज्ञापयतं भृत्यं किमहं करवाणि वाम् ।

पुंसोऽत्यनुग्रहो ह्येष भवद्‌भिः यन्नियुज्यते ॥ ४८ ॥

इत्यभिप्रेत्य राजेन्द्र सुदामा प्रीतमानसः ।

शस्तैः सुगन्धैः कुसुमैं माला विरचिता ददौ ॥ ४९ ॥

ताभिः स्वलङ्‌कृतौ प्रीतौ कृष्णरामौ सहानुगौ ।

प्रणताय प्रपन्नाय ददतुर्वरदौ वरान् ॥ ५० ॥

सोऽपि वव्रेऽचलां भक्तिं तस्मिन् एवाखिलात्मनि ।

तद्‍भक्तेषु च सौहार्दं भूतेषु च दयां पराम् ॥ ५१ ॥

इति तस्मै वरं दत्त्वा श्रियं चान्वयवर्धिनीम् ।

बलमायुर्यशः कान्तिं निर्जगाम सहाग्रजः ॥ ५२ ॥

 

इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण सुदामा मालीके घर गये। दोनों भाइयोंको देखते ही सुदामा उठ खड़ा हुआ और पृथ्वीपर सिर रखकर उन्हें प्रणाम किया ॥ ४३ ॥ फिर उनको आसनपर बैठाकर उनके पाँव पखारे, हाथ धुलाए और तदनन्तर ग्वालबालोंके सहित सबकी फूलोंके हार, पान, चन्दन आदि सामग्रियों से विधिपूर्वक पूजा की ॥ ४४ ॥ इसके पश्चात् उसने प्रार्थना की—‘प्रभो ! आप दोनोंके शुभागमनसे हमारा जन्म सफल हो गया। हमारा कुल पवित्र हो गया। आज हम पितर, ऋषि और देवताओंके ऋणसे मुक्त हो गये। वे हमपर परम सन्तुष्ट हैं ॥ ४५ ॥ आप दोनों सम्पूर्ण जगत्के परम कारण हैं। आप संसारके अभ्युदय-उन्नति और नि:श्रेयसमोक्षके लिये ही इस पृथ्वीपर अपने ज्ञान, बल आदि अंशोंके साथ अवतीर्ण हुए हैं ॥ ४६ ॥ यद्यपि आप प्रेम करनेवालोंसे ही प्रेम करते हैं, भजन करनेवालोंको ही भजते हैंफिर भी आपकी दृष्टिमें विषमता नहीं है। क्योंकि आप सारे जगत्के परम सुहृद् और आत्मा हैं। आप समस्त प्राणियों और पदार्थोंमें समरूपसे स्थित हैं ॥ ४७ ॥ मैं आपका दास हूँ। आप दोनों मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं आपलोगोंकी क्या सेवा करूँ। भगवन् ! जीवपर आपका यह बहुत बड़ा अनुग्रह है, पूर्ण कृपा-प्रसाद है कि आप उसे आज्ञा देकर किसी कार्यमें नियुक्त करते हैं ॥ ४८ ॥ राजेन्द्र ! सुदामा मालीने इस प्रकार प्रार्थना करनेके बाद भगवान्‌का अभिप्राय जानकर बड़े प्रेम और आनन्दसे भरकर अत्यन्त सुन्दर-सुन्दर तथा सुगन्धित पुष्पोंसे गुँथे हुए हार उन्हें पहनाये ॥ ४९ ॥ जब ग्वालबाल और बलरामजीके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्ण उन सुन्दर-सुन्दर मालाओंसे अलंकृत हो चुके, तब उन वरदायक प्रभुने प्रसन्न होकर विनीत और शरणागत सुदामाको श्रेष्ठ वर दिये ॥ ५० ॥ सुदामा मालीने उनसे यह वर माँगा कि प्रभो ! आप ही समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं। सर्वस्वरूप आपके चरणोंमें मेरी अविचल भक्ति हो। आपके भक्तोंसे मेरा सौहार्द, मैत्रीका सम्बन्ध हो और समस्त प्राणियोंके प्रति अहैतुक दयाका भाव बना रहे॥ ५१ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने सुदामाको उसके माँगे हुए वर तो दिये हीऐसी लक्ष्मी भी दी, जो वंशपरम्पराके साथ-साथ बढ़ती जाय; और साथ ही बल, आयु, कीर्ति तथा कान्तिका भी वरदान दिया। इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ वहाँसे विदा हुए ॥ ५२ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे पुरप्रवेशो नाम एकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...