रविवार, 16 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौवालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौवालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानों का तथा कंस का उद्धार

 

श्रीशुक उवाच -

एवं चर्चितसङ्‌कल्पो भगवान् मधुसूदनः ।

आससादाथ चणूरं मुष्टिकं रोहिणीसुतः ॥ १ ॥

हस्ताभ्यां हस्तयोर्बद्ध्वा पद्‍भ्यामेव च पादयोः ।

विचकर्षतुरन्योन्यं प्रसह्य विजिगीषया ॥ २ ॥

अरत्‍नी द्वे अरत्‍निभ्यां जानुभ्यां चैव जानुनी ।

शिरः शीर्ष्णोरसोरस्तौ अन्योन्यं अभिजघ्नतुः ॥ ३ ॥

परिभ्रामणविक्षेप परिरम्भावपातनैः ।

उत्सर्पणापसर्पणैः चान्योन्यं प्रत्यरुन्धताम् ॥ ४ ॥

उत्थापनैरुन्नयनैः चालनैः स्थापनैरपि ।

परस्परं जिगीषन्तौ अपचक्रतुरात्मनः ॥ ५ ॥

तद्‍बलाबलवद् युद्धं समेताः सर्वयोषितः ।

ऊचुः परस्परं राजन् सानुकम्पा वरूथशः ॥ ६ ॥

महानयं बताधर्म एषां राजसभासदाम् ।

ये बलाबलवद् युद्धं राज्ञोऽन्विच्छन्ति पश्यतः ॥ ७ ॥

क्व वज्रसारसर्वाङ्‌गौ मल्लौ शैलेन्द्रसन्निभौ ।

क्व चातिसुकुमाराङ्‌गौ किशोरौ नाप्तयौवनौ ॥ ८ ॥

धर्मव्यतिक्रमो ह्यस्य समाजस्य ध्रुवं भवेत् ।

यत्राधर्मः समुत्तिष्ठेत् न स्थेयं तत्र कर्हिचित् ॥ ९ ॥

न सभां प्रविशेत् प्राज्ञः सभ्यदोषान् अनुस्मरन् ।

अब्रुवन् विब्रुवन्नज्ञो नरः किल्बिषमश्नुते ॥ १० ॥

वल्गतः शत्रुमभितः कृष्णस्य वदनाम्बुजम् ।

वीक्ष्यतां श्रमवार्युप्तं पद्मकोशमिवाम्बुभिः ॥ ११ ॥

किं न पश्यत रामस्य मुखमाताम्रलोचनम् ।

मुष्टिकं प्रति सामर्षं हाससंरम्भशोभितम् ॥ १२ ॥

पुण्या बत व्रजभुवो यदयं नृलिङ्‌ग

गूढः पुराणपुरुषो वनचित्रमाल्यः ।

गाः पालयन्सहबलः क्वणयंश्च वेणुं

विक्रीदयाञ्चति गिरित्ररमार्चिताङ्‌घ्रिः ॥ १३ ॥

गोप्यस्तपः किमचरन् यदमुष्य रूपं

लावण्यसारमसमोर्ध्वमनन्यसिद्धम् ।

दृग्भिः पिबन्त्यनुसवाभिनवं दुरापम्

एकान्तधाम यशसः श्रीय ऐश्वरस्य ॥ १४ ॥

या दोहनेऽवहनने मथनोपलेप

प्रेङ्‌खेङ्‌खनार्भरुदितो-क्षणमार्जनादौ ।

गायन्ति चैनमनुरक्तधियोऽश्रुकण्ठ्यो

धन्या व्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्तयानाः ॥ १५ ॥

प्रातर्व्रजाद् व्रजत आविशतश्च सायं

गोभिः समं क्वणयतोऽस्य निशम्य वेणुम् ।

निर्गम्य तूर्णमबलाः पथि भूरिपुण्याः

पश्यन्ति सस्मितमुखं सदयावलोकम् ॥ १६ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने चाणूर आदिके वधका निश्चित संकल्प कर लिया। जोड़ बद दिये जानेपर श्रीकृष्ण चाणूरसे और बलरामजी मुष्टिक से जा भिड़े ॥ १ ॥ वे लोग एक-दूसरेको जीत लेनेकी इच्छासे हाथसे हाथ बाँधकर और पैरोंमें पैर अड़ाकर बलपूर्वक अपनी-अपनी ओर खींचने लगे ॥ २ ॥ वे पंजोंसे पंजे, घुटनोंसे घुटने, माथेसे माथा और छातीसे छाती भिड़ाकर एक-दूसरेपर चोट करने लगे ॥ ३ ॥ इस प्रकार दाँव-पेंच करते-करते अपने-अपने जोड़ीदारको पकडक़र इधर-उधर घुमाते, दूर ढकेल देते, जोरसे जकड़ लेते, लिपट जाते, उठाकर पटक देते, छूटकर निकल भागते और कभी छोडक़र पीछे हट जाते थे। इस प्रकार एक-दूसरेको रोकते, प्रहार करते और अपने जोड़ीदारको पछाड़ देनेकी चेष्टा करते। कभी कोई नीचे गिर जाता, तो दूसरा उसे घुटनों और पैरोंमें दबाकर उठा लेता। हाथोंसे पकडक़र ऊपर ले जाता। गलेमें लिपट जानेपर ढकेल देता और आवश्यकता होनेपर हाथ-पाँव इकट्ठेकरके गाँठ बाँध देता ॥ ४-५ ॥

 

परीक्षित्‌ ! इस दंगलको देखनेके लिये नगरकी बहुत-सी महिलाएँ भी आयी हुई थीं। उन्होंने जब देखा कि बड़े-बड़े पहलवानोंके साथ ये छोटे-छोटे बलहीन बालक लड़ाये जा रहे हैं, तब वे अलग-अलग टोलियाँ बनाकर करुणावश आपसमें बातचीत करने लगीं॥ ६ ॥ यहाँ राजा कंसके सभासद् बड़ा अन्याय और अधर्म कर रहे हैं। कितने खेदकी बात है कि राजाके सामने ही ये बली पहलवानों और निर्बल बालकोंके युद्धका अनुमोदन करते हैं ॥ ७ ॥ बहिन ! देखो, इन पहलवानोंका एक-एक अङ्ग वज्रके समान कठोर है। ये देखनेमें बड़े भारी पर्वत-से मालूम होते हैं। परंतु श्रीकृष्ण और बलराम अभी जवान भी नहीं हुए हैं। इनकी किशोरावस्था है। इनका एक- एक अङ्ग अत्यन्त सुकुमार है। कहाँ ये और कहाँ वे ? ॥ ८ ॥ जितने लोग यहाँ इकट्ठेहुए हैं, देख रहे हैं, उन्हें अवश्य-अवश्य धर्मोल्लङ्घनका पाप लगेगा। सखी ! अब हमें भी यहाँसे चल देना चाहिये। जहाँ अधर्मकी प्रधानता हो, वहाँ कभी न रहे; यही शास्त्रका नियम है ॥ ९ ॥ देखो, शास्त्र कहता है कि बुद्धिमान् पुरुषको सभासदोंके दोषोंको जानते हुए, सभामें जाना ठीक नहीं है। क्योंकि वहाँ जाकर उन अवगुणोंको कहना, चुप रह जाना अथवा मैं नहीं जानता ऐसा कह देनाये तीनों ही बातें मनुष्यको दोषभागी बनाती हैं ॥ १० ॥ देखो, देखो, श्रीकृष्ण शत्रुके चारों ओर पैंतरा बदल रहे हैं। उनके मुखपर पसीनेकी बूँदें ठीक वैसे ही शोभा दे रही हैं, जैसे कमलकोशपर जलकी बूँदें ॥ ११ ॥ सखियो ! क्या तुम नहीं देख रही हो कि बलरामजीका मुख मुष्टिकके प्रति क्रोधके कारण कुछ-कुछ लाल लोचनोंसे युक्त हो रहा है ! फिर भी हास्यका अनिरुद्ध आवेग कितना सुन्दर लग रहा है ॥ १२ ॥ सखी ! सच पूछो तो व्रजभूमि ही परम पवित्र और धन्य है। क्योंकि वहाँ ये पुरुषोत्तम मनुष्यके वेषमें छिपकर रहते हैं। स्वयं भगवान्‌ शङ्कर और लक्ष्मीजी जिनके चरणोंकी पूजा करती हैं, वे ही प्रभु वहाँ रंग-बिरंगे जंगली पुष्पोंकी माला धारण कर लेते हैं तथा बलरामजीके साथ बाँसुरी बजाते, गौएँ चराते और तरह-तरहके खेल खेलते हुए आनन्दसे विचरते हैं ॥ १३ ॥ सखी ! पता नहीं, गोपियोंने कौन-सी तपस्या की थी, जो नेत्रोंके दोनोंसे नित्य-निरन्तर इनकी रूप- माधुरीका पान करती रहती हैं। इनका रूप क्या है, लावण्यका सार ! संसारमें या उससे परे किसीका भी रूप इनके रूपके समान नहीं है, फिर बढक़र होनेकी तो बात ही क्या है ! सो भी किसीके सँवारने-सजानेसे नहीं, गहने-कपड़ेसे भी नहीं, बल्कि स्वयंसिद्ध है। इस रूपको देखते- देखते तृप्ति भी नहीं होती। क्योंकि यह प्रतिक्षण नया होता जाता है, नित्य नूतन है। समग्र यश, सौन्दर्य और ऐश्वर्य इसीके आश्रित हैं। सखियो ! परंतु इसका दर्शन तो औरोंके लिये बड़ा ही दुर्लभ है। वह तो गोपियोंके ही भाग्यमें बदा है ॥ १४ ॥ सखी ! व्रजकी गोपियाँ धन्य हैं। निरन्तर श्रीकृष्णमें ही चित्त लगा रहनेके कारण प्रेमभरे हृदयसे, आँसुओंके कारण गद्गद कण्ठसे वे इन्हींकी लीलाओंका गान करती रहती हैं। वे दूध दुहते, दही मथते, धान कूटते, घर लीपते, बालकोंको झूला झुलाते, रोते हुए बालकोंको चुप कराते, उन्हें नहलाते-धुलाते, घरोंको झाड़ते- बुहारतेकहाँतक कहें, सारे काम-काज करते समय श्रीकृष्णके गुणोंके गानमें ही मस्त रहती हैं ॥ १५ ॥ ये श्रीकृष्ण जब प्रात:काल गौओंको चरानेके लिये व्रजसे वनमें जाते हैं और सायंकाल उन्हें लेकर व्रजमें लौटते हैं, तब बड़े मधुर स्वरसे बाँसुरी बजाते हैं। उसकी टेर सुनकर गोपियाँ घरका सारा कामकाज छोडक़र झटपट रास्तेमें दौड़ आती हैं और श्रीकृष्णका मन्द-मन्द मुसकान एवं दयाभरी चितवनसे युक्त मुखकमल निहार-निहारकर निहाल होती हैं। सचमुच गोपियाँ ही परम पुण्यवती हैं॥ १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

कुवलयापीड का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश

 

जनेष्वेवं ब्रुवाणेषु तूर्येषु निनदत्सु च ।

कृष्णरामौ समाभाष्य चाणूरो वाक्यमब्रवीत् ॥ ३१ ॥

हे नन्दसूनो हे राम भवन्तौ वीरसंमतौ ।

नियुद्धकुशलौ श्रुत्वा राज्ञाऽऽहूतौ दिदृक्षुणा ॥ ३२ ॥

प्रियं राज्ञः प्रकुर्वत्यः श्रेयो विन्दन्ति वै प्रजाः ।

मनसा कर्मणा वाचा विपरीत मतोऽन्यथा ॥ ३३ ॥

नित्यं प्रमुदिता गोपा वत्सपाला यथा स्फुटम् ।

वनेषु मल्लयुद्धेन क्रीडन्तश्चारयन्ति गाः ॥ ३४ ॥

तस्माद् राज्ञः प्रियं यूयं वयं च करवाम हे ।

भूतानि नः प्रसीदन्ति सर्वभूतमयो नृपः ॥ ३५ ॥

तन्निशम्याब्रवीत् कृष्णो देशकालोचितं वचः ।

नियुद्धमात्मनोऽभीष्टं मन्यमानोऽभिनन्द्य च ॥ ३६ ॥

प्रजा भोजपतेरस्य वयं चापि वनेचराः ।

करवाम प्रियं नित्यं तन्नः परमनुग्रहः ॥ ३७ ॥

बाला वयं तुल्यबलैः क्रीडिष्यामो यथोचितम् ।

भवेन्नियुद्धं माधर्मः स्पृशेन्मल्ल सभासदः ॥ ३८ ॥

 

चाणूर उवाच -

न बालो न किशोरस्त्वं बलश्च बलिनां वरः ।

लीलयेभो हतो येन सहस्रद्विपसत्त्वभृत् ॥ ३९ ॥

तस्माद् भवद्‍भ्यां बलिभिः योद्धव्यं नानयोऽत्र वै ।

मयि विक्रम वार्ष्णेय बलेन सह मुष्टिकः ॥ ४० ॥

 

जिस समय दर्शकों मे यह चर्चा हो रही थी और अखाडे मे तुरही अदि बजे बज रहे समय चाणूर ने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामको सम्बोधन करके यह बात कही॥ ३१ ॥ नन्दनन्दन श्रीकृष्ण और बलरामजी ! तुम दोनों वीरोंके आदरणीय हो। हमारे महाराजने यह सुनकर कि तुमलोग कुश्ती लडऩेमें बड़े निपुण हो, तुम्हारा कौशल देखनेके लिये तुम्हें यहाँ बुलवाया है ॥ ३२ ॥ देखो भाई ! जो प्रजा मन, वचन और कर्मसे राजाका प्रिय कार्य करती है, उसका भला होता है और जो राजाकी इच्छाके विपरीत काम करती है, उसे हानि उठानी पड़ती है ॥ ३३ ॥ यह सभी जानते हैं कि गाय और बछड़े चरानेवाले ग्वालिये प्रतिदिन आनन्दसे जंगलोंमें कुश्ती लड़- लडक़र खेलते रहते हैं और गायें चराते रहते हैं ॥ ३४ ॥ इसलिये आओ, हम और तुम मिलकर महाराजाको प्रसन्न करनेके लिये कुश्ती लड़ें। ऐसा करनेसे हमपर सभी प्राणी प्रसन्न होंगे, क्योंकि राजा सारी प्रजाका प्रतीक है॥ ३५ ॥

 

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण तो चाहते ही थे कि इनसे दो-दो हाथ करें। इसलिये उन्होंने चाणूरकी बात सुनकर उसका अनुमोदन किया और देश-कालके अनुसार यह बात कही॥ ३६ ॥ चाणूर ! हम भी इन भोजराज कंसकी वनवासी प्रजा हैं। हमें इनको प्रसन्न करनेका प्रयत्न अवश्य करना चाहिये। इसीमें हमारा कल्याण है ॥ ३७ ॥ किन्तु चाणूर ! हमलोग अभी बालक हैं। इसलिये हम अपने समान बलवाले बालकोंके साथ ही कुश्ती लडऩेका खेल करेंगे। कुश्ती समान बलवालोंके साथ ही होनी चाहिये, जिससे देखनेवाले सभासदोंको अन्यायके समर्थक होनेका पाप न लगे॥ ३८ ॥

 

चाणूरने कहाअजी ! तुम और बलराम न बालक हो और न तो किशोर। तुम दोनों बलवानोंमें श्रेष्ठ हो, तुमने अभी-अभी हजार हाथियोंका बल रखनेवाले कुवलयापीडक़ो खेल-ही-खेलमें मार डाला ॥ ३९ ॥ इसलिये तुम दोनोंको हम-जैसे बलवानोंके साथ ही लडऩा चाहिये। इसमें अन्याय की कोई बात नहीं है। इसलिये श्रीकृष्ण ! तुम मुझपर अपना जोर आजमाओ और बलराम के साथ मुष्टिक लड़ेगा ॥ ४० ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कुवलयापीडवधो नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

कुवलयापीड का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश

 

जनेष्वेवं ब्रुवाणेषु तूर्येषु निनदत्सु च ।

कृष्णरामौ समाभाष्य चाणूरो वाक्यमब्रवीत् ॥ ३१ ॥

हे नन्दसूनो हे राम भवन्तौ वीरसंमतौ ।

नियुद्धकुशलौ श्रुत्वा राज्ञाऽऽहूतौ दिदृक्षुणा ॥ ३२ ॥

प्रियं राज्ञः प्रकुर्वत्यः श्रेयो विन्दन्ति वै प्रजाः ।

मनसा कर्मणा वाचा विपरीत मतोऽन्यथा ॥ ३३ ॥

नित्यं प्रमुदिता गोपा वत्सपाला यथा स्फुटम् ।

वनेषु मल्लयुद्धेन क्रीडन्तश्चारयन्ति गाः ॥ ३४ ॥

तस्माद् राज्ञः प्रियं यूयं वयं च करवाम हे ।

भूतानि नः प्रसीदन्ति सर्वभूतमयो नृपः ॥ ३५ ॥

तन्निशम्याब्रवीत् कृष्णो देशकालोचितं वचः ।

नियुद्धमात्मनोऽभीष्टं मन्यमानोऽभिनन्द्य च ॥ ३६ ॥

प्रजा भोजपतेरस्य वयं चापि वनेचराः ।

करवाम प्रियं नित्यं तन्नः परमनुग्रहः ॥ ३७ ॥

बाला वयं तुल्यबलैः क्रीडिष्यामो यथोचितम् ।

भवेन्नियुद्धं माधर्मः स्पृशेन्मल्ल सभासदः ॥ ३८ ॥

 

चाणूर उवाच -

न बालो न किशोरस्त्वं बलश्च बलिनां वरः ।

लीलयेभो हतो येन सहस्रद्विपसत्त्वभृत् ॥ ३९ ॥

तस्माद् भवद्‍भ्यां बलिभिः योद्धव्यं नानयोऽत्र वै ।

मयि विक्रम वार्ष्णेय बलेन सह मुष्टिकः ॥ ४० ॥

 

जिस समय दर्शकों मे यह चर्चा हो रही थी और अखाडे मे तुरही अदि बजे बज रहे समय चाणूर ने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामको सम्बोधन करके यह बात कही॥ ३१ ॥ नन्दनन्दन श्रीकृष्ण और बलरामजी ! तुम दोनों वीरोंके आदरणीय हो। हमारे महाराजने यह सुनकर कि तुमलोग कुश्ती लडऩेमें बड़े निपुण हो, तुम्हारा कौशल देखनेके लिये तुम्हें यहाँ बुलवाया है ॥ ३२ ॥ देखो भाई ! जो प्रजा मन, वचन और कर्मसे राजाका प्रिय कार्य करती है, उसका भला होता है और जो राजाकी इच्छाके विपरीत काम करती है, उसे हानि उठानी पड़ती है ॥ ३३ ॥ यह सभी जानते हैं कि गाय और बछड़े चरानेवाले ग्वालिये प्रतिदिन आनन्दसे जंगलोंमें कुश्ती लड़- लडक़र खेलते रहते हैं और गायें चराते रहते हैं ॥ ३४ ॥ इसलिये आओ, हम और तुम मिलकर महाराजाको प्रसन्न करनेके लिये कुश्ती लड़ें। ऐसा करनेसे हमपर सभी प्राणी प्रसन्न होंगे, क्योंकि राजा सारी प्रजाका प्रतीक है॥ ३५ ॥

 

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण तो चाहते ही थे कि इनसे दो-दो हाथ करें। इसलिये उन्होंने चाणूरकी बात सुनकर उसका अनुमोदन किया और देश-कालके अनुसार यह बात कही॥ ३६ ॥ चाणूर ! हम भी इन भोजराज कंसकी वनवासी प्रजा हैं। हमें इनको प्रसन्न करनेका प्रयत्न अवश्य करना चाहिये। इसीमें हमारा कल्याण है ॥ ३७ ॥ किन्तु चाणूर ! हमलोग अभी बालक हैं। इसलिये हम अपने समान बलवाले बालकोंके साथ ही कुश्ती लडऩेका खेल करेंगे। कुश्ती समान बलवालोंके साथ ही होनी चाहिये, जिससे देखनेवाले सभासदोंको अन्यायके समर्थक होनेका पाप न लगे॥ ३८ ॥

 

चाणूरने कहाअजी ! तुम और बलराम न बालक हो और न तो किशोर। तुम दोनों बलवानोंमें श्रेष्ठ हो, तुमने अभी-अभी हजार हाथियोंका बल रखनेवाले कुवलयापीडक़ो खेल-ही-खेलमें मार डाला ॥ ३९ ॥ इसलिये तुम दोनोंको हम-जैसे बलवानोंके साथ ही लडऩा चाहिये। इसमें अन्याय की कोई बात नहीं है। इसलिये श्रीकृष्ण ! तुम मुझपर अपना जोर आजमाओ और बलराम के साथ मुष्टिक लड़ेगा ॥ ४० ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कुवलयापीडवधो नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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शनिवार, 15 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

कुवलयापीड का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश

 

अंसन्यस्तविषाणोऽसृङ्‌ मदबिन्दुभिरङ्‌कितः ।

विरूढस्वेदकणिका वदनाम्बुरुहो बभौ ॥ १५ ॥

वृतौ गोपैः कतिपयैः बलदेवजनार्दनौ ।

रङ्‌गं विविशतू राजन् गजदन्तवरायुधौ ॥ १६ ॥

मल्लानामशनिर्नृणां नरवरः

स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान् ।

गोपानां स्वजनोऽसतां क्षितिभुजां

शास्ता स्वपित्रोः शिशुः ।

मृत्युर्भोजपतेर्विराडविदुषां

तत्त्वं परं योगिनां ।

वृष्णीनां परदेवतेति विदितो

रङ्‌गं गतः साग्रजः ॥ १७ ॥

हतं कुवलयापीडं दृष्ट्वा तावपि दुर्जयौ ।

कंसो मनस्व्यपि तदा भृशमुद्विविजे नृप ॥ १८ ॥

तौ रेजतू रङ्‌गगतौ महाभुजौ

विचित्रवेषाभरणस्रगम्बरौ ।

यथा नटावुत्तमवेषधारिणौ

मनः क्षिपन्तौ प्रभया निरीक्षताम् ॥ १९ ॥

निरीक्ष्य तावुत्तमपूरुषौ जना

मञ्चस्थिता नागरराष्ट्रका नृप ।

प्रहर्षवेगोत्कलितेक्षणाननाः

पपुर्न तृप्ता नयनैस्तदाननम् ॥ २० ॥

पिबन्त इव चक्षुर्भ्यां लिहन्त इव जिह्वया ।

जिघ्रन्त इव नासाभ्यां श्लिष्यन्त इव बाहुभिः ॥ २१ ॥

ऊचुः परस्परं ते वै यथादृष्टं यथाश्रुतम् ।

तद् रूपगुणमाधुर्य प्रागल्भ्यस्मारिता इव ॥ २२ ॥

एतौ भगवतः साक्षात् हरेर्नारायणस्य हि ।

अवतीर्णाविहांशेन वसुदेवस्य वेश्मनि ॥ २३ ॥

एष वै किल देवक्यां जातो नीतश्च गोकुलम् ।

कालमेतं वसन् गूढो ववृधे नन्दवेश्मनि ॥ २४ ॥

पूतनानेन नीतान्तं चक्रवातश्च दानवः ।

अर्जुनौ गुह्यकः केशी धेनुकोऽन्ये च तद्विधाः ॥ २५ ॥

गावः सपाला एतेन दावाग्नेः परिमोचिताः ।

कालियो दमितः सर्प इन्द्रश्च विमदः कृतः ॥ २६ ॥

सप्ताहमेकहस्तेन धृतोऽद्रिप्रवरोऽमुना ।

वर्षवाताशनिभ्यश्च परित्रातं च गोकुलम् ॥ २७ ॥

गोप्योऽस्य नित्यमुदित हसितप्रेक्षणं मुखम् ।

पश्यन्त्यो विविधांस्तापान् तरन्ति स्माश्रमं मुदा ॥ २८ ॥

वदन्त्यनेन वंशोऽयं यदोः सुबहुविश्रुतः ।

श्रियं यशो महत्वं च लप्स्यते परिरक्षितः ॥ २९ ॥

अयं चास्याग्रजः श्रीमान् रामः कमललोचनः ।

प्रलम्बो निहतो येन वत्सको ये बकादयः ॥ ३० ॥

 

परीक्षित्‌ ! मरे हुए हाथीको छोडक़र भगवान्‌ श्रीकृष्णने हाथमें उसके दाँत लिये-लिये ही रंगभूमिमें प्रवेश किया। उस समय उनकी शोभा देखने ही योग्य थी। उनके कंधेपर हाथीका दाँत रखा हुआ था, शरीर रक्त और मदकी बूँदोंसे सुशोभित था और मुखकमलपर पसीनेकी बूँदें झलक रही थीं ॥ १५ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलराम दोनोंके ही हाथोंमें कुवलयापीडक़े बड़े-बड़े दाँत शस्त्रके रूपमें सुशोभित हो रहे थे और कुछ ग्वालबाल उनके साथ-साथ चल रहे थे। इस प्रकार उन्होंने रंगभूमिमें प्रवेश किया ॥ १६ ॥ जिस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ रंगभूमिमें पधारे, उस समय वे पहलवानोंको वज्रकठोर शरीर, साधारण मनुष्योंको नर-रत्न, स्त्रियोंको मूर्तिमान् कामदेव, गोपोंको स्वजन, दुष्ट राजाओंको दण्ड देनेवाले शासक, माता-पिताके समान बड़े-बूढ़ोंको शिशु, कंसको मृत्यु, अज्ञानियोंको विराट्, योगियोंको परम तत्त्व और भक्तशिरोमणि वृष्णिवंशियोंको अपने इष्टदेव जान पड़े (सबने अपने-अपने भावानुरूप क्रमश: रौद्र, अद्भुत, सृंगार, हास्य, वीर, वात्सल्य, भयानक, बीभत्स, शान्त और प्रेमभक्तिरसका अनुभव किया) ॥ १७ ॥ राजन् ! वैसे तो कंस बड़ा धीर-वीर था; फिर भी जब उसने देखा कि इन दोनोंने कुवलयापीडक़ो मार डाला, तब उसकी समझमें यह बात आयी कि इनको जीतना तो बहुत कठिन है। उस समय वह बहुत घबड़ा गया ॥ १८ ॥ श्रीकृष्ण और बलरामकी बाँहें बड़ी लंबी-लंबी थीं। पुष्पोंके हार, वस्त्र और आभूषण आदिसे उनका वेष विचित्र हो रहा था; ऐसा जान पड़ता था, मानो उत्तम वेष धारण करके दो नट अभिनय करनेके लिये आये हों। जिनके नेत्र एक बार उनपर पड़ जाते, बस, लग ही जाते। यही नहीं, वे अपनी कान्तिसे उनका मन भी चुरा लेते। इस प्रकार दोनों रंगभूमिमें शोभायमान हुए ॥ १९ ॥ परीक्षित्‌ ! मञ्चोंपर जितने लोग बैठे थेवे मथुराके नागरिक और राष्ट्रके जन-समुदाय पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीको देखकर इतने प्रसन्न हुए कि उनके नेत्र और मुखकमल खिल उठे, उत्कण्ठासे भर गये। वे नेत्रोंके द्वारा उनकी मुखमाधुरीका पान करते-करते तृप्त ही नहीं होते थे ॥ २० ॥ मानो वे उन्हें नेत्रोंसे पी रहे हों, जिह्वा से चाट रहे हों, नासिकासे सूँघ रहे हों और भुजाओंसे पकडक़र हृदयसे सटा रहे हों ॥ २१ ॥ उनके सौन्दर्य, गुण, माधुर्य और निर्भयताने मानो दर्शकोंको उनकी लीलाओंका स्मरण करा दिया और वे लोग आपसमें उनके सम्बन्धकी देखी-सुनी बातें कहने-सुनने लगे ॥ २२ ॥ ये दोनों साक्षात् भगवान्‌ नारायणके अंश हैं। इस पृथ्वीपर वसुदेवजीके घरमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ २३ ॥ [ अँगुलीसे दिखलाकर ] ये साँवले-सलोने कुमार देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। जन्मते ही वसुदेवजीने इन्हें गोकुल पहुँचा दिया था। इतने दिनोंतक ये वहाँ छिपकर रहे और नन्दजीके घरमें ही पलकर इतने बड़े हुए ॥ २४ ॥ इन्होंने ही पूतना, तृणावर्त, शङ्खचूड़, केशी और धेनुक आदिका तथा और भी दुष्ट दैत्योंका वध तथा यमलार्जुनका उद्धार किया है ॥ २५ ॥ इन्होंने ही गौ और ग्वालोंको दावानलकी ज्वालासे बचाया था। कालियनागका दमन और इन्द्रका मान-मर्दन भी इन्होंने ही किया था ॥ २६ ॥ इन्होंने सात दिनोंतक एक ही हाथपर गिरिराज गोवर्धनको उठाये रखा और उसके द्वारा आँधी-पानी तथा वज्रपातसे गोकुलको बचा लिया ॥ २७ ॥ गोपियाँ इनकी मन्द-मन्द मुसकान, मधुर चितवन और सर्वदा एकरस प्रसन्न रहनेवाले मुखारविन्दके दर्शनसे आनन्दित रहती थीं और अनायास ही सब प्रकारके तापोंसे मुक्त हो जाती थीं ॥ २८ ॥ कहते हैं कि ये यदुवंशकी रक्षा करेंगे। यह विख्यात वंश इनके द्वारा महान् समृद्धि, यश और गौरव प्राप्त करेगा ॥ २९ ॥ ये दूसरे इन्हीं श्यामसुन्दरके बड़े भाई कमलनयन श्रीबलरामजी हैं। हमने किसी-किसीके मुँहसे ऐसा सुना है कि इन्होंने ही प्रलम्बासुर, वत्सासुर और बकासुर आदिको मारा है॥ । ३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

कुवलयापीड का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश

 

अंसन्यस्तविषाणोऽसृङ्‌ मदबिन्दुभिरङ्‌कितः ।

विरूढस्वेदकणिका वदनाम्बुरुहो बभौ ॥ १५ ॥

वृतौ गोपैः कतिपयैः बलदेवजनार्दनौ ।

रङ्‌गं विविशतू राजन् गजदन्तवरायुधौ ॥ १६ ॥

मल्लानामशनिर्नृणां नरवरः

स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान् ।

गोपानां स्वजनोऽसतां क्षितिभुजां

शास्ता स्वपित्रोः शिशुः ।

मृत्युर्भोजपतेर्विराडविदुषां

तत्त्वं परं योगिनां ।

वृष्णीनां परदेवतेति विदितो

रङ्‌गं गतः साग्रजः ॥ १७ ॥

हतं कुवलयापीडं दृष्ट्वा तावपि दुर्जयौ ।

कंसो मनस्व्यपि तदा भृशमुद्विविजे नृप ॥ १८ ॥

तौ रेजतू रङ्‌गगतौ महाभुजौ

विचित्रवेषाभरणस्रगम्बरौ ।

यथा नटावुत्तमवेषधारिणौ

मनः क्षिपन्तौ प्रभया निरीक्षताम् ॥ १९ ॥

निरीक्ष्य तावुत्तमपूरुषौ जना

मञ्चस्थिता नागरराष्ट्रका नृप ।

प्रहर्षवेगोत्कलितेक्षणाननाः

पपुर्न तृप्ता नयनैस्तदाननम् ॥ २० ॥

पिबन्त इव चक्षुर्भ्यां लिहन्त इव जिह्वया ।

जिघ्रन्त इव नासाभ्यां श्लिष्यन्त इव बाहुभिः ॥ २१ ॥

ऊचुः परस्परं ते वै यथादृष्टं यथाश्रुतम् ।

तद् रूपगुणमाधुर्य प्रागल्भ्यस्मारिता इव ॥ २२ ॥

एतौ भगवतः साक्षात् हरेर्नारायणस्य हि ।

अवतीर्णाविहांशेन वसुदेवस्य वेश्मनि ॥ २३ ॥

एष वै किल देवक्यां जातो नीतश्च गोकुलम् ।

कालमेतं वसन् गूढो ववृधे नन्दवेश्मनि ॥ २४ ॥

पूतनानेन नीतान्तं चक्रवातश्च दानवः ।

अर्जुनौ गुह्यकः केशी धेनुकोऽन्ये च तद्विधाः ॥ २५ ॥

गावः सपाला एतेन दावाग्नेः परिमोचिताः ।

कालियो दमितः सर्प इन्द्रश्च विमदः कृतः ॥ २६ ॥

सप्ताहमेकहस्तेन धृतोऽद्रिप्रवरोऽमुना ।

वर्षवाताशनिभ्यश्च परित्रातं च गोकुलम् ॥ २७ ॥

गोप्योऽस्य नित्यमुदित हसितप्रेक्षणं मुखम् ।

पश्यन्त्यो विविधांस्तापान् तरन्ति स्माश्रमं मुदा ॥ २८ ॥

वदन्त्यनेन वंशोऽयं यदोः सुबहुविश्रुतः ।

श्रियं यशो महत्वं च लप्स्यते परिरक्षितः ॥ २९ ॥

अयं चास्याग्रजः श्रीमान् रामः कमललोचनः ।

प्रलम्बो निहतो येन वत्सको ये बकादयः ॥ ३० ॥

 

परीक्षित्‌ ! मरे हुए हाथीको छोडक़र भगवान्‌ श्रीकृष्णने हाथमें उसके दाँत लिये-लिये ही रंगभूमिमें प्रवेश किया। उस समय उनकी शोभा देखने ही योग्य थी। उनके कंधेपर हाथीका दाँत रखा हुआ था, शरीर रक्त और मदकी बूँदोंसे सुशोभित था और मुखकमलपर पसीनेकी बूँदें झलक रही थीं ॥ १५ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलराम दोनोंके ही हाथोंमें कुवलयापीडक़े बड़े-बड़े दाँत शस्त्रके रूपमें सुशोभित हो रहे थे और कुछ ग्वालबाल उनके साथ-साथ चल रहे थे। इस प्रकार उन्होंने रंगभूमिमें प्रवेश किया ॥ १६ ॥ जिस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ रंगभूमिमें पधारे, उस समय वे पहलवानोंको वज्रकठोर शरीर, साधारण मनुष्योंको नर-रत्न, स्त्रियोंको मूर्तिमान् कामदेव, गोपोंको स्वजन, दुष्ट राजाओंको दण्ड देनेवाले शासक, माता-पिताके समान बड़े-बूढ़ोंको शिशु, कंसको मृत्यु, अज्ञानियोंको विराट्, योगियोंको परम तत्त्व और भक्तशिरोमणि वृष्णिवंशियोंको अपने इष्टदेव जान पड़े (सबने अपने-अपने भावानुरूप क्रमश: रौद्र, अद्भुत, सृंगार, हास्य, वीर, वात्सल्य, भयानक, बीभत्स, शान्त और प्रेमभक्तिरसका अनुभव किया) ॥ १७ ॥ राजन् ! वैसे तो कंस बड़ा धीर-वीर था; फिर भी जब उसने देखा कि इन दोनोंने कुवलयापीडक़ो मार डाला, तब उसकी समझमें यह बात आयी कि इनको जीतना तो बहुत कठिन है। उस समय वह बहुत घबड़ा गया ॥ १८ ॥ श्रीकृष्ण और बलरामकी बाँहें बड़ी लंबी-लंबी थीं। पुष्पोंके हार, वस्त्र और आभूषण आदिसे उनका वेष विचित्र हो रहा था; ऐसा जान पड़ता था, मानो उत्तम वेष धारण करके दो नट अभिनय करनेके लिये आये हों। जिनके नेत्र एक बार उनपर पड़ जाते, बस, लग ही जाते। यही नहीं, वे अपनी कान्तिसे उनका मन भी चुरा लेते। इस प्रकार दोनों रंगभूमिमें शोभायमान हुए ॥ १९ ॥ परीक्षित्‌ ! मञ्चोंपर जितने लोग बैठे थेवे मथुराके नागरिक और राष्ट्रके जन-समुदाय पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीको देखकर इतने प्रसन्न हुए कि उनके नेत्र और मुखकमल खिल उठे, उत्कण्ठासे भर गये। वे नेत्रोंके द्वारा उनकी मुखमाधुरीका पान करते-करते तृप्त ही नहीं होते थे ॥ २० ॥ मानो वे उन्हें नेत्रोंसे पी रहे हों, जिह्वा से चाट रहे हों, नासिकासे सूँघ रहे हों और भुजाओंसे पकडक़र हृदयसे सटा रहे हों ॥ २१ ॥ उनके सौन्दर्य, गुण, माधुर्य और निर्भयताने मानो दर्शकोंको उनकी लीलाओंका स्मरण करा दिया और वे लोग आपसमें उनके सम्बन्धकी देखी-सुनी बातें कहने-सुनने लगे ॥ २२ ॥ ये दोनों साक्षात् भगवान्‌ नारायणके अंश हैं। इस पृथ्वीपर वसुदेवजीके घरमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ २३ ॥ [ अँगुलीसे दिखलाकर ] ये साँवले-सलोने कुमार देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। जन्मते ही वसुदेवजीने इन्हें गोकुल पहुँचा दिया था। इतने दिनोंतक ये वहाँ छिपकर रहे और नन्दजीके घरमें ही पलकर इतने बड़े हुए ॥ २४ ॥ इन्होंने ही पूतना, तृणावर्त, शङ्खचूड़, केशी और धेनुक आदिका तथा और भी दुष्ट दैत्योंका वध तथा यमलार्जुनका उद्धार किया है ॥ २५ ॥ इन्होंने ही गौ और ग्वालोंको दावानलकी ज्वालासे बचाया था। कालियनागका दमन और इन्द्रका मान-मर्दन भी इन्होंने ही किया था ॥ २६ ॥ इन्होंने सात दिनोंतक एक ही हाथपर गिरिराज गोवर्धनको उठाये रखा और उसके द्वारा आँधी-पानी तथा वज्रपातसे गोकुलको बचा लिया ॥ २७ ॥ गोपियाँ इनकी मन्द-मन्द मुसकान, मधुर चितवन और सर्वदा एकरस प्रसन्न रहनेवाले मुखारविन्दके दर्शनसे आनन्दित रहती थीं और अनायास ही सब प्रकारके तापोंसे मुक्त हो जाती थीं ॥ २८ ॥ कहते हैं कि ये यदुवंशकी रक्षा करेंगे। यह विख्यात वंश इनके द्वारा महान् समृद्धि, यश और गौरव प्राप्त करेगा ॥ २९ ॥ ये दूसरे इन्हीं श्यामसुन्दरके बड़े भाई कमलनयन श्रीबलरामजी हैं। हमने किसी-किसीके मुँहसे ऐसा सुना है कि इन्होंने ही प्रलम्बासुर, वत्सासुर और बकासुर आदिको मारा है॥ । ३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

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