रविवार, 30 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा


शुश्रूषतामव्यलीकमस्माकं नरपुङ्गव

स्वजन्म कर्म गोत्रं वा कथ्यतां यदि रोचते ३१

वयं तु पुरुषव्याघ्र ऐक्ष्वाकाः क्षत्रबन्धवः

मुचुकुन्द इति प्रोक्तो यौवनाश्वात्मजः प्रभो ३२

चिरप्रजागरश्रान्तो निद्रयापहतेन्द्रियः

शयेऽस्मिन्विजने कामं केनाप्युत्थापितोऽधुना ३३

सोऽपि भस्मीकृतो नूनमात्मीयेनैव पाप्मना

अनन्तरं भवान्श्रीमांल्लक्षितोऽमित्रशासनः ३४

तेजसा तेऽविषह्येण भूरि द्रष्टुं न शक्नुमः५

एवं सम्भाषितो राज्ञा भगवान्भूतभावनः

प्रत्याह प्रहसन्वाण्या मेघनादगभीरया ३६

 

श्रीभगवानुवाच

जन्मकर्माभिधानानि सन्ति मेऽङ्ग सहस्रशः

न शक्यन्तेऽनुसङ्ख्यातुमनन्तत्वान्मयापि हि ३७

क्वचिद्रजांसि विममे पार्थिवान्युरुजन्मभिः

गुणकर्माभिधानानि न मे जन्मानि कर्हिचित् ३८

कालत्रयोपपन्नानि जन्मकर्माणि मे नृप

अनुक्रमन्तो नैवान्तं गच्छन्ति परमर्षयः ३९

तथाप्यद्यतनान्यङ्ग शृणुष्व गदतो मम

विज्ञापितो विरिञ्चेन पुराहं धर्मगुप्तये ४०

भूमेर्भारायमाणानामसुराणां क्षयाय च

अवतीर्णो यदुकुले गृह आनकदुन्दुभेः

वदन्ति वासुदेवेति वसुदेवसुतं हि माम् ४१

कालनेमिर्हतः कंसः प्रलम्बाद्याश्च सद्द्विषः

अयं च यवनो दग्धो राजंस्ते तिग्मचक्षुषा ४२

सोऽहं तवानुग्रहार्थं गुहामेतामुपागतः

प्रार्थितः प्रचुरं पूर्वं त्वयाहं भक्तवत्सलः ४३

वरान्वृणीष्व राजर्षे सर्वान्कामान्ददामि ते

मां प्रसन्नो जनः कश्चिन्न भूयोऽर्हति शोचितुम् ४४

 

श्रीशुक उवाच

इत्युक्तस्तं प्रणम्याह मुचुकुन्दो मुदान्वितः

ज्ञात्वा नारायणं देवं गर्गवाक्यमनुस्मरन् ४५

         

पुरुषश्रेष्ठ! यदि आपको रुचे तो हमें अपना जन्म, कर्म और गोत्र बतलाइये; क्योंकि हम सच्चे हृदय से उसे सुनने के इच्छुक हैं। और पुरुषोत्तम! यदि आप हमारे बारे में पूछें तो हम इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय हैं, मेरा नाम मुचुकुन्द। और प्रभु! मैं युवनाश्वनन्दन महाराजा मान्धाता का पुत्र हूँ। बहुत दिनों तक जागते रहने के कारण मैं थक गया था। निद्रा ने मेरी समस्त इन्द्रियों की शक्ति छीन ली थी, उन्हें बेकाम कर दिया था, इसी से मैं इस निर्जन स्थान में निर्द्वन्द सो रहा था। अभी-अभी किसी ने मुझे जगा दिया। अवश्य उसके पापों ने ही उसे जलाकर भस्म कर दिया है। इसके बाद शत्रुओं के नाश करने वाले परम सुन्दर आपने मुझे दर्शन दिया। महाभाग! आप समस्त प्राणियों के माननीय हैं। आपके परम दिव्य और असह्य तेज से मेरी शक्ति खो गयी है। मैं आपको बहुत देर तक देख भी नहीं सकता।'

 

जब राजा मुचुकुन्द ने इस प्रकार कहा, तब समस्त प्राणियों के जीवनदाता भगवान श्रीकृष्ण ने हँसते हुए मेघध्वनि के समान गम्भीर वाणी से कहा। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- प्रिय मुचुकुन्द! मेरे हज़ारों जन्म, कर्म और नाम हैं। वे अनन्त हैं, इसलिये मैं भी उसकी गिनती करके नहीं बतला सकता। यह सम्भव है कि कोई पुरुष अपने अनेक जन्मों में पृथ्वी के छोटे-छोटे धूल-कणों की गिनती कर डाले; परन्तु मेरे जन्म, गुण, कर्म और नामों को कोई कभी किसी प्रकार नहीं गिन सकता।

 

राजन! सनक-सनन्दन आदि परमर्षिगण मेरे त्रिकालसिद्ध जन्म और कर्मों का वर्णन करते रहते हैं, परन्तु कभी उनका पार नहीं पाते। प्रिय मुचुकुन्द! ऐसा होने पर भी मैं अपने वर्तमान जन्म, कर्म और नामों का वर्णन करता हूँ, सुनो। पहले ब्रह्मा जी ने मुझसे धर्म की रक्षा और पृथ्वी के भार बने हुए असुरों का संहार करने के लिये प्रार्थना की थी। उन्हीं की प्रार्थना से मैंने यदुवंश में वसुदेव जी के यहाँ अवतार ग्रहण किया है। अब मैं वसुदेव जी का पुत्र हूँ, इसलिये लोग मुझे ‘वासुदेव’ कहते हैं। अब तक मैं कालनेमि असुर का, जो कंस के रूप में पैदा हुआ था, तथा प्रलम्ब आदि अनेकों साधुद्रोही असुरों का संहार कर चुका हूँ।

 

राजन! यह कालयवन था, जो मेरी ही प्रेरणा से तुम्हारी तीक्ष्ण दृष्टि पड़ते ही भस्म हो गया। वहीं मैं तुम पर कृपा करने के लिये ही इस गुफ़ा में आया हूँ। तुमने पहले मेरी बहुत आराधना की है और मैं हूँ भक्तवत्सल। इसलिये राजर्षे! तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे माँग लो। मैं तुम्हारी सारी लालसा, अभिलाषाएँ पूर्ण कर दूँगा। जो पुरुष मेरी शरण में आ जाता है, उसके लिये फिर ऐसी कोई वस्तु नहीं रह जाती, जिसके लिये वह शोक करे।

 

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा, तब राजा मुचुकुन्द को वृद्ध गर्ग का यह कथन याद आ गया कि यदुवंश में भगवान अवतीर्ण होने वाले हैं। वे जान गये कि ये स्वयं भगवान नारायण हैं। आनन्द से भरकर उन्होंने भगवान के चरणों में प्रणाम किया और इस प्रकार स्तुति की ।।३१-४५ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शनिवार, 29 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा

 

स याचितः सुरगणैरिन्द्राद्यैरात्मरक्षणे

असुरेभ्यः परित्रस्तैस्तद्रक्षां सोऽकरोच्चिरम् १५

लब्ध्वा गुहं ते स्वःपालं मुचुकुन्दमथाब्रुवन्

राजन्विरमतां कृच्छ्राद्भवान्नः परिपालनात् १६

नरलोकं परित्यज्य राज्यं निहतकण्टकम्

अस्मान्पालयतो वीर कामास्ते सर्व उज्झिताः १७

सुता महिष्यो भवतो ज्ञातयोऽमात्यमन्त्रिणः

प्रजाश्च तुल्यकालीना नाधुना सन्ति कालिताः १८

कालो बलीयान्बलिनां भगवानीश्वरोऽव्ययः

प्रजाः कालयते क्रीडन्पशुपालो यथा पशून् १९

वरं वृणीष्व भद्रं ते ऋते कैवल्यमद्य नः

एक एवेश्वरस्तस्य भगवान्विष्णुरव्ययः २०

एवमुक्तः स वै देवानभिवन्द्य महायशाः

अशयिष्ट गुहाविष्टो निद्रया देवदत्तया २१

स्वापं यातं यस्तु मध्ये बोधयेत्त्वामचेतन:

स त्वयादृष्टमात्रस्तु भस्मी भवतु तत्क्षणात् २२

यवने भस्मसान्नीते भगवान्सात्वतर्षभः

आत्मानं दर्शयामास मुचुकुन्दाय धीमते २३

तमालोक्य घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्

श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभेन विराजितम् २४

चतुर्भुजं रोचमानं वैजयन्त्या च मालया

चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुण्डलम् २५

प्रेक्षणीयं नृलोकस्य सानुरागस्मितेक्षणम्

अपीच्यवयसं मत्तमृगेन्द्रोदारविक्रमम् २६

पर्यपृच्छन्महाबुद्धिस्तेजसा तस्य धर्षितः

शङ्कितः शनकै राजा दुर्धर्षमिव तेजसा २७

 

श्रीमुचुकुन्द उवाच

को भवानिह सम्प्राप्तो विपिने गिरिगह्वरे

पद्भ्यां पद्मपलाशाभ्यां विचरस्युरुकण्टके २८

किं स्वित्तेजस्विनां तेजो भगवान्वा विभावसुः

सूर्यः सोमो महेन्द्रो वा लोकपालो परोऽपि वा २९

मन्ये त्वां देवदेवानां त्रयाणां पुरुषर्षभम्

यद्बाधसे गुहाध्वान्तं प्रदीपः प्रभया यथा ३०

 

एक बार इन्द्र आदि देवता असुरों से अत्यन्त भयभीत हो गये थे। उन्होंने अपनी रक्षा के लिये राजा मुचुकुन्द से प्रार्थना की और उन्होंने बहुत दिनों तक उनकी रक्षा की। जब बहुत दिनों के बाद देवताओं को सेनापति के रूप में स्वामी कार्तिकेय मिल गये, तब उन लोगों ने राजा मुचुकुन्द से कहा- ‘राजन! आपने हम लोगों की रक्षा के लिये बहुत श्रम और कष्ट उठाया है। अब आप विश्राम कीजिये। वीर शिरोमणे! आपने हमारी रक्षा के लिये मनुष्य लोक का अपना अकण्टक राज्य छोड़ दिया और जीवन की अभिलाषाएँ तथा भोगों का भी परित्याग कर दिया। अब आपके पुत्र, रानियाँ, बन्धु-बान्धव और अमात्य-मन्त्री तथा आपके समय की प्रजा में से कोई नहीं रहा है। सब-के-सब काल के गाल में चले गये। काल समस्त बलवानों से भी बलवान है। वह स्वयं परम समर्थ अविनाशी और भगवत्स्वरूप है। जैसे ग्वाले पशुओं को अपने वश में रखते हैं, वैसे ही वह खेल-खेल में सारी प्रजा को अपने अधीन रखता है।

 राजन! आपका कल्याण हो। आपकी जो इच्छा हो, हमसे माँग लीजिये। हम कैवल्य-मोक्ष के अतिरिक्त आपको सब कुछ दे सकते हैं। क्योंकि कैवल्य-मोक्ष देने की सामर्थ्य तो केवल अविनाशी भगवान विष्णु में ही है।

 परम यशस्वी राजा मुचुकुन्द ने देवताओं के इस प्रकार कहने पर उनकी वन्दना की और बहुत थके होने के कारण निद्रा का ही वर माँगा तथा उनसे वर पाकर वे नींद से भरकर पर्वत की गुफ़ा में जा सोये। उस समय देवताओं ने कह दिया था कि ‘राजन! सोते समय यदि आपको कोई मूर्ख बीच में ही जगा देगा तो वह आपकी दृष्टि पड़ते ही उसी क्षण भस्म हो जायगा।'

 परीक्षित! जब कालयवन भस्म हो गया, तब यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने परम बुद्धिमान राजा मुचुमुन्द को अपना दर्शन दिया। भगवान श्रीकृष्ण का श्रीविग्रह वर्षाकालीन मेघ के समान साँवला था। रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए थे। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स और गले में कौस्तुभ मणि अपनी दिव्य ज्योति बिखेर रहे थे। चार भुजाएँ थीं। वैजयन्ती माला अलग ही घुटनों तक लटक रही थी। मुखकमल अत्यन्त सुन्दर और प्रसन्नता से खिला हुआ था। कानों में मकराकृति कुण्डल जगमगा रहे थे। होठों पर प्रेम भरी मुस्कुराहट थी और नेत्रों की चितवन अनुराग की वर्षा कर रही थी। अत्यन्त दर्शनीय तरुण-अवस्था और मतवाले सिंह के समान निर्भीक चाल। राजा मुचुकुन्द यद्यपि बड़े बुद्धिमान और धीर पुरुष थे, फिर भी भगवान की यह दिव्य ज्योतिर्मयी मूर्ति देखकर कुछ चकित हो गये। उनके तेज से हतप्रतिभ हो सकपका गये। भगवान अपने तेज से दुर्द्धुर्ष जान पड़ते थे; राजा ने तनिक शंकित होकर पूछा।

 राजा मुचुकुन्द ने कहा- ‘आप कौन हैं? इस काँटों से भरे हुए घोर जंगल में आप कमल के समान कोमल चरणों से क्यों विचर रहे हैं? और इस पर्वत की गुफ़ा में ही पधारने का क्या प्रयोजन था? क्या आप समस्त तेजस्वियों के मूर्तिमान तेज अथवा भगवान अग्निदेव तो नहीं हैं? क्या आप सूर्य, चन्द्रमा, देवराज इन्द्र या कोई दूसरे लोकपाल हैं? मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आप देवताओं के आराध्यदेव ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर- इन तीनों में से पुरुषोत्तम भगवान नारायण ही हैं। क्योंकि जैसे श्रेष्ठ दीपक अँधेरे को दूर कर देता है, वैसे ही आप अपनी अंगकान्ति से इस गुफ़ा का अँधेरा भगा रहे हैं ।।१५-३० ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा

 

श्रीशुक उवाच

तं विलोक्य विनिष्क्रान्तमुज्जिहानमिवोडुपम्

दर्शनीयतमं श्यामं पीतकौशेयवाससम् १

श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभामुक्तकन्धरम्

पृथुदीर्घचतुर्बाहुं नवकञ्जारुणेक्षणम् २

नित्यप्रमुदितं श्रीमत्सुकपोलं शुचिस्मितम्

मुखारविन्दं बिभ्राणं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ३

वासुदेवो ह्ययमिति पुमान्श्रीवत्सलाञ्छनः

चतुर्भुजोऽरविन्दाक्षो वनमाल्यतिसुन्दरः ४

लक्षणैर्नारदप्रोक्तैर्नान्यो भवितुमर्हति

निरायुधश्चलन्पद्भ्यां योत्स्येऽनेन निरायुधः ५

इति निश्चित्य यवनः प्राद्रवन्तं पराङ्मुखम्

अन्वधावज्जिघृक्षुस्तं दुरापमपि योगिनाम् ६

हस्तप्राप्तमिवात्मानं हरिणा स पदे पदे

नीतो दर्शयता दूरं यवनेशोऽद्रिकन्दरम् ७

पलायनं यदुकुले जातस्य तव नोचितम्

इति क्षिपन्ननुगतो नैनं प्रापाहताशुभः ८

एवं क्षिप्तोऽपि भगवान्प्राविशद्गिरिकन्दरम्

सोऽपि प्रविष्टस्तत्रान्यं शयानं ददृशे नरम् ९

नन्वसौ दूरमानीय शेते मामिह साधुवत्

इति मत्वाच्युतं मूढस्तं पदा समताडयत् १०

स उत्थाय चिरं सुप्तः शनैरुन्मील्य लोचने

दिशो विलोकयन्पार्श्वे तमद्राक्षीदवस्थितम् ११

स तावत्तस्य रुष्टस्य दृष्टिपातेन भारत

देहजेनाग्निना दग्धो भस्मसादभवत्क्षणात् १२

 

श्रीराजोवाच

को नाम स पुमान्ब्रह्मन्कस्य किं वीर्य एव च

कस्माद्गुहां गतः शिष्ये किं तेजो यवनार्दनः १३

 

श्रीशुक उवाच

स इक्ष्वाकुकुले जातो मान्धातृतनयो महान्

मुचुकुन्द इति ख्यातो ब्रह्मण्यः सत्यसङ्गरः १४

         

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- प्रिय परीक्षित! जिस समय भगवान श्रीकृष्ण मथुरा नगर के मुख्य द्वार से निकले, उस समय ऐसा मालूम पड़ा मानो पूर्व दिशा से चंद्रोदय हो रहा हो। उनका श्यामल शरीर अत्यन्त ही दर्शनीय था, उस पर रेशमी पीताम्बर की छटा निराली ही थी; वक्षःस्थल पर स्वर्ण रेखा के रूप में श्रीवत्स चिह्न शोभा पा रहा था और गले में कौस्तुभ मणि जगमगा रही थी। चार भुजाएँ थीं, जो लम्बी-लम्बी और कुछ मोटी-मोटी थीं। हाल के खिले हुए कमल के समान कोमल और रतनारे नेत्र थे। मुखकमल पर राशि-राशि आनन्द खेल रहा था। कपोलों की छटा निराली हो रही थी। मन्द-मन्द मुस्कान देखने वालों का मन चुराये लेती थी। कानों में मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल झलक रहे थे। उन्हें देखकर कालयवन ने निश्चय किया कि ‘यही पुरुष वासुदेव है। क्योंकि नारद जी ने जो-जो लक्षण बतलाये थे- वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न, चार भुजाएँ, कमल के से नेत्र, गले में वनमाला और सुन्दरता की सीमा; वे सब इसमें मिल रहे हैं। इसलिये यह कोई दूसरा नहीं हो सकता। इस समय यह बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के पैदल ही इस ओर चला आ रहा है, इसलिये मैं भी इसके साथ बिना अस्त्र-शस्त्र के ही लडूँगा।'

ऐसा निश्चय करके जब कालयवन भगवान श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा, तब वे दूसरी ओर मुँह करके रणभूमि से भाग चले और उन योगिदुर्लभ प्रभु को पकड़ने के लिये कालयवन उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। रणछोड़ भगवान लीला करते हुए भाग रहे थे; कालयवन पग-पग पर यही समझता था कि अब पकड़ा, तब पकड़ा। इस प्रकार भगवान उसे बहुत दूर एक पहाड़ की गुफ़ा में ले गये। कालयवन पीछे से बार-बार आक्षेप करता कि ‘अरे भाई! तुम परम यशस्वी यदुवंश में पैदा हुए हो, तुम्हारा इस प्रकार युद्ध छोड़कर भागना उचित नहीं है।’ परन्तु अभी उसके अशुभ निःशेष नहीं हुए थे, इसलिये वह भगवान को पाने में समर्थ न ओ सका। उसके आक्षेप करते रहने पर भी भगवान उस पर्वत की गुफा में घुस गये। उनके पीछे कालयवन भी घुसा। वहाँ उसने एक दूसरे ही मनुष्य को सोते हुए देखा। उसे देखकर कालयवन ने सोचा ‘देखो तो सही, यह मुझे इस प्रकार इतनी दूर ले आया और अब इस तरह- मानो इसे कुछ पता ही न हो- साधु बाबा बनकर सो रहा है।’ यह सोचकर उस मूढ़ ने उसे कसकर एक लात मारी। वह पुरुष वहाँ बहुत दिनों से सोया हुआ था। पैर की ठोकर लगने से वह उठ पड़ा और धीरे-धीरे उसने अपनी आँखें खोलीं। इधर-उधर देखने पर पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखायी दिया।

 परीक्षित! वह पुरुष इस प्रकार ठोकर मारकर जगाये जाने से कुछ रुष्ट हो गया था। उसकी दृष्टि पड़ते ही कालयवन के शरीर में आग पैदा हो गयी और वह क्षणभर में जलकर ढेर हो गया।

राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन! जिसके दृष्टिपात मात्र से कालयवन जलकर भस्म हो गया, वह पुरुष कौन था? किस वंश का था? उसमें कैसी शक्ति थी और वह किसका पुत्र था? आप कृपा करके यह भी बतलाइये कि वह पर्वत की गुफ़ा में जाकर क्यों सो रहा था?

 श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! वे इक्ष्वाकुवंशी महाराज मान्धाता के पुत्र राजा मुचुकुन्द थे। वे ब्राह्मणों के परम भक्त, सत्यप्रतिज्ञ, संग्रामविजयी और महापुरुष थे। ।।१-१४ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

         

 




शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

जरासन्ध से युद्ध और द्वारकापुरी का निर्माण

 

एवं सप्तदशकृत्वस्तावत्यक्षौहिणीबलः

युयुधे मागधो राजा यदुभिः कृष्णपालितैः ४२

अक्षिण्वंस्तद्बलं सर्वं वृष्णयः कृष्णतेजसा

हतेषु स्वेष्वनीकेषु त्यक्तोऽगादरिभिर्नृपः ४३

अष्टादशम सङ्ग्राम आगामिनि तदन्तरा

नारदप्रेषितो वीरो यवनः प्रत्यदृश्यत ४४

रुरोध मथुरामेत्य तिसृभिर्म्लेच्छकोटिभिः

नृलोके चाप्रतिद्वन्द्वो वृष्णीन्श्रुत्वात्मसम्मितान् ४५

तं दृष्ट्वाचिन्तयत्कृष्णः सङ्कर्षण सहायवान्

अहो यदूनां वृजिनं प्राप्तं ह्युभयतो महत् ४६

यवनोऽयं निरुन्धेऽस्मानद्य तावन्महाबलः

मागधोऽप्यद्य वा श्वो वा परश्वो वागमिष्यति ४७

आवयोः युध्यतोरस्य यद्यागन्ता जरासुतः

बन्धून्हनिष्यत्यथ वा नेष्यते स्वपुरं बली ४८

तस्मादद्य विधास्यामो दुर्गं द्विपददुर्गमम्

तत्र ज्ञातीन्समाधाय यवनं घातयामहे ४९

इति सम्मन्त्र्य भगवान्दुर्गं द्वादशयोजनम्

अन्तःसमुद्रे नगरं कृत्स्नाद्भुतमचीकरत् ५०

दृश्यते यत्र हि त्वाष्ट्रं विज्ञानं शिल्पनैपुणम्

रथ्याचत्वरवीथीभिर्यथावास्तु विनिर्मितम् ५१

सुरद्रुमलतोद्यान विचित्रोपवनान्वितम्

हेमशृङ्गैर्दिविस्पृग्भिः स्फटिकाट्टालगोपुरैः ५२

राजतारकुटैः कोष्ठैर्हेमकुम्भैरलङ्कृतैः

रत्नकूतैर्गृहैर्हेमैर्महामारकतस्थलैः ५३

वास्तोष्पतीनां च गृहैर्वल्लभीभिश्च निर्मितम्

चातुर्वर्ण्यजनाकीर्णं यदुदेवगृहोल्लसत् ५४

सुधर्मां पारिजातं च महेन्द्रः प्राहिणोद्धरेः

यत्र चावस्थितो मर्त्यो मर्त्यधर्मैर्न युज्यते ५५

श्यामैकवर्णान्वरुणो हयान्शुक्लान्मनोजवान्

अष्टौ निधिपतिः कोशान्लोकपालो निजोदयान् ५६

यद्यद्भगवता दत्तमाधिपत्यं स्वसिद्धये

सर्वं प्रत्यर्पयामासुर्हरौ भूमिगते नृप ५७

तत्र योगप्रभावेन नीत्वा सर्वजनं हरिः

प्रजापालेन रामेण कृष्णः समनुमन्त्रितः

निर्जगाम पुरद्वारात्पद्ममाली निरायुधः ५८

 

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार सत्रह बार तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके मगधराज जरासन्ध ने भगवान्‌ श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित यदुवंशियोंसे युद्ध किया ।। ४२ ।। किन्तु यादवों ने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शक्तिसे हर बार उसकी सारी सेना नष्ट कर दी। जब सारी सेना नष्ट हो जाती, तब यदुवंशियोंके उपेक्षापूर्वक छोड़ देनेपर जरासन्ध अपनी राजधानीमें लौट जाता ।। ४३ ।। जिस समय अठारहवाँ संग्राम छिडऩेहीवाला था, उसी समय नारदजीका भेजा हुआ वीर कालयवन दिखायी पड़ा ।। ४४ ।। युद्धमें कालयवनके सामने खड़ा होनेवाला वीर संसारमें दूसरा कोई न था। उसने जब यह सुना कि यदुवंशी हमारे ही-जैसे बलवान् हैं और हमारा सामना कर सकते हैं, तब तीन करोड़ म्लेच्छोंकी सेना लेकर उसने मथुराको घेर लिया ।। ४५ ।।

कालयवनकी यह असमय चढ़ाई देखकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने बलरामजीके साथ मिलकर विचार किया—‘अहो ! इस समय तो यदुवंशियोंपर जरासन्ध और कालयवनये दो-दो विपत्तियाँ एक साथ ही मँडरा रही हैं ।। ४६ ।। आज इस परम बलशाली यवनने हमें आकर घेर लिया है और जरासन्ध भी आज, कल या परसोंमें आ ही जायगा ।। ४७ ।। यदि हम दोनों भाई इसके साथ लडऩेमें लग गये और उसी समय जरासन्ध आ पहुँचा, तो वह हमारे बन्धुओंको मार डालेगा या तो कैद करके अपने नगरमें ले जायगा। क्योंकि वह बहुत बलवान् है ।। ४८ ।। इसलिये आज हमलोग एक ऐसा दुर्गऐसा किला बनायेंगे, जिसमें किसी भी मनुष्यका प्रवेश करना अत्यन्त कठिन होगा। अपने स्वजन-सम्बन्धियोंको उसी किलेमें पहुँचाकर फिर इस यवनका वध करायेंगे।। ४९ ।। बलरामजीसे इस प्रकार सलाह करके भगवान्‌ श्रीकृष्णने समुद्रके भीतर एक ऐसा दुर्गम नगर बनवाया, जिसमें सभी वस्तुएँ अद्भुत थीं और उस नगरकी लंबाई-चौड़ाई अड़तालीस कोसकी थी ।। ५० ।। उस नगरकी एक-एक वस्तुमें विश्वकर्माका विज्ञान (वास्तु- विज्ञान) और शिल्पकला की निपुणता प्रकट होती थी। उसमें वास्तुशास्त्रके अनुसार बड़ी-बड़ी सडक़ों, चौराहों और गलियोंका यथास्थान ठीक-ठीक विभाजन किया गया था ।। ५१ ।। वह नगर ऐसे सुन्दर-सुन्दर उद्यानों और विचित्र-विचित्र उपवनोंसे युक्त था, जिनमें देवताओंके वृक्ष और लताएँ लहलहाती रहती थीं। सोनेके इतने ऊँचे-ऊँचे शिखर थे, जो आकाशसे बातें करते थे। स्फटिकमणिकी अटारियाँ और ऊँचे-ऊँचे दरवाजे बड़े ही सुन्दर लगते थे ।। ५२ ।। अन्न रखनेके लिये चाँदी और पीतलके बहुत-से कोठे बने हुए थे। वहाँके महल सोनेके बने हुए थे और उनपर कामदार सोनेके कलश सजे हुए थे। उनके शिखर रत्नोंके थे तथा गच पन्नेकी बनी हुई बहुत भली मालूम होती थी ।। ५३ ।। इसके अतिरिक्त उस नगरमें वास्तुदेवताके मन्दिर और छज्जे भी बहुत सुन्दर-सुन्दर बने हुए थे। उसमें चारों वर्णके लोग निवास करते थे और सबके बीचमें यदुवंशियोंके प्रधान उग्रसेनजी, वसुदेवजी, बलरामजी तथा भगवान्‌ श्रीकृष्णके महल जगमगा रहे थे ।। ५४ ।। परीक्षित्‌ ! उस समय देवराज इन्द्रने भगवान्‌ श्रीकृष्णके लिये पारिजात वृक्ष और सुधर्मा-सभाको भेज दिया। वह सभा ऐसी दिव्य थी कि उसमें बैठे हुए मनुष्यको भूख-प्यास आदि मर्त्यलोक के धर्म नहीं छू पाते थे ।। ५५ ।। वरुणजीने ऐसे बहुत-से श्वेत घोड़े भेज दिये, जिनका एक-एक कान श्याम- वर्णका था, और जिनकी चाल मनके समान तेज थी। धनपति कुबेरजीने अपनी आठों निधियाँ भेज दीं और दूसरे लोकपालोंने भी अपनी-अपनी विभूतियाँ भगवान्‌के पास भेज दीं ।। ५६ ।। परीक्षित्‌ ! सभी लोकपालोंको भगवान्‌ श्रीकृष्णने ही उनके अधिकार के निर्वाहके लिये शक्तियाँ और सिद्धियाँ दी हैं। जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण पृथ्वीपर अवतीर्ण होकर लीला करने लगे, तब सभी सिद्धियाँ उन्होंने भगवान्‌के चरणोंमें समॢपत कर दीं ।। ५७ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने समस्त स्वजन-सम्बन्धियोंको अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमायाके द्वारा द्वारकामें पहुँचा दिया। शेष प्रजाकी रक्षाके लिये बलरामजीको मथुरापुरीमें रख दिया और उनसे सलाह लेकर गलेमें कमलोंकी माला पहने, बिना कोई अस्त्र-शस्त्र लिये स्वयं नगरके बड़े दरवाजेसे बाहर निकल आये ।। ५८ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे

दुर्गनिवेशनं नाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




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