॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा
शुश्रूषतामव्यलीकमस्माकं नरपुङ्गव
स्वजन्म कर्म गोत्रं वा कथ्यतां यदि रोचते ३१
वयं तु पुरुषव्याघ्र ऐक्ष्वाकाः क्षत्रबन्धवः
मुचुकुन्द इति प्रोक्तो यौवनाश्वात्मजः प्रभो ३२
चिरप्रजागरश्रान्तो निद्रयापहतेन्द्रियः
शयेऽस्मिन्विजने कामं केनाप्युत्थापितोऽधुना ३३
सोऽपि भस्मीकृतो नूनमात्मीयेनैव पाप्मना
अनन्तरं भवान्श्रीमांल्लक्षितोऽमित्रशासनः ३४
तेजसा तेऽविषह्येण भूरि द्रष्टुं न शक्नुमः५
एवं सम्भाषितो राज्ञा भगवान्भूतभावनः
प्रत्याह प्रहसन्वाण्या मेघनादगभीरया ३६
श्रीभगवानुवाच
जन्मकर्माभिधानानि सन्ति मेऽङ्ग सहस्रशः
न शक्यन्तेऽनुसङ्ख्यातुमनन्तत्वान्मयापि हि ३७
क्वचिद्रजांसि विममे पार्थिवान्युरुजन्मभिः
गुणकर्माभिधानानि न मे जन्मानि कर्हिचित् ३८
कालत्रयोपपन्नानि जन्मकर्माणि मे नृप
अनुक्रमन्तो नैवान्तं गच्छन्ति परमर्षयः ३९
तथाप्यद्यतनान्यङ्ग शृणुष्व गदतो मम
विज्ञापितो विरिञ्चेन पुराहं धर्मगुप्तये ४०
भूमेर्भारायमाणानामसुराणां क्षयाय च
अवतीर्णो यदुकुले गृह आनकदुन्दुभेः
वदन्ति वासुदेवेति वसुदेवसुतं हि माम् ४१
कालनेमिर्हतः कंसः प्रलम्बाद्याश्च सद्द्विषः
अयं च यवनो दग्धो राजंस्ते तिग्मचक्षुषा ४२
सोऽहं तवानुग्रहार्थं गुहामेतामुपागतः
प्रार्थितः प्रचुरं पूर्वं त्वयाहं भक्तवत्सलः ४३
वरान्वृणीष्व राजर्षे सर्वान्कामान्ददामि ते
मां प्रसन्नो जनः कश्चिन्न भूयोऽर्हति शोचितुम् ४४
श्रीशुक उवाच
इत्युक्तस्तं प्रणम्याह मुचुकुन्दो मुदान्वितः
ज्ञात्वा नारायणं देवं गर्गवाक्यमनुस्मरन् ४५
पुरुषश्रेष्ठ! यदि आपको रुचे तो हमें अपना जन्म, कर्म और गोत्र बतलाइये; क्योंकि हम
सच्चे हृदय से उसे सुनने के इच्छुक हैं। और पुरुषोत्तम! यदि आप हमारे बारे में
पूछें तो हम इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय हैं, मेरा नाम
मुचुकुन्द। और प्रभु! मैं युवनाश्वनन्दन महाराजा मान्धाता का पुत्र हूँ। बहुत
दिनों तक जागते रहने के कारण मैं थक गया था। निद्रा ने मेरी समस्त इन्द्रियों की
शक्ति छीन ली थी, उन्हें बेकाम कर दिया था, इसी से मैं इस निर्जन स्थान में निर्द्वन्द सो रहा था। अभी-अभी किसी ने
मुझे जगा दिया। अवश्य उसके पापों ने ही उसे जलाकर भस्म कर दिया है। इसके बाद
शत्रुओं के नाश करने वाले परम सुन्दर आपने मुझे दर्शन दिया। महाभाग! आप समस्त
प्राणियों के माननीय हैं। आपके परम दिव्य और असह्य तेज से मेरी शक्ति खो गयी है।
मैं आपको बहुत देर तक देख भी नहीं सकता।'
जब राजा मुचुकुन्द ने इस प्रकार कहा, तब समस्त प्राणियों के जीवनदाता भगवान श्रीकृष्ण ने हँसते हुए
मेघध्वनि के समान गम्भीर वाणी से कहा। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- प्रिय मुचुकुन्द!
मेरे हज़ारों जन्म, कर्म और नाम हैं। वे अनन्त हैं, इसलिये मैं भी उसकी गिनती करके नहीं बतला सकता। यह सम्भव है कि कोई पुरुष
अपने अनेक जन्मों में पृथ्वी के छोटे-छोटे धूल-कणों की गिनती कर डाले; परन्तु मेरे जन्म, गुण, कर्म
और नामों को कोई कभी किसी प्रकार नहीं गिन सकता।
राजन! सनक-सनन्दन आदि परमर्षिगण मेरे त्रिकालसिद्ध जन्म और
कर्मों का वर्णन करते रहते हैं, परन्तु
कभी उनका पार नहीं पाते। प्रिय मुचुकुन्द! ऐसा होने पर भी मैं अपने वर्तमान जन्म,
कर्म और नामों का वर्णन करता हूँ, सुनो। पहले
ब्रह्मा जी ने मुझसे धर्म की रक्षा और पृथ्वी के भार बने हुए असुरों का संहार करने
के लिये प्रार्थना की थी। उन्हीं की प्रार्थना से मैंने यदुवंश में वसुदेव जी के
यहाँ अवतार ग्रहण किया है। अब मैं वसुदेव जी का पुत्र हूँ, इसलिये
लोग मुझे ‘वासुदेव’ कहते हैं। अब तक मैं कालनेमि असुर का, जो
कंस के रूप में पैदा हुआ था, तथा प्रलम्ब आदि अनेकों
साधुद्रोही असुरों का संहार कर चुका हूँ।
राजन! यह कालयवन था, जो मेरी ही प्रेरणा से तुम्हारी तीक्ष्ण दृष्टि पड़ते ही भस्म हो गया।
वहीं मैं तुम पर कृपा करने के लिये ही इस गुफ़ा में आया हूँ। तुमने पहले मेरी बहुत
आराधना की है और मैं हूँ भक्तवत्सल। इसलिये राजर्षे! तुम्हारी जो अभिलाषा हो,
मुझसे माँग लो। मैं तुम्हारी सारी लालसा, अभिलाषाएँ
पूर्ण कर दूँगा। जो पुरुष मेरी शरण में आ जाता है, उसके लिये
फिर ऐसी कोई वस्तु नहीं रह जाती, जिसके लिये वह शोक करे।
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार
कहा, तब राजा मुचुकुन्द को वृद्ध गर्ग का यह कथन
याद आ गया कि यदुवंश में भगवान अवतीर्ण होने वाले हैं। वे जान गये कि ये स्वयं
भगवान नारायण हैं। आनन्द से भरकर उन्होंने भगवान के चरणों में प्रणाम किया और इस
प्रकार स्तुति की ।।३१-४५ ।।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से