॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
भगवान्
श्रीकृष्णके साथ बाणासुरका युद्ध
यन्मायामोहितधियः पुत्रदारगृहादिषु ।
उन्मज्जन्ति
निमज्जन्ति प्रसक्ता वृजिनार्णवे ॥ ४० ॥
देवदत्तमिमं
लब्ध्वा नृलोकमजितेन्द्रियः ।
यो नाद्रियेत
त्वत्पादौ स शोच्यो ह्यात्मवञ्चकः ॥ ४१ ॥
यस्त्वां विसृजते
मर्त्य आत्मानं प्रियमीश्वरम् ।
विपर्ययेन्द्रियार्थार्थं विषमत्त्यमृतं त्यजन्
॥ ४२ ॥
अहं ब्रह्माथ
विबुधा मुनयश्चामलाशयाः ।
सर्वात्मना
प्रपन्नास्त्वां आत्मानं प्रेष्ठमीश्वरम् ॥ ४३ ॥
तं त्वा
जगत्स्थित्युदयान्तहेतुं
समं प्रशान्तं
सुहृदात्मदैवम् ।
अनन्यमेकं
जगदात्मकेतं
भवापवर्गाय
भजाम देवम् ॥ ४४ ॥
अयं ममेष्टो
दयितोऽनुवर्ती
मयाभयं
दत्तममुष्य देव ।
संपाद्यतां तद्भवतः
प्रसादो
यथा हि ते
दैत्यपतौ प्रसादः ॥ ४५ ॥
श्रीभगवानुवाच -
यदात्थ भगवन् त्वं
नः करवाम प्रियं तव ।
भवतो यद्व्यवसितं
तन्मे साध्वनुमोदितम् ॥ ४६ ॥
अवध्योऽयं ममाप्येष
वैरोचनिसुतोऽसुरः ।
प्रह्रादाय वरो
दत्तो न वध्यो मे तवान्वयः ॥ ४७ ॥
दर्पोपशमनायास्य
प्रवृक्णा बाहवो मया ।
सूदितं च बलं भूरि
यच्च भारायितं भुवः ॥ ४८ ॥
चत्वारोऽस्य भुजाः
शिष्टा भविष्यत्यजरामरः ।
पार्षदमुख्यो भवतो
न कुतश्चिद्भयोऽसुरः ॥ ४९ ॥
इति लब्ध्वाभयं
कृष्णं प्रणम्य शिरसासुरः ।
प्राद्युम्निं
रथमारोप्य सवध्वा समुपानयत् ॥ ५० ॥
अक्षौहिण्या
परिवृतं सुवासःसमलङ्कृतम् ।
सपत्नीकं
पुरस्कृत्य ययौ रुद्रानुमोदितः ॥ ५१ ॥
स्वराजधानीं
समलङ्कृतां ध्वजैः
सतोरणैरुक्षितमार्गचत्वराम् ।
विवेश
शङ्खानकदुन्दुभिस्वनैः
अभ्युद्यतः
पौरसुहृद्द्विजातिभिः ॥ ५२ ॥
य एवं कृष्णविजयं
शङ्करेण च संयुगम् ।
संस्मरेत्
प्रातरुत्थाय न तस्य स्यात् पराजयः ॥ ५३ ॥
भगवन् ! आपकी
मायासे मोहित होकर लोग स्त्री-पुत्र,
देह-गेह आदिमें आसक्त हो जाते हैं और फिर दु:खके अपार सागरमें
डूबने-उतराने लगते हैं ।। ४० ।। संसारके मानवोंको यह मनुष्य- शरीर आपने अत्यन्त
कृपा करके दिया है। जो पुरुष इसे पाकर भी अपनी इन्द्रियोंको वशमें नहीं करता और
आपके चरणकमलोंका आश्रय नहीं लेता—उनका सेवन नहीं करता,
उसका जीवन अत्यन्त शोचनीय है और वह स्वयं अपने-आपको धोखा दे रहा है
।। ४१ ।। प्रभो ! आप समस्त प्राणियोंके आत्मा, प्रियतम और
ईश्वर हैं। जो मृत्युका ग्रास मनुष्य आपको छोड़ देता है और अनात्म, दु:खरूप एवं तुच्छ विषयोंमें सुखबुद्धि करके उनके पीछे भटकता है, वह इतना मूर्ख है कि अमृतको छोडक़र विष पी रहा है ।। ४२ ।। मैं, ब्रह्मा, सारे देवता और विशुद्ध हृदयवाले ऋषि-मुनि
सब प्रकारसे और सर्वात्मभावसे आपके शरणागत हैं; क्योंकि आप
ही हमलोगोंके आत्मा, प्रियतम और ईश्वर हैं ।। ४३ ।। आप
जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके कारण हैं। आप सबमें सम,
परम शान्त, सबके सुहृद्, आत्मा और इष्टदेव हैं। आप एक, अद्वितीय और जगत्के
आधार तथा अधिष्ठान हैं। हे प्रभो ! हम सब संसारसे मुक्त होनेके लिये आपका भजन करते
हैं ।। ४४ ।। देव ! यह बाणासुर मेरा परमप्रिय, कृपापात्र और
सेवक है। मैंने इसे अभयदान दिया है। प्रभो ! जिस प्रकार इसके परदादा दैत्यराज
प्रह्लादपर आपका कृपाप्रसाद है, वैसा ही कृपाप्रसाद आप इसपर
भी करें ।। ४५ ।।
भगवान्
श्रीकृष्णने कहा—भगवन् ! आपकी बात मानकर—जैसा आप चाहते हैं, मैं इसे निर्भय किये देता हूँ।
आपने पहले इसके सम्बन्धमें जैसा निश्चय किया था—मैंने इसकी
भुजाएँ काटकर उसीका अनुमोदन किया है ।। ४६ ।। मैं जानता हूँ कि बाणासुर दैत्यराज
बलिका पुत्र है। इसलिये मैं भी इसका वध नहीं कर सकता; क्योंकि
मैंने प्रह्लादको वर दे दिया है कि मैं तुम्हारे वशंमें पैदा होनेवाले किसी भी
दैत्यका वध नहीं करूँगा ।। ४७ ।। इसका घमंड चूर करनेके लिये ही मैंने इसकी भुजाएँ
काट दी हैं। इसकी बहुत बड़ी सेना पृथ्वीके लिये भार हो रही थी, इसीलिये मैंने उसका संहार कर दिया है ।। ४८ ।। अब इसकी चार भुजाएँ बच रही
हैं। ये अजर, अमर बनी रहेंगी। यह बाणासुर आपके पार्षदोंमें
मुख्य होगा। अब इसको किसीसे किसी प्रकारका भय नहीं है ।। ४९ ।।
श्रीकृष्णसे
इस प्रकार अभयदान प्राप्त करके बाणासुरने उनके पास आकर धरतीमें माथा टेका, प्रणाम किया और अनिरुद्धजीको अपनी पुत्री
ऊषाके साथ रथपर बैठाकर भगवान्के पास ले आया ।। ५० ।। इसके बाद भगवान्
श्रीकृष्णने महादेवजीकी सम्मतिसे वस्त्रालंकारविभूषित ऊषा और अनिरुद्धजीको एक
अक्षौहिणी सेनाके साथ आगे करके द्वारकाके लिये प्रस्थान किया ।। ५१ ।। इधर
द्वारकामें भगवान् श्रीकृष्ण आदिके शुभागमनका समाचार सुनकर झंडियों और तोरणोंसे
नगरका कोना-कोना सजा दिया गया। बड़ी-बड़ी सडक़ों और चौराहोंको चन्दन- मिश्रित जलसे
सींच दिया गया। नगरके नागरिकों, बन्धु-बान्धवों और
ब्राह्मणोंने आगे आकर खूब धूमधामसे भगवान् का स्वागत किया। उस समय शङ्ख, नगारों और ढोलोंकी तुमुल ध्वनि हो रही थी। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णने
अपनी राजधानीमें प्रवेश किया ।। ५२ ।।
परीक्षित् !
जो पुरुष श्रीशङ्करजी के साथ भगवान् श्रीकृष्णका युद्ध और उनकी विजयकी कथाका
प्रात:काल उठकर स्मरण करता है, उसकी पराजय नहीं होती ।। ५३ ।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे अनिरुद्धानयनं नाम
त्रिषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६३ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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