॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
कौरवोंपर
बलरामजी का कोप और साम्ब का विवाह
वीर्यशौर्यबलोन्नद्धं आत्मशक्तिसमं वचः ।
कुरवो बलदेवस्य
निशम्योचुः प्रकोपिताः ॥ २३ ॥
अहो महच्चित्रमिदं
कालगत्या दुरत्यया ।
आरुरुक्षत्युपानद्
वै शिरो मुकुटसेवितम् ॥ २४ ॥
एते यौनेन संबद्धाः
सहशय्यासनाशनाः ।
वृष्णयस्तुल्यतां
नीता अस्मद् दत्तनृपासनाः ॥ २५ ॥
चामरव्यजने शङ्खं
आतपत्रं च पाण्डुरम् ।
किरीटमासनं शय्यां
भुञ्जन्त्यस्मदुपेक्षया ॥ २६ ॥
अलं यदूनां नरदेवलाञ्छनैः
दातुः प्रतीपैः
फणिनामिवामृतम् ।
येऽस्मत्प्रसादोपचिता हि यादवा
आज्ञापयन्त्यद्य गतत्रपा बत ॥ २७ ॥
कथमिन्द्रोऽपि कुरुभिः भीष्मद्रोणार्जुनादिभिः ।
अदत्तमवरुन्धीत
सिंहग्रस्तमिवोरणः ॥ २८ ॥
श्रीबादरायणिरुवाच -
जन्मबन्धुश्रीयोन्नद्ध मदास्ते भरतर्षभ ।
आश्राव्य रामं
दुर्वाच्यं असभ्याः पुरमाविशन् ॥ २९ ॥
दृष्ट्वा कुरूनां
दौःशील्यं श्रुत्वावाच्यानि चाच्युतः ।
अवोचत् कोपसंरब्धो
दुष्प्रेक्ष्यः प्रहसन् मुहुः ॥ ३० ॥
नूनं
नानामदोन्नद्धाः शान्तिं नेच्छन्त्यसाधवः ।
तेषां हि प्रशमो
दण्डः पशूनां लगुडो यथा ॥ ३१ ॥
अहो यदून्
सुसंरब्धाम् कृष्णं च कुपितं शनैः ।
सान्त्वयित्वाहमेतेषां शममिच्छन् इहागतः ॥ ३२ ॥
त इमे मन्दमतयः
कलहाभिरताः खलाः ।
तं मामवज्ञाय मुहुः
दुर्भाषान् मानिनोऽब्रुवन् ॥ ३३ ॥
नोग्रसेनः किल
विभुः भोजवृष्ण्यन्धकेश्वरः ।
शक्रादयो लोकपाला
यस्यादेशानुवर्तिनः ॥ ३४ ॥
सुधर्माऽऽक्रम्यते
येन पारिजातोऽमराङ्घ्रिपः ।
आनीय भुज्यते सोऽसौ
न किलाध्यासनार्हणः ॥ ३५ ॥
यस्य पादयुगं साक्षात् श्रीरुपास्तेऽखिलेश्वरी ।
स नार्हति किल
श्रीशो नरदेवपरिच्छदान् ॥ ३६ ॥
यस्याङ्घ्रिपङ्कजरजोऽखिललोकपालैः
मौल्युत्तमैर्धृतमुपासिततीर्थतीर्थम् ।
ब्रह्मा भवोऽहमपि
यस्य कलाः कलायाः
श्रीश्चोद्वहेम
चिरमस्य नृपासनं क्व ॥ ३७ ॥
भुञ्जते कुरुभिर्दत्तं भूखण्डं वृष्णयः किल ।
उपानहः किल वयं
स्वयं तु कुरवः शिरः ॥ ३८ ॥
अहो
ऐश्वर्यमत्तानां मत्तानामिव मानिनाम् ।
असंबद्धा गिरो
रुक्षाः कः सहेतानुशासीता ॥ ३९ ॥
अद्य निष्कौरवं
पृथ्वीं करिष्यामीत्यमर्षितः ।
गृहीत्वा
हलमुत्तस्थौ दहन्निव जगत्त्रयम् ॥ ४० ॥
लाङ्गलाग्रेण नगरं
उद्विदार्य गजाह्वयम् ।
विचकर्ष स गङ्गायां
प्रहरिष्यन्नमर्षितः ॥ ४१ ॥
जलयानमिवाघूर्णं
गङ्गायां नगरं पतत् ।
आकृष्यमाणमालोक्य
कौरवाः जातसंभ्रमाः ॥ ४२ ॥
तमेव शरणं जग्मुः
सकुटुम्बा जिजीविषवः ।
सलक्ष्मणं पुरस्कृत्य
साम्बं प्राञ्जलयः प्रभुम् ॥ ४३ ॥
राम रामाखिलाधार
प्रभावं न विदाम ते ।
मूढानां नः
कुबुद्धीनां क्षन्तुमर्हस्यतिक्रमम् ॥ ४४ ॥
स्थित्युत्पत्त्यप्ययानां त्वमेको
हेतुर्निराश्रयः ।
लोकान् क्रीडनकानीश
क्रीडतस्ते वदन्ति हि ॥ ४५ ॥
त्वमेव मूर्ध्नीदमनन्त लीलया
भूमण्डलं
बिभर्षि सहस्रमूर्धन् ।
अन्ते च यः
स्वात्मनि रुद्धविश्वः
शेषेऽद्वितीयः
परिशिष्यमाणः ॥ ४६ ॥
कोपस्तेऽखिलशिक्षार्थं न द्वेषान्न च मत्सरात् ।
बिभ्रतो भगवन् सत्त्वं स्थितिपालनतत्परः ॥ ४७ ॥
नमस्ते सर्वभूतात्मन् सर्वशक्तिधराव्यय ।
विश्वकर्मन् नमस्तेऽस्तु त्वां वयं शरणं गताः ॥ ४८ ॥
श्रीशुक उवाच -
एवं प्रपन्नैः संविग्नैः वेपमानायनैर्बलः ।
प्रसादितः
सुप्रसन्नो मा भैष्टेत्यभयं ददौ ॥ ४९ ॥
दुर्योधनः
पारिबर्हं कुञ्जरान् षष्टिहायनान् ।
ददौ च द्वादशशतानि
अयुतानि तुरङ्गमान् ॥ ५० ॥
रथानां षट्सहस्राणि
रौक्माणां सूर्यवर्चसाम् ।
दासीनां
निष्ककण्ठीनां सहस्रं दुहितृवत्सलः ॥ ५१ ॥
प्रतिगृह्य तु
तत्सर्वं भगवान् सात्वतर्षभः ।
ससुतः सस्नुषः
प्रायात् सुहृद्भिरभिनन्दितः ॥ ५२ ॥
ततः प्रविष्टः स्वपुरं हलायुधः
समेत्य
बन्धूननुरक्तचेतसः ।
शशंस सर्वं
यदुपुङ्गवानां
मध्ये सभायां
कुरुषु स्वचेष्टितम् ॥ ५३ ॥
अद्यापि च पुरं ह्येतत् सूचयद् रामविक्रमम् ।
समुन्नतं दक्षिणतो
गङ्गायां अनुदृश्यते ॥ ५४ ॥
परीक्षित् !
बलरामजीकी वाणी वीरता, शूरता और बल-पौरुषके
उत्कर्षसे परिपूर्ण और उनकी शक्तिके अनुरूप थी। यह बात सुनकर कुरुवंशी क्रोधसे
तिलमिला उठे। वे कहने लगे— ॥ २३ ॥ ‘अहो,
यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है ! सचमुच कालकी चालको कोई टाल नहीं
सकता। तभी तो आज पैरोंकी जूती उस सिरपर चढऩा चाहती है, जो
श्रेष्ठ मुकुटसे सुशोभित है ॥ २४ ॥ इन यदुवंशियोंके साथ किसी प्रकार हमलोगोंने
विवाह-सम्बन्ध कर लिया। ये हमारे साथ सोने-बैठने और एक पंक्तिमें खाने लगे।
हमलोगोंने ही इन्हें राजसिंहासन देकर राजा बनाया और अपने बराबर बना लिया ॥ २५ ॥ ये
यदुवंशी चँवर, पंखा, शङ्ख, श्वेतछत्र, मुकुट, राजसिंहासन
और राजोचित शय्याका उपयोग-उपभोग इसलिये कर रहे हैं कि हमने जान-बूझकर इस विषयमें
उपेक्षा कर रखी है ॥ २६ ॥ बस-बस, अब हो चुका। यदुवंशियोंके
पास अब राजचिह्न रहनेकी आवश्यकता नहीं, उन्हें उनसे छीन लेना
चाहिये। जैसे साँपको दूध पिलाना पिलानेवालेके लिये ही घातक है, वैसे ही हमारे दिये हुए राजचिह्नोंको लेकर ये यदुवंशी हमसे ही विपरीत हो
रहे हैं। देखो तो भला हमारे ही कृपा-प्रसादसे तो इनकी बढ़ती हुई और अब ये निर्लज्ज
होकर हमींपर हुकुम चलाने चले हैं। शोक है ! शोक है ! ॥ २७ ॥ जैसे सिंह का ग्रास
कभी भेड़ा नहीं छीन सकता, वैसे ही यदि भीष्म, द्रोण, अर्जुन आदि कौरववीर जान-बूझकर न छोड़ दें,
न दे दें तो स्वयं देवराज इन्द्र भी किसी वस्तुका उपभोग कैसे कर
सकते हैं ? ॥ २८ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! कुरुवंशी अपनी
कुलीनता, बान्धवों-परिवारवालों (भीष्मादि) के बल और
धनसम्पत्तिके घमंडमें चूर हो रहे थे। उन्होंने साधारण शिष्टाचारकी भी परवा नहीं की
और वे भगवान् बलरामजीको इस प्रकार दुर्वचन कहकर हस्तिनापुर लौट गये ॥ २९ ॥
बलरामजीने कौरवोंकी दुष्टता-अशिष्टता देखी और उनके दुर्वचन भी सुने। अब उनका चेहरा
क्रोध-से तमतमा उठा। उस समय उनकी ओर देखातक नहीं जाता था। वे बार-बार जोर-जोरसे
हँसकर कहने लगे— ॥ ३० ॥ ‘सच है,
जिन दुष्टोंको अपनी कुलीनता, बलपौरुष और धनका
घमंड हो जाता है, वे शान्ति नहीं चाहते। उनको दमन करनेका,
रास्तेपर लानेका उपाय समझाना-बुझाना नहीं, बल्कि
दण्ड देना है—ठीक वैसे ही, जैसे
पशुओंको ठीक करनेके लिये डंडेका प्रयोग आवश्यक होता है ॥ ३१ ॥ भला, देखो तो सही—सारे यदुवंशी और श्रीकृष्ण भी क्रोधसे
भरकर लड़ाईके लिये तैयार हो रहे थे। मैं उन्हें शनै:-शनै: समझा-बुझाकर इन लोगोंको
शान्त करनेके लिये, सुलह करनेके लिये यहाँ आया ॥ ३२ ॥ फिर भी
ये मूर्ख ऐसी दुष्टता कर रहे हैं ! इन्हें शान्ति प्यारी नहीं, कलह प्यारी है। ये इतने घमंडी हो रहे हैं कि बार-बार मेरा तिरस्कार करके
गालियाँ बक गये हैं ॥ ३३ ॥ ठीक है, भाई ! ठीक है। पृथ्वीके
राजाओंकी तो बात ही क्या, त्रिलोकीके स्वामी इन्द्र आदि
लोकपाल जिनकी आज्ञाका पालन करते हैं, वे उग्रसेन राजाधिराज
नहीं हैं; वे तो केवल भोज, वृष्णि और
अन्धकवंशी यादवोंके ही स्वामी हैं ! ॥ ३४ ॥ क्यों ? जो
सुधर्मासभाको अधिकारमें करके उसमें विराजते हैं और जो देवताओंके वृक्ष पारिजातको
उखाडक़र ले आते और उसका उपभोग करते हैं, वे भगवान् श्रीकृष्ण
भी राज- सिंहासनके अधिकारी नहीं हैं ! अच्छी बात है ! ॥ ३५ ॥ सारे जगत् की
स्वामिनी भगवती लक्ष्मी स्वयं जिनके चरणकमलोंकी उपासना करती हैं, वे लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र छत्र, चँवर
आदि राजोचित सामग्रियों को नहीं रख सकते ॥ ३६ ॥ ठीक है भाई! जिनके चरणकमलोंकी धूल
संत पुरुषोंके द्वारा सेवित गङ्गा आदि तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाली है, सारे लोकपाल अपने-अपने श्रेष्ठ मुकुटपर जिनके चरणकमलोंकी धूल धारण करते
हैं; ब्रह्मा, शङ्कर, मैं और लक्ष्मीजी जिनकी कलाकी भी कला हैं और जिनके चरणोंकी धूल सदा-सर्वदा
धारण करते हैं; उन भगवान् श्रीकृष्णके लिये भला; राजसिंहासन कहाँ रखा है ! ॥ ३७ ॥ बेचारे यदुवंशी तो कौरवोंका दिया हुआ
पृथ्वीका एक टुकड़ा भोगते हैं। क्या खूब ! हमलोग जूती हैं और ये कुरुवंशी स्वयं
सिर हैं ॥ ३८ ॥ ये लोग ऐश्वर्यसे उन्मत्त, घमंडी कौरव
पागल-सरीखे हो रहे हैं। इनकी एक-एक बात कटुतासे भरी और बेसिर-पैरकी है। मेरे-जैसा
पुरुष—जो इनका शासन कर सकता है, इन्हें
दण्ड देकर इनके होश ठिकाने ला सकता है—भला इनकी बातोंको कैसे
सहन कर सकता है? ॥ ३९ ॥ आज मैं सारी पृथ्वीको कौरवहीन कर
डालूँगा, इस प्रकार कहते-कहते बलरामजी क्रोधसे ऐसे भर गये,
मानो त्रिलोकीको भस्म कर देंगे। वे अपना हल लेकर खड़े हो गये ॥ ४० ॥
उन्होंने उसकी नोकसे बार-बार चोट करके हस्तिनापुरको उखाड़ लिया और उसे डुबानेके
लिये बड़े क्रोधसे गङ्गाजीकी ओर खींचने लगे ॥ ४१ ॥
हलसे खींचनेपर
हस्तिनापुर इस प्रकार काँपने लगा मानो जलमें कोई नाव डगमगा रही हो। जब कौरवोंने
देखा कि हमारा नगर तो गङ्गाजीमें गिर रहा है,
तब वे घबड़ा उठे ॥ ४२ ॥ फिर उन लोगोंने लक्ष्मणाके साथ साम्बको आगे
किया और अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये कुटुम्बके साथ हाथ जोडक़र सर्वशक्तिमान्
उन्हीं भगवान् बलरामजीकी शरणमें गये ॥ ४३ ॥ और कहने लगे— ‘लोकाभिराम
बलरामजी ! आप सारे जगत् के आधार शेषजी हैं। हम आपका प्रभाव नहीं जानते। प्रभो !
हमलोग मूढ हो रहे हैं, हमारी बुद्धि बिगड़ गयी है; इसलिये आप हमलोगोंका अपराध क्षमा कर दीजिये ॥ ४४ ॥ आप जगत् की स्थिति,
उत्पत्ति और प्रलयके एकमात्र कारण हैं और स्वयं निराधार स्थित हैं।
सर्वशक्तिमान् प्रभो ! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि कहते हैं कि आप खिलाड़ी हैं और ये
सब-के-सब लोग आपके खिलौने हैं ॥ ४५ ॥ अनन्त ! आपके सहस्र-सहस्र सिर हैं और आप
खेल-खेलमें ही इस भूमण्डलको अपने सिरपर रखे रहते हैं। जब प्रलयका समय आता है,
तब आप सारे जगत्को अपने भीतर लीन कर लेते हैं और केवल आप ही बचे
रहकर अद्वितीयरूपसे शयन करते हैं ॥ ४६ ॥ भगवन् ! आप जगत्की स्थिति और पालनके लिये
विशुद्ध सत्त्वमय शरीर ग्रहण किये हुए हैं। आपका यह क्रोध द्वेष या मत्सरके कारण
नहीं है। यह तो समस्त प्राणियोंको शिक्षा देनेके लिये है ॥ ४७ ॥ समस्त शक्तियोंको
धारण करनेवाले सर्वप्राणिस्वरूप अविनाशी भगवन् ! आपको हम नमस्कार करते हैं। समस्त
विश्वके रचयिता देव ! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। हम आपकी शरणमें हैं। आप
कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये’ ॥ ४८ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! कौरवोंका नगर
डगमगा रहा था और वे अत्यन्त घबराहटमें पड़े हुए थे। जब सब-के-सब कुरुवंशी इस
प्रकार भगवान् बलरामजीकी शरणमें आये और उनकी स्तुति-प्रार्थना की, तब वे प्रसन्न हो गये और ‘डरो मत’ ऐसा कहकर उन्हें अभयदान दिया ॥ ४९ ॥ परीक्षित् ! दुर्योधन अपनी पुत्री
लक्ष्मणासे बड़ा प्रेम करता था। उसने दहेजमें साठ-साठ वर्षके बारह सौ हाथी,
दस हजार घोड़े, सूर्यके समान चमकते हुए सोनेके
छ: हजार रथ और सोनेके हार पहनी हुई एक हजार दासियाँ दीं ॥ ५०-५१ ॥ यदुवंशशिरोमणि
भगवान् बलरामजीने यह सब दहेज स्वीकार किया और नवदम्पति लक्ष्मणा तथा साम्ब के साथ
कौरवोंका अभिनन्दन स्वीकार करके द्वारका की यात्रा की ॥ ५२ ॥ अब बलराम जी
द्वारकापुरीमें पहुँचे और अपने प्रेमी तथा समाचार जानने के लिये उत्सुक
बन्धु-बान्धवों से मिले। उन्होंने यदुवंशियोंकी भरी सभामें अपना वह सारा चरित्र कह
सुनाया, जो हस्तिनापुर में उन्होंने कौरवोंके साथ किया था ॥
५३ ॥ परीक्षित् ! यह हस्तिनापुर आज भी दक्षिण की ओर ऊँचा और गङ्गाजी की ओर कुछ
झुका हुआ है और इस प्रकार यह भगवान् बलरामजी के पराक्रमकी सूचना दे रहा है ॥ ५४ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे हस्तिनपुरकर्षणरूपसंकर्षणविजयो नाम
अष्टषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६८ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से