सोमवार, 21 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

कौरवोंपर बलरामजी का कोप और साम्ब का विवाह

 

वीर्यशौर्यबलोन्नद्धं आत्मशक्तिसमं वचः ।

 कुरवो बलदेवस्य निशम्योचुः प्रकोपिताः ॥ २३ ॥

 अहो महच्चित्रमिदं कालगत्या दुरत्यया ।

 आरुरुक्षत्युपानद् वै शिरो मुकुटसेवितम् ॥ २४ ॥

 एते यौनेन संबद्धाः सहशय्यासनाशनाः ।

 वृष्णयस्तुल्यतां नीता अस्मद् दत्तनृपासनाः ॥ २५ ॥

 चामरव्यजने शङ्खं आतपत्रं च पाण्डुरम् ।

 किरीटमासनं शय्यां भुञ्जन्त्यस्मदुपेक्षया ॥ २६ ॥

अलं यदूनां नरदेवलाञ्छनैः

     दातुः प्रतीपैः फणिनामिवामृतम् ।

 येऽस्मत्प्रसादोपचिता हि यादवा

     आज्ञापयन्त्यद्य गतत्रपा बत ॥ २७ ॥

कथमिन्द्रोऽपि कुरुभिः भीष्मद्रोणार्जुनादिभिः ।

 अदत्तमवरुन्धीत सिंहग्रस्तमिवोरणः ॥ २८ ॥

 

 श्रीबादरायणिरुवाच -

जन्मबन्धुश्रीयोन्नद्ध मदास्ते भरतर्षभ ।

 आश्राव्य रामं दुर्वाच्यं असभ्याः पुरमाविशन् ॥ २९ ॥

 दृष्ट्वा कुरूनां दौःशील्यं श्रुत्वावाच्यानि चाच्युतः ।

 अवोचत् कोपसंरब्धो दुष्प्रेक्ष्यः प्रहसन् मुहुः ॥ ३० ॥

 नूनं नानामदोन्नद्धाः शान्तिं नेच्छन्त्यसाधवः ।

 तेषां हि प्रशमो दण्डः पशूनां लगुडो यथा ॥ ३१ ॥

 अहो यदून् सुसंरब्धाम् कृष्णं च कुपितं शनैः ।

 सान्त्वयित्वाहमेतेषां शममिच्छन् इहागतः ॥ ३२ ॥

 त इमे मन्दमतयः कलहाभिरताः खलाः ।

 तं मामवज्ञाय मुहुः दुर्भाषान् मानिनोऽब्रुवन् ॥ ३३ ॥

 नोग्रसेनः किल विभुः भोजवृष्ण्यन्धकेश्वरः ।

 शक्रादयो लोकपाला यस्यादेशानुवर्तिनः ॥ ३४ ॥

 सुधर्माऽऽक्रम्यते येन पारिजातोऽमराङ्‌घ्रिपः ।

 आनीय भुज्यते सोऽसौ न किलाध्यासनार्हणः ॥ ३५ ॥

 यस्य पादयुगं साक्षात् श्रीरुपास्तेऽखिलेश्वरी ।

 स नार्हति किल श्रीशो नरदेवपरिच्छदान् ॥ ३६ ॥

यस्याङ्‌घ्रिपङ्कजरजोऽखिललोकपालैः

     मौल्युत्तमैर्धृतमुपासिततीर्थतीर्थम् ।

 ब्रह्मा भवोऽहमपि यस्य कलाः कलायाः

     श्रीश्चोद्वहेम चिरमस्य नृपासनं क्व ॥ ३७ ॥

भुञ्जते कुरुभिर्दत्तं भूखण्डं वृष्णयः किल ।

 उपानहः किल वयं स्वयं तु कुरवः शिरः ॥ ३८ ॥

 अहो ऐश्वर्यमत्तानां मत्तानामिव मानिनाम् ।

 असंबद्धा गिरो रुक्षाः कः सहेतानुशासीता ॥ ३९ ॥

 अद्य निष्कौरवं पृथ्वीं करिष्यामीत्यमर्षितः ।

 गृहीत्वा हलमुत्तस्थौ दहन्निव जगत्त्रयम् ॥ ४० ॥

 लाङ्गलाग्रेण नगरं उद्विदार्य गजाह्वयम् ।

 विचकर्ष स गङ्गायां प्रहरिष्यन्नमर्षितः ॥ ४१ ॥

 जलयानमिवाघूर्णं गङ्गायां नगरं पतत् ।

 आकृष्यमाणमालोक्य कौरवाः जातसंभ्रमाः ॥ ४२ ॥

 तमेव शरणं जग्मुः सकुटुम्बा जिजीविषवः ।

 सलक्ष्मणं पुरस्कृत्य साम्बं प्राञ्जलयः प्रभुम् ॥ ४३ ॥

 राम रामाखिलाधार प्रभावं न विदाम ते ।

 मूढानां नः कुबुद्धीनां क्षन्तुमर्हस्यतिक्रमम् ॥ ४४ ॥

 स्थित्युत्पत्त्यप्ययानां त्वमेको हेतुर्निराश्रयः ।

 लोकान् क्रीडनकानीश क्रीडतस्ते वदन्ति हि ॥ ४५ ॥

त्वमेव मूर्ध्नीदमनन्त लीलया

     भूमण्डलं बिभर्षि सहस्रमूर्धन् ।

 अन्ते च यः स्वात्मनि रुद्धविश्वः

     शेषेऽद्वितीयः परिशिष्यमाणः ॥ ४६ ॥

कोपस्तेऽखिलशिक्षार्थं न द्वेषान्न च मत्सरात् ।

बिभ्रतो भगवन् सत्त्वं स्थितिपालनतत्परः ॥ ४७ ॥

नमस्ते सर्वभूतात्मन् सर्वशक्तिधराव्यय ।

विश्वकर्मन् नमस्तेऽस्तु त्वां वयं शरणं गताः ॥ ४८ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

एवं प्रपन्नैः संविग्नैः वेपमानायनैर्बलः ।

 प्रसादितः सुप्रसन्नो मा भैष्टेत्यभयं ददौ ॥ ४९ ॥

 दुर्योधनः पारिबर्हं कुञ्जरान् षष्टिहायनान् ।

 ददौ च द्वादशशतानि अयुतानि तुरङ्गमान् ॥ ५० ॥

 रथानां षट्सहस्राणि रौक्माणां सूर्यवर्चसाम् ।

 दासीनां निष्ककण्ठीनां सहस्रं दुहितृवत्सलः ॥ ५१ ॥

 प्रतिगृह्य तु तत्सर्वं भगवान् सात्वतर्षभः ।

 ससुतः सस्नुषः प्रायात् सुहृद्‌भिरभिनन्दितः ॥ ५२ ॥

ततः प्रविष्टः स्वपुरं हलायुधः

     समेत्य बन्धूननुरक्तचेतसः ।

 शशंस सर्वं यदुपुङ्गवानां

     मध्ये सभायां कुरुषु स्वचेष्टितम् ॥ ५३ ॥

अद्यापि च पुरं ह्येतत् सूचयद् रामविक्रमम् ।

 समुन्नतं दक्षिणतो गङ्गायां अनुदृश्यते ॥ ५४ ॥

 

परीक्षित्‌ ! बलरामजीकी वाणी वीरता, शूरता और बल-पौरुषके उत्कर्षसे परिपूर्ण और उनकी शक्तिके अनुरूप थी। यह बात सुनकर कुरुवंशी क्रोधसे तिलमिला उठे। वे कहने लगे॥ २३ ॥ अहो, यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है ! सचमुच कालकी चालको कोई टाल नहीं सकता। तभी तो आज पैरोंकी जूती उस सिरपर चढऩा चाहती है, जो श्रेष्ठ मुकुटसे सुशोभित है ॥ २४ ॥ इन यदुवंशियोंके साथ किसी प्रकार हमलोगोंने विवाह-सम्बन्ध कर लिया। ये हमारे साथ सोने-बैठने और एक पंक्तिमें खाने लगे। हमलोगोंने ही इन्हें राजसिंहासन देकर राजा बनाया और अपने बराबर बना लिया ॥ २५ ॥ ये यदुवंशी चँवर, पंखा, शङ्ख, श्वेतछत्र, मुकुट, राजसिंहासन और राजोचित शय्याका उपयोग-उपभोग इसलिये कर रहे हैं कि हमने जान-बूझकर इस विषयमें उपेक्षा कर रखी है ॥ २६ ॥ बस-बस, अब हो चुका। यदुवंशियोंके पास अब राजचिह्न रहनेकी आवश्यकता नहीं, उन्हें उनसे छीन लेना चाहिये। जैसे साँपको दूध पिलाना पिलानेवालेके लिये ही घातक है, वैसे ही हमारे दिये हुए राजचिह्नोंको लेकर ये यदुवंशी हमसे ही विपरीत हो रहे हैं। देखो तो भला हमारे ही कृपा-प्रसादसे तो इनकी बढ़ती हुई और अब ये निर्लज्ज होकर हमींपर हुकुम चलाने चले हैं। शोक है ! शोक है ! ॥ २७ ॥ जैसे सिंह का ग्रास कभी भेड़ा नहीं छीन सकता, वैसे ही यदि भीष्म, द्रोण, अर्जुन आदि कौरववीर जान-बूझकर न छोड़ दें, न दे दें तो स्वयं देवराज इन्द्र भी किसी वस्तुका उपभोग कैसे कर सकते हैं ? ॥ २८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! कुरुवंशी अपनी कुलीनता, बान्धवों-परिवारवालों (भीष्मादि) के बल और धनसम्पत्तिके घमंडमें चूर हो रहे थे। उन्होंने साधारण शिष्टाचारकी भी परवा नहीं की और वे भगवान्‌ बलरामजीको इस प्रकार दुर्वचन कहकर हस्तिनापुर लौट गये ॥ २९ ॥ बलरामजीने कौरवोंकी दुष्टता-अशिष्टता देखी और उनके दुर्वचन भी सुने। अब उनका चेहरा क्रोध-से तमतमा उठा। उस समय उनकी ओर देखातक नहीं जाता था। वे बार-बार जोर-जोरसे हँसकर कहने लगे॥ ३० ॥ सच है, जिन दुष्टोंको अपनी कुलीनता, बलपौरुष और धनका घमंड हो जाता है, वे शान्ति नहीं चाहते। उनको दमन करनेका, रास्तेपर लानेका उपाय समझाना-बुझाना नहीं, बल्कि दण्ड देना हैठीक वैसे ही, जैसे पशुओंको ठीक करनेके लिये डंडेका प्रयोग आवश्यक होता है ॥ ३१ ॥ भला, देखो तो सहीसारे यदुवंशी और श्रीकृष्ण भी क्रोधसे भरकर लड़ाईके लिये तैयार हो रहे थे। मैं उन्हें शनै:-शनै: समझा-बुझाकर इन लोगोंको शान्त करनेके लिये, सुलह करनेके लिये यहाँ आया ॥ ३२ ॥ फिर भी ये मूर्ख ऐसी दुष्टता कर रहे हैं ! इन्हें शान्ति प्यारी नहीं, कलह प्यारी है। ये इतने घमंडी हो रहे हैं कि बार-बार मेरा तिरस्कार करके गालियाँ बक गये हैं ॥ ३३ ॥ ठीक है, भाई ! ठीक है। पृथ्वीके राजाओंकी तो बात ही क्या, त्रिलोकीके स्वामी इन्द्र आदि लोकपाल जिनकी आज्ञाका पालन करते हैं, वे उग्रसेन राजाधिराज नहीं हैं; वे तो केवल भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी यादवोंके ही स्वामी हैं ! ॥ ३४ ॥ क्यों ? जो सुधर्मासभाको अधिकारमें करके उसमें विराजते हैं और जो देवताओंके वृक्ष पारिजातको उखाडक़र ले आते और उसका उपभोग करते हैं, वे भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी राज- सिंहासनके अधिकारी नहीं हैं ! अच्छी बात है ! ॥ ३५ ॥ सारे जगत् की स्वामिनी भगवती लक्ष्मी स्वयं जिनके चरणकमलोंकी उपासना करती हैं, वे लक्ष्मीपति भगवान्‌ श्रीकृष्णचन्द्र छत्र, चँवर आदि राजोचित सामग्रियों को नहीं रख सकते ॥ ३६ ॥ ठीक है भाई! जिनके चरणकमलोंकी धूल संत पुरुषोंके द्वारा सेवित गङ्गा आदि तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाली है, सारे लोकपाल अपने-अपने श्रेष्ठ मुकुटपर जिनके चरणकमलोंकी धूल धारण करते हैं; ब्रह्मा, शङ्कर, मैं और लक्ष्मीजी जिनकी कलाकी भी कला हैं और जिनके चरणोंकी धूल सदा-सर्वदा धारण करते हैं; उन भगवान्‌ श्रीकृष्णके लिये भला; राजसिंहासन कहाँ रखा है ! ॥ ३७ ॥ बेचारे यदुवंशी तो कौरवोंका दिया हुआ पृथ्वीका एक टुकड़ा भोगते हैं। क्या खूब ! हमलोग जूती हैं और ये कुरुवंशी स्वयं सिर हैं ॥ ३८ ॥ ये लोग ऐश्वर्यसे उन्मत्त, घमंडी कौरव पागल-सरीखे हो रहे हैं। इनकी एक-एक बात कटुतासे भरी और बेसिर-पैरकी है। मेरे-जैसा पुरुषजो इनका शासन कर सकता है, इन्हें दण्ड देकर इनके होश ठिकाने ला सकता हैभला इनकी बातोंको कैसे सहन कर सकता है? ॥ ३९ ॥ आज मैं सारी पृथ्वीको कौरवहीन कर डालूँगा, इस प्रकार कहते-कहते बलरामजी क्रोधसे ऐसे भर गये, मानो त्रिलोकीको भस्म कर देंगे। वे अपना हल लेकर खड़े हो गये ॥ ४० ॥ उन्होंने उसकी नोकसे बार-बार चोट करके हस्तिनापुरको उखाड़ लिया और उसे डुबानेके लिये बड़े क्रोधसे गङ्गाजीकी ओर खींचने लगे ॥ ४१ ॥

हलसे खींचनेपर हस्तिनापुर इस प्रकार काँपने लगा मानो जलमें कोई नाव डगमगा रही हो। जब कौरवोंने देखा कि हमारा नगर तो गङ्गाजीमें गिर रहा है, तब वे घबड़ा उठे ॥ ४२ ॥ फिर उन लोगोंने लक्ष्मणाके साथ साम्बको आगे किया और अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये कुटुम्बके साथ हाथ जोडक़र सर्वशक्तिमान् उन्हीं भगवान्‌ बलरामजीकी शरणमें गये ॥ ४३ ॥ और कहने लगे— ‘लोकाभिराम बलरामजी ! आप सारे जगत् के आधार शेषजी हैं। हम आपका प्रभाव नहीं जानते। प्रभो ! हमलोग मूढ हो रहे हैं, हमारी बुद्धि बिगड़ गयी है; इसलिये आप हमलोगोंका अपराध क्षमा कर दीजिये ॥ ४४ ॥ आप जगत् की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलयके एकमात्र कारण हैं और स्वयं निराधार स्थित हैं। सर्वशक्तिमान् प्रभो ! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि कहते हैं कि आप खिलाड़ी हैं और ये सब-के-सब लोग आपके खिलौने हैं ॥ ४५ ॥ अनन्त ! आपके सहस्र-सहस्र सिर हैं और आप खेल-खेलमें ही इस भूमण्डलको अपने सिरपर रखे रहते हैं। जब प्रलयका समय आता है, तब आप सारे जगत्को अपने भीतर लीन कर लेते हैं और केवल आप ही बचे रहकर अद्वितीयरूपसे शयन करते हैं ॥ ४६ ॥ भगवन् ! आप जगत्की स्थिति और पालनके लिये विशुद्ध सत्त्वमय शरीर ग्रहण किये हुए हैं। आपका यह क्रोध द्वेष या मत्सरके कारण नहीं है। यह तो समस्त प्राणियोंको शिक्षा देनेके लिये है ॥ ४७ ॥ समस्त शक्तियोंको धारण करनेवाले सर्वप्राणिस्वरूप अविनाशी भगवन् ! आपको हम नमस्कार करते हैं। समस्त विश्वके रचयिता देव ! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। हम आपकी शरणमें हैं। आप कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये॥ ४८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! कौरवोंका नगर डगमगा रहा था और वे अत्यन्त घबराहटमें पड़े हुए थे। जब सब-के-सब कुरुवंशी इस प्रकार भगवान्‌ बलरामजीकी शरणमें आये और उनकी स्तुति-प्रार्थना की, तब वे प्रसन्न हो गये और डरो मतऐसा कहकर उन्हें अभयदान दिया ॥ ४९ ॥ परीक्षित्‌ ! दुर्योधन अपनी पुत्री लक्ष्मणासे बड़ा प्रेम करता था। उसने दहेजमें साठ-साठ वर्षके बारह सौ हाथी, दस हजार घोड़े, सूर्यके समान चमकते हुए सोनेके छ: हजार रथ और सोनेके हार पहनी हुई एक हजार दासियाँ दीं ॥ ५०-५१ ॥ यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ बलरामजीने यह सब दहेज स्वीकार किया और नवदम्पति लक्ष्मणा तथा साम्ब के साथ कौरवोंका अभिनन्दन स्वीकार करके द्वारका की यात्रा की ॥ ५२ ॥ अब बलराम जी द्वारकापुरीमें पहुँचे और अपने प्रेमी तथा समाचार जानने के लिये उत्सुक बन्धु-बान्धवों से मिले। उन्होंने यदुवंशियोंकी भरी सभामें अपना वह सारा चरित्र कह सुनाया, जो हस्तिनापुर में उन्होंने कौरवोंके साथ किया था ॥ ५३ ॥ परीक्षित्‌ ! यह हस्तिनापुर आज भी दक्षिण की ओर ऊँचा और गङ्गाजी की ओर कुछ झुका हुआ है और इस प्रकार यह भगवान्‌ बलरामजी के पराक्रमकी सूचना दे रहा है ॥ ५४ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे हस्तिनपुरकर्षणरूपसंकर्षणविजयो नाम अष्टषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६८ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

 शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

कौरवोंपर बलरामजी का कोप और साम्ब का विवाह

 

श्रीशुक उवाच -

दुर्योधनसुतां राजन् लक्ष्मणां समितिंजयः ।

स्वयंवरस्थामहरत् सांबो जाम्बवतीसुतः ॥ १ ॥

कौरवाः कुपिता ऊचुः दुर्विनीतोऽयमर्भकः ।

कदर्थीकृत्य नः कन्यां अकामां अहरद् बलात् ॥ २ ॥

बध्नीतेमं दुर्विनीतं किं करिष्यन्ति वृष्णयः ।

येऽस्मत् प्रसादोपचितां दत्तां नो भुञ्जते महीम् ॥ ३ ॥

निगृहीतं सुतं श्रुत्वा यद्येष्यन्तीह वृष्णयः ।

भग्नदर्पाः शमं यान्ति प्राणा इव सुसंयताः ॥ ४ ॥

इति कर्णः शलो भूरिः यज्ञकेतुः सुयोधनः ।

साम्बमारेभिरे बद्धुं कुरुवृद्धानुमोदिताः ॥ ५ ॥

 दृष्ट्वानुधावतः साम्बो धार्तराष्ट्रान् महारथः ।

 प्रगृह्य रुचिरं चापं तस्थौ सिंह इवैकलः ॥ ६ ॥

 तं ते जिघृक्षवः क्रुद्धाः तिष्ठ तिष्ठेति भाषिणः ।

 आसाद्य धन्विनो बाणैः कर्णाग्रण्यः समाकिरन् ॥ ७ ॥

 सोऽपविद्धः कुरुश्रेष्ठ कुरुभिर्यदुनन्दनः ।

 नामृष्यत् तदचिन्त्यार्भः सिंह क्षुद्रमृगैरिव ॥ ८ ॥

 विस्फूर्ज्य रुचिरं चापं सर्वान् विव्याध सायकैः ।

 कर्णादीन् षड्रथान् वीरः तावद्‌भिर्युगपत् पृथक् ॥ ९ ॥

 चतुर्भिश्चतुरो वाहान् एकैकेन च सारथीन् ।

 रथिनश्च महेष्वासान् तस्य तत्तेऽभ्यपूजयन् ॥ १० ॥

 तं तु ते विरथं चक्रुः चत्वारश्चतुरो हयान् ।

 एकस्तु सारथिं जघ्ने चिच्छेदान्यः शरासनम् ॥ ११ ॥

 तं बद्ध्वा विरथीकृत्य कृच्छ्रेण कुरवो युधि ।

 कुमारं स्वस्य कन्यां च स्वपुरं जयिनोऽविशन् ॥ १२ ॥

 तच्छ्रुत्वा नारदोक्तेन राजन् सञ्जातमन्यवः ।

 कुरून् प्रत्युद्यमं चक्रुः उग्रसेनप्रचोदिताः ॥ १३ ॥

 सान्त्वयित्वा तु तान् रामः सन्नद्धान् वृष्णिपुङ्गवान् ।

 नैच्छय् कुरूणां वृष्णीनां कलिं कलिमलापहः ॥ १४ ॥

 जगाम हास्तिनपुरं रथेनादित्यवर्चसा ।

 ब्राह्मणैः कुलवृद्धैश्च वृतश्चन्द्र इव ग्रहैः ॥ १५ ॥

 गत्वा गजाह्वयं रामो बाह्योपवनमास्थितः ।

 उद्धवं प्रेषयामास धृतराष्ट्रं बुभुत्सया ॥ १६ ॥

 सोऽभिवन्द्याम्बिकापुत्रं भीष्मं द्रोणं च बाह्लिकम् ।

 दुर्योधनं च विधिवद् राममागतमब्रवीत् ॥ १७ ॥

 तेऽतिप्रीतास्तमाकर्ण्य प्राप्तं रामं सुहृत्तमम् ।

 तमर्चयित्वाभिययुः सर्वे मङ्गलपाणयः ॥ १८ ॥

 तं सङ्गम्य यथान्यायं गामर्घ्यं च न्यवेदयन् ।

 तेषां ये तत्प्रभावज्ञाः प्रणेमुः शिरसा बलम् ॥ १९ ॥

 बन्धून् कुशलिनः श्रुत्वा पृष्ट्वा शिवमनामयम् ।

 परस्परमथो रामो बभाषेऽविक्लवं वचः ॥ २० ॥

 उग्रसेनः क्षितीशेशो यद् व आज्ञापयत् प्रभुः ।

 तद् अव्यग्रधियः श्रुत्वा कुरुध्वं माविलम्बितम् ॥ २१ ॥

 यद् यूयं बहवस्त्वेकं जित्वाधर्मेण धार्मिकम् ।

 अबध्नीताथ तन्मृष्ये बन्धूनामैक्यकाम्यया ॥ २२ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जाम्बवतीनन्दन साम्ब अकेले ही बहुत बड़े-बड़े वीरोंपर विजय प्राप्त करनेवाले थे। वे स्वयंवरमें स्थित दुर्योधनकी कन्या लक्ष्मणा को हर लाये ॥ १ ॥ इससे कौरवोंको बड़ा क्रोध हुआ, वे बोले—‘यह बालक बहुत ढीठ है। देखो तो सही, इसने हमलोगोंको नीचा दिखाकर बलपूर्वक हमारी कन्याका अपहरण कर लिया। वह तो इसे चाहती भी न थी ॥ २ ॥ अत: इस ढीठको पकडक़र बाँध लो। यदि यदुवंशीलोग रुष्ट भी होंगे तो वे हमारा क्या बिगाड़ लेंगे ? वे लोग हमारी ही कृपासे हमारी ही दी हुई धन-धान्यसे परिपूर्ण पृथ्वीका उपभोग कर रहे हैं ॥ ३ ॥ यदि वे लोग अपने इस लडक़ेके बंदी होनेका समाचार सुनकर यहाँ आयेंगे, तो हमलोग उनका सारा घमंड चूर-चूर कर देंगे और उन लोगोंके मिजाज वैसे ही ठंडे हो जायँगे, जैसे संयमी पुरुषके द्वारा प्राणायाम आदि उपायोंसे वशमें की हुई इन्द्रियाँ॥ ४ ॥ ऐसा विचार करके कर्ण, शल, भूरिश्रवा, यज्ञकेतु और दुर्योधनादि वीरोंने कुरुवंशके बड़े-बूढ़ोंकी अनुमति ली तथा साम्बको पकड़ लेनेकी तैयारी की ॥ ५ ॥

जब महारथी साम्बने देखा कि धृतराष्ट्रके पुत्र मेरा पीछा कर रहे हैं, तब वे एक सुन्दर धनुष चढ़ाकर सिंहके समान अकेले ही रणभूमिमें डट गये ॥ ६ ॥ इधर कर्णको मुखिया बनाकर कौरववीर धनुष चढ़ाये हुए साम्बके पास आ पहुँचे और क्रोधमें भरकर उनको पकड़ लेनेकी इच्छासे खड़ा रह ! खड़ा रह !इस प्रकार ललकारते हुए बाणोंकी वर्षा करने लगे ॥ ७ ॥ परीक्षित्‌! यदुनन्दन साम्ब अचिन्त्यैश्वर्यशाली भगवान्‌ श्रीकृष्णके पुत्र थे। कौरवोंके प्रहारसे वे उनपर चिढ़ गये, जैसे सिंह तुच्छ हरिनोंका पराक्रम देखकर चिढ़ जाता है ॥ ८ ॥ साम्बने अपने सुन्दर धनुषका टंकार करके कर्ण आदि छ: वीरोंपर, जो अलग-अलग छ: रथोंपर सवार थे, छ:-छ: बाणोंसे एक साथ अलग-अलग प्रहार किया ॥ ९ ॥ उनमेंसे चार-चार बाण उनके चार-चार घोड़ोंपर, एक-एक उनके सारथियोंपर और एक-एक उन महान् धनुषधारी रथी वीरोंपर छोड़ा। साम्बके इस अद्भुत हस्तलाघव को देखकर विपक्षी वीर भी मुक्तकण्ठसे उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ १० ॥ इसके बाद उन छ:हों वीरोंने एक साथ मिलकर साम्बको रथहीन कर दिया। चार वीरोंने एक-एक बाणसे उनके चार घोड़ोंको मारा, एकने सारथिको और एकने साम्बका धनुष काट डाला ॥ ११ ॥ इस प्रकार कौरवोंने युद्धमें बड़ी कठिनाई और कष्टसे साम्बको रथहीन करके बाँध लिया। इसके बाद वे उन्हें तथा अपनी कन्या लक्ष्मणाको लेकर जय मनाते हुए हस्तिनापुर लौट आये ॥ १२ ॥

परीक्षित्‌ ! नारदजीसे यह समाचार सुनकर यदुवंशियोंको बड़ा क्रोध आया। वे महाराज उग्रसेनकी आज्ञासे कौरवोंपर चढ़ाई करनेकी तैयारी करने लगे ॥ १३ ॥ बलरामजी कलहप्रधान कलियुगके सारे पाप-तापको मिटानेवाले हैं। उन्होंने कुरुवंशियों और यदुवंशियोंके लड़ाई-झगड़ेको ठीक न समझा। यद्यपि यदुवंशी अपनी तैयारी पूरी कर चुके थे, फिर भी उन्होंने उन्हें शान्त कर दिया और स्वयं सूर्यके समान तेजस्वी रथपर सवार होकर हस्तिनापुर गये। उनके साथ कुछ ब्राह्मण और यदुवंशके बड़े-बूढ़े भी गये। उनके बीचमें बलरामजीकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो चन्द्रमा ग्रहोंसे घिरे हुए हों ॥ १४-१५ ॥ हस्तिनापुर पहुँचकर बलरामजी नगरके बाहर एक उपवनमें ठहर गये और कौरवलोग क्या करना चाहते हैं, इस बातका पता लगानेके लिये उन्होंने उद्धवजीको धृतराष्ट्रके पास भेजा ॥ १६ ॥

उद्धवजी ने कौरवों की सभामें जाकर धृतराष्ट्र, भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, बाह्लीक और दुर्योधनकी विधिपूर्वक अभ्यर्थना-वन्दना की और निवेदन किया कि बलरामजी पधारे हैं॥ १७ ॥ अपने परम हितैषी और प्रियतम बलरामजीका आगमन सुनकर कौरवोंकी प्रसन्नताकी सीमा न रही। वे उद्धवजीका विधिपूर्वक सत्कार करके अपने हाथोंमें माङ्गलिक सामग्री लेकर बलरामजीकी अगवानी करने चले ॥ १८ ॥ फिर अपनी-अपनी अवस्था और सम्बन्धके अनुसार सब लोग बलरामजीसे मिले तथा उनके सत्कारके लिये उन्हें गौ अर्पण की एवं अर्घ्य प्रदान किया। उनमें जो लोग भगवान्‌ बलरामजीका प्रभाव जानते थे, उन्होंने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया ॥ १९ ॥ तदनन्तर उन लोगोंने परस्पर एक-दूसरेका कुशल-मङ्गल पूछा और यह सुनकर कि सब भाई-बन्धु सकुशल हैं, बलरामजीने बड़ी धीरता और गम्भीरताके साथ यह बात कही॥ २० ॥ सर्वसमर्थ राजाधिराज महाराज उग्रसेनने तुमलोगोंको एक आज्ञा दी है। उसे तुमलोग एकाग्रता और सावधानीके साथ सुनो और अविलम्ब उसका पालन करो ॥ २१ ॥ उग्रसेनजीने कहा हैहम जानते हैं कि तुमलोगोंने कइयोंने मिलकर अधर्मसे अकेले धर्मात्मा साम्बको हरा दिया और बंदी कर लिया है। यह सब हम इसलिये सह लेते हैं कि हम सम्बन्धियोंमें परस्पर फूट न पड़े, एकता बनी रहे। (अत: अब झगड़ा मत बढ़ाओ, साम्ब को उसकी नववधू के साथ हमारे पास भेज दो) ॥ २२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



रविवार, 20 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

द्विविद का उद्धार

 

कदर्थीकृत्य बलवान् विप्रचक्रे मदोद्धतः ।

तं तस्याविनयं दृष्ट्वा देशांश्च तदुपद्रुतान् ॥ १६ ॥

क्रुद्धो मुसलमादत्त हलं चारिजिघांसया ।

द्विविदोऽपि महावीर्यः शालमुद्यम्य पाणिना ॥ १७ ॥

अभ्येत्य तरसा तेन बलं मूर्धन्यताडयत् ।

तं तु सङ्कर्षणो मूर्ध्नि पतन्तमचलो यथा ॥ १८ ॥

प्रतिजग्राह बलवान् सुनन्देनाहनच्च तम् ।

मूषलाहतमस्तिष्को विरेजे रक्तधारया ॥ १९ ॥

गिरिर्यथा गैरिकया प्रहारं नानुचिन्तयन् ।

पुनरन्यं समुत्क्षिप्य कृत्वा निष्पत्रमोजसा ॥ २० ॥

तेनाहनत् सुसङ्क्रुद्धः तं बलः शतधाच्छिनत् ।

ततोऽन्येन रुषा जघ्ने तं चापि शतधाच्छिनत् ॥ २१ ॥

एवं युध्यन् भगवता भग्ने भग्ने पुनः पुनः ।

आकृष्य सर्वतो वृक्षान् निर्वृक्षं अकरोद् वनम् ॥ २२ ॥

ततोऽमुञ्चच्छिलावर्षं बलस्योपर्यमर्षितः ।

तत्सर्वं चूर्णयामास लीलया मुसलायुधः ॥ २३ ॥

स बाहू तालसङ्काशौ मुष्टीकृत्य कपीश्वरः ।

आसाद्य रोहिणीपुत्रं ताभ्यां वक्षस्यरूरुजत् ॥ २४ ॥

यादवेन्द्रोऽपि तं दोर्भ्यां त्यक्त्वा मुसललाङ्गले ।

जत्रावभ्यर्दयत्क्रुद्धः सोऽपतद् रुधिरं वमन् ॥ २५ ॥

चकम्पे तेन पतता सटङ्कः सवनस्पतिः ।

पर्वतः कुरुशार्दूल वायुना नौरिवाम्भसि ॥ २६ ॥

जयशब्दो नमःशब्दः साधु साध्विति चाम्बरे ।

सुरसिद्धमुनीन्द्राणां आसीत् कुसुमवर्षिणाम् ॥ २७ ॥

एवं निहत्य द्विविदं जगद्व्यतिकरावहम् ।

संस्तूयमानो भगवान् जनैः स्वपुरमाविशत् ॥ २८ ॥

 

परीक्षित्‌ ! जब इस प्रकार बलवान् और मदोन्मत्त द्विविद बलरामजीको नीचा दिखाने तथा उनका घोर तिरस्कार करने लगा, तब उन्होंने उसकी ढिठाई देखकर और उसके द्वारा सताये हुए देशोंकी दुर्दशापर विचार करके उस शत्रुको मार डालनेकी इच्छासे क्रोधपूर्वक अपना हल-मूसल उठाया। द्विविद भी बड़ा बलवान् था। उसने अपने एक ही हाथसे शालका पेड़ उखाड़ लिया और बड़े वेगसे दौडक़र बलरामजीके सिरपर उसे दे मारा। भगवान्‌ बलराम पर्वतकी तरह अविचल खड़े रहे। उन्होंने अपने हाथसे उस वृक्षको सिरपर गिरते-गिरते पकड़ लिया और अपने सुनन्द नामक मूसल से उसपर प्रहार किया। मूसल लगनेसे द्विविदका मस्तक फट गया और उससे खून की धारा बहने लगी। उस समय उसकी ऐसी शोभा हुई, मानो किसी पर्वतसे गेरूका सोता बह रहा हो। परंतु द्विविदने अपने सिर फटने की कोई परवा नहीं की। उसने कुपित होकर एक दूसरा वृक्ष उखाड़ा, उसे झाड़-झूडक़र बिना पत्तेका कर दिया और फिर उससे बलरामजी पर बड़े जोरका प्रहार किया। बलरामजी ने उस वृक्ष के सैकड़ों टुकड़े कर दिये। इसके बाद द्विविद ने बड़े क्रोधसे दूसरा वृक्ष चलाया, परंतु भगवान्‌ बलरामजी ने उसे भी शतधा छिन्न-भिन्न कर दिया ॥ १६२१ ॥ इस प्रकार वह उनसे युद्ध करता रहा। एक वृक्षके टूट जानेपर दूसरा वृक्ष उखाड़ता और उससे प्रहार करनेकी चेष्टा करता। इस तरह सब ओरसे वृक्ष उखाड़-उखाड़ कर लड़ते-लड़ते उसने सारे वनको ही वृक्षहीन कर दिया ॥ २२ ॥ वृक्ष न रहे, तब द्विविदका क्रोध और भी बढ़ गया तथा वह बहुत चिढक़र बलरामजीके उपर बड़ी-बड़ी चट्टानोंकी वर्षा करने लगा। परंतु भगवान्‌ बलरामजी ने अपने मूसल से उन सभी चट्टानों को खेल-खेलमें ही चकनाचूर कर दिया ॥ २३ ॥ अन्तमें कपिराज द्विविद अपनी ताडक़े समान लंबी बाँहोंसे घूँसा बाँधकर बलरामजीकी ओर झपटा और पास जाकर उसने उनकी छातीपर प्रहार किया ॥ २४ ॥ अब यदुवंशशिरोमणि बलरामजीने हल और मूसल अलग रख दिये तथा क्रुद्ध होकर दोनों हाथोंसे उसके जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। इससे वह वानर खून उगलता हुआ धरतीपर गिर पड़ा ॥ २५ ॥ परीक्षित्‌ ! आँधी आनेपर जैसे जलमें डोंगी डगमगाने लगती है, वैसे ही उसके गिरनेसे बड़े-बड़े वृक्षों और चोटियोंके साथ सारा पर्वत हिल गया ॥ २६ ॥ आकाशमें देवतालोग जय-जय’, सिद्ध लोग नमो नम:और बड़े-बड़े ऋषि-मुनि साधु-साधुके नारे लगाने और बलरामजीपर फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ २७ ॥ परीक्षित्‌ ! द्विविद ने जगत् में बड़ा उपद्रव मचा रखा था, अत: भगवान्‌ बलरामजीने उसे इस प्रकार मार डाला और फिर वे द्वारकापुरी में लौट आये। उस समय सभी पुरजन-परिजन भगवान्‌ बलराम की प्रशंसा कर रहे थे ॥ २८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे द्विविदवधो नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६७ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...