॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
देवर्षि
नारदजी का भगवान् की गृहचर्या देखना
ततोऽन्यदाविशद् गेहं कृष्णपत्न्याः स नारदः ।
योगेश्वरेश्वरस्याङ्ग योगमायाविवित्सया ॥ १९ ॥
दीव्यन्तमक्षैस्तत्रापि प्रियया चोद्धवेन च ।
पूजितः परया
भक्त्या प्रत्युत्थानासनादिभिः ॥ २० ॥
पृष्टश्चाविदुषेवासौ
कदाऽऽयातो भवानिति ।
क्रियते किं नु
पूर्णानां अपूर्णैरस्मदादिभिः ॥ २१ ॥
अथापि ब्रूहि नो
ब्रह्मन् जन्मैतच्छोभनं कुरु ।
स तु विस्मित
उत्थाय तूष्णीमन्यदगाद् गृहम् ॥ २२ ॥
तत्राप्यचष्ट
गोविन्दं लालयन्तं सुतान् शिशून् ।
ततोऽन्यस्मिन्गृहेऽपश्यन् मज्जनाय कृतोद्यमम् ॥
२३ ॥
जुह्वन्तं च
वितानाग्नीन् यजन्तं पञ्चभिर्मखैः ।
भोजयन्तं द्विजान्
क्वापि भुञ्जानमवशेषितम् ॥ २४ ॥
क्वापि
सन्ध्यामुपासीनं जपन्तं ब्रह्म वाग्यतम् ।
एकत्र
चासिचर्माभ्यां चरन्तमसिवर्त्मसु ॥ २५ ॥
अश्वैर्गजै रथैः
क्वापि विचरन्तं गदाग्रजम् ।
क्वचिच्छयानं
पर्यङ्के स्तूयमानं च वन्दिभिः ॥ २६ ॥
मंत्रयन्तं च
कस्मिंश्चित् मंत्रिभिश्चोद्धवादिभिः ।
जलक्रीडारतं क्वापि
वारमुख्याबलावृतम् ॥ २७ ॥
कुत्रचिद्द्विजमुख्येभ्यो ददतं गाः स्वलङ्कृताः
।
इतिहासपुराणानि
श्रृण्वन्तं मङ्गलानि च ॥ २८ ॥
हसन्तं हासकथया
कदाचित् प्रियया गृहे ।
क्वापि धर्मं
सेवमानं अर्थकामौ च कुत्रचित् ॥ २९ ॥
ध्यायन्तमेकमासीनं
पुरुषं प्रकृतेः परम् ।
शुश्रूषन्तं गुरून्
क्वापि कामैर्भोगैः सपर्यया ॥ ३० ॥
कुर्वन्तं विग्रहं
कैश्चित् सन्धिं चान्यत्र केशवम् ।
कुत्रापि सह रामेण
चिन्तयन्तं सतां शिवम् ॥ ३१ ॥
पुत्राणां
दुहितॄणां च काले विध्युपयापनम् ।
दारैर्वरैस्तत्सदृशैः कल्पयन्तं विभूतिभिः ॥ ३२
॥
प्रस्थापनोपनयनैः
अपत्यानां महोत्सवान् ।
वीक्ष्य
योगेश्वरेशस्य येषां लोका विसिस्मिरे ॥ ३३ ॥
यजन्तं सकलान्
देवान् क्वापि क्रतुभिरूर्जितैः ।
पूर्तयन्तं क्वचिद्
धर्मं कूर्पाराममठादिभिः ॥ ३४ ॥
चरन्तं मृगयां
क्वापि हयमारुह्य सैन्धवम् ।
घ्नन्तं तत्र पशून्
मेध्यान् परीतं यदुपुङ्गवैः ॥ ३५ ॥
अव्यक्तलिङ्गं
प्रकृतिषु अन्तःपुरगृहादिषु ।
क्वचिच्चरन्तं
योगेशं तत्तद्भावबुभुत्सया ॥ ३६ ॥
अथोवाच हृषीकेशं
नारदः प्रहसन्निव ।
योगमायोदयं वीक्ष्य
मानुषीं ईयुषो गतिम् ॥ ३७ ॥
विदाम योगमायास्ते
दुर्दर्शा अपि मायिनाम् ।
योगेश्वरात्मन्
निर्भाता भवत्पादनिषेवया ॥ ३८ ॥
अनुजानीहि मां देव
लोकांस्ते यशसाऽऽप्लुतान् ।
पर्यटामि तवोद्गायन्
लीला भुवनपावनीम् ॥ ३९ ॥
श्रीभगवानुवाच -
ब्रह्मन्धन्नस्य वक्ताहं कर्ता तदनुमोदिता ।
तच्छिक्षयन्लोकमिमं
आस्थितः पुत्र मा खिदः ॥ ४० ॥
श्रीशुक उवाच -
इत्याचरन्तं सद्धर्मान् पावनान् गृहमेधिनाम् ।
तमेव सर्वगेहेषु
सन्तमेकं ददर्श ह ॥ ४१ ॥
कृष्णस्यानन्तवीर्यस्य योगमायामहोदयम् ।
मुहुर्दृष्ट्वा
ऋषिरभूद् विस्मितो जातकौतुकः ॥ ४२ ॥
इत्यर्थकामधर्मेषु
कृष्णेन श्रद्धितात्मना ।
सम्यक् सभाजितः
प्रीतः तमेवानुस्मरन् ययौ ॥ ४३ ॥
एवं मनुष्यपदवीमनुवर्तमानो
नारायणोऽखिलभवाय गृहीतशक्तिः ।
रेमेऽङ्ग
षोडशसहस्रवराङ्गनानां
सव्रीडसौहृदनिरीक्षणहासजुष्टः ॥ ४४ ॥
यानीह विश्वविलयोद्भववृत्तिहेतुः
कर्माण्यनन्यविषयाणि हरीश्चकार
यस्त्वङ्ग गायति
श्रृणोत्यनुमोदते वा
भक्तिर्भवेद्भगवति
ह्यपवर्गमार्गे ॥ ४५ ॥
परीक्षित् !
इसके बाद देवर्षि नारदजी योगेश्वरोंके भी ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णकी योगमायाका
रहस्य जाननेके लिये उनकी दूसरी पत्नीके महलमें गये ॥ १९ ॥ वहाँ उन्होंने देखा कि
भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया और उद्धवजी के साथ चौसर खेल रहे हैं। वहाँ भी
भगवान् ने खड़े होकर उनका स्वागत किया,
आसनपर बैठाया और विविध सामग्रियों द्वारा बड़ी भक्तिसे उनकी
अर्चा-पूजा की ॥ २० ॥ इसके बाद भगवान् ने नारदजीसे अनजान की तरह पूछा—‘आप यहाँ कब पधारे ! आप तो परिपूर्ण आत्माराम—आप्तकाम
हैं और हमलोग हैं अपूर्ण। ऐसी अवस्थामें भला हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ॥ २१ ॥
फिर भी ब्रह्मस्वरूप नारदजी ! आप कुछ-न-कुछ आज्ञा अवश्य कीजिये और हमें सेवाका
अवसर देकर हमारा जन्म सफल कीजिये।’ नारदजी यह सब देख-सुनकर
चकित और विस्मित हो रहे थे। वे वहाँसे उठकर चुपचाप दूसरे महलमें चले गये ॥ २२ ॥ उस
महलमें भी देवर्षि नारदने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपने नन्हें-नन्हें बच्चोंको
दुलार रहे हैं। वहाँसे फिर दूसरे महलमें गये तो क्या देखते हैं कि भगवान्
श्रीकृष्ण स्नानकी तैयारी कर रहे हैं ॥ २३ ॥ (इस प्रकार देवर्षि नारदने विभिन्न
महलोंमें भगवान्को भिन्न-भिन्न कार्य करते देखा।) कहीं वे यज्ञ-कुण्डोंमें हवन कर
रहे हैं तो कहीं पञ्चमहायज्ञोंसे देवता आदिकी आराधना कर रहे हैं। कहीं
ब्राह्मणोंको भोजन करा रहे हैं, तो कहीं यज्ञका अवशेष स्वयं
भोजन कर रहे हैं ॥ २४ ॥ कहीं सन्ध्या कर रहे हैं, तो कहीं
मौन होकर गायत्रीका जप कर रहे हैं। कहीं हाथोंमें ढाल-तलवार लेकर उनको चलानेके
पैंतरे बदल रहे हैं ॥ २५ ॥ कहीं घोड़े, हाथी अथवा रथपर सवार
होकर श्रीकृष्ण विचरण कर रहे हैं। कहीं पलंगपर सो रहे हैं, तो
कहीं वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे हैं ॥ २६ ॥ किसी महलमें उद्धव आदि मन्त्रियोंके
साथ किसी गम्भीर विषयपर परामर्श कर रहे हैं, तो कहीं
उत्तमोत्तम वाराङ्गनाओंसे घिरकर जलक्रीडा कर रहे हैं ॥ २७ ॥ कहीं श्रेष्ठ
ब्राह्मणोंको वस्त्राभूषणसे सुसज्जित गौओंका दान कर रहे हैं, तो कहीं मङ्गलमय इतिहास- पुराणोंका श्रवण कर रहे हैं ॥ २८ ॥ कहीं किसी
पत्नीके महलमें अपनी प्राणप्रियाके साथ हास्य-विनोदकी बातें करके हँस रहे हैं। तो
कहीं धर्मका सेवन कर रहे हैं। कहीं अर्थका सेवन कर रहे हैं—धन-संग्रह
और धनवृद्धिके कार्यमें लगे हुए हैं, तो कहीं धर्मानुकूल
गृहस्थोचित विषयोंका उपभोग कर रहे हैं ॥ २९ ॥ कहीं एकान्तमें बैठकर प्रकृतिसे अतीत
पुराण-पुरुषका ध्यान कर रहे हैं, तो कहीं गुरुजनोंको इच्छित
भोग-सामग्री समर्पित करके उनकी सेवा-शुश्रूषा कर रहे हैं ॥ ३० ॥ देवर्षि नारदने
देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण किसीके साथ युद्धकी बात कर रहे हैं, तो किसीके साथ सन्धिकी। कहीं भगवान् बलरामजीके साथ बैठकर सत्पुरुषोंके
कल्याणके बारेमें विचार कर रहे हैं ॥ ३१ ॥ कहीं उचित समयपर पुत्र और कन्याओंका उनके
सदृश पत्नी और वरोंके साथ बड़ी धूमधामसे विधिवत् विवाह कर रहे हैं ॥ ३२ ॥ कहीं
घरसे कन्याओंको विदा कर रहे हैं, तो कहीं बुलानेकी तैयारीमें
लगे हुए हैं। योगेश्वरेश्वर भगवान् श्रीकृष्णके इन विराट् उत्सवोंको देखकर सभी
लोग विस्मित-चकित हो जाते थे ॥ ३३ ॥ कहीं बड़े-बड़े यज्ञोंके द्वारा अपनी कलारूप
देवताओंका यजन-पूजन और कहीं कूएँ, बगीचे तथा मठ आदि बनवाकर
इष्टापूर्त धर्मका आचरण कर रहे हैं ॥ ३४ ॥ कहीं श्रेष्ठ यादवोंसे घिरे हुए
सिन्धुदेशीय घोड़ेपर चढक़र मृगया कर रहे हैं, और उसमें यज्ञके
लिये मेध्य पशुओंका ही वध कर रहे हैं ॥ ३५ ॥ और कहीं प्रजामें तथा अन्त:पुरके
महलोंमें वेष बदलकर छिपे रूपसे सबका अभिप्राय जाननेके लिये विचरण कर रहे हैं।
क्यों न हो, भगवान् योगेश्वर जो हैं ॥ ३६ ॥
परीक्षित् !
इस प्रकार मनुष्यकी-सी लीला करते हुए हृषीकेश भगवान् श्रीकृष्णकी योगमायाका वैभव
देखकर देवर्षि नारदजीने मुसकराते हुए उनसे कहा—
॥ ३७ ॥ ‘योगेश्वर ! आत्मदेव ! आपकी योगमाया
ब्रह्माजी आदि बड़े-बड़े मायावियोंके लिये भी अगम्य है। परन्तु हम आपकी योगमायाका
रहस्य जानते हैं; क्योंकि आपके चरणकमलोंकी सेवा करनेसे वह
स्वयं ही हमारे सामने प्रकट हो गयी है ॥ ३८ ॥ देवताओंके भी आराध्यदेव भगवन् !
चौदहों भुवन आपके सुयशसे परिपूर्ण हो रहे हैं। अब मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं आपकी
त्रिभुवनपावनी लीलाका गान करता हुआ उन लोकोंमें विचरण करूँ’ ॥
३९ ॥
भगवान्
श्रीकृष्णने कहा—देवर्षि नारदजी ! मैं ही
धर्मका उपदेशक, पालन करनेवाला और उसका अनुष्ठान करनेवालोंका
अनुमोदनकर्ता भी हूँ। इसलिये संसारको धर्मकी शिक्षा देनेके उद्देश्यसे ही मैं इस
प्रकार धर्मका आचरण करता हूँ। मेरे प्यारे पुत्र ! तुम मेरी यह योगमाया देखकर
मोहित मत होना ॥ ४० ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण
गृहस्थोंको पवित्र करनेवाले श्रेष्ठ धर्मोंका आचरण कर रहे थे। यद्यपि वे एक ही हैं,
फिर भी देवर्षि नारदजीने उनको उनकी प्रत्येक पत्नीके महलमें अलग-अलग
देखा ॥ ४१ ॥ भगवान् श्रीकृष्णकी शक्ति अनन्त है। उनकी योगमायाका परम ऐश्वर्य
बार-बार देखकर देवर्षि नारदके विस्मय और कौतूहलकी सीमा न रही ॥ ४२ ॥ द्वारकामें
भगवान् श्रीकृष्ण गृहस्थकी भाँति ऐसा आचरण करते थे, मानो
धर्म, अर्थ और कामरूप पुरुषार्थोंमें उनकी बड़ी श्रद्धा हो।
उन्होंने देवर्षि नारदका बहुत सम्मान किया। वे अत्यन्त प्रसन्न होकर भगवान्का
स्मरण करते हुए वहाँसे चले गये ॥ ४३ ॥ राजन् ! भगवान् नारायण सारे जगत्के
कल्याणके लिये अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमायाको स्वीकार करते हैं और इस प्रकार
मनुष्योंकी-सी लीला करते हैं। द्वारकापुरीमें सोलह हजारसे भी अधिक पत्नियाँ अपनी
सलज्ज एवं प्रेमभरी चितवन तथा मन्द-मन्द मुसकानसे उनकी सेवा करती थीं और वे उनके
साथ विहार करते थे ॥ ४४ ॥ भगवान् श्रीकृष्णने जो लीलाएँ की हैं, उन्हें दूसरा कोई नहीं कर सकता। परीक्षित् ! वे विश्वकी उत्पत्ति,
स्थिति और प्रलयके परम कारण हैं। जो उनकी लीलाओंका गान, श्रवण और गान-श्रवण करनेवालोंका अनुमोदन करता है, उसे
मोक्षके मार्गस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें परम प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो
जाती है ॥ ४५ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्या संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे कृष्णगार्हस्थ्यदर्शनं नाम
एकोनसप्ततिमोऽध्यायः ॥ ६९ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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