रविवार, 27 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ की अग्रपूजा और शिशुपालका उद्धार

 

श्रीशुक उवाच -

एवं युधिष्ठिरो राजा जरासन्धवधं विभोः ।

 कृष्णस्य चानुभावं तं श्रुत्वा प्रीतस्तमब्रवीत् ॥ १ ॥

 

 श्रीयुधिष्ठिर उवाच -

ये स्युस्त्रैलोक्यगुरवः सर्वे लोकमहेश्वराः ।

 वहन्ति दुर्लभं लब्ध्वा शिरसैवानुशासनम् ॥ २ ॥

 स भवान् अरविन्दाक्षो दीनानां ईशमानिनाम् ।

 धत्तेऽनुशासनं भूमन् तदत्यन्तविडम्बनम् ॥ ३ ॥

 न ह्येकस्याद्वितीयस्य ब्रह्मणः परमात्मनः ।

 कर्मभिर्वर्धते तेजो ह्रसते च यथा रवेः ॥ ४ ॥

 न वै तेऽजित भक्तानां ममाहमिति माधव ।

 त्वं तवेति च नानाधीः पशूनामिव वैकृती ॥ ५ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

इत्युक्त्वा यज्ञिये काले वव्रे युक्तान् स ऋत्विजः ।

 कृष्णानुमोदितः पार्थो ब्राह्मणान् ब्रह्मवादिनः ॥ ६ ॥

 द्वैपायनो भरद्वाजः सुमन्तुर्गोतमोऽसितः ।

 वसिष्ठश्च्यवनः कण्वो मैत्रेयः कवषस्त्रितः ॥ ७ ॥

 विश्वामित्रो वामदेवः सुमतिर्जैमिनिः क्रतुः ।

 पैलः पराशरो गर्गो वैशम्पायन एव च ॥ ८ ॥

 अथर्वा कश्यपो धौम्यो रामो भार्गव आसुरिः ।

 वीतिहोत्रो मधुच्छन्दा वीरसेनोऽकृतव्रणः ॥ ९ ॥

 उपहूतास्तथा चान्ये द्रोणभीष्मकृपादयः ।

 धृतराष्ट्रः सहसुतो विदुरश्च महामतिः ॥ १० ॥

 ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा यज्ञदिदृक्षवः ।

 तत्रेयुः सर्वराजानो राज्ञां प्रकृतयो नृप ॥ ११ ॥

 ततस्ते देवयजनं ब्राह्मणाः स्वर्णलाङ्‌गलैः ।

 कृष्ट्वा तत्र यथाम्नायं दीक्षयां चक्रिरे नृपम् ॥ १२ ॥

 हैमाः किलोपकरणा वरुणस्य यथा पुरा ।

 इन्द्रादयो लोकपाला विरिञ्चिभवसंयुताः ॥ १३ ॥

 सगणाः सिद्धगन्धर्वा विद्याधरमहोरगाः ।

 मुनयो यक्षरक्षांसि खगकिन्नरचारणाः ॥ १४ ॥

राजानश्च समाहूता राजपत्‍न्यश्च सर्वशः ।

 राजसूयं समीयुः स्म राज्ञः पाण्डुसुतस्य वै ॥ १५ ॥

 मेनिरे कृष्णभक्तस्य सूपपन्नमविस्मिताः ।

 अयाजयन् महाराजं याजका देववर्चसः ।

 राजसूयेन विधिवत् प्रचेतसमिवामराः ॥ १६ ॥

 सूत्येऽहन्यवनीपालो याजकान् सदसस्पतीन् ।

 अपूजयन् महाभागान् यथावत् सुसमाहितः ॥ १७ ॥

 सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशन्तः सभासदः ।

 नाध्यगच्छन् नन्ननैकान्त्यात् सहदेवस्तदाब्रवीत् ॥ १८ ॥

 अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान्सात्वतां पतिः ।

 एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः ॥ १९ ॥

 यस् आत्मकमिदं विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः ।

 अग्निराहुतयो मंत्राः साङ्ख्यं योगश्च यत्परः ॥ २० ॥

 एक एवाद्‌वितीयोऽसौ अवैतदात्म्यमिदं जगत् ।

 आत्मनात्माश्रयः सभ्याः सृजत्यवति हन्त्यजः ॥ २१ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! धर्मराज युधिष्ठिर जरासन्धका वध और सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अद्भुत महिमा सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और उनसे बोले ॥ १ ॥

धर्मराज युधिष्ठिरने कहासच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! त्रिलोकी के स्वामी ब्रह्मा, शङ्कर आदि और इन्द्रादि लोकपालसब आपकी आज्ञा पानेके लिये तरसते रहते हैं और यदि वह मिल जाती है तो बड़ी श्रद्धासे उसको शिरोधार्य करते हैं ॥ २ ॥ अनन्त ! हमलोग हैं तो अत्यन्त दीन, परन्तु मानते हैं अपनेको भूपति और नरपति। ऐसी स्थितिमें हैं तो हम दण्डके पात्र, परन्तु आप हमारी आज्ञा स्वीकार करते हैं और उसका पालन करते हैं। सर्वशक्तिमान् कमलनयन भगवान्‌के लिये यह मनुष्य-लीलाका अभिनयमात्र है ॥ ३ ॥ जैसे उदय अथवा अस्तके कारण सूर्यके तेजमें घटती या बढ़ती नहीं होती, वैसे ही किसी भी प्रकारके कर्मोंसे न तो आपका उल्लास होता है और न तो ह्रास ही। क्योंकि आप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेदसे रहित स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं ॥ ४ ॥ किसीसे पराजित न होनेवाले माधव ! यह मैं हूँ और यह मेरा है तथा यह तू है और यह तेरा’—इस प्रकारकी विकारयुक्त भेदबुद्धि तो पशुओंकी होती है। जो आपके अनन्य भक्त हैं, उनके चित्तमें ऐसे पागलपनके विचार कभी नहीं आते। फिर आपमें तो होंगे ही कहाँसे ? (इसलिये आप जो कुछ कर रहे हैं, वह लीला-ही-लीला है) ॥ ५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार कहकर धर्मराज युधिष्ठिरने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अनुमतिसे यज्ञके योग्य समय आनेपर यज्ञके कर्मोंमें निपुण वेदवादी ब्राह्मणोंको ऋत्विज्, आचार्य आदिके रूपमें वरण किया ॥ ६ ॥ उनके नाम ये हैंश्रीकृष्णद्वैपायनव्यासदेव, भरद्वाज, सुमन्तु, गौतम, असित, वसिष्ठ, च्यवन, कण्व, मैत्रेय, कवष, त्रित, विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिनि, क्रतु, पैल, पराशर, गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, परशुराम, शुक्राचार्य, आसुरि, वीतिहोत्र, मधुच्छन्दा, वीरसेन और अकृतव्रण ॥ ७-९ ॥ इनके अतिरिक्त धर्मराजने द्रोणाचार्य, भीष्मपितामह, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र और उनके दुर्योधन आदि पुत्रों और महामति विदुर आदिको भी बुलवाया ॥ १० ॥ राजन् ! राजसूय यज्ञका दर्शन करनेके लिये देशके सब राजा, उनके मन्त्री तथा कर्मचारी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रसब-के-सब वहाँ आये ॥ ११ ॥

इसके बाद ऋत्विज् ब्राह्मणोंने सोनेके हलोंसे यज्ञभूमिको जुतवाकर राजा युधिष्ठिरको शास्त्रानुसार यज्ञकी दीक्षा दी ॥ १२ ॥ प्राचीन कालमें जैसे वरुणदेवके यज्ञमें सब-के-सब यज्ञपात्र सोनेके बने हुए थे, वैसे ही युधिष्ठिरके यज्ञमें भी थे। पाण्डुनन्दन महाराज युधिष्ठिरके यज्ञमें निमन्त्रण पाकर ब्रह्माजी, शङ्करजी, इन्द्रादि लोकपाल, अपने गणोंके साथ सिद्ध और गन्धर्व, विद्याधर, नाग, मुनि, यक्ष, राक्षस, पक्षी, किन्नर, चारण, बड़े-बड़े राजा और रानियाँये सभी उपस्थित हुए ॥ १३१५ ॥ सबने बिना किसी प्रकारके कौतूहलके यह बात मान ली कि राजसूय यज्ञ करना युधिष्ठिरके योग्य ही है; क्योंकि भगवान्‌ श्रीकृष्णके भक्तके लिये ऐसा करना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। उस समय देवताओंके समान तेजस्वी याजकोंने धर्मराज युधिष्ठिरसे विधिपूर्वक राजसूय यज्ञ कराया; ठीक वैसे ही, जैसे पूर्वकालमें देवताओंने वरुणसे करवाया था ॥ १६ ॥ सोमलतासे रस निकालनेके दिन महाराज युधिष्ठिरने अपने परम भाग्यवान् याजकों और यज्ञकर्मकी भूल-चूकका निरीक्षण करनेवाले सदसस्पतियोंका बड़ी सावधानीसे विधिपूर्वक पूजन किया ॥ १७ ॥

अब सभासद् लोग इस विषयपर विचार करने लगे कि सदस्योंमें सबसे पहले किसकी पूजाअग्रपूजा होनी चाहिये। जितनी मति, उतने मत। इसलिये सर्वसम्मतिसे कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थितिमें सहदेवने कहा॥ १८ ॥ यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही सदस्योंमें सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजाके पात्र हैं; क्योंकि यही समस्त देवताओंके रूपमें हैं; और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएँ हैं, उन सबके रूपमें भी ये ही हैं ॥ १९ ॥ यह सारा विश्व श्रीकृष्णका ही रूप है। समस्त यज्ञ भी श्रीकृष्णस्वरूप ही हैं। भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही अग्रि, आहुति और मन्त्रोंके रूपमें हैं। ज्ञानमार्ग और कर्ममार्गये दोनों भी श्रीकृष्णकी प्राप्तिके ही हेतु हैं ॥ २० ॥ सभासदो ! मैं कहाँतक वर्णन करूँ, भगवान्‌ श्रीकृष्ण वह एकरस अद्वितीय ब्रह्म हैं, जिसमें सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद नाममात्रका भी नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् उन्हींका स्वरूप है। वे अपने-आपमें ही स्थित और जन्म, अस्तित्व, वृद्धि आदि छ: भावविकारोंसे रहित हैं। वे अपने आत्मस्वरूप सङ्कल्प से ही जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं ॥ २१ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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शनिवार, 26 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

जरासन्ध के जेल से छूटे हुए राजाओं की विदाई

और भगवान्‌ का इन्द्रप्रस्थ लौट आना

 

श्रीशुक उवाच -

संस्तूयमानो भगवान् राजभिर्मुक्तबन्धनैः ।

 तानाह करुणस्तात शरण्यः श्लक्ष्णया गिरा ॥ १७ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

अद्य प्रभृति वो भूपा मय्यात्मन्यखिलेश्वरे ।

 सुदृढा जायते भक्तिः बाढमाशंसितं तथा ॥ १८ ॥

 दिष्ट्या व्यवसितं भूपा भवन्त ऋतभाषिणः ।

 श्रीयैश्वर्यमदोन्नाहं पश्य उन्मादकं नृणाम् ॥ १९ ॥

 हैहयो नहुषो वेनो रावणो नरकोऽपरे ।

 श्रीमदाद्‌ भ्रंशिताः स्थानाद् देवदैत्यनरेश्वराः ॥ २० ॥

 भवन्त एतद्‌ विज्ञाय देहाद्युत्पाद्यमन्तवत् ।

 मां यजन्तोऽध्वरैर्युक्ताः प्रजा धर्मेण रक्षथ ॥ २१ ॥

 संतन्वन्तः प्रजातन्तून् सुखं दुःखं भवाभवौ ।

 प्राप्तं प्राप्तं च सेवन्तो मच्चित्ता विचरिष्यथ ॥ २२ ॥

 उदासीनाश्च देहादौ आत्मारामा धृतव्रताः ।

 मय्यावेश्य मनः सम्यङ्‌ मां अन्ते ब्रह्म यास्यथ ॥ २३ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

इत्यादिश्य नृपान् कृष्णो भगवान् भुवनेश्वरः ।

 तेषां न्ययुङ्क्त पुरुषान् स्त्रियो मज्जनकर्मणि ॥ २४ ॥

 सपर्यां कारयामास सहदेवेन भारत ।

 नरदेवोचितैर्वस्त्रैः भूषणैः स्रग्विलेपनैः ॥ २५ ॥

 भोजयित्वा वरान्नेन सुस्नातान् समलङ्कृतान् ।

 भोगैश्च विविधैर्युक्तान् तांबूलाद्यैर्नृपोचितैः ॥ २६ ॥

 ते पूजिता मुकुन्देन राजानो मृष्टकुण्डलाः ।

 विरेजुर्मोचिताः क्लेशात् प्रावृडन्ते यथा ग्रहाः ॥ २७ ॥

 रथान् सदश्वान् आरोप्य मणिकाञ्चनभूषितान् ।

 प्रीणय्य सुनृतैर्वाक्यैः स्वदेशान् प्रत्ययापयत् ॥ २८ ॥

 त एवं मोचिताः कृच्छ्रात् कृष्णेन सुमहात्मना ।

 ययुस्तमेव ध्यायन्तः कृतानि च जगत्पतेः ॥ २९ ॥

 जगदुः प्रकृतिभ्यस्ते महापुरुषचेष्टितम् ।

 यथान्वशासद्‌ भगवान् तथा चक्रुरतन्द्रिताः ॥ ३० ॥

 जरासन्धं घातयित्वा भीमसेनेन केशवः ।

 पार्थाभ्यां संयुतः प्रायात् सहदेवेन पूजितः ॥ ३१ ॥

 गत्वा ते खाण्डवप्रस्थं शङ्खान् दध्मुर्जितारयः ।

 हर्षयन्तः स्वसुहृदो दुर्हृदां चासुखावहाः ॥ ३२ ॥

 तच्छ्रुत्वा प्रीतमनस इन्द्रप्रस्थनिवासिनः ।

 मेनिरे मागधं शान्तं राजा चाप्तमनोरथः ॥ ३३ ॥

 अभिवन्द्याथ राजानं भीमार्जुनजनार्दनाः ।

 सर्वमाश्रावयां चक्रुः आत्मना यदनुष्ठितम् ॥ ३४ ॥

 निशम्य धर्मराजस्तत् केशवेनानुकम्पितम् ।

 आनन्दाश्रुकलां मुञ्चन् प्रेम्णा नोवाच किञ्चन ॥ ३५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! कारागारसे मुक्त राजाओंने जब इस प्रकार करुणावरुणालय भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति की, तब शरणागतरक्षक प्रभु ने बड़ी मधुर वाणीसे उनसे कहा ॥१७॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहानरपतियो ! तुमलोगोंने जैसी इच्छा प्रकट की है, उसके अनुसार आजसे मुझमें तुम लोगोंकी निश्चय ही सुदृढ़ भक्ति होगी। यह जान लो कि मैं सबका आत्मा और सबका स्वामी हूँ ॥ १८ ॥ नरपतियो ! तुमलोगोंने जो निश्चय किया है, वह सचमुच तुम्हारे लिये बड़े सौभाग्य और आनन्दकी बात है। तुमलोगों ने मुझसे जो कुछ कहा है, वह बिलकुल ठीक है। क्योंकि मैं देखता हूँ, धन-सम्पत्ति और ऐश्वर्यके मदसे चूर होकर बहुत-से लोग उच्छृङ्खल और मतवाले हो जाते हैं ॥ १९ ॥ हैहय, नहुष, वेन, रावण, नरकासुर आदि अनेकों देवता, दैत्य और नरपति श्रीमद के कारण अपने स्थानसे, पदसे च्युत हो गये ॥ २० ॥ तुमलोग यह समझ लो कि शरीर और इसके सम्बन्धी पैदा होते हैं, इसलिये उनका नाश भी अवश्यम्भावी है। अत: उनमें आसक्ति मत करो। बड़ी सावधानीसे मन और इन्द्रियोंको वशमें रखकर यज्ञोंके द्वारा मेरा यजन करो और धर्मपूर्वक प्रजाकी रक्षा करो ॥ २१ ॥ तुमलोग अपनी वंश-परम्पराकी रक्षाके लिये, भोगके लिये नहीं, सन्तान उत्पन्न करो और प्रारब्धके अनुसार जन्म-मृत्यु, सुख-दु:ख, लाभ-हानिजो कुछ भी प्राप्त हों, उन्हें समानभावसे मेरा प्रसाद समझकर सेवन करो और अपना चित्त मुझमें लगाकर जीवन बिताओ ॥ २२ ॥ देह और देहके सम्बन्धियोंसे किसी प्रकारकी आसक्ति न रखकर उदासीन रहो; अपने-आपमें, आत्मामें ही रमण करो और भजन तथा आश्रमके योग्य व्रतोंका पालन करते रहो। अपना मन भलीभाँति मुझमें लगाकर अन्तमें तुमलोग मुझ ब्रह्मस्वरूपको ही प्राप्त हो जाओगे ॥ २३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भुवनेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णने राजाओंको यह आदेश देकर उन्हें स्नान आदि करानेके लिये बहुत-से स्त्री-पुरुष नियुक्त कर दिये ॥ २४ ॥ परीक्षित्‌ ! जरासन्ध के पुत्र सहदेवसे उनको राजोचित वस्त्र-आभूषण, माला-चन्दन आदि दिलवाकर उनका खूब सम्मान करवाया ॥ २५ ॥ जब वे स्नान करके वस्त्राभूषणसे सुसज्जित हो चुके, तब भगवान्‌ने उन्हें उत्तम उत्तम पदार्थोंका भोजन करवाया और पान आदि विविध प्रकारके राजोचित भोग दिलवाये ॥ २६ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार उन बंदी राजाओंको सम्मानित किया। अब वे समस्त क्लेशोंसे छुटकारा पाकर तथा कानोंमें झिलमिलाते हुए सुन्दर-सुन्दर कुण्डल पहनकर ऐसे शोभायमान हुए, जैसे वर्षाऋतुका अन्त हो जानेपर तारे ॥ २७ ॥ फिर भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन्हें सुवर्ण और मणियोंसे भूषित एवं श्रेष्ठ घोड़ोंसे युक्त रथोंपर चढ़ाया, मधुर वाणीसे तृप्त किया और फिर उन्हें उनके देशोंको भेज दिया ॥ २८ ॥ इस प्रकार उदारशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन राजाओंको महान् कष्टसे मुक्त किया। अब वे जगत्पति भगवान्‌ श्रीकृष्णके रूप, गुण और लीलाओंका चिन्तन करते हुए अपनी-अपनी राजधानीको चले गये ॥ २९ ॥ वहाँ जाकर उन लोगोंने अपनी-अपनी प्रजासे परमपुरुष भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अद्भुत कृपा और लीला कह सुनायी और फिर बड़ी सावधानीसे भगवान्‌के आज्ञानुसार वे अपना जीवन व्यतीत करने लगे ॥ ३० ॥

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण भीमसेनके द्वारा जरासन्धका वध करवाकर भीमसेन और अर्जुनके साथ जरासन्धनन्दन सहदेवसे सम्मानित होकर इन्द्रप्रस्थके लिये चले। उन विजयी वीरोंने इन्द्रप्रस्थके पास पहुँचकर अपने-अपने शङ्ख बजाये, जिससे उनके इष्टमित्रोंको सुख और शत्रुओंको बड़ा दु:ख हुआ ॥ ३१-३२ ॥ इन्द्रप्रस्थनिवासियोंका मन उस शङ्खध्वनिको सुनकर खिल उठा। उन्होंने समझ लिया कि जरासन्ध मर गया और अब राजा युधिष्ठिरका राजसूय यज्ञ करनेका सङ्कल्प एक प्रकारसे पूरा हो गया ॥ ३३ ॥ भीमसेन, अर्जुन और भगवान्‌ श्रीकृष्णने राजा युधिष्ठिरकी वन्दना की और वह सब कृत्य कह सुनाया, जो उन्हें जरासन्धके वधके लिये करना पड़ा था ॥ ३४ ॥ धर्मराज युधिष्ठिर भगवान्‌ श्रीकृष्णके इस परम अनुग्र हकी बात सुनकर प्रेमसे भर गये, उनके नेत्रोंसे आनन्दके आँसुओंकी बूँदें टपकने लगीं और वे उनसे कुछ भी कह न सके ॥ ३५ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे कृष्णाद्यागमने नाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७३ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

जरासन्ध के जेल से छूटे हुए राजाओं की विदाई

और भगवान्‌ का इन्द्रप्रस्थ लौट आना

 

श्रीशुक उवाच -

अयुते द्वे शतान्यष्टौ निरुद्धा युधि निर्जिताः ।

 ते निर्गता गिरिद्रोण्यां मलिना मलवाससः ॥ १ ॥

 क्षुत्क्षामाः शुष्कवदनाः संरोधपरिकर्शिताः ।

 ददृशुस्ते घनश्यामं पीतकौशेयवाससम् ॥ २ ॥

 श्रीवत्साङ्कं चतुर्बाहुं पद्मगर्भारुणेक्षणम् ।

 चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ॥ ३ ॥

 पद्महस्तं गदाशङ्ख रथाङ्‌गैरुपलक्षितम् ।

 किरीटहारकटक कटिसूत्राङ्‌गदाञ्चितम् ॥ ४ ॥

 भ्राजद्वरमणिग्रीवं निवीतं वनमालया ।

 पिबन्त इव चक्षुर्भ्यां लिहन्त इव जिह्वया ॥ ५ ॥

 जिघ्रन्त इव नासाभ्यां रम्भन्त इव बाहुभिः ।

 प्रणेमुर्हतपाप्मानो मूर्धभिः पादयोर्हरेः ॥ ६ ॥

 कृष्णसन्दर्शनाह्लाद ध्वस्तसंरोधनक्लमाः ।

 प्रशशंसुर्हृषीकेशं गीर्भिः प्राञ्जलयो नृपाः ॥ ७ ॥

 

 राजान ऊचुः -

नमस्ते देवदेवेश प्रपन्नार्तिहराव्यय ।

 प्रपन्ना पाहि नः कृष्ण निर्विण्णान् घोरसंसृतेः ॥ ८ ॥

 नैनं नाथानुसूयामो मागधं मधुसूदन ।

 अनुग्रहो यद्‌ भवतो राज्ञां राज्यच्युतिर्विभो ॥ ९ ॥

 राज्यैश्वर्यमदोन्नद्धो न श्रेयो विन्दते नृपः ।

 त्वन्मायामोहितोऽनित्या मन्यते सम्पदोऽचलाः ॥ १० ॥

 मृगतृष्णां यथा बाला मन्यन्त उदकाशयम् ।

 एवं वैकारिकीं मायां अयुक्ता वस्तु चक्षते ॥ ११ ॥

वयं पुरा श्रीमदनष्टदृष्टयो

     जिगीषयास्या इतरेतरस्पृधः ।

 घ्नन्तः प्रजाः स्वा अतिनिर्घृणाः प्रभो

     मृत्युं पुरस्त्वाविगणय्य दुर्मदाः ॥ १२ ॥

 त एव कृष्णाद्य गभीररंहसा

     दुरन्तवीर्येण विचालिताः श्रियः ।

 कालेन तन्वा भवतोऽनुकम्पया

     विनष्टदर्पाश्चरणौ स्मराम ते ॥ १३ ॥

 अथो न राज्यम्मृगतृष्णिरूपितं

     देहेन शश्वत् पतता रुजां भुवा ।

 उपासितव्यं स्पृहयामहे विभो

     क्रियाफलं प्रेत्य च कर्णरोचनम् ॥ १४ ॥

तं नः समादिशोपायं येन ते चरणाब्जयोः ।

 स्मृतिर्यथा न विरमेद् अपि संसरतामिह ॥ १५ ॥

 कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने ।

 प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः ॥ १६ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जरासन्धने अनायास ही बीस हजार आठ सौ राजाओंको जीतकर पहाड़ोंकी घाटीमें एक किलेके भीतर कैद कर रखा था। भगवान्‌ श्रीकृष्णके छोड़ देनेपर जब वे वहाँसे निकले, तब उनके शरीर और वस्त्र मैले हो रहे थे ॥ १ ॥ वे भूखसे दुर्बल हो रहे थे और उनके मुँह सूख गये थे। जेलमें बंद रहनेके कारण उनके शरीरका एक-एक अङ्ग ढीला पड़ गया था। वहाँसे निकलते ही उन नरपतियोंने देखा कि सामने भगवान्‌ श्रीकृष्ण खड़े हैं। वर्षाकालीन मेघके समान उनका साँवला-सलोना शरीर है और उसपर पीले रंगका रेशमी वस्त्र फहरा रहा है ॥ २ ॥ चार भुजाएँ हैंजिनमें गदा, शङ्ख, चक्र और कमल सुशोभित हैं। वक्ष:स्थलपर सुनहली रेखाश्रीवत्सका चिह्न है और कमलके भीतरी भागके समान कोमल, रतनारे नेत्र हैं। सुन्दर वदन प्रसन्नताका सदन है। कानोंमें मकराकृत कुण्डल झिलमिला रहे हैं। सुन्दर मुकुट, मोतियोंका हार, कड़े, करधनी और बाजूबंद अपने-अपने स्थानपर शोभा पा रहे हैं ॥ ३-४ ॥ गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही है और वनमाला लटक रही है। भगवान्‌ श्रीकृष्णको देखकर उन राजाओंकी ऐसी स्थिति हो गयी, मानो वे नेत्रोंसे उन्हें पी रहे हैं। जीभसे चाट रहे हैं, नासिकासे सूँघ रहे हैं और बाहुओंसे आलिङ्गन कर रहे हैं। उनके सारे पाप तो भगवान्‌के दर्शनसे ही धुल चुके थे। उन्होंने भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंपर अपना सिर रखकर प्रणाम किया ॥ ५-६ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शनसे उन राजाओंको इतना अधिक आनन्द हुआ कि कैदमें रहनेका क्लेश बिलकुल जाता रहा। वे हाथ जोडक़र विनम्र वाणीसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगे ॥ ७ ॥

राजाओंने कहाशरणागतोंके सारे दु:ख और भय हर लेनेवाले देवदेवेश्वर ! सच्चिदानन्दस्वरूप अविनाशी श्रीकृष्ण ! हम आपको नमस्कार करते हैं। आपने जरासन्धके कारागारसे तो हमें छुड़ा ही दिया, अब इस जन्म-मृत्युरूप घोर संसार-चक्रसे भी छुड़ा दीजिये; क्योंकि हम संसारमें दु:खका कटु अनुभव करके उससे ऊब गये हैं और आपकी शरणमें आये हैं। प्रभो ! अब आप हमारी रक्षा कीजिये ॥ ८ ॥ मधुसूदन ! हमारे स्वामी ! हम मगधराज जरासन्धका कोई दोष नहीं देखते। भगवन् ! यह तो आपका बहुत बड़ा अनुग्रह है कि हम राजा कहलानेवाले लोग राज्यलक्ष्मीसे च्युत कर दिये गये ॥ ९ ॥ क्योंकि जो राजा अपने राज्य-ऐश्वर्यके मदसे उन्मत्त हो जाता है, उसको सच्चे सुखकीकल्याणकी प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। वह आपकी मायासे मोहित होकर अनित्य सम्पत्तियोंको ही अचल मान बैठता है ॥ १० ॥ जैसे मूर्खलोग मृगतृष्णाके जलको ही जलाशय मान लेते हैं, वैसे ही इन्द्रियलोलुप और अज्ञानी पुरुष भी इस परिवर्तनशील मायाको सत्य वस्तु मान लेते हैं ॥ ११ ॥ भगवन् ! पहले हमलोग धन-सम्पत्तिके नशेमें चूर होकर अंधे हो रहे थे। इस पृथ्वीको जीत लेनेके लिये एक-दूसरेकी होड़ करते थे और अपनी ही प्रजाका नाश करते रहते थे ! सचमुच हमारा जीवन अत्यन्त क्रूरतासे भरा हुआ था, और हमलोग इतने अधिक मतवाले हो रहे थे कि आप मृत्युरूपसे हमारे सामने खड़े हैं, इस बातकी भी हम तनिक परवा नहीं करते थे ॥ १२ ॥ सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! कालकी गति बड़ी गहन है। वह इतना बलवान् है कि किसीके टाले टलता नहीं। क्यों न हो, वह आपका शरीर ही तो है। अब उसने हमलोगोंको श्रीहीन, निर्धन कर दिया है। आपकी अहैतुक अनुकम्पासे हमारा घमंड चूर-चूर हो गया। अब हम आपके चरणकमलोंका स्मरण करते हैं ॥ १३ ॥ विभो ! यह शरीर दिन-दिन क्षीण होता जा रहा है। रोगोंकी तो यह जन्मभूमि ही है। अब हमें इस शरीरसे भोगे जानेवाले राज्यकी अभिलाषा नहीं है। क्योंकि हम समझ गये हैं कि वह मृगतृष्णाके जलके समान सर्वथा मिथ्या है। यही नहीं, हमें कर्मके फल स्वर्गादि लोकोंकी भी, जो मरनेके बाद मिलते हैं, इच्छा नहीं है। क्योंकि हम जानते हैं कि वे निस्सार हैं, केवल सुननेमें ही आकर्षक जान पड़ते हैं ॥ १४ ॥ अब हमें कृपा करके आप वह उपाय बतलाइये, जिससे आपके चरणकमलों की विस्मृति कभी न हो, सर्वदा स्मृति बनी रहे। चाहे हमें संसार की किसी भी योनि में जन्म क्यों न लेना पड़े ॥ १५ ॥ प्रणाम करनेवालों के क्लेश का नाश करनेवाले श्रीकृष्ण, वासुदेव, हरि, परमात्मा एवं गोविन्द के प्रति हमारा बार-बार नमस्कार है ॥ १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 



शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

पाण्डवों के राजसूययज्ञ का आयोजन और जरासन्ध का उद्धार

 

श्रीभगवानुवाच -

युद्धं नो देहि राजेन्द्र द्वन्द्वशो यदि मन्यसे ।

 युद्धार्थिनो वयं प्राप्ता राजन्या नान्यकाङ्‌क्षिणः ॥ २८ ॥

 असौ वृकोदरः पार्थः तस्य भ्रातार्जुनो ह्ययम् ।

 अनयोर्मातुलेयं मां कृष्णं जानीहि ते रिपुम् ॥ २९ ॥

 एवमावेदितो राजा जहासोच्चैः स्म मागधः ।

 आह चामर्षितो मन्दा युद्धं तर्हि ददामि वः ॥ ३० ॥

 न त्वया भीरुणा योत्स्ये युधि विक्लवतेजसा ।

 मथुरां स्वपुरीं त्यक्त्वा समुद्रं शरणं गतः ॥ ३१ ॥

 अयं तु वयसा तुल्यो नातिसत्त्वो न मे समः ।

 अर्जुनो न भवेद् योद्धा भीमस्तुल्यबलो मम ॥ ३२ ॥

 इत्युक्त्वा भीमसेनाय प्रादाय महतीं गदाम् ।

 द्वितीयां स्वयमादाय निर्जगाम पुराद् बहिः ॥ ३३ ॥

 ततः समे खले वीरौ संयुक्तावितरेतरौ ।

 जघ्नतुर्वज्रकल्पाभ्यां गदाभ्यां रणदुर्मदौ ॥ ३४ ॥

 मण्डलानि विचित्राणि सव्यं दक्षिणमेव च ।

 चरतोः शुशुभे युद्धं नटयोरिव रङ्‌गिणोः ॥ ३५ ॥

 ततश्चटचटाशब्दो वज्रनिष्पेषसन्निभः ।

 गदयोः क्षिप्तयो राजन् दन्तयोरिव दन्तिनोः ॥ ३६ ॥

ते वै गदे भुजजवेन निपात्यमाने

     अन्योन्यतोंऽसकटिपादकरोरुजत्रून् ।

 चूर्णीबभूवतुरुपेत्य यथार्कशाखे

     संयुध्यतोर्द्विरदयोरिव दीप्तमन्व्योः ॥ ३७ ॥

 इत्थं तयोः प्रहतयोर्गदयोर्नृवीरौ

     क्रुद्धौ स्वमुष्टिभिरयःस्परशैरपिष्टाम् ।

 शब्दस्तयोः प्रहरतोरिभयोरिवासीन्

     निर्घातवज्रपरुषस्तलताडनोत्थः ॥ ३८ ॥

तयोरेवं प्रहरतोः समशिक्षाबलौजसोः ।

 निर्विशेषमभूद् युद्धं अक्षीणजवयोर्नृप ॥ ३९ ॥

 एवं तयोर्महाराज युध्यतोः सप्तविंशतिः ।

 दिनानि निरगंस्तत्र सुहृद्‌वन् निशि तिष्ठतोः ॥ ४० ॥

 एकदा मातुलेयं वै प्राह राजन् वृकोदरः ।

 न शक्तोऽहं जरासन्धं निर्जेतुं युधि माधव ॥ ४१ ॥

 शत्रोर्जन्ममृती विद्वान् जीवितं च जराकृतम् ।

 पार्थमाप्याययन् स्वेन तेजसाचिन्तयद्धरिः ॥ ४२ ॥

 सञ्चिन्त्यारिवधोपायं भीमस्यामोघदर्शनः ।

 दर्शयामास विटपं पाटयन्निव संज्ञया ॥ ४३ ॥

 तद्‌विज्ञाय महासत्त्वो भीमः प्रहरतां वरः ।

 गृहीत्वा पादयोः शत्रुं पातयामास भूतले ॥ ४४ ॥

 एकं पादं पदाक्रम्य दोर्भ्यामन्यं प्रगृह्य सः ।

 गुदतः पाटयामास शाखमिव महागजः ॥ ४५ ॥

 एकपादोरुवृषण कटिपृष्ठस्तनांसके ।

 एकबाह्वक्षिभ्रूकर्णे शकले ददृशुः प्रजाः ॥ ४६ ॥

 हाहाकारो महानासीत् निहते मगधेश्वरे ।

 पूजयामासतुर्भीमं परिरभ्य जयाच्यतौ ॥ ४७ ॥

 सहदेवं तत्तनयं भगवान्भूतभावनः ।

 अभ्यषिञ्चदमेयात्मा मगधानां पतिं प्रभुः ।

 मोचयामास राजन्यान् संरुद्धा मागधेन ये ॥ ४८ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘राजेन्द्र ! हमलोग अन्न के इच्छुक ब्राह्मण नहीं हैं, क्षत्रिय हैं; हम आपके पास युद्धके लिये आये हैं। यदि आपकी इच्छा हो तो हमें द्वन्द्वयुद्धकी भिक्षा दीजिये ॥ २८ ॥ देखो, ये पाण्डुपुत्र भीमसेन हैं और यह इनका भाई अर्जुन है और मैं इन दोनोंका ममेरा भाई तथा आपका पुराना शत्रु कृष्ण हूँ॥ २९ ॥ जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार अपना परिचय दिया, तब राजा जरासन्ध ठठाकर हँसने लगा। और चिढक़र बोला—‘अरे मूर्खो ! यदि तुम्हें युद्धकी ही इच्छा है तो लो मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ ॥ ३० ॥ परन्तु कृष्ण ! तुम तो बड़े डरपोक हो। युद्धमें तुम घबरा जाते हो। यहाँतक कि मेरे डरसे तुमने अपनी नगरी मथुरा भी छोड़ दी तथा समुद्रकी शरण ली है। इसलिये मैं तुम्हारे साथ नहीं लड़्ूँगा ॥ ३१ ॥ यह अर्जुन भी कोई योद्धा नहीं है। एक तो अवस्थामें मुझसे छोटा, दूसरे कोई विशेष बलवान् भी नहीं है। इसलिये यह भी मेरे जोडक़ा वीर नहीं है। मैं इसके साथ भी नहीं लडँ़ूगा। रहे भीमसेन, ये अवश्य ही मेरे समान बलवान् और मेरे जोडक़े हैं ॥ ३२ ॥ जरासन्धने यह कहकर भीमसेनको एक बहुत बड़ी गदा दे दी और स्वयं दूसरी गदा लेकर नगरसे बाहर निकल आया ॥ ३३ ॥ अब दोनों रणोन्मत्त वीर अखाड़ेमें आकर एक-दूसरेसे भिड़ गये और अपनी वज्रके समान कठोर गदाओंसे एक-दूसरेपर चोट करने लगे ॥ ३४ ॥ वे दायें-बायें तरह-तरहके पैंतरे बदलते हुए ऐसे शोभायमान हो रहे थेमानो दो श्रेष्ठ नट रंगमञ्चपर युद्धका अभिनय कर रहे हों ॥ ३५ ॥ परीक्षित्‌ ! जब एककी गदा दूसरेकी गदासे टकराती, तब ऐसा मालूम होता मानो युद्ध करनेवाले दो हाथियोंके दाँत आपसमें भिडक़र चटचटा रहे हों, या बड़े जोरसे बिजली तडक़ रही हो ॥ ३६ ॥ जब दो हाथी क्रोधमें भरकर लडऩे लगते हैं और आककी डालियाँ तोड़-तोडक़र एक-दूसरेपर प्रहार करते हैं, उस समय एक- दूसरेकी चोटसे वे डालियाँ चूर-चूर हो जाती हैं; वैसे ही जब जरासन्ध और भीमसेन बड़े वेगसे गदा चला-चलाकर एक-दूसरेके कंधों, कमरों, पैरों, हाथों, जाँघों और हँसलियोंपर चोट करने लगे; तब उनकी गदाएँ उनके अङ्गोंसे टकरा-टकराकर चकनाचूर होने लगीं ॥ ३७ ॥ इस प्रकार जब गदाएँ चूर-चूर हो गयीं, तब दोनों वीर क्रोधमें भरकर अपने घूँसोंसे एक-दूसरेको कुचल डालनेकी चेष्टा करने लगे। उनके घूँसे ऐसी चोट करते, मानो लोहेका घन गिर रहा हो। एक-दूसरेपर खुलकर चोट करते हुए दो हाथियोंकी तरह उनके थप्पड़ों और घूँसोंका कठोर शब्द बिजलीकी कडक़ड़ाहटके समान जान पड़ता था ॥ ३८ ॥ परीक्षित्‌ ! जरासन्ध और भीमसेन दोनोंकी गदा-युद्धमें कुशलता, बल और उत्साह समान थे। दोनोंकी शक्ति तनिक भी क्षीण नहीं हो रही थी। इस प्रकार लगातार प्रहार करते रहनेपर भी दोनोंमेंसे किसीकी जीत या हार न हुई ॥ ३९ ॥ दोनों वीर रातके समय मित्रके समान रहते और दिनमें छूटकर एक-दूसरेपर प्रहार करते और लड़ते। महाराज ! इस प्रकार उनके लड़ते-लड़ते सत्ताईस दिन बीत गये ॥ ४० ॥

प्रिय परीक्षित्‌ ! अट्ठाईसवें दिन भीमसेनने अपने ममेरे भाई श्रीकृष्णसे कहा—‘श्रीकृष्ण ! मैं युद्धमें जरासन्धको जीत नहीं सकता ॥ ४१ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण जरासन्धके जन्म और मृत्युका रहस्य जानते थे और यह भी जानते थे कि जरा राक्षसीने जरासन्धके शरीरके दो टुकड़ोंको जोडक़र इसे जीवन-दान दिया है। इसलिये उन्होंने भीमसेनके शरीरमें अपनी शक्तिका सञ्चार किया और जरासन्धके वधका उपाय सोचा ॥ ४२ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌का ज्ञान अबाध है। अब उन्होंने उसकी मृत्युका उपाय जानकर एक वृक्षकी डालीको बीचोबीचसे चीर दिया और इशारेसे भीमसेनको दिखाया ॥ ४३ ॥ वीरशिरोमणि एवं परम शक्तिशाली भीमसेनने भगवान्‌ श्रीकृष्णका अभिप्राय समझ लिया और जरासन्धके पैर पकडक़र उसे धरतीपर दे मारा ॥ ४४ ॥ फिर उसके एक पैरको अपने पैरके नीचे दबाया और दूसरेको अपने दोनों हाथोंसे पकड़ लिया। इसके बाद भीमसेनने उसे गुदाकी ओरसे इस प्रकार चीर डाला, जैसे गजराज वृक्षकी डाली चीर डाले ॥ ४५ ॥ लोगोंने देखा कि जरासन्धके शरीरके दो टुकड़े हो गये हैं, और इस प्रकार उनके एक-एक पैर, जाँघ, अण्डकोश, कमर, पीठ, स्तन, कंधा, भुजा, नेत्र, भौंह और कान अलग-अलग हो गये हैं ॥ ४६ ॥ मगधराज जरासन्धकी मृत्यु हो जानेपर वहाँकी प्रजा बड़े जोरसे हाय-हाय !पुकारने लगी। भगवान्‌ श्रीकृष्ण और अर्जुनने भीमसेनका आलिङ्गन करके उनका सत्कार किया ॥ ४७ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्णके स्वरूप और विचारोंको कोई समझ नहीं सकता। वास्तवमें वे ही समस्त प्राणियोंके जीवनदाता हैं। उन्होंने जरासन्धके राजसिंहासनपर उसके पुत्र सहदेव का अभिषेक कर दिया और जरासन्ध ने जिन राजाओं को कैदी बना रखा था, उन्हें कारागारसे मुक्त कर दिया ॥ ४८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे जरासन्ध वधो नाम द्विसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७२ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...