शनिवार, 10 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीभगवान्‌ के द्वारा वसुदेव जी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश

तथा देवकी जी के छ: पुत्रों को लौटा लाना

 

श्रीबादरायणिरुवाच

अथैकदात्मजौ प्राप्तौ कृतपादाभिवन्दनौ

वसुदेवोऽभिनन्द्याह प्रीत्या सङ्कर्षणाच्युतौ १

मुनीनां स वचः श्रुत्वा पुत्रयोर्धामसूचकम्

तद्वीर्यैर्जातविश्रम्भः परिभाष्याभ्यभाषत २

कृष्ण कृष्ण महायोगिन्सङ्कर्षण सनातन

जाने वामस्य यत्साक्षात्प्रधानपुरुषौ परौ ३

यत्र येन यतो यस्य यस्मै यद्यद्यथा यदा

स्यादिदं भगवान्साक्षात्प्रधानपुरुषेश्वरः ४

एतन्नानाविधं विश्वमात्मसृष्टमधोक्षज

आत्मनानुप्रविश्यात्मन्प्राणो जीवो बिभर्ष्यज ५

प्राणादीनां विश्वसृजां शक्तयो याः परस्य ताः

पारतन्त्र्याद्वै सादृश्याद् द्वयोश्चेष्टैव चेष्टताम् ६

कान्तिस्तेजः प्रभा सत्ता चन्द्राग्न्यर्कर्क्षविद्युताम्

यत्स्थैर्यं भूभृतां भूमेर्वृत्तिर्गन्धोऽर्थतो भवान् ७

तर्पणं प्राणनमपां देव त्वं ताश्च तद्रसः

ओजः सहो बलं चेष्टा गतिर्वायोस्तवेश्वर ८

दिशां त्वमवकाशोऽसि दिशः खं स्फोट आश्रयः

नादो वर्णस्त्वमॐकार आकृतीनां पृथक्कृतिः ९

इन्द्रियं त्विन्द्रियाणां त्वं देवाश्च तदनुग्रहः

अवबोधो भवान्बुद्धेर्जीवस्यानुस्मृतिः सती १०

भूतानामसि भूतादिरिन्द्रियाणां च तैजसः

वैकारिको विकल्पानां प्रधानमनुशायिनम् ११

नश्वरेष्विह भावेषु तदसि त्वमनश्वरम्

यथा द्रव्यविकारेषु द्रव्यमात्रं निरूपितम् १२

सत्त्वम्रजस्तम इति गुणास्तद्वृत्तयश्च याः

त्वय्यद्धा ब्रह्मणि परे कल्पिता योगमायया १३

तस्मान्न सन्त्यमी भावा यर्हि त्वयि विकल्पिताः

त्वं चामीषु विकारेषु ह्यन्यदा व्यावहारिकः १४

गुणप्रवाह एतस्मिन्नबुधास्त्वखिलात्मनः

गतिं सूक्ष्मामबोधेन संसरन्तीह कर्मभिः १५

यदृच्छया नृतां प्राप्य सुकल्पामिह दुर्लभाम्

स्वार्थे प्रमत्तस्य वयो गतं त्वन्माययेश्वर १६

असावहम्ममैवैते देहे चास्यान्वयादिषु

स्नेहपाशैर्निबध्नाति भवान्सर्वमिदं जगत् १७

युवां न नः सुतौ साक्षात्प्रधानपुरुषेश्वरौ

भूभारक्षत्रक्षपण अवतीर्णौ तथात्थ ह १८

तत्ते गतोऽस्म्यरणमद्य पदारविन्दम्

आपन्नसंसृतिभयापहमार्तबन्धो

एतावतालमलमिन्द्रियलालसेन

मर्त्यात्मदृक्त्वयि परे यदपत्यबुद्धिः १९

सूतीगृहे ननु जगाद भवानजो नौ

सञ्जज्ञ इत्यनुयुगं निजधर्मगुप्त्यै

नानातनूर्गगनवद्विदधज्जहासि

को वेद भूम्न उरुगाय विभूतिमायाम् २०

 

श्रीशुक उवाच

आकर्ण्येत्थं पितुर्वाक्यं भगवान्सात्वतर्षभः

प्रत्याह प्रश्रयानम्रः प्रहसन्श्लक्ष्णया गिरा २१

 

श्रीभगवानुवाच

वचो वः समवेतार्थं तातैतदुपमन्महे

यन्नः पुत्रान्समुद्दिश्य तत्त्वग्राम उदाहृतः २२

अहं यूयमसावार्य इमे च द्वारकौकसः

सर्वेऽप्येवं यदुश्रेष्ठ विमृग्याः सचराचरम् २३

आत्मा ह्येकः स्वयंज्योतिर्नित्योऽन्यो निर्गुणो गुणैः

आत्मसृष्टैस्तत्कृतेषु भूतेषु बहुधेयते २४

खं वायुर्ज्योतिरापो भूस्तत्कृतेषु यथाशयम्

आविस्तिरोऽल्पभूर्येको नानात्वं यात्यसावपि २५

 

श्रीशुक उवाच

एवं भगवता राजन्वसुदेव उदाहृतः

श्रुत्वा विनष्टनानाधीस्तूष्णीं प्रीतमना अभूत् २६

अथ तत्र कुरुश्रेष्ठ देवकी सर्वदेवता

श्रुत्वानीतं गुरोः पुत्रमात्मजाभ्यां सुविस्मिता २७

कृष्णरामौ समाश्राव्य पुत्रान्कंसविहिंसितान्

स्मरन्ती कृपणं प्राह वैक्लव्यादश्रुलोचना २८

 

श्रीदेवक्युवाच

राम रामाप्रमेयात्मन्कृष्ण योगेश्वरेश्वर

वेदाहं वां विश्वसृजामीश्वरावादिपूरुषौ २९

कलविध्वस्तसत्त्वानां राज्ञामुच्छास्त्रवर्तिनाम्

भूमेर्भारायमाणानामवतीर्णौ किलाद्य मे ३०

यस्यांशांशांशभागेन विश्वोत्पत्तिलयोदयाः

भवन्ति किल विश्वात्मंस्तं त्वाद्याहं गतिं गता ३१

चिरान्मृतसुतादाने गुरुणा किल चोदितौ

आनिन्यथुः पितृस्थानाद्गुरवे गुरुदक्षिणाम् ३२

तथा मे कुरुतं कामं युवां योगेश्वरेश्वरौ

भोजराजहतान्पुत्रान्कामये द्रष्टुमाहृतान् ३३

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इसके बाद एक दिन भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी प्रात:कालीन प्रणाम करनेके लिये माता-पिताके पास गये। प्रणाम कर लेनेपर वसुदेवजी बड़े प्रेमसे दोनों भाइयोंका अभिनन्दन करके कहने लगे ॥ १ ॥ वसुदेवजीने बड़े-बड़े ऋषियोंके मुँहसे भगवान्‌की महिमा सुनी थी तथा उनके ऐश्वर्यपूर्ण चरित्र भी देखे थे। इससे उन्हें इस बातका दृढ़ विश्वास हो गया था कि ये साधारण पुरुष नहीं, स्वयं भगवान्‌ हैं। इसलिये उन्होंने अपने पुत्रोंको प्रेमपूर्वक सम्बोधित करके यों कहा॥ २ ॥ सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! महायोगीश्वर सङ्कर्षण ! तुम दोनों सनातन हो। मैं जानता हूँ कि तुम दोनों सारे जगत्के साक्षात् कारणस्वरूप प्रधान और पुरुषके भी नियामक परमेश्वर हो ॥ ३ ॥ इस जगत्के आधार, निर्माता और निर्माण- सामग्री भी तुम्हीं हो। इस सारे जगत् के स्वामी तुम दोनों हो और तुम्हारी ही क्रीडा के लिये इसका निर्माण हुआ है। यह जिस समय, जिस रूपमें जो कुछ रहता है, होता हैवह सब तुम्हीं हो। इस जगत् में प्रकृति-रूपसे भोग्य और पुरुषरूप से भोक्ता तथा दोनोंसे परे दोनों के नियामक साक्षात् भगवान्‌ भी तुम्हीं हो ॥ ४ ॥ इन्द्रियातीत ! जन्म, अस्तित्व आदि भावविकारोंसे रहित परमात्मन् ! इस चित्र-विचित्र जगत् का तुम्हीं ने निर्माण किया है और इसमें स्वयं तुमने ही आत्मारूपसे प्रवेश भी किया है। तुम प्राण (क्रियाशक्ति) और जीव (ज्ञानशक्ति) के रूपमें इसका पालन-पोषण कर रहे हो ॥ ५ ॥ क्रियाशक्तिप्रधान प्राण आदिमें जो जगत्की वस्तुओंकी सृष्टि करनेकी सामथ्र्य है, वह उनकी अपनी सामथ्र्य नहीं, तुम्हारी ही है। क्योंकि वे तुम्हारे समान चेतन नहीं, अचेतन हैं; स्वतन्त्र नहीं, परतन्त्र हैं। अत: उन चेष्टाशील प्राण आदिमें केवल चेष्टामात्र होती है, शक्ति नहीं। शक्ति तो तुम्हारी ही है ॥ ६ ॥ प्रभो ! चन्द्रमाकी कान्ति, अग्रिका तेज, सूर्यकी प्रभा, नक्षत्र और विद्युत् आदि की स्फुरणरूपसे सत्ता, पर्वतोंकी स्थिरता, पृथ्वीकी साधारणशक्तिरूप वृत्ति और गन्धरूप गुणये सब वास्तवमें तुम्हीं हो ॥ ७ ॥ परमेश्वर ! जलमें तृप्त करने, जीवन देने और शुद्ध करनेकी जो शक्तियाँ हैं, वे तुम्हारा ही स्वरूप हैं। जल और उसका रस भी तुम्हीं हो। प्रभो ! इन्द्रियशक्ति, अन्त:करणकी शक्ति, शरीरकी शक्ति, उसका हिलना-डोलना, चलना-फिरनाये सब वायुकी शक्तियाँ तुम्हारी ही हैं ॥ ८ ॥ दिशाएँ और उनके अवकाश भी तुम्हीं हो। आकाश और उसका आश्रयभूत स्फोटशब्दतन्मात्रा या परा वाणी, नादपश्यन्ती, ओंकारमध्यमा तथा वर्ण (अक्षर) एवं पदार्थोंका अलग-अलग निर्देश करनेवाले पद, रूप, वैखरी वाणी भी तुम्हीं हो ॥ ९ ॥ इन्द्रियाँ, उनकी विषयप्रकाशिनी शक्ति और अधिष्ठातृ-देवता तुम्हीं हो ! बुद्धिकी निश्चयात्मिका शक्ति और जीवकी विशुद्ध स्मृति भी तुम्हीं हो ॥ १० ॥ भूतोंमें उनका कारण तामस अहङ्कार, इन्द्रियोंमें उनका कारण तैजस अहङ्कार और इन्द्रियोंके अधिष्ठातृ- देवताओंमें उनका कारण सात्त्विक अहङ्कार तथा जीवोंके आवागमनका कारण माया भी तुम्हीं हो ॥ ११ ॥ भगवन् ! जैसे मिट्टी आदि वस्तुओंके विकार घड़ा, वृक्ष आदिमें मिट्टी निरन्तर वर्तमान है और वास्तवमें वे कारण (मृत्तिका) रूप ही हैंउसी प्रकार जितने भी विनाशवान् पदार्थ हैं, उनमें तुम कारणरूपसे अविनाशी तत्त्व हो ! वास्तवमें वे सब तुम्हारे ही स्वरूप हैं ॥ १२ ॥ प्रभो ! सत्त्व, रज, तमये तीनों गुण और उनकी वृत्तियाँ (परिणाम)महत्तत्त्वादि परब्रह्म परमात्मा में, तुममें योगमायाके द्वारा कल्पित हैं ॥ १३ ॥ इसलिये ये जितने भी जन्म, अस्ति, वृद्धि, परिणाम आदि भाव-विकार हैं, वे तुममें सर्वथा नहीं हैं। जब तुममें इनकी कल्पना कर ली जाती है, तब तुम इन विकारोंमें अनुगत जान पड़ते हो। कल्पनाकी निवृत्ति हो जानेपर तो निर्विकल्प परमार्थस्वरूप तुम्हीं तुम रह जाते हो ॥ १४ ॥ यह जगत् सत्त्व, रज, तमइन तीनों गुणोंका प्रवाह है; देह, इन्द्रिय, अन्त:करण, सुख, दु:ख और राग-लोभादि उन्हींके कार्य हैं। इनमें जो अज्ञानी तुम्हारा, सर्वात्माका सूक्ष्मस्वरूप नहीं जानते, वे अपने देहाभिमानरूप अज्ञानके कारण ही कर्मोंके फंदेमें फँसकर बार-बार जन्म-मृत्युके चक्करमें भटकते रहते हैं ॥ १५ ॥ परमेश्वर ! मुझे शुभ प्रारब्धके अनुसार इन्द्रियादिकी सामथ्र्यसे युक्त अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ। किन्तु तुम्हारी मायाके वश होकर मैं अपने सच्चे स्वार्थ- परमार्थ से ही असावधान हो गया और मेरी सारी आयु यों ही बीत गयी ॥ १६ ॥ प्रभो ! यह शरीर मैं हूँ और इस शरीर के सम्बन्धी मेरे अपने हैं, इस अहंता एवं ममतारूप स्नेह की फाँसी से तुमने इस सारे जगत् को बाँध रखा है ॥ १७ ॥ मैं जानता हूँ कि तुम दोनों मेरे पुत्र नहीं हो, सम्पूर्ण प्रकृति और जीवों के स्वामी हो ! पृथ्वी के भारभूत राजाओं के नाश के लिये ही तुमने अवतार ग्रहण किया है। यह बात तुमने मुझसे कही भी थी ॥ १८ ॥ इसलिये दीनजनों के हितैषी, शरणागतवत्सल ! मैं अब तुम्हारे चरणकमलोंकी शरणमें हूँ; क्योंकि वे ही शरणागतोंके संसारभयको मिटानेवाले हैं। अब इन्द्रियोंकी लोलुपतासे भर पाया। इसीके कारण मैंने मृत्युके ग्रास इस शरीरमें आत्मबुद्धि कर ली और तुममें, जो कि परमात्मा हो, पुत्रबुद्धि ॥ १९ ॥ प्रभो ! तुमने प्रसव-गृहमें ही हमसे कहा था कि यद्यपि मैं अजन्मा हूँ, फिर भी मैं अपनी ही बनायी हुई धर्म-मर्यादाकी रक्षा करनेके लिये प्रत्येक युगमें तुम दोनोंके द्वारा अवतार ग्रहण करता रहा हूँ।भगवन् ! तुम आकाशके समान अनेकों शरीर ग्रहण करते और छोड़ते रहते हो। वास्तवमें तुम अनन्त, एकरस सत्ता हो। तुम्हारी आश्चर्यमयी शक्ति योगमायाका रहस्य भला कौन जान सकता है ? सब लोग तुम्हारी कीर्तिका ही गान करते रहते हैं ॥ २० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! वसुदेवजीके ये वचन सुनकर यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल भगवान्‌श्रीकृष्ण मुसकराने लगे। उन्होंने विनयसे झुककर मधुर वाणीसे कहा ॥ २१ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहापिताजी ! हम तो आपके पुत्र ही हैं हमें लक्ष्य करके आपने यह ब्रह्मज्ञानका उपदेश किया है। हम आपकी एक-एक बात युक्तियुक्त मानते हैं ॥ २२ ॥ पिताजी ! आपलोग, मैं, भैया बलरामजी, सारे द्वारकावासी, सम्पूर्ण चराचर जगत्सब-के-सब आपने जैसा कहा, वैसे ही हैं, सबको ब्रह्मरूप ही समझना चाहिये ॥ २३ ॥ पिताजी ! आत्मा तो एक ही है। परन्तु वह अपनेमें ही गुणोंकी सृष्टि कर लेता है और गुणोंके द्वारा बनाये हुए पञ्चभूतोंमें एक होनेपर भी अनेक, स्वयंप्रकाश होनेपर भी दृश्य, अपना स्वरूप होनेपर भी अपनेसे भिन्न, नित्य होनेपर भी अनित्य और निर्गुण होनेपर भी सगुणके रूपमें प्रतीत होता है ॥ २४ ॥ जैसे आकाश, वायु, अग्रि, जल और पृथ्वीये पञ्चमहाभूत अपने कार्य घट, कुण्डल आदिमें प्रकट-अप्रकट, बड़े-छोटे, अधिक-थोड़े, एक और अनेक-से प्रतीत होते हैंपरन्तु वास्तवमें सत्तारूपसे वे एक ही रहते हैं; वैसे ही आत्मामें भी उपाधियोंके भेदसे ही नानात्वकी प्रतीति होती है। इसलिये जो मैं हूँ, वही सब हैंइस दृष्टिसे आपका कहना ठीक ही है ॥ २५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके इन वचनोंको सुनकर वसुदेवजीने नानात्वबुद्धि छोड़ दी; वे आनन्दमें मग्र होकर वाणीसे मौन और मनसे निस्सङ्कल्प हो गये ॥ २६ ॥ कुरुश्रेष्ठ ! उस समय वहाँ सर्वदेवमयी देवकीजी भी बैठी हुई थीं। वे बहुत पहलेसे ही यह सुनकर अत्यन्त विस्मित थीं कि श्रीकृष्ण और बलरामजीने अपने मरे हुए गुरुपुत्रको यमलोकसे वापस ला दिया ॥ २७ ॥ अब उन्हें अपने उन पुत्रोंकी याद आ गयी, जिन्हें कंसने मार डाला था। उनके स्मरणसे देवकीजीका हृदय आतुर हो गया, नेत्रोंसे आँसू बहने लगे। उन्होंने बड़े ही करुणस्वरसे श्रीकृष्ण और बलरामजीको सम्बोधित करके कहा ॥ २८ ॥

देवकीजीने कहालोकाभिराम राम ! तुम्हारी शक्ति मन और वाणीके परे है। श्रीकृष्ण ! तुम योगेश्वरोंके भी ईश्वर हो। मैं जानती हूँ कि तुम दोनों प्रजापतियोंके भी ईश्वर, आदिपुरुष नारायण हो ॥ २९ ॥ यह भी मुझे निश्चत रूपसे मालूम है कि जिन लोगोंने कालक्रमसे अपना धैर्य, संयम और सत्त्वगुण खो दिया है तथा शास्त्रकी आज्ञाओंका उल्लङ्घन करके जो स्वेच्छाचारपरायण हो रहे हैं, भूमिके भारभूत उन राजाओंका नाश करनेके लिये ही तुम दोनों मेरे गर्भसे अवतीर्ण हुए हो ॥ ३० ॥ विश्वात्मन् ! तुम्हारे पुरुषरूप अंशसे उत्पन्न हुई मायासे गुणों की उत्पत्ति होती है और उनके लेशमात्रसे जगत् की उत्पत्ति, विकास तथा प्रलय होता है। आज मैं सर्वान्त:करण से तुम्हारी शरण हो रही हूँ ॥ ३१ ॥ मैंने सुना है कि तुम्हारे गुरु सान्दीपनिजी के पुत्र को मरे बहुत दिन हो गये थे। उनको गुरुदक्षिणा देनेके लिये उनकी आज्ञा तथा कालकी प्रेरणासे तुम दोनोंने उनके पुत्रको यमपुरीसे वापस ला दिया ॥ ३२ ॥ तुम दोनों योगीश्वरोंके भी ईश्वर हो। इसलिये आज मेरी भी अभिलाषा पूर्ण करो। मैं चाहती हूँ कि तुम दोनों मेरे उन पुत्रोंको, जिन्हें कंसने मार डाला था, ला दो और उन्हें मैं भर आँख देख लूँ ॥ ३३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

वसुदेव जी का यज्ञोत्सव

 

ईजेऽनुयज्ञं विधिना अग्निहोत्रादिलक्षणैः ।

प्राकृतैर्वैकृतैर्यज्ञैः द्रव्यज्ञानक्रियेश्वरम् ॥ ५१ ॥

अथर्त्विग्भ्योऽददात्काले यथाम्नातं स दक्षिणाः ।

स्वलङ्कृतेभ्योऽलङ्कृत्य गोभूकन्या महाधनाः ॥ ५२ ॥

पत्‍नीसंयाजावभृथ्यैः चरित्वा ते महर्षयः ।

सस्नू रामह्रदे विप्रा यजमानपुरःसराः ॥ ५३ ॥

स्नातोऽलङ्कारवासांसि वन्दिभ्योऽदात्तथा स्त्रियः ।

ततः स्वलङ्कृतो वर्णान् आश्वभ्योऽन्नेन पूजयत् ॥ ५४ ॥

बन्धून् सदारान् ससुतान् पारिबर्हेण भूयसा ।

विदर्भकोशलकुरून् काशिकेकय सृञ्जयान् ॥ ५५ ॥

सदस्यर्त्विक्सुरगणान् नृभूतपितृचारणान् ।

श्रीनिकेतमनुज्ञाप्य शंसन्तः प्रययुः क्रतुम् ॥ ५६ ॥

धृतराष्ट्रोऽनुजः पार्था भीष्मो द्रोणः पृथा यमौ ।

नारदो भगवान् व्यासः सुहृत्संबंधिबांधवाः ॥ ५७ ॥

बन्धून्परिष्वज्य यदून् सौहृदाक्लिन्नचेतसः ।

ययुर्विरहकृच्छ्रेण स्वदेशांश्चापरे जनाः ॥ ५८ ॥

नन्दस्तु सह गोपालैः बृहत्या पूजयार्चितः ।

कृष्णरामोग्रसेनाद्यैः न्यवात्सीद्‌बन्धुवत्सलः ॥ ५९ ॥

वसुदेवोऽञ्जसोत्तीर्य मनोरथमहार्णवम् ।

सुहृद्‌वृतः प्रीतमना नन्दमाह करे स्पृशन् ॥ ६० ॥

 

श्रीवसुदेव उवाच -

भ्रातरीशकृतः पाशो नृनां यः स्नेहसंज्ञितः ।

तं दुस्त्यजमहं मन्ये शूराणामपि योगिनाम् ॥ ६१ ॥

अस्मास्वप्रतिकल्पेयं यत्कृताज्ञेषु सत्तमैः ।

मैत्र्यर्पिताफला चापि न निवर्तेत कर्हिचित् ॥ ६२ ॥

प्रागकल्पाच्च कुशलं भ्रातर्वो नाचराम हि ।

अधुना श्रीमदान्धाक्षा न पश्यामः पुरः सतः ॥ ६३ ॥

मा राज्यश्रीरभूत्पुंसः श्रेयस्कामस्य मानद ।

स्वजनानुत बन्धून् वा न पश्यति ययान्धदृक् ॥ ६४ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

एवं सौहृदशैथिल्य चित्त आनकदुन्दुभिः ।

रुरोद तत्कृतां मैत्रीं स्मरन् अश्रुविलोचनः ॥ ६५ ॥

नन्दस्तु सख्युः प्रियकृत् प्रेम्णा गोविन्दरामयोः ।

अद्य श्व इति मासांस्त्रीन् यदुभिर्मानितोऽवसत् ॥ ६६ ॥

ततः कामैः पूर्यमाणः सव्रजः सहबान्धवः ।

परार्ध्याभरणक्षौम नानानर्घ्यपरिच्छदैः ॥ ६७ ॥

वसुदेवोग्रसेनाभ्यां कृष्णोद्धवबलादिभिः ।

दत्तमादाय पारिबर्हं यापितो यदुभिर्ययौ ॥ ६८ ॥

नन्दो गोपाश्च गोप्यश्च गोविन्दचरणाम्बुजे ।

मनः क्षिप्तं पुनर्हर्तुं अनीशा मथुरां ययुः ॥ ६९ ॥

बन्धुषु प्रतियातेषु वृष्णयः कृष्णदेवताः ।

वीक्ष्य प्रावृषमासन्नाद् ययुर्द्वारवतीं पुनः ॥ ७० ॥

जनेभ्यः कथयां चक्रुः यदुदेवमहोत्सवम् ।

यदासीत् तीर्थयात्रायां सुहृत् संदर्शनादिकम् ॥ ७१ ॥

 

वसुदेवजी ने प्रत्येक यज्ञ में ज्योतिष्टोम, दर्श, पूर्णमास आदि प्राकृत यज्ञों, सौरसत्रादि वैकृत यज्ञों और अग्निहोत्र आदि अन्यान्य यज्ञों के द्वारा द्रव्य, क्रिया और उनके ज्ञानकेमन्त्रों के स्वामी विष्णु- भगवान्‌ की आराधना की ॥ ५१ ॥ इसके बाद उन्होंने उचित समयपर ऋत्विजोंको वस्त्रालङ्कारों से सुसज्जित किया और शास्त्रके अनुसार बहुत-सी दक्षिणा तथा प्रचुर धन के साथ अलङ्कृत गौएँ, पृथ्वी और सुन्दरी कन्याएँ दीं ॥ ५२ ॥ इसके बाद महर्षियोंने पत्नीसंयाज नामक यज्ञाङ्ग और अवभृथस्नान अर्थात् यज्ञान्त-स्नानसम्बन्धी अवशेष कर्म कराकर वसुदेवजीको आगे करके परशुरामजीके बनाये ह्रदमेंरामह्रदमें स्नान किया ॥ ५३ ॥ स्नान करनेके बाद वसुदेवजी और उनकी पत्नियोंने वंदीजनोंको अपने सारे वस्त्राभूषण दे दिये तथा स्वयं नये वस्त्राभूषण से सुसज्जित होकर उन्होंने ब्राह्मणोंसे लेकर कुत्तों तक को भोजन कराया ॥ ५४ ॥ तदनन्तर अपने भाई-बन्धुओं, उनके स्त्री- पुत्रों तथा विदर्भ, कोसल, कुरु, काशी, केकय और सृञ्जय आदि देशोंके राजाओं, सदस्यों, ऋत्विजों, देवताओं, मनुष्यों, भूतों, पितरों और चारणोंको विदाई के रूपमें बहुत-सी भेंट देकर सम्मानित किया। वे लोग लक्ष्मीपति भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अनुमति लेकर यज्ञकी प्रशंसा करते हुए अपने-अपने घर चले गये ॥ ५५-५६ ॥ परीक्षित्‌ ! उस समय राजा धृतराष्ट्र, विदुर, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, कुन्ती, नकुल, सहदेव, नारद, भगवान्‌ व्यासदेव तथा दूसरे स्वजन, सम्बन्धी और बान्धव अपने हितैषी बन्धु यादवोंको छोडक़र जानेमें अत्यन्त विरह-व्यथाका अनुभव करने लगे। उन्होंने अत्यन्त स्नेहाद्र्र चित्तसे यदुवंशियोंका आलिङ्गन किया और बड़ी कठिनाईसे किसी प्रकार अपने-अपने देशको गये। दूसरे लोग भी इनके साथ ही वहाँसे रवाना हो गये ॥ ५७-५८ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण, बलरामजी तथा उग्रसेन आदिने नन्दबाबा एवं अन्य सब गोपोंकी बहुत बड़ी-बड़ी सामग्रियोंसे अर्चा-पूजा की; उनका सत्कार किया; और वे प्रेम- परवश होकर बहुत दिनोंतक वहीं रहे ॥ ५९ ॥ वसुदेवजी अनायास ही अपने बहुत बड़े मनोरथका महासागर पार कर गये थे। उनके आनन्दकी सीमा न थी। सभी आत्मीय स्वजन उनके साथ थे। उन्होंने नन्दबाबाका हाथ पकडक़र कहा ॥ ६० ॥

वसुदेवजीने कहाभाईजी ! भगवान्‌ने मनुष्योंके लिये एक बहुत बड़ा बन्धन बना दिया है। उस बन्धनका नाम है स्नेह, प्रेमपाश। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि बड़े-बड़े शूरवीर और योगी-यति भी उसे तोडऩेमें असमर्थ हैं ॥ ६१ ॥ आपने हम अकृतज्ञोंके प्रति अनुपम मित्रताका व्यवहार किया है। क्यों न हो, आप-सरीखे संत शिरोमणियोंका तो ऐसा स्वभाव ही होता है। हम इसका कभी बदला नहीं चुका सकते, आपको इसका कोई फल नहीं दे सकते। फिर भी हमारा यह मैत्री-सम्बन्ध कभी टूटनेवाला नहीं है। आप इसको सदा निभाते रहेंगे ॥ ६२ ॥ भाईजी ! पहले तो बंदीगृहमें बंद होनेके कारण हम आपका कुछ भी प्रिय और हित न कर सके। अब हमारी यह दशा हो रही है कि हम धन-सम्पत्तिके नशेसेश्रीमदसे अंधे हो रहे हैं; आप हमारे सामने हैं तो भी हम आपकी ओर नहीं देख पाते ॥ ६३ ॥ दूसरोंको सम्मान देकर स्वयं सम्मान न चाहनेवाले भाईजी ! जो कल्याणकामी है उसे राज्यलक्ष्मी न मिलेइसीमें उसका भला है; क्योंकि मनुष्य राज्यलक्ष्मीसे अंधा हो जाता है और अपने भाई-बन्धु, स्वजनोंतकको नहीं देख पाता ॥ ६४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार कहते-कहते वसुदेवजीका हृदय प्रेमसे गद्गद हो गया। उन्हें नन्दबाबाकी मित्रता और उपकार स्मरण हो आये। उनके नेत्रोंमें प्रेमाश्रु उमड़ आये, वे रोने लगे ॥ ६५ ॥ नन्दजी अपने सखा वसुदेवजीको प्रसन्न करनेके लिये एवं भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीके प्रेमपाशमें बँधकर आज-कल करते-करते तीन महीनेतक वहीं रह गये। यदुवंशियोंने जीभर उनका सम्मान किया ॥ ६६ ॥ इसके बाद बहुमूल्य आभूषण, रेशमी वस्त्र, नाना प्रकारकी उत्तमोत्तम सामग्रियों और भोगोंसे नन्दबाबाको, उनके व्रजवासी साथियोंको और बन्धु-बान्धवोंको खूब तृप्त किया ॥ ६७ ॥ वसुदेवजी, उग्रसेन, श्रीकृष्ण, बलराम, उद्धव आदि यदुवंशियोंने अलग- अलग उन्हें अनेकों प्रकारकी भेंटें दीं। उनके विदा करनेपर उन सब सामग्रियोंको लेकर नन्दबाबा, अपने व्रजके लिये रवाना हुए ॥ ६८ ॥ नन्दबाबा, गोपों और गोपियोंका चित्त भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरण-कमलोंमें इस प्रकार लग गया कि वे फिर प्रयत्न करनेपर भी उसे वहाँसे लौटा न सके। सुतरां बिना ही मनके उन्होंने मथुराकी यात्रा की ॥ ६९ ॥

जब सब बन्धु-बान्धव वहाँसे विदा हो चुके, तब भगवान्‌ श्रीकृष्णको ही एकमात्र इष्टदेव माननेवाले यदुवंशियोंने यह देखकर कि अब वर्षा ऋतु आ पहुँची है, द्वारकाके लिये प्रस्थान किया ॥ ७० ॥ वहाँ जाकर उन्होंने सब लोगोंसे वसुदेवजी के यज्ञमहोत्सव, स्वजन-सम्बन्धियोंके दर्शन-मिलन आदि तीर्थयात्राके प्रसङ्गों को कह सुनाया ॥ ७१ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे तीर्थयात्रानुवर्णनं नाम चतुरशीतितमोऽध्यायः ॥ ८४ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

वसुदेव जी का यज्ञोत्सव

 

चित्तस्योपशमोऽयं वै कविभिः शास्त्रचक्षुषा ।

दर्शितः सुगमो योगो धर्मश्चात्ममुदावहः ॥ ३६ ॥

अयं स्वस्त्ययनः पन्था द्विजातेर्गृहमेधिनः ।

यच्छ्रद्धयाऽऽप्तवित्तेन शुक्लेनेज्येत पूरुषः ॥ ३७ ॥

वित्तैषणां यज्ञदानैः गृहैर्दारसुतैषणाम् ।

आत्मलोकैषणां देव कालेन विसृजेद्‌बुधः ।

ग्रामे त्यक्तैषणाः सर्वे ययुर्धीरास्तपोवनम् ॥ ३८ ॥

ऋणैस्त्रिभिर्द्विजो जातो देवर्षिपितॄणां प्रभो ।

यज्ञाध्ययनपुत्रैस्तानि अनिस्तीर्य त्यजन्पतेत् ॥ ३९ ॥

त्वं त्वद्य मुक्तो द्वाभ्यां वै ऋषिपित्रोर्महामते ।

यज्ञैर्देवर्णमुन्मुच्य निर्ॠणोऽशरणो भव ॥ ४० ॥

वसुदेव भवान्नूनं भक्त्या परमया हरिम् ।

जगतामीश्वरं प्रार्चः स यद्वां पुत्रतां गतः ॥ ४१ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

इति तद्वचनं श्रुत्वा वसुदेवो महामनाः ।

तान् ऋषीन् ऋत्विजो वव्रे मूर्ध्नाऽऽनम्य प्रसाद्य च ॥ ४२ ॥

त एनमृषयो राजन् वृता धर्मेण धार्मिकम् ।

तस्मिन् अयाजयन् क्षेत्रे मखैरुत्तमकल्पकैः ॥ ४३ ॥

तद्दीक्षायां प्रवृत्तायां वृष्णयः पुष्करस्रजः ।

स्नाताः सुवाससो राजन् राजानः सुष्ठ्वलङ्कृताः ॥ ४४ ॥

तन्महिष्यश्च मुदिता निष्ककण्ठ्यः सुवाससः ।

दीक्षाशालामुपाजग्मुः आलिप्ता वस्तुपाणयः ॥ ४५ ॥

नेदुर्मृदङ्गपटह शङ्खभेर्यानकादयः ।

ननृतुर्नटनर्तक्यः तुष्टुवुः सूतमागधाः ।

जगुः सुकण्ठ्यो गन्धर्व्यः संगीतं सहभर्तृकाः ॥ ४६ ॥

तमभ्यषिञ्चन् विधिवद् अक्तं अभ्यक्तमृत्विजः ।

पत्‍नीभिरष्टादशभिः सोमराजमिवोडुभिः ॥ ४७ ॥

ताभिर्दुकूलवलयैः हारनूपुरकुण्डलैः ।

स्वलङ्कृताभिर्विबभौ दीक्षितोऽजिनसंवृतः ॥ ४८ ॥

तस्यर्त्विजो महाराज रत्‍नकौशेयवाससः ।

ससदस्या विरेजुस्ते यथा वृत्रहणोऽध्वरे ॥ ४९ ॥

तदा रामश्च कृष्णश्च स्वैः स्वैः बन्धुभिरन्वितौ ।

रेजतुः स्वसुतैर्दारैः जीवेशौ स्वविभूतिभिः ॥ ५० ॥

 

त्रिकालदर्शी ज्ञानियोंने शास्त्रदृष्टिसे यही चित्तकी शान्तिका उपाय, सुगम मोक्षसाधन और चित्तमें आनन्दका उल्लास करनेवाला धर्म बतलाया है ॥ ३६ ॥ अपने न्यायार्जित धनसे श्रद्धापूर्वक पुरुषोत्तम भगवान्‌ की आराधना करना ही द्विजातिब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य गृहस्थके लिये परम कल्याणका मार्ग है ॥ ३७ ॥ वसुदेवजी ! विचारवान् पुरुषको चाहिये कि यज्ञ, दान आदिके द्वारा धनकी इच्छाको, गृहस्थोचित भोगोंद्वारा स्त्री-पुत्रकी इच्छाको और कालक्रमसे स्वर्गादि भोग भी नष्ट हो जाते हैंइस विचारसे लोकैषणाको त्याग दे। इस प्रकार धीर पुरुष घरमें रहते हुए ही तीनों प्रकारकी एषणाओंइच्छाओंका परित्याग करके तपोवनका रास्ता लिया करते थे ॥ ३८ ॥ समर्थ वसुदेवजी ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यये तीनों देवता, ऋषि और पितरोंका ऋण लेकर ही पैदा होते हैं। इनके ऋणोंसे छुटकारा मिलता है यज्ञ, अध्ययन और सन्तानोत्पत्तिसे। इनसे उऋण हुए बिना ही जो संसारका त्याग करता है, उसका पतन हो जाता है ॥ ३९ ॥ परम बुद्धिमान् वसुदेवजी ! आप अबतक ऋषि और पितरोंके ऋणसे तो मुक्त हो चुके हैं। अब यज्ञोंके द्वारा देवताओंका ऋण चुका दीजिये; और इस प्रकार सबसे उऋण होकर गृहत्याग कीजिये, भगवान्‌ की शरण हो जाइये ॥ ४० ॥ वसुदेवजी ! आपने अवश्य ही परम भक्तिसे जगदीश्वर भगवान्‌ की आराधना की है; तभी तो वे आप दोनों के पुत्र हुए हैं ॥ ४१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! परम मनस्वी वसुदेवजीने ऋषियोंकी यह बात सुनकर, उनके चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया, उन्हें प्रसन्न किया और यज्ञके लिये ऋत्विजोंके रूपमें उनका वरण कर लिया ॥ ४२ ॥ राजन् ! जब इस प्रकार वसुदेवजीने धर्मपूर्वक ऋषियोंको वरण कर लिया, तब उन्होंने पुण्यक्षेत्र कुरुक्षेत्रमें परम धाॢमक वसुदेवजीके द्वारा उत्तमोत्तम सामग्रीसे युक्त यज्ञ करवाये ॥ ४३ ॥ परीक्षित्‌ ! जब वसुदेवजीने यज्ञकी दीक्षा ले ली, तब यदुवंशियोंने स्नान करके सुन्दर वस्त्र और कमलोंकी मालाएँ धारण कर लीं, राजालोग वस्त्राभूषणोंसे खूब सुसज्जित हो गये ॥ ४४ ॥ वसुदेवजीकी पत्नियोंने सुन्दर वस्त्र, अङ्गराग और सोनेके हारोंसे अपनेको सजा लिया और फिर वे सब बड़े आनन्दसे अपने-अपने हाथोंमें माङ्गलिक सामग्री लेकर यज्ञशालामें आयीं ॥ ४५ ॥ उस समय मृदङ्ग, पखावज, शङ्ख, ढोल और नगारे आदि बाजे बजने लगे। नट और नर्तकियाँ नाचने लगीं। सूत और मागध स्तुतिगान करने लगे। गन्धर्वोंके साथ सुरीले गलेवाली गन्धर्वपत्नियाँ गान करने लगीं ॥ ४६ ॥ वसुदेवजीने पहले नेत्रोंमें अंजन और शरीरमें मक्खन लगा लिया; फिर उनकी देवकी आदि अठारह पत्नियोंके साथ उन्हें ऋत्विजोंने महाभिषेककी विधिसे वैसे ही अभिषेक कराया, जिस प्रकार प्राचीन कालमें नक्षत्रोंके साथ चन्द्रमाका अभिषेक हुआ था ॥ ४७ ॥ उस समय यज्ञमें दीक्षित होनेके कारण वसुदेवजी तो मृगचर्म धारण किये हुए थे; परन्तु उनकी पत्नियाँ सुन्दर-सुन्दर साड़ी, कंगन, हार, पायजेब और कर्णफूल आदि आभूषणोंसे खूब सजी हुई थीं। वे अपनी पत्नियोंके साथ भलीभाँति शोभायमान हुए ॥ ४८ ॥ महाराज ! वसुदेवजीके ऋत्विज और सदस्य रत्नजटित आभूषण तथा रेशमी वस्त्र धारण करके वैसे ही सुशोभित हुए, जैसे पहले इन्द्रके यज्ञमें हुए थे ॥ ४९ ॥ उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी अपने-अपने भाई-बन्धु और स्त्री-पुत्रोंके साथ इस प्रकार शोभायमान हुए, जैसे अपनी शक्तियोंके साथ समस्त जीवोंके ईश्वर स्वयं भगवान्‌ समष्टि जीवोंके अभिमानी श्रीसङ्कर्षण तथा अपने विशुद्ध नारायण- स्वरूपमें शोभायमान होते हैं ॥ ५० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

वसुदेव जी का यज्ञोत्सव

 

श्रीमुनय ऊचुः -

यन्मायया तत्त्वविदुत्तमा वयं

     विमोहिता विश्वसृजामधीश्वराः ।

 यदीशितव्यायति गूढ ईहया

     अहो विचित्रं भगवद् विचेष्टितम् ॥ १६ ॥

 अनीह एतद्‌ बहुधैक आत्मना

     सृजत्यवत्यत्ति न बध्यते यथा ।

 भौमैर्हि भूमिर्बहुनामरूपिणी

     अहो विभूम्नश्चरितं विडम्बनम् ॥ १७ ॥

 अथापि काले स्वजनाभिगुप्तये

     बिभर्षि सत्त्वं खलनिग्रहाय च ।

 स्वलीलया वेदपथं सनातनं

 वर्णाश्रमात्मा पुरुषः परो भवान् ॥ १८ ॥

ब्रह्म ते हृदयं शुक्लं तपःस्वाध्यायसंयमैः ।

यत्रोपलब्धं सद्व्यक्तं अव्यक्तं च ततः परम् ॥ १९ ॥

तस्माद्‌ ब्रह्मकुलं ब्रह्मन् शास्त्रयोनेस्त्वमात्मनः ।

सभाजयसि सद्धाम तद्‌ ब्रह्मण्याग्रणीर्भवान् ॥ २० ॥

अद्य नो जन्मसाफल्यं विद्यायास्तपसो दृशः ।

त्वया सङ्गम्य सद्‌गत्या यदन्तः श्रेयसां परः ॥ २१ ॥

नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।

स्वयोगमाययाच्छन्न महिम्ने परमात्मने ॥ २२ ॥

न यं विदन्त्यमी भूपा एकारामाश्च वृष्णयः ।

मायाजवनिकाच्छन्नं आत्मानं कालमीश्वरम् ॥ २३ ॥

यथा शयानः पुरुष आत्मानं गुणतत्त्वदृक् ।

नाममात्रेन्द्रियाभातं न वेद रहितं परम् ॥ २४ ॥

एवं त्वा नाममात्रेषु विषयेष्विन्द्रियेहया ।

मायया विभ्रमच्चित्तो न वेद स्मृत्युपप्लवात् ॥ २५ ॥

तस्याद्य ते ददृशिमाङ्‌घ्रिमघौघमर्ष

     तीर्थास्पदं हृदि कृतं सुविपक्वयोगैः ।

 उत्सिक्तभक्त्युपहताशय जीवकोशा

     आपुर्भवद्‌गतिमथानुगृहान भक्तान् ॥ २६ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

इत्यनुज्ञाप्य दाशार्हं धृतराष्ट्रं युधिष्ठिरम् ।

 राजर्षे स्वाश्रमान् गन्तुं मुनयो दधिरे मनः ॥ २७ ॥

 तद् वीक्ष्य तानुपव्रज्य वसुदेवो महायशाः ।

 प्रणम्य चोपसङ्गृह्य बभाषेदं सुयन्त्रितः ॥ २८ ॥

 

 श्रीवसुदेव उवाच -

नमो वः सर्वदेवेभ्य ऋषयः श्रोतुमर्हथ ।

 कर्मणा कर्मनिर्हारो यथा स्यान्नस्तदुच्यताम् ॥ २९ ॥

 

 श्रीनारद उवाच -

नातिचित्रमिदं विप्रा वसुदेवो बुभुत्सया ।

 कृष्णं मत्वार्भकं यन्नः पृच्छति श्रेय आत्मनः ॥ ३० ॥

 सन्निकर्षोऽत्र मर्त्यानां अनादरणकारणम् ।

 गाङ्गं हित्वा यथान्याम्भः तत्रत्यो याति शुद्धये ॥ ३१ ॥

 यस्यानुभूतिः कालेन लयोत्पत्त्यादिनास्य वै ।

 स्वतोऽन्यस्माच्च गुणतो न कुतश्चन रिष्यति ॥ ३२ ॥

तं क्लेशकर्मपरिपाकगुणप्रवाहैः

     अव्याहतानुभवमीश्वरमद्वितीयम् ।

 प्राणादिभिः स्वविभवैरुपगूढमन्यो

     मन्येत सूर्यमिव मेघहिमोपरागैः ॥ ३३ ॥

अथोचुर्मुनयो राजन् आभाष्यानकदुंदुभिम् ।

 सर्वेषां श्रृणतां राज्ञां तथैवाच्युतरामयोः ॥ ३४ ॥

 कर्मणा कर्मनिर्हार एष साधुनिरूपितः ।

 यच्छ्रद्धया यजेद् विष्णुं सर्वयज्ञेश्वरं मखैः ॥ ३५ ॥

 

मुनियोंने कहाभगवन् ! आपकी मायासे प्रजापतियोंके अधीश्वर मरीचि आदि तथा बड़े-बड़े तत्त्वज्ञानी हमलोग मोहित हो रहे हैं। आप स्वयं ईश्वर होते हुए भी मनुष्यकी-सी चेष्टाओंसे अपनेको छिपाये रखकर जीवकी भाँति आचरण करते हैं। भगवन् ! सचमुच आपकी लीला अत्यन्त विचित्र है। परम आश्चर्यमयी है ॥ १६ ॥ जैसे पृथ्वी अपने विकारोंवृक्ष, पत्थर, घट आदिके द्वारा बहुत-से नाम और रूप ग्रहण कर लेती है, वास्तवमें वह एक ही है, वैसे ही आप एक और चेष्टाहीन होनेपर भी अनेक रूप धारण कर लेते हैं और अपने-आपसे ही इस जगत्की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। पर यह सब करते हुए भी इन कर्मोंसे लिप्त नहीं होते। जो सजातीय, विजातीय और स्वगत- भेदशून्य एकरस अनन्त है, उसका यह चरित्र लीलामात्र नहीं तो और क्या है ? धन्य है आपकी यह लीला ! ॥ १७ ॥ भगवन् ! यद्यपि आप प्रकृतिसे परे, स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं; तथापि समय-समयपर भक्तजनोंकी रक्षा और दुष्टोंका दमन करनेके लिये विशुद्ध सत्त्वमय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं और अपनी लीलाके द्वारा सनातन वैदिक मार्गकी रक्षा करते हैं; क्योंक सभी वर्णों और आश्रमोंके रूपमें आप स्वयं ही प्रकट हैं ॥ १८ ॥ भगवन् ! वेद आपका विशुद्ध हृदय है; तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा उसीमें आपके साकार-निराकार रूप और दोनोंके अधिष्ठान-स्वरूप परब्रह्म परमात्माका साक्षात्कार होता है ॥ १९ ॥ परमात्मन् ! ब्राह्मण ही वेदोंके आधारभूत आपके स्वरूपकी उपलब्धिके स्थान हैं; इसीसे आप ब्राह्मणोंका सम्मान करते हैं और इसीसे आप ब्राह्मणभक्तोंमें अग्रगण्य भी हैं ॥ २० ॥ आप सर्वविध कल्याण-साधनोंकी चरमसीमा हैं और संत पुरुषोंकी एकमात्र गति हैं। आपसे मिलकर आज हमारे जन्म, विद्या, तप और ज्ञान सफल हो गये। वास्तवमें सबके परम फल आप ही हैं ॥ २१ ॥ प्रभो ! आपका ज्ञान अनन्त है, आप स्वयं सच्चिदानन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मा भगवान्‌ हैं। आपने अपनी अचिन्त्य शक्ति योगमायाके द्वारा अपनी महिमा छिपा रक्खी है, हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ २२ ॥ ये सभामें बैठे हुए राजालोग और दूसरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं आपके साथ आहार-विहार करनेवाले यदुवंशी लोग भी आपको वास्तवमें नहीं जानते; क्योंकि आपने अपने स्वरूपकोजो सबका आत्मा, जगत्का आदिकारण और नियन्ता हैमायाके परदेसे ढक रखा है ॥ २३ ॥ जब मनुष्य स्वप्न देखने लगता है, उस समय स्वप्नके मिथ्या पदार्थोंको ही सत्य समझ लेता है और नाममात्रकी इन्द्रियोंसे प्रतीत होनेवाले अपने स्वप्नशरीरको ही वास्तविक शरीर मान बैठता है। उसे उतनी देरके लिये इस बातका बिल्कुल ही पता नहीं रहता कि स्वप्नशरीरके अतिरिक्त एक जाग्रत्-अवस्थाका शरीर भी है ॥ २४ ॥ ठीक इसी प्रकार, जाग्रत्-अवस्थामें भी इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिरूप मायासे चित्त मोहित होकर नाममात्रके विषयोंमें भटकने लगता है। उस समय भी चित्तके चक्करसे विवेकशक्ति ढक जाती है और जीव यह नहीं जान पाता कि आप इस जाग्रत् संसारसे परे हैं ॥ २५ ॥ प्रभो ! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि अत्यन्त परिपक्व योग-साधनाके द्वारा आपके उन चरणकमलोंको हृदयमें धारण करते हैं, जो समस्त पाप-राशिको नष्ट करनेवाले गङ्गाजलके भी आश्रयस्थान हैं। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज हमें उन्हींका दर्शन हुआ है। प्रभो ! हम आपके भक्त हैं, आप हमपर अनुग्रह कीजिये; क्योंकि आपके परम पदकी प्राप्ति उन्हीं लोगोंको होती है, जिनका लिङ्गशरीररूप जीव-कोश आपकी उत्कृष्ट भक्तिके द्वारा नष्ट हो जाता है ॥ २६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंराजर्षे ! भगवान्‌की इस प्रकार स्तुति करके और उनसे, राजा धृतराष्ट्रसे तथा धर्मराज युधिष्ठिरजीसे अनुमति लेकर उन लोगोंने अपने-अपने आश्रमपर जानेका विचार किया ॥ २७ ॥ परम यशस्वी वसुदेवजी उनका जानेका विचार देखकर उनके पास आये और उन्हें प्रणाम किया और उनके चरण पकडक़र बड़ी नम्रतासे निवेदन करने लगे ॥ २८ ॥

वसुदेवजीने कहाऋषियो ! आपलोग सर्वदेवस्वरूप हैं। मैं आपलोगोंको नमस्कार करता हूँ। आपलोग कृपा करके मेरी एक प्रार्थना सुन लीजिये। वह यह कि जिन कर्मोंके अनुष्ठानसे कर्मों और कर्मवासनाओंका आत्यन्तिक नाशमोक्ष हो जाय, उनका आप मुझे उपदेश कीजिये ॥२९॥

नारदजीने कहाऋषियो ! यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है कि वसुदेवजी श्रीकृष्णको अपना बालक समझकर शुद्ध जिज्ञासाके भावसे अपने कल्याणका साधन हमलोगोंसे पूछ रहे हैं ॥ ३० ॥ संसारमें बहुत पास रहना मनुष्योंके अनादरका कारण हुआ करता है। देखते हैं, गङ्गातटपर रहनेवाला पुरुष गङ्गाजल छोडक़र अपनी शुद्धिके लिये दूसरे तीर्थमें जाता है ॥ ३१ ॥ श्रीकृष्णकी अनुभूति समयके फेर से होनेवाली जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलयसे मिटनेवाली नहीं है। वह स्वत: किसी दूसरे निमित्त से, गुणोंसे और किसीसे भी क्षीण नहीं होती ॥ ३२ ॥ उनका ज्ञानमय स्वरूप अविद्या, राग-द्वेष आदि क्लेश, पुण्य-पापमय कर्म, सुख-दु:खादि कर्मफल तथा सत्त्व आदि गुणोंके प्रवाहसे खण्डित नहीं है । वे स्वयं अद्वितीय परमात्मा हैं। जब वे अपनेको अपनी ही शक्तियोंप्राण आदिसे ढक लेते हैं, तब मूर्खलोग ऐसा समझते हैं कि वे ढक गये; जैसे बादल, कुहरा या ग्रहणके द्वारा अपने नेत्रोंके ढक जानेपर सूर्यको ढका हुआ मान लेते हैं ॥ ३३ ॥

परीक्षित्‌ ! इसके बाद ऋषियोंने भगवान्‌ श्रीकृष्ण, बलरामजी और अन्यान्य राजाओंके सामने ही वसुदेवजीको सम्बोधित करके कहा॥ ३४ ॥ कर्मोंके द्वारा कर्मवासनाओं और कर्मफलोंका आत्यन्तिक नाश करनेका सबसे अच्छा उपाय यह है कि यज्ञ आदिके द्वारा समस्त यज्ञोंके अधिपति भगवान्‌ विष्णुकी श्रद्धापूर्वक आराधना करे ॥ ३५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...