रविवार, 11 अक्टूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छियासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छियासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

सुभद्राहरण और भगवान्‌ का मिथिलापुरी में राजा जनक

और श्रुतदेव ब्राह्मण के घर एक ही साथ जाना

 

श्रीबहुलाश्व उवाच -

भवान्हि सर्वभूतानां आत्मा साक्षी स्वदृग् विभो ।

 अथ नस्त्वत्पदाम्भोजं स्मरतां दर्शनं गतः ॥ ३१ ॥

 स्ववचस्तदृतं कर्तुं अस्मद्‌दृग्गोचरो भवान् ।

 यदात्थैकान्तभक्तान् मे नानन्तः श्रीरजः प्रियः ॥ ३२ ॥

 को नु त्वच्चरणाम्भोजं एवंविद् विसृजेत् पुमान् ।

 निष्किञ्चनानां शान्तानां मुनीनां यस्त्वमात्मदः ॥ ३३ ॥

 योऽवतीर्य यदोर्वंशे नृणां संसरतामिह ।

 यशो वितेने तच्छान्त्यै त्रैलोक्यवृजिनापहम् ॥ ३४ ॥

 नमस्तुभ्यं भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।

 नारायणाय ऋषये सुशान्तं तप ईयुषे ॥ ३५ ॥

 दिनानि कतिचिद्‌ भूमन् गृहान् नो निवस द्विजैः ।

 समेतः पादरजसा पुनीहीदं निमेः कुलम् ॥ ३६ ॥

 इत्युपामन्त्रितो राज्ञा भगवान् लोकभावनः ।

 उवास कुर्वन् कल्याणं मिथिलानरयोषिताम् ॥ ३७ ॥

 श्रुतदेवोऽच्युतं प्राप्तं स्वगृहाञ्जनको यथा ।

 नत्वा मुनीन् सुसंहृष्टो धुन्वन् वासो ननर्त ह ॥ ३८ ॥

 तृणपीठबृषीष्वेतान् आनीतेषूपवेश्य सः ।

 स्वागतेनाभिनन्द्याङ्‌घ्रीन् सभार्योऽवनिजे मुदा ॥ ३९ ॥

 तदम्भसा महाभाग आत्मानं सगृहान्वयम् ।

 स्नापयां चक्र उद्धर्षो लब्धसर्वमनोरथः ॥ ४० ॥

फलार्हणोशीरशिवामृताम्बुभिः

     मृदा सुरभ्या तुलसीकुशाम्बुजैः ।

 आराधयामास यथोपपन्नया

     सपर्यया सत्त्वविवर्धनान्धसा ॥ ४१ ॥

 स तर्कयामास कुतो ममान्वभूद्

     गृहान्धकुपे पतितस्य सङ्गमः ।

 यः सर्वतीर्थास्पदपादरेणुभिः

     कृष्णेन चास्यात्मनिकेतभूसुरैः ॥ ४२ ॥

सूपविष्टान् कृतातिथ्यान् श्रुतदेव उपस्थितः ।

 सभार्यस्वजनापत्य उवाचाङ्‌घ्र्यभिमर्शनः ॥ ४३ ॥

 

 श्रुतदेव उवाच -

नाद्य नो दर्शनं प्राप्तः परं परमपूरुषः ।

 यर्हीदं शक्तिभिः सृष्ट्वा प्रविष्टो ह्यात्मसत्तया ॥ ४४ ॥

 यथा शयानः पुरुषो मनसैवात्ममायया ।

 सृष्ट्वा लोकं परं स्वाप्नं अनुविश्यावभासते ॥ ४५ ॥

 श्रृणतां गदतां शश्वद् अर्चतां त्वाभिवन्दताम् ।

 णृणां संवदतामन्तः हृदि भास्यमलात्मनाम् ॥ ४६ ॥

 हृदिस्थोऽप्यतिदूरस्थः कर्मविक्षिप्तचेतसाम् ।

 आत्मशक्तिभिरग्राह्योऽपि अन्त्युपेतगुणात्मनाम् ॥ ४७ ॥

नमोऽस्तु तेऽध्यात्मविदां परात्मने

     अनात्मने स्वात्मविभक्तमृत्यवे ।

 सकारणाकारणलिङ्गमीयुषे

     स्वमाययासंवृतरुद्धदृष्टये ॥ ४८ ॥

स त्वं शाधि स्वभृत्यान् नः किं देव करवाम हे ।

 एतदन्तो नृणां क्लेशो यद्‌भवानक्षिगोचरः ॥ ४९ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

तदुक्तमित्युपाकर्ण्य भगवान् प्रणतार्तिहा ।

 गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रहसन् तमुवाच ह ॥ ५० ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

ब्रह्मंस्तेऽनुग्रहार्थाय सम्प्राप्तान् विद्ध्यमून् मुनीन् ।

 सञ्चरन्ति मया लोकान् पुनन्तः पादरेणुभिः ॥ ५१ ॥

 देवाः क्षेत्राणि तीर्थानि दर्शनस्पर्शनार्चनैः ।

 शनैः पुनन्ति कालेन तदप्यर्हत्तमेक्षया ॥ ५२ ॥

 ब्राह्मणो जन्मना श्रेयान् सर्वेषां प्राणिनामिह ।

 तपसा विद्यया तुष्ट्या किमु मत्कलया युतः ॥ ५३ ॥

 न ब्राह्मणान्मे दयितं रूपमेतच्चतुर्भुजम् ।

 सर्ववेदमयो विप्रः सर्वदेवमयो ह्यहम् ॥ ५४ ॥

 दुष्प्रज्ञा अविदित्वैवं अवजानन्त्यसूयवः ।

 गुरुं मां विप्रमात्मानं अर्चादाविज्यदृष्टयः ॥ ५५ ॥

 चराचरमिदं विश्वं भावा ये चास्य हेतवः ।

 मद् रूपाणीति चेतस्य आधत्ते विप्रो मदीक्षया ॥ ५६ ॥

तस्माद्‌ ब्रह्मऋषीनेतान् ब्रह्मन् मच्छ्रद्धयार्चय ।

 एवं चेदर्चितोऽस्म्यद्धा नान्यथा भूरिभूतिभिः ॥ ५७ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

स इत्थं प्रभुनादिष्टः सहकृष्णान् द्विजोत्तमान् ।

 आराध्यैकात्मभावेन मैथिलश्चाप सद्‌गतिम् ॥ ५८ ॥

 एवं स्वभक्तयो राजन् भगवान् भक्तभक्तिमान् ।

 उषित्वाऽऽदिश्य सन्मार्गं पुनर्द्वारवतीमगात् ॥ ५९ ॥

 

राजा बहुलाश्वने कहा—‘प्रभो ! आप समस्त प्राणियोंके आत्मा, साक्षी एवं स्वयंप्रकाश हैं। हम सदा-सर्वदा आपके चरणकमलोंका स्मरण करते रहते हैं। इसीसे आपने हमलोगोंको दर्शन देकर कृतार्थ किया है ॥ ३१ ॥ भगवन् ! आपके वचन हैं कि मेरा अनन्यप्रेमी भक्त मुझे अपने स्वरूप बलरामजी, अर्धाङ्गिनी लक्ष्मी और पुत्र ब्रह्मासे भी बढक़र प्रिय है। अपने उन वचनोंको सत्य करनेके लिये ही आपने हमलोगोंको दर्शन दिया है ॥ ३२ ॥ भला, ऐसा कौन पुरुष है, जो आपकी इस परम दयालुता और प्रेम-परवशताको जानकर भी आपके चरणकमलोंका परित्याग कर सके ? प्रभो ! जिन्होंने जगत्की समस्त वस्तुओंका एवं शरीर आदिका भी मनसे परित्याग कर दिया है, उन परम शान्त मुनियोंको आप अपनेतकको भी दे डालते हैं ॥ ३३ ॥ आपने यदुवंशमें अवतार लेकर जन्म-मृत्युके चक्करमें पड़े हुए मनुष्योंको उससे मुक्त करनेके लिये जगत्में ऐसे विशुद्ध यशका विस्तार किया है, जो त्रिलोकीके पाप-तापको शान्त करनेवाला है ॥ ३४ ॥ प्रभो ! आप अचिन्त्य, अनन्त ऐश्वर्य और माधुर्यकी निधि हैं; सबके चित्तको अपनी ओर आकर्षित करनेके लिये आप सच्चिदानन्दस्वरूप परब्रह्म हैं। आपका ज्ञान अनन्त है। परम शान्तिका विस्तार करनेके लिये आप ही नारायण ऋषिके रूपमें तपस्या कर रहे हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ३५ ॥ एकरस अनन्त ! आप कुछ दिनोंतक मुनिमण्डलीके साथ हमारे यहाँ निवास कीजिये और अपने चरणोंकी धूलसे इस निमिवंशको पवित्र कीजिये॥ ३६ ॥ परीक्षित्‌ ! सबके जीवनदाता भगवान्‌ श्रीकृष्ण राजा बहुलाश्वकी यह प्रार्थना स्वीकार करके मिथिलावासी नर-नारियोंका कल्याण करते हुए कुछ दिनोंतक वहीं रहे ॥ ३७ ॥

प्रिय परीक्षित्‌ ! जैसे राजा बहुलाश्व भगवान्‌ श्रीकृष्ण और मुनि-मण्डलीके पधारनेपर आनन्दमग्र हो गये थे, वैसे ही श्रुतदेव ब्राह्मण भी भगवान्‌ श्रीकृष्ण और मुनियोंको अपने घर आया देखकर आनन्दविह्वल हो गये; वे उन्हें नमस्कार करके अपने वस्त्र उछाल-उछालकर नाचने लगे ॥ ३८ ॥ श्रुतदेवने चटाई, पीढ़े और कुशासन बिछाकर उनपर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और मुनियोंको बैठाया, स्वागत-भाषण आदिके द्वारा उनका अभिनन्दन किया तथा अपनी पत्नी के साथ बड़े आनन्द से सबके पाँव पखारे ॥ ३९ ॥ परीक्षित्‌ ! महान् सौभाग्यशाली श्रुतदेव ने भगवान्‌ और ऋषियोंके चरणोदक से अपने घर और कुटुम्बियोंको सींच दिया। इस समय उनके सारे मनोरथ पूर्ण हो गये थे। वे हर्षातिरेक से मतवाले हो रहे थे ॥ ४० ॥ तदनन्तर उन्होंने फल, गन्ध, खससे सुवासित निर्मल एवं मधुर जल, सुगन्धित मिट्टी, तुलसी, कुश, कमल आदि अनायास-प्राप्त पूजा-सामग्री और सत्त्वगुण बढ़ानेवाले अन्न से सब की आराधना की ॥ ४१ ॥ उस समय श्रुतदेवजी मन-ही-मन तर्कना करने लगे कि मैं तो घर-गृहस्थीके अँधेरे कूएँमें गिरा हुआ हूँ, अभागा हूँ; मुझे भगवान्‌ श्रीकृष्ण और उनके निवासस्थान ऋषि-मुनियोंका, जिनके चरणोंकी धूल ही समस्त तीर्थोंको तीर्थ बनानेवाली है, समागम कैसे प्राप्त हो गया ? ॥ ४२ ॥ जब सब लोग आतिथ्य स्वीकार करके आरामसे बैठ गये, तब श्रुतदेव अपने स्त्री-पुत्र तथा अन्य सम्बन्धियोंके साथ उनकी सेवामें उपस्थित हुए। वे भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणकमलोंका स्पर्श करते हुए कहने लगे ॥ ४३ ॥

श्रुतदेवने कहाप्रभो ! आप व्यक्त-अव्यक्तरूप प्रकृति और जीवोंसे परे पुरुषोत्तम हैं। मुझे आपने आज ही दर्शन दिया हो, ऐसी बात नहीं है। आप तो तभीसे सब लोगोंसे मिले हुए हैं, जबसे आपने अपनी शक्तियोंके द्वारा इस जगत्की रचना करके आत्मसत्ताके रूपमें इसमें प्रवेश किया है ॥ ४४ ॥ जैसे सोया हुआ पुरुष स्वप्नावस्थामें अविद्यावश मन-ही-मन स्वप्न-जगत्की सृष्टि कर लेता है और उसमें स्वयं उपस्थित होकर अनेक रूपोंमें अनेक कर्म करता हुआ प्रतीत होता है, वैसे ही आपने अपनेमें ही अपनी मायासे जगत् की रचना कर ली है और अब इसमें प्रवेश करके अनेकों रूपोंसे प्रकाशित हो रहे हैं ॥ ४५ ॥ जो लोग सर्वदा आपकी लीलाकथाका श्रवण-कीर्तन तथा आपकी प्रतिमाओंका अर्चन-वन्दन करते हैं और आपसमें आपकी ही चर्चा करते हैं, उनका हृदय शुद्ध हो जाता है और आप उसमें प्रकाशित हो जाते हैं ॥ ४६ ॥ जिन लोगोंका चित्त लौकिक-वैदिक आदि कर्मोंकी वासनासे बहिर्मुख हो रहा है, उनके हृदयमें रहनेपर भी आप उनसे बहुत दूर हैं। किन्तु जिन लोगोंने आपके गुणगानसे अपने अन्त:करणको सद्गुणसम्पन्न बना लिया है, उनके लिये चित्तवृत्तियोंसे अग्राह्य होनेपर भी आप अत्यन्त निकट हैं ॥ ४७ ॥ प्रभो ! जो लोग आत्मतत्त्वको जाननेवाले हैं, उनके आत्माके रूपमें ही आप स्थित हैं और जो शरीर आदिको ही अपना आत्मा मान बैठे हैं, उनके लिये आप अनात्माको प्राप्त होनेवाली मृत्युके रूपमें हैं। आप महत्तत्त्व आदि कार्यद्रव्य और प्रकृतिरूप कारणके नियामक हैंशासक हैं। आपकी माया आपकी अपनी दृष्टिपर पर्दा नहीं डाल सकती, किन्तु उसने दूसरोंकी दृष्टिको ढक रखा है। आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ४८ ॥ स्वयंप्रकाश प्रभो ! हम आपके सेवक हैं। हमें आज्ञा दीजिये कि हम आपकी क्या सेवा करें ? नेत्रोंके द्वारा आपका दर्शन होनेतक ही जीवोंके क्लेश रहते हैं। आपके दर्शनमें ही समस्त क्लेशोंकी परिसमाप्ति है ॥ ४९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! शरणागत-भयहारी भगवान्‌ श्रीकृष्णने श्रुतदेवकी प्रार्थना सुनकर अपने हाथसे उनका हाथ पकड़ लिया और मुसकराते हुए कहा ॥ ५० ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाप्रिय श्रुतदेव ! ये बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तुमपर अनुग्रह करनेके लिये ही यहाँ पधारे हैं। ये अपने चरणकमलोंकी धूलसे लोगों और लोकोंको पवित्र करते हुए मेरे साथ विचरण कर रहे हैं ॥ ५१ ॥ देवता, पुण्यक्षेत्र और तीर्थ आदि तो दर्शन, स्पर्श, अर्चन आदिके द्वारा धीरे-धीरे बहुत दिनोंमें पवित्र करते हैं; परन्तु संत पुरुष अपनी दृष्टिसे ही सबको पवित्र कर देते हैं। यही नहीं; देवता आदिमें जो पवित्र करनेकी शक्ति है, वह भी उन्हें संतोंकी दृष्टिसे ही प्राप्त होती है ॥ ५२ ॥ श्रुतदेव ! जगत्में ब्राह्मण जन्मसे ही सब प्राणियोंसे श्रेष्ठ हैं। यदि वह तपस्या, विद्या, सन्तोष और मेरी उपासनामेरी भक्तिसे युक्त हो तब तो कहना ही क्या है ॥ ५३ ॥ मुझे अपना यह चतुर्भुजरूप भी ब्राह्मणोंकी अपेक्षा अधिक प्रिय नहीं है। क्योंकि ब्राह्मण सर्ववेदमय है और मैं सर्वदेवमय हूँ ॥ ५४ ॥ दुर्बुद्धि मनुष्य इस बातको न जानकर केवल मूर्ति आदिमें ही पूज्यबुद्धि रखते हैं और गुणोंमें दोष निकालकर मेरे स्वरूप जगद्गुरु ब्राह्मणका, जो कि उनका आत्मा ही है, तिरस्कार करते हैं ॥ ५५ ॥ ब्राह्मण मेरा साक्षात्कार करके अपने चित्तमें यह निश्चय कर लेता है कि यह चराचर जगत्, इसके सम्बन्धकी सारी भावनाएँ और इसके कारण प्रकृति-महत्तत्त्वादि सब-के- सब आत्मस्वरूप भगवान्‌के ही रूप हैं ॥ ५६ ॥ इसलिये श्रुतदेव ! तुम इन ब्रहमर्षियोंको मेरा ही स्वरूप समझकर पूरी श्रद्धासे इनकी पूजा करो। यदि तुम ऐसा करोगे, तब तो तुमने साक्षात् अनायास ही मेरा पूजन कर लिया; नहीं तो बड़ी-बड़ी बहुमूल्य सामग्रियोंसे भी मेरी पूजा नहीं हो सकती ॥ ५७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णका यह आदेश प्राप्त करके श्रुतदेवने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और उन ब्रहमर्षियोंकी एकात्मभावसे आराधना की तथा उनकी कृपासे वे भगवत्स्वरूपको प्राप्त हो गये। राजा बहुलाश्वने भी वही गति प्राप्त की ॥ ५८ ॥ प्रिय परीक्षित्‌ ! जैसे भक्त भगवान्‌ की भक्ति करते हैं, वैसे ही भगवान्‌ भी भक्तोंकी भक्ति करते हैं। वे अपने दोनों भक्तोंको प्रसन्न करनेके लिये कुछ दिनोंतक मिथिलापुरीमें रहे और उन्हें साधु पुरुषोंके मार्गका उपदेश करके वे द्वारका लौट आये ॥ ५९ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे

उत्तरार्धे श्रुतदेवानुग्रहो नाम षडशीतितमोऽध्यायः ॥ ८६ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छियासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छियासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

सुभद्राहरण और भगवान्‌ का मिथिलापुरी में राजा जनक

और श्रुतदेव ब्राह्मण के घर एक ही साथ जाना

 

श्रीराजोवाच -

ब्रह्मन् वेदितुमिच्छामः स्वसारं रामकृष्णयोः ।

 यथोपयेमे विजयो या ममासीत् पितामही ॥ १ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

अर्जुनस्तीर्थयात्रायां पर्यटन् अवनीं प्रभुः ।

 गतः प्रभासमश्रृणोन् मातुलेयीं स आत्मनः ॥ २ ॥

 दुर्योधनाय रामस्तां दास्यतीति न चापरे ।

 तल्लिप्सुः स यतिर्भूत्वा त्रिदण्डी द्वारकामगात् ॥ ३ ॥

 तत्र वै वार्षिकान् मासान् अवात्सीत् स्वार्थसाधकः ।

 पौरैः सभाजितोऽभीक्ष्णं रामेणाजानता च सः ॥ ४ ॥

 एकदा गृहमानीय आतिथ्येन निमंत्र्य तम् ।

 श्रद्धयोपहृतं भैक्ष्यं बलेन बुभुजे किल ॥ ५ ॥

 सोऽपश्यत्तत्र महतीं कन्यां वीरमनोहराम् ।

 प्रीत्युत्फुल्लेक्षणस्तस्यां भावक्षुब्धं मनो दधे ॥ ६ ॥

 सापि तं चकमे वीक्ष्य नारीणां हृदयंगमम् ।

 हसन्ती व्रीडितापाङ्गी तन्न्यस्तहृदयेक्षणा ॥ ७ ॥

 तां परं समनुध्यायन् नन्तरं प्रेप्सुरर्जुनः ।

 न लेभे शं भ्रमच्चित्तः कामेनातिबलीयसा ॥ ८ ॥

 महत्यां देवयात्रायां रथस्थां दुर्गनिर्गतां ।

 जहारानुमतः पित्रोः कृष्णस्य च महारथः ॥ ९ ॥

 रथस्थो धनुरादाय शूरांश्चारुन्धतो भटान् ।

 विद्राव्य क्रोशतां स्वानां स्वभागं मृगराडिव ॥ १० ॥

 तच्छ्रुत्वा क्षुभितो रामः पर्वणीव महार्णवः ।

 गृहीतपादः कृष्णेन सुहृद्‌भिश्चानुसाम्यत ॥ ११ ॥

 प्राहिणोत्पारिबर्हाणि वरवध्वोर्मुदा बलः ।

 महाधनोपस्करेभ रथाश्वनरयोषितः ॥ १२ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

कृष्णस्यासीद् द्विजश्रेष्ठः श्रुतदेव इति श्रुतः ।

 कृष्णैकभक्त्या पूर्णार्थः शान्तः कविरलम्पटः ॥ १३ ॥

 स उवास विदेहेषु मिथिलायां गृहाश्रमी ।

 अनीहयागताहार्य निर्वर्तितनिजक्रियः ॥ १४ ॥

 यात्रामात्रं त्वहरहः दैवाद् उपनमत्युत ।

 नाधिकं तावता तुष्टः क्रिया चक्रे यथोचिताः ॥ १५ ॥

 तथा तद्‌राष्ट्रपालोऽङ्ग बहुलाश्व इति श्रुतः ।

 मैथिलो निरहम्मान उभावप्यच्युतप्रियौ ॥ १६ ॥

 तयोः प्रसन्नो भगवान् दारुकेणाहृतं रथम् ।

 आरुह्य साकं मुनिभिः विदेहान् प्रययौ प्रभुः ॥ १७ ॥

 नारदो वामदेवोऽत्रिः कृष्णो रामोऽसितोऽरुणिः ।

 अहं बृहस्पतिः कण्वो मैत्रेयश्च्यवनादयः ॥ १८ ॥

 तत्र तत्र तमायान्तं पौरा जानपदा नृप ।

 उपतस्थुः सार्घ्यहस्ता ग्रहैः सूर्यमिवोदितम् ॥ १९ ॥

आनर्तधन्वकुरुजाङ्गलकङ्कमत्स्य

     पाञ्चालकुन्तिमधुकेकयकोशलार्णाः ।

 अन्ये च तन्मुखसरोजमुदारहास

     स्निग्धेक्षणं नृप पपुर्दृशिभिर्नृनार्यः ॥ २० ॥

 तेभ्यः स्ववीक्षणविनष्टतमिस्रदृग्भ्यः

     क्षेमं त्रिलोकगुरुरर्थदृशं च यच्छन् ।

 श्रृणवन् दिगन्तधवलं स्वयशोऽशुभघ्नं

     गीतं सुरैर्नृभिरगात् शनकैर्विदेहान् ॥ २१ ॥

तेऽच्युतं प्राप्तमाकर्ण्य पौरा जानपदा नृप ।

 अभीयुर्मुदितास्तस्मै गृहीतार्हणपाणयः ॥ २२ ॥

 दृष्ट्वा त उत्तमःश्लोकं प्रीत्युत्फुलाननाशयाः ।

 कैर्धृताञ्जलिभिर्नेमुः श्रुतपूर्वान् तथा मुनीन् ॥ २३ ॥

 स्वानुग्रहाय सम्प्राप्तं मन्वानौ तं जगद्‌गुरुम् ।

 मैथिलः श्रुतदेवश्च पादयोः पेततुः प्रभोः ॥ २४ ॥

 न्यमन्त्रयेतां दाशार्हं आतिथ्येन सह द्विजैः ।

 मैथिलः श्रुतदेवश्च युगपत् संहताञ्जली ॥ २५ ॥

 भगवान् तदभिप्रेत्य द्वयोः प्रियचिकीर्षया ।

 उभयोराविशद्‌ गेहं उभाभ्यां तदलक्षितः ॥ २६ ॥

 श्रोतुमप्यसतां दूरान् जनकः स्वगृहागतान् ।

 आनीतेष्वासनाग्र्येषु सुखासीनान् महामनाः ॥ २७ ॥

 प्रवृद्धभक्त्या उद्धर्ष हृदयास्राविलेक्षणः ।

 नत्वा तदङ्‌घ्रीन् प्रक्षाल्य तदपो लोकपावनीः ॥ २८ ॥

 सकुटुम्बो वहन्मूर्ध्ना पूजयां चक्र ईश्वरान् ।

 गन्धमाल्याम्बराकल्प धूपदीपार्घ्यगोवृषैः ॥ २९ ॥

 वाचा मधुरया प्रीणन् इदमाहान्नतर्पितान् ।

 पादावङ्कगतौ विष्णोः संस्पृशञ्छनकैर्मुदा ॥ ३० ॥

 

राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! मेरे दादा अर्जुनने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीकी बहिन सुभद्राजीसे, जो मेरी दादी थीं, किस प्रकार विवाह किया ? मैं यह जाननेके लिये बहुत उत्सुक हूँ ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! एक बार अत्यन्त शक्तिशाली अर्जुन तीर्थयात्राके लिये पृथ्वीपर विचरण करते हुए प्रभासक्षेत्र पहुँचे। वहाँ उन्होंने यह सुना कि बलरामजी मेरे मामाकी पुत्री सुभद्राका विवाह दुर्योधनके साथ करना चाहते हैं और वसुदेव, श्रीकृष्ण आदि उनसे इस विषयमें सहमत नहीं हैं। अब अर्जुनके मनमें सुभद्राको पानेकी लालसा जग आयी। वे त्रिदण्डी वैष्णवका वेष धारण करके द्वारका पहुँचे ॥ २-३ ॥ अर्जुन सुभद्राको प्राप्त करनेके लिये वहाँ वर्षाकालमें चार महीनेतक रहे। वहाँ पुरवासियों और बलरामजीने उनका खूब सम्मान किया। उन्हें यह पता न चला कि ये अर्जुन हैं ॥ ४ ॥

एक दिन बलरामजीने आतिथ्यके लिये उन्हें निमन्त्रित किया और उनको वे अपने घर ले आये। त्रिदण्डी-वेषधारी अर्जुनको बलरामजीने अत्यन्त श्रद्धाके साथ भोजन-सामग्री निवेदित की और उन्होंने बड़े प्रेमसे भोजन किया ॥ ५ ॥ अर्जुनने भोजनके समय वहाँ विवाहयोग्य परम सुन्दरी सुभद्राको देखा। उसका सौन्दर्य बड़े-बड़े वीरोंका मन हरनेवाला था। अर्जुनके नेत्र प्रेमसे प्रफुल्लित हो गये। उनका मन उसे पानेकी आकाङ्क्षासे क्षुब्ध हो गया और उन्होंने उसे पत्नी बनानेका दृढ़ निश्चय कर लिया ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌ ! तुम्हारे दादा अर्जुन भी बड़े ही सुन्दर थे। उनके शरीरकी गठन, भाव-भङ्गी स्त्रियोंका हृदय स्पर्श कर लेती थी। उन्हें देखकर सुभद्राने भी मनमें उन्हींको पति बनानेका निश्चय किया। वह तनिक मुसकराकर लजीली चितवनसे उनकी ओर देखने लगी। उसने अपना हृदय उन्हें समर्पित कर दिया ॥ ७ ॥ अब अर्जुन केवल उसीका चिन्तन करने लगे और इस बातका अवसर ढूँढऩे लगे कि इसे कब हर ले जाऊँ ! सुभद्राको प्राप्त करनेकी उत्कट कामनासे उनका चित्त चक्कर काटने लगा, उन्हें तनिक भी शान्ति नहीं मिलती थी ॥ ८ ॥

एक बार सुभद्राजी देव-दर्शनके लिये रथपर सवार होकर द्वारका-दुर्गसे बाहर निकलीं। उसी समय महारथी अर्जुनने देवकी-वसुदेव और श्रीकृष्णकी अनुमतिसे सुभद्राका हरण कर लिया ॥ ९ ॥ रथपर सवार होकर वीर अर्जुनने धनुष उठा लिया और जो सैनिक उन्हें रोकनेके लिये आये, उन्हें मार-पीटकर भगा दिया। सुभद्राके निज-जन रोते-चिल्लाते रह गये और अर्जुन जिस प्रकार सिंह अपना भाग लेकर चल देता है, वैसे ही सुभद्राको लेकर चल पड़े ॥ १० ॥ यह समाचार सुनकर बलरामजी बहुत बिगड़े। वे वैसे ही क्षुब्ध हो उठे, जैसे पूर्णिमाके दिन समुद्र। परन्तु भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा अन्य सुहृद्-सम्बन्धियोंने उनके पैर पकडक़र उन्हें बहुत कुछ समझाया-बुझाया, तब वे शान्त हुए ॥ ११ ॥ इसके बाद बलरामजीने प्रसन्न होकर वर-वधूके लिये बहुत-सा धन, सामग्री, हाथी, रथ, घोड़े और दासी-दास दहेजमें भेजे ॥ १२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! विदेहकी राजधानी मिथिलामें एक गृहस्थ ब्राह्मण थे। उनका नाम था श्रुतदेव। वे भगवान्‌ श्रीकृष्णके परम भक्त थे। वे एकमात्र भगवद्भक्तिसे ही पूर्णमनोरथ, परम शान्त, ज्ञानी और विरक्त थे ॥ १३ ॥ वे गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी किसी प्रकारका उद्योग नहीं करते थे; जो कुछ मिल जाता, उसीसे अपना निर्वाह कर लेते थे ॥ १४ ॥ प्रारब्धवश प्रतिदिन उन्हें जीवन-निर्वाहभरके लिये सामग्री मिल जाया करती थी, अधिक नहीं। वे उतनेसे ही सन्तुष्ट भी थे, और अपने वर्णाश्रमके अनुसार धर्मपालनमें तत्पर रहते थे ॥ १५ ॥ प्रिय परीक्षित्‌ ! उस देशके राजा भी, ब्राह्मणके समान ही भक्तिमान् थे। मैथिलवंशके उन प्रतिष्ठित नरपतिका नाम था बहुलाश्व। उनमें अहङ्कारका लेश भी न था। श्रुतदेव और बहुलाश्व दोनों ही भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्यारे भक्त थे ॥ १६ ॥

एक बार भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन दोनोंपर प्रसन्न होकर दारुकसे रथ मँगवाया और उसपर सवार होकर द्वारकासे विदेह देशकी ओर प्रस्थान किया ॥ १७ ॥ भगवान्‌के साथ नारद, वामदेव, अत्रि, वेदव्यास, परशुराम, असित, आरुणि, मैं (शुकदेव), बृहस्पति, कण्व, मैत्रेय, च्यवन आदि ऋषि भी थे ॥ १८ ॥ परीक्षित्‌ ! वे जहाँ-जहाँ पहुँचते, वहाँ-वहाँकी नागरिक और ग्रामवासी प्रजा पूजाकी सामग्री लेकर उपस्थित होती। पूजा करनेवालोंको भगवान्‌ ऐसे जान पड़ते, मानो ग्रहोंके साथ साक्षात् सूर्यनारायण उदय हो रहे हों ॥ १९ ॥ परीक्षित्‌ ! उस यात्रामें आनर्त, धन्व, कुरु- जांगल, कङ्क, मत्स्य, पाञ्चाल, कुन्ति, मधु, केकय, कोसल, अर्ण आदि अनेक देशोंके नर- नारियोंने अपने नेत्ररूपी दोनोंसे भगवान्‌ श्रीकृष्णके उन्मुक्त हास्य और प्रेमभरी चितवनसे युक्त मुखारविन्दके मकरन्द-रसका पान किया ॥ २० ॥ त्रिलोकगुरु भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शनसे उन लोगोंकी अज्ञानदृष्टि नष्ट हो गयी। प्रभु-दर्शन करनेवाले नर-नारियोंको अपनी दृष्टिसे परम कल्याण और तत्त्वज्ञानका दान करते चल रहे थे। स्थान-स्थानपर मनुष्य और देवता भगवान्‌की उस कीर्तिका गान करके सुनाते, जो समस्त दिशाओंको उज्ज्वल बनानेवाली एवं समस्त अशुभों का विनाश करनेवाली है। इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण धीरे-धीरे विदेह देशमें पहुँचे ॥२१॥

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके शुभागमन का समाचार सुनकर नागरिक और ग्रामवासियोंके आनन्दकी सीमा न रही। वे अपने हाथोंमें पूजाकी विविध सामग्रियाँ लेकर उनकी अगवानी करने आये ॥ २२ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन करके उनके हृदय और मुखकमल प्रेम और आनन्दसे खिल उठे। उन्होंने भगवान्‌को तथा उन मुनियोंको, जिनका नाम केवल सुन रखा था, देखा न थाहाथ जोड़ मस्तक झुकाकर प्रणाम किया ॥ २३ ॥ मिथिलानरेश बहुलाश्व और श्रुतदेवने, यह समझकर कि जगद्गुरु भगवान्‌ श्रीकृष्ण हमलोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही पधारे हैं, उनके चरणोंपर गिरकर प्रणाम किया ॥ २४ ॥ बहुलाश्व और श्रुतदेव दोनोंने ही एक साथ हाथ जोडक़र मुनि-मण्डलीके सहित भगवान्‌ श्रीकृष्णको आतिथ्य ग्रहण करनेके लिये निमन्त्रित किया ॥ २५ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण दोनोंकी प्रार्थना स्वीकार करके दोनोंको ही प्रसन्न करनेके लिये एक ही समय पृथक्-पृथक्-रूपसे दोनोंके घर पधारे और यह बात एक-दूसरेको मालूम न हुई कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण मेरे घरके अतिरिक्त और कहीं भी जा रहे हैं ॥ २६ ॥ विदेहराज बहुलाश्व बड़े मनस्वी थे; उन्होंने यह देखकर कि दुष्ट-दुराचारी पुरुष जिनका नाम भी नहीं सुन सकते, वे ही भगवान्‌ श्रीकृष्ण और ऋषि- मुनि मेरे घर पधारे हैं, सुन्दर-सुन्दर आसन मँगाये और भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा ऋषि-मुनि आरामसे उनपर बैठ गये। उस समय बहुलाश्वकी विचित्र दशा थी। प्रेम-भक्तिके उद्रेकसे उनका हृदय भर आया था। नेत्रोंमें आँसू उमड़ रहे थे। उन्होंने अपने पूज्यतम अतिथियोंके चरणोंमें नमस्कार करके पाँव पखारे और अपने कुटुम्बके साथ उनके चरणोंका लोकपावन जल सिरपर धारण किया और फिर भगवान्‌ एवं भगवत्स्वरूप ऋषियोंको गन्ध, माला, वस्त्र, अलङ्कार, धूप, दीप, अघ्र्य, गौ, बैल आदि समर्पित करके उनकी पूजा की ॥ २७२९ ॥ जब सब लोग भोजन करके तृप्त हो गये, तब राजा बहुलाश्व भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंको अपनी गोद में लेकर बैठ गये। और बड़े आनन्दसे धीरे-धीरे उन्हें सहलाते हुए बड़ी मधुर वाणीसे भगवान्‌ की स्तुति करने लगे ॥ ३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीभगवान्‌ के द्वारा वसुदेव जी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश

तथा देवकी जी के छ: पुत्रों को लौटा लाना

 

ऋषिरुवाच

एवं सञ्चोदितौ मात्रा रामः कृष्णश्च भारत

सुतलं संविविशतुर्योगमायामुपाश्रितौ ३४

तस्मिन्प्रविष्टावुपलभ्य दैत्यराड्

विश्वात्मदैवं सुतरां तथात्मनः

तद्दर्शनाह्लादपरिप्लुताशयः

सद्यः समुत्थाय ननाम सान्वयः ३५

तयोः समानीय वरासनं मुदा

निविष्टयोस्तत्र महात्मनोस्तयोः

दधार पादाववनिज्य तज्जलं

सवृन्द आब्रह्म पुनद्यदम्बु ह ३६

समर्हयामास स तौ विभूतिभि-

र्महार्हवस्त्राभरणानुलेपनैः

ताम्बूलदीपामृतभक्षणादिभिः

स्वगोत्रवित्तात्मसमर्पणेन च ३७

स इन्द्रसेनो भगवत्पदाम्बुजं

बिभ्रन्मुहुः प्रेमविभिन्नया धिया

उवाच हानन्दजलाकुलेक्षणः

प्रहृष्टरोमा नृप गद्गदाक्षरम् ३८

 

बलिरुवाच

नमोऽनन्ताय बृहते नमः कृष्णाय वेधसे

साङ्ख्ययोगवितानाय ब्रह्मणे परमात्मने ३९

दर्शनं वां हि भूतानां दुष्प्रापं चाप्यदुर्लभम्

रजस्तमः स्वभावानां यन्नः प्राप्तौ यदृच्छया ४०

दैत्यदानवगन्धर्वाः सिद्धविद्याध्रचारणाः

यक्षरक्षः पिशाचाश्च भूतप्रमथनायकाः ४१

विशुद्धसत्त्वधाम्न्यद्धा त्वयि शास्त्रशरीरिणि

नित्यं निबद्धवैरास्ते वयं चान्ये च तादृशाः ४२

केचनोद्बद्धवैरेण भक्त्या केचन कामतः

न तथा सत्त्वसंरब्धाः सन्निकृष्टाः सुरादयः ४३

इदमित्थमिति प्रायस्तव योगेश्वरेश्वर

न विदन्त्यपि योगेशा योगमायां कुतो वयम् ४४

तन्नः प्रसीद निरपेक्षविमृग्ययुष्मत्

पादारविन्दधिषणान्यगृहान्धकूपात्

निष्क्रम्य विश्वशरणाङ्घ्र्युपलब्धवृत्तिः

शान्तो यथैक उत सर्वसखैश्चरामि ४५

शाध्यस्मानीशितव्येश निष्पापान्कुरु नः प्रभो

पुमान्यच्छ्रद्धयातिष्ठंश्चोदनाया विमुच्यते ४६

 

श्रीभगवानुवाच

आसन्मरीचेः षट्पुत्रा ऊर्णायां प्रथमेऽन्तरे

देवाः कं जहसुर्वीक्ष्य सुतं यभितुमुद्यतम् ४७

तेनासुरीमगन्योनिमधुनावद्यकर्मणा

हिरण्यकशिपोर्जाता नीतास्ते योगमायया ४८

देवक्या उदरे जाता राजन्कंसविहिंसिताः

सा तान्शोचत्यात्मजान्स्वांस्त इमेऽध्यासतेऽन्तिके ४९

इत एतान्प्रणेष्यामो मातृशोकापनुत्तये

ततः शापाद्विनिर्मुक्ता लोकं यास्यन्ति विज्वराः ५०

स्मरोद्गीथः परिष्वङ्गः पतङ्गः क्षुद्रभृद्घृणी

षडिमे मत्प्रसादेन पुनर्यास्यन्ति सद्गतिम् ५१

इत्युक्त्वा तान्समादाय इन्द्रसेनेन पूजितौ

पुनर्द्वारवतीमेत्य मातुः पुत्रानयच्छताम् ५२

तान्दृष्ट्वा बालकान्देवी पुत्रस्नेहस्नुतस्तनी

परिष्वज्याङ्कमारोप्य मूर्ध्न्यजिघ्रदभीक्ष्णशः ५३

अपाययत्स्तनं प्रीता सुतस्पर्शपरिस्नुतम्

मोहिता मायया विष्णोर्यया सृष्टिः प्रवर्तते ५४

पीत्वामृतं पयस्तस्याः पीतशेषं गदाभृतः

नारायणाङ्गसंस्पर्श प्रतिलब्धात्मदर्शनाः ५५

ते नमस्कृत्य गोविन्दं देवकीं पितरं बलम्

मिषतां सर्वभूतानां ययुर्धाम दिवौकसाम् ५६

तं दृष्ट्वा देवकी देवी मृतागमननिर्गमम्

मेने सुविस्मिता मायां कृष्णस्य रचितां नृप ५७

एवंविधान्यद्भुतानि कृष्णस्य परमात्मनः

वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य सन्त्यनन्तानि भारत ५८

 

श्रीसूत उवाच

य इदमनुशृणोति श्रावयेद्वा मुरारेश्

चरितममृतकीर्तेर्वर्णितं व्यासपुत्रैः

जगदघभिदलं तद्भक्तसत्कर्णपूरं

भगवति कृतचित्तो याति तत्क्षेमधाम ५९

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंप्रिय परीक्षित्‌ ! माता देवकीजीकी यह बात सुनकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलराम दोनोंने योगमायाका आश्रय लेकर सुतल लोकमें प्रवेश किया ॥ ३४ ॥ जब दैत्यराज बलिने देखा कि जगत्के आत्मा और इष्टदेव तथा मेरे परम स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी सुतल लोकमें पधारे हैं, तब उनका हृदय उनके दर्शनके आनन्दमें निमग्र हो गया। उन्होंने झटपट अपने कुटुम्बके साथ आसनसे उठकर भगवान्‌के चरणोंमें प्रणाम किया ॥ ३५ ॥ अत्यन्त आनन्दसे भरकर दैत्यराज बलिने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीको श्रेष्ठ आसन दिया और जब वे दोनों महापुरुष उसपर विराज गये, तब उन्होंने उनके पाँव पखारकर उनका चरणोदक परिवारसहित अपने सिरपर धारण किया। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌के चरणोंका जल ब्रह्मापर्यन्त सारे जगत् को पवित्र कर देता है ॥ ३६ ॥ इसके बाद दैत्यराज बलिने बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण, चन्दन, ताम्बूल, दीपक, अमृतके समान भोजन एवं अन्य विविध सामग्रियोंसे उनकी पूजा की और अपने समस्त परिवार, धन तथा शरीर आदिको उनके चरणोंमें समर्पित कर दिया ॥ ३७ ॥ परीक्षित्‌ ! दैत्यराज बलि बार- बार भगवान्‌ के चरणकमलोंको अपने वक्ष:स्थल और सिरपर रखने लगे, उनका हृदय प्रेमसे विह्वल हो गया। नेत्रोंसे आनन्द के आँसू बहने लगे। रोम-रोम खिल उठा। अब वे गद्गद स्वरसे भगवान्‌ की स्तुति करने लगे ॥ ३८ ॥

दैत्यराज बलिने कहाबलरामजी ! आप अनन्त हैं। आप इतने महान् हैं कि शेष आदि सभी विग्रह आपके अन्तर्भूत हैं। सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप सकल जगत्के निर्माता हैं। ज्ञानयोग और भक्तियोग दोनोंके प्रवर्तक आप ही हैं। आप स्वयं ही परब्रह्म परमात्मा हैं। हम आप दोनोंको बार-बार नमस्कार करते हैं ॥ ३९ ॥ भगवन् ! आप दोनोंका दर्शन प्राणियोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ है। फिर भी आपकी कृपासे वह सुलभ हो जाता है। क्योंकि आज आपने कृपा करके हम रजोगुणी एवं तमोगुणी स्वभाववाले दैत्योंको भी दर्शन दिया है ॥ ४० ॥ प्रभो ! हम और हमारे ही समान दूसरे दैत्य, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, चारण, यक्ष, राक्षस, पिशाच, भूत और प्रमथनायक आदि आपका प्रेमसे भजन करना तो दूर रहा, आपसे सर्वदा दृढ़ वैरभाव रखते हैं; परन्तु आपका श्रीविग्रह साक्षात् वेदमय और विशुद्ध सत्त्वस्वरूप है। इसलिये हमलोगोंमेंसे बहुतोंने दृढ़ वैरभावसे, कुछने भक्तिसे और कुछने कामनासे आपका स्मरण करके उस पदको प्राप्त किया है, जिसे आपके समीप रहनेवाले सत्त्वप्रधान देवता आदि भी नहीं प्राप्त कर सकते ॥ ४१-४३ ॥ योगेश्वरोंके अधीश्वर ! बड़े-बड़े योगेश्वर भी प्राय: यह बात नहीं जानते कि आपकी योगमाया यह है और ऐसी है; फिर हमारी तो बात ही क्या है ? ॥ ४४ ॥ इसलिये स्वामी ! मुझपर ऐसी कृपा कीजिये कि मेरी चित्त-वृत्ति आपके उन चरणकमलोंमें लग जाय, जिसे किसीकी अपेक्षा न रखनेवाले परमहंस लोग ढूँढ़ा करते हैं; और उनका आश्रय लेकर मैं उससे भिन्न इस घर-गृहस्थीके अँधेरे कूएँसे निकल जाऊँ। प्रभो ! इस प्रकार आपके उन चरणकमलोंकी, जो सारे जगत्के एकमात्र आश्रय हैं, शरण लेकर शान्त हो जाऊँ और अकेला ही विचरण करूँ। यदि कभी किसीका सङ्ग करना ही पड़े तो सबके परम हितैषी संतोंका ही ॥ ४५ ॥ प्रभो ! आप समस्त चराचर जगत्के नियन्ता और स्वामी हैं। आप हमें आज्ञा देकर निष्पाप बनाइए हमारे पापोंका नाश कर दीजिये; क्योंकि जो पुरुष श्रद्धाके साथ आपकी आज्ञाका पालन करता है, वह विधि-निषेधके बन्धनसे मुक्त हो जाता है ॥ ४६ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने कहा—‘दैत्यराज ! स्वायम्भुव मन्वन्तरमें प्रजापति मरीचिकी पत्नी ऊर्णाके गर्भसे छ: पुत्र उत्पन्न हुए थे। वे सभी देवता थे। वे यह देखकर कि ब्रह्माजी अपनी पुत्रीसे समागम करनेके लिये उद्यत हैं, हँसने लगे ॥ ४७ ॥ इस परिहासरूप अपराधके कारण उन्हें ब्रह्माजीने शाप दे दिया और वे असुर-योनिमें हिरण्यकशिपुके पुत्ररूपसे उत्पन्न हुए। अब योगमायाने उन्हें वहाँसे लाकर देवकीके गर्भमें रख दिया और उनको उत्पन्न होते ही कंसने मार डाला। दैत्यराज ! माता देवकीजी अपने उन पुत्रोंके लिये अत्यन्त शोकातुर हो रही हैं और वे तुम्हारे पास हैं ॥ ४८-४९ ॥ अत: हम अपनी माताका शोक दूर करनेके लिये इन्हें यहाँसे ले जायँगे। इसके बाद ये शापसे मुक्त हो जायँगे और आनन्दपूर्वक अपने लोकमें चले जायँगे ॥ ५० ॥ इनके छ: नाम हैंस्मर, उद्गीथ, परिष्वङ्ग, पतङ्ग, क्षुद्रभृत् और घृणि। इन्हें मेरी कृपासे पुन: सद्गति प्राप्त होगी॥ ५१ ॥ परीक्षित्‌ ! इतना कहकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण चुप हो गये। दैत्यराज बलिने उनकी पूजा की; इसके बाद श्रीकृष्ण और बलरामजी बालकोंको लेकर फिर द्वारका लौट आये तथा माता देवकीको उनके पुत्र सौंप दिये ॥ ५२ ॥ उन बालकोंको देखकर देवी देवकीके हृदयमें वात्सल्य-स्नेहकी बाढ़ आ गयी। उनके स्तनोंसे दूध बहने लगा। वे बार-बार उन्हें गोदमें लेकर छातीसे लगातीं और उनका सिर सूँघतीं ॥ ५३ ॥ पुत्रोंके स्पर्शके आनन्दसे सराबोर एवं आनन्दित देवकीने उनको स्तन-पान कराया। वे विष्णुभगवान्‌ की उस मायासे मोहित हो रही थीं, जिससे यह सृष्टि-चक्र चलता है ॥ ५४ ॥ परीक्षित्‌ ! देवकीजीके स्तनोंका दूध साक्षात् अमृत था; क्यों न हो, भगवान्‌ श्रीकृष्ण जो उसे पी चुके थे ! उन बालकोंने वही अमृतमय दूध पिया। उस दूधके पीनेसे और भगवान्‌ श्रीकृष्णके अङ्गोंका संस्पर्श होनेसे उन्हें आत्मसाक्षात्कार हो गया ॥ ५५ ॥ इसके बाद उन लोगोंने भगवान्‌ श्रीकृष्ण, माता देवकी, पिता वसुदेव और बलरामजीको नमस्कार किया। तदनन्तर सबके सामने ही वे देवलोकमें चले गये ॥ ५६ ॥ परीक्षित्‌ ! देवी देवकी यह देखकर अत्यन्त विस्मित हो गयीं कि मरे हुए बालक लौट आये और फिर चले भी गये। उन्होंने ऐसा निश्चय किया कि यह श्रीकृष्णका ही कोई लीला-कौशल है ॥ ५७ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्वयं परमात्मा हैं, उनकी शक्ति अनन्त है। उनके ऐसे-ऐसे अद्भुत चरित्र इतने हैं कि किसी प्रकार उनका पार नहीं पाया जा सकता ॥ ५८ ॥

सूतजी कहते हैंशौनकादि ऋषियो ! भगवान्‌ श्रीकृष्णकी कीर्ति अमर है, अमृतमयी है। उनका चरित्र जगत् के समस्त पाप-तापों को मिटानेवाला तथा भक्तजनोंके कर्णकुहरों में आनन्दसुधा प्रवाहित करनेवाला है। इसका वर्णन स्वयं व्यासनन्दन भगवान्‌ श्रीशुकदेवजी ने किया है। जो इसका श्रवण करता है अथवा दूसरोंको सुनाता है, उसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति भगवान्‌में लग जाती है और वह उन्हींके परम कल्याणस्वरूप धाम को प्राप्त होता है ॥ ५९ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे मृताग्रजानयनं नाम पञ्चाशीतितमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९) धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका  ...