॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नब्बेवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
भगवान् कृष्ण
के लीला-विहार का वर्णन
श्रीशुक उवाच
सुखं स्वपुर्यां निवसन् द्वारकायां श्रियः पतिः ।
सर्वसम्पत्समृद्धायां जुष्टायां वृष्णिपुङ्गवैः
॥ १ ॥
स्त्रीभिश्चोत्तमवेषाभिः नवयौवनकान्तिभिः ।
कन्दुकादिभिर्हर्म्येषु
क्रीडन्तीभिस्तडिद्द्युभिः ॥ २ ॥
नित्यं
सङ्कुलमार्गायां मदच्युद्भिर्मतङ्गजैः ।
स्वलङ्कृतैर्भटैरश्वै रथैश्च कनकोज्ज्वलैः ॥ ३ ॥
उद्यानोपवनाढ्यायां
पुष्पितद्रुमराजिषु ।
निर्विशद्भृङ्गविहगैः
नादितायां समन्ततः ॥ ४ ॥
रेमे षोडशसाहस्र
पत्नीनां एकवल्लभः ।
तावद्विचित्ररूपोऽसौ तद्गेहेषु महर्द्धिषु ॥ ५
॥
प्रोत्फुल्लोत्पलकह्लार कुमुदाम्भोजरेणुभिः ।
वासितामलतोयेषु
कूजद्द्विजकुलेषु च ॥ ६ ॥
विजहार
विगाह्याम्भो ह्रदिनीषु महोदयः ।
कुचकुङ्कुमलिप्ताङ्गः परिरब्धश्च योषिताम् ॥ ७ ॥
उपगीयमानो
गन्धर्वैः मृदङ्गपणवानकान् ।
वादयद्भिर्मुदा
वीणां सूतमागधवन्दिभिः ॥ ८ ॥
सिच्यमानोऽच्युतस्ताभिः हसन्तीभिः स्म रेचकैः ।
प्रतिषिञ्चन्
विचिक्रीडे यक्षीभिर्यक्षराडिव ॥ ९ ॥
ताः क्लिन्नवस्त्रविवृतोरुकुचप्रदेशाः
सिञ्चन्त्य
उद्धृतबृहत्कवरप्रसूनाः ।
कान्तं स्म
रेचकजिहीर्षययोपगुह्य
जातस्मरोत्स्मयलसद् वदना विरेजुः ॥ १० ॥
कृष्णस्तु
तत्स्तनविषत् जितकुङ्कुमस्रक्
क्रीडाभिषङ्गधुतकुन्तलवृन्दबन्धः ।
सिञ्चन्
मुन्मुहुर्युवतिभिः प्रतिषिच्यमानो
रेमे
करेणुभिरिवेभपतिः परीतः ॥ ११ ॥
नटानां नर्तकीनां च गीतवाद्योपजीविनाम् ।
क्रीडालङ्कारवासांसि कृष्णोऽदात्तस्य च स्त्रियः
॥ १२ ॥
कृष्णस्यैवं विहरतो
गत्यालापेक्षितस्मितैः ।
नर्मक्ष्वेलिपरिष्वङ्गैः स्त्रीणां किल हृता
धियः ॥ १३ ॥
ऊचुर्मुकुन्दैकधियो
गिर उन्मत्तवज्जडम् ।
चिन्तयन्त्योऽरविन्दाक्षं तानि मे गदतः श्रृणु ॥
१४ ॥
महिष्य ऊचुः -
कुररि विलपसि त्वं वीतनिद्रा न शेषे
स्वपिति जगति
रात्र्यामीश्वरो गुप्तबोधः ।
वयमिव सखि कच्चिद्गाढनिर्विद्धचेता
नलिननयनहासोदारलीलेक्षितेन ॥ १५ ॥
नेत्रे निमीलयसि नक्तमदृष्टबन्धुः
त्वं रोरवीषि
करुणं बत चक्रवाकि ।
दास्यं गत
वयमिवाच्युतपादजुष्टां
किं वा स्रजं
स्पृहयसे कबरेण वोढुम् ॥ १६ ॥
भो भोः सदा निष्टनसे उदन्वन्
अलब्धनिद्रोऽधिगतप्रजागरः ।
किं वा
मुकुन्दापहृतात्मलाञ्छनः
प्राप्तां दशां
त्वं च गतो दुरत्ययाम् ॥ १७ ॥
त्वं यक्ष्मणा बलवतासि गृहीत इन्दो
क्षीणस्तमो न
निजदीधितिभिः क्षिणोषि ।
कच्चिन्
गकुन्दगदितानि यथा वयं त्वं
विस्मृत्य भोः
स्थगितगीरुपलक्ष्यसे नः ॥ १८ ॥
किं न्वाचरितमस्माभिः मलयानिल तेऽप्रियम् ।
गोविन्दापाङ्गनिर्भिन्ने हृदीरयसि नः स्मरम् ॥
१९ ॥
मेघ श्रीमन् त्वमसि दयितो यादवेन्द्रस्य नूनं
श्रीवत्साङ्कं
वयमिव भवान् ध्यायति प्रेमबद्धः ।
अत्युत्कण्ठः
शबलहृदयोऽस्मद्विधो बाष्पधाराः
स्मृत्वा
स्मृत्वा विसृजसि मुहुर्दुःखदस्तत्प्रसङ्गः ॥ २० ॥
प्रियरावपदानि भाषसे मृत
सञ्जीविकयानया
गिरा
करवाणि किमद्य ते
प्रियं
वद मे
वल्गितकण्ठ कोकिल ॥ २१ ॥
न चलसि न वदस्युदारबुद्धे
क्षितिधर
चिन्तयसे महान्तमर्थम् ।
अपि बत
वसुदेवनन्दनाङ्घ्रिं
वयमिव कामयसे
स्तनैर्विधर्तुम् ॥ २२ ॥
शुष्यद्ध्रदाः करशिता बत सिन्धुपत्न्यः
सम्प्रत्यपास्तकमलश्रिय इष्टभर्तुः ।
यद्वद् वयं मधुपतेः
प्रणयावलोकम्
अप्राप्य
मुष्टहृदयाः पुरुकर्शिताः स्म ॥ २३ ॥
हंस स्वागतमास्यतां पिब पयो ब्रूह्यङ्ग शौरेः कथां
दूतं त्वां नु
विदाम कच्चिदजितः स्वस्त्यास्त उक्तं पुरा ।
किं वा नश्चलसौहृदः
स्मरति तं कस्माद्भजामो वयं
क्षौद्रालापय
कामदं श्रियमृते सैवैकनिष्ठा स्त्रियाम् ॥ २४ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! द्वारका-नगरीकी छटा अलौकिक थी। उसकी सडक़ें मद चूते हुए मतवाले
हाथियों, सुसज्जित योद्धाओं,
घोड़ों और स्वर्णमय रथोंकी भीड़से सदा-सर्वदा
भरी रहती थीं। जिधर देखिये,
उधर ही हरे-भरे उपवन और उद्यान लहरा रहे हैं।
पाँत-के-पाँत वृक्ष फूलों से लदे हुए हैं। उनपर बैठकर भौंरे गुनगुना रहे हैं और
तरह-तरहके पक्षी कलरव कर रहे हैं। वह नगरी सब प्रकारकी सम्पत्तियों से भरपूर थी।
जगत् के श्रेष्ठ वीर यदुवंशी उसका सेवन करनेमें अपना सौभाग्य मानते थे। वहाँ की
स्त्रियाँ सुन्दर वेष-भूषासे विभूषित थीं और उनके अङ्ग-अङ्ग से जवानी की छटा
छिटकती रहती थी। वे जब अपने महलोंमें गेंद आदिके खेल खेलतीं और उनका कोई अङ्ग कभी
दीख जाता तो ऐसा जान पड़ता,
मानो बिजली चमक रही है। लक्ष्मीपति भगवान् की
यही अपनी नगरी द्वारका थी। इसीमें वे निवास करते थे। भगवान् श्रीकृष्ण सोलह
हजारसे अधिक पत्नियों के एकमात्र प्राणवल्लभ थे। उन पत्नियों के अलग-अलग महल भी
परम ऐश्वर्यसे सम्पन्न थे। जितनी पत्नियाँ थीं, उतने
ही अद्भुत रूप धारण करके वे उनके साथ विहार करते थे ॥ १-५ ॥ सभी पत्नियों के
महलोंमें सुन्दर-सुन्दर सरोवर थे। उनका निर्मल जल खिले हुए नीले, पीले, श्वेत, लाल आदि भाँति-भाँति के कमलों के परागसे मँहकता रहता था। उनमें झुंड-के-झुंड
हंस, सारस आदि सुन्दर-सुन्दर पक्षी चहकते रहते थे। भगवान् श्रीकृष्ण उन जलाशयोंमें
तथा कभी- कभी नदियोंके जलमें भी प्रवेश कर अपनी पत्नियोंके साथ जल-विहार करते थे।
भगवान्के साथ विहार करनेवाली पत्नियाँ जब उन्हें अपने भुजपाशमें बाँध लेतीं, आलिङ्गन करतीं, तब भगवान्के श्रीअङ्गोंमें उनके वक्ष:स्थलकी
केसर लग जाती थी ॥ ६-७ ॥ उस समय गन्धर्व उनके यशका गान करने लगते और सूत, मागध एवं वन्दीजन बड़े आनन्दसे मृदङ्ग, ढोल, नगारे और वीणा आदि बाजे बजाने लगते ॥ ८ ॥
भगवान्की
पत्नियाँ कभी-कभी हँसते-हँसते पिचकारियोंसे उन्हें भिगो देती थीं। वे भी उनको तर
कर देते। इस प्रकार भगवान् अपनी पत्नियोंके साथ क्रीडा करते; मानो यक्षराज कुबेर यक्षिणियोंके साथ विहार कर रहे हों ॥ ९ ॥ उस समय भगवान्की
पत्नियोंके वक्ष:स्थल और जंघा आदि अङ्ग वस्त्रोंके भीग जानेके कारण उनमेंसे झलकने
लगते। उनकी बड़ी-बड़ी चोटियों और जूड़ोंमेंसे गुँथे हुए फूल गिरने लगते, वे उन्हें भिगोते-भिगोते पिचकारी छीन लेनेके लिये उनके पास पहुँच जातीं और इसी
बहाने अपने प्रियतमका आलिङ्गन कर लेतीं। उनके स्पर्शसे पत्नियोंके हृदयमें
प्रेम-भावकी अभिवृद्धि हो जाती,
जिससे उनका मुखकमल खिल उठता। ऐसे अवसरोंपर
उनकी शोभा और भी बढ़ जाया करती ॥ १० ॥ उस समय भगवान् श्रीकृष्णकी वनमाला उन
रानियोंके वक्ष:स्थलपर लगी हुई केसरके रंगसे रँग जाती। विहारमें अत्यन्त मग्र हो
जानेके कारण घुँघराली अलकें उन्मुक्त भावसे लहराने लगतीं। वे अपनी रानियोंको
बार-बार भिगो देते और रानियाँ भी उन्हें सराबोर कर देतीं। भगवान् श्रीकृष्ण उनके
साथ इस प्रकार विहार करते,
मानो कोई गजराज हथिनियोंसे घिरकर उनके साथ
क्रीड़ा कर रहा हो ॥ ११ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण और उनकी पत्नियाँ क्रीडा करनेके बाद
अपने-अपने वस्त्राभूषण उतारकर उन नटों और नर्तकियोंको दे देते, जिनकी जीविका केवल गाना-बजाना ही है ॥ १२ ॥ परीक्षित् ! भगवान् इसी प्रकार
उनके साथ विहार करते रहते। उनकी चाल-ढाल, बातचीत, चितवन-मुसकान, हास-विलास और आलिङ्गन आदिसे रानियोंकी चित्तवृत्ति उन्हींकी ओर खिंची रहती।
उन्हें और किसी बातका स्मरण ही न होता ॥ १३ ॥ परीक्षित् ! रानियोंके जीवन-सर्वस्व, उनके एकमात्र हृदयेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ही थे। वे कमलनयन श्यामसुन्दर के
चिन्तनमें ही इतनी मग्न हो जातीं कि कई
देरतक तो चुप हो रहतीं और फिर उन्मत्त के समान असम्बद्ध बातें कहने लगतीं। कभी-कभी
तो भगवान् श्रीकृष्णकी उपस्थितिमें ही प्रेमोन्माद के कारण उनके विरहका अनुभव
करने लगतीं। और न जाने क्या-क्या कहने लगतीं। मैं उनकी बात तुम्हें सुनाता हूँ ॥
१४ ॥
रानियाँ कहतीं—अरी कुररी ! अब तो बड़ी रात हो गयी है। संसारमें सब ओर सन्नाटा छा गया है। देख, इस समय स्वयं भगवान् अपना अखण्ड बोध छिपाकर सो रहे हैं और तुझे नींद ही नहीं
आती ? तू इस तरह रात-रातभर जगकर विलाप क्यों कर रही है ? सखी
! कहीं कमलनयन भगवान्के मधुर हास्य और लीलाभरी उदार (स्वीकृतिसूचक) चितवनसे तेरा
हृदय भी हमारी ही तरह बिंध तो नहीं गया है ? ॥
१५ ॥
अरी चकवी !
तूने रातके समय अपने नेत्र क्यों बंद कर लिये हैं ? क्या
तेरे पतिदेव कहीं विदेश चले गये हैं कि तू इस प्रकार करुण स्वर से पुकार रही है ? हाय-हाय ! तब तो तू बड़ी दु:खिनी है। परन्तु हो-न-हो तेरे हृदयमें भी हमारे ही
समान भगवान् की दासी होने का भाव जग गया है। क्या अब तू उनके चरणों पर चढ़ायी हुई
पुष्पों की माला अपनी चोटियोंमें धारण करना चाहती है ? ॥
१६ ॥
अहो समुद्र !
तुम निरन्तर गरजते ही रहते हो। तुम्हें नींद नहीं आती क्या ? जान पड़ता है तुम्हें सदा जागते रहनेका रोग लग गया है। परन्तु नहीं-नहीं, हम समझ गयीं, हमारे प्यारे श्यामसुन्दरने तुम्हारे धैर्य, गाम्भीर्य आदि स्वाभाविक गुण छीन लिये हैं। क्या इसीसे तुम हमारे ही समान ऐसी
व्याधिके शिकार हो गये हो,
जिसकी कोई दवा नहीं है ? ॥ १७ ॥
चन्द्रदेव !
तुम्हें बहुत बड़ा रोग राजयक्ष्मा हो गया है। इसीसे तुम इतने क्षीण हो रहे हो। अरे
राम-राम, अब तुम अपनी किरणोंसे अँधेरा भी नहीं हटा सकते ! क्या हमारी ही भाँति हमारे
प्यारे श्याम-सुन्दरकी मीठी-मीठी रहस्यकी बातें भूल जानेके कारण तुम्हारी बोलती
बंद हो गयी है ? क्या उसीकी चिन्तासे तुम मौन हो रहे हो ? ॥
१८ ॥
मलयानिल ! हमने
तेरा क्या बिगाड़ा है, जो तू हमारे हृदयमें कामका सञ्चार कर रहा है ? अरे तू नहीं जानता क्या ?
भगवान् की तिरछी चितवनसे हमारा हृदय तो
पहलेसे ही घायल हो गया है ॥ १९ ॥
श्रीमन् मेघ !
तुम्हारे शरीरका सौन्दर्य तो हमारे प्रियतम-जैसा ही है। अवश्य ही तुम यदुवंश- शिरोमणि
भगवान्के परम प्यारे हो। तभी तो तुम हमारी ही भाँति प्रेमपाशमें बँधकर उनका ध्यान
कर रहे हो ! देखो-देखो ! तुम्हारा हृदय चिन्तासे भर रहा है, तुम उनके लिये अत्यन्त उत्कण्ठित हो रहे हो ! तभी तो बार-बार उनकी याद करके
हमारी ही भाँति आँसूकी धारा बहा रहे हो। श्यामघन ! सचमुच घनश्यामसे नाता जोडऩा घर
बैठे पीड़ा मोल लेना है ॥ २० ॥
री कोयल !
तेरा गला बड़ा ही सुरीला है,
मीठी बोली बोलनेवाले हमारे प्राणप्यारेके
समान ही मधुर स्वरसे तू बोलती है। सचमुच तेरी बोलीमें सुधा घोली हुई है, जो प्यारेके विरहसे मरे हुए प्रेमियोंको जिलानेवाली है। तू ही बता, इस समय हम तेरा क्या प्रिय करें ? ॥ २१ ॥
प्रिय पर्वत !
तुम तो बड़े उदार विचारके हो। तुमने ही पृथ्वीको भी धारण कर रखा है। न तुम
हिलते-डोलते हो और न कुछ कहते-सुनते हो। जान पड़ता है कि किसी बड़ी बातकी
चिन्तामें मग्र हो रहे हो। ठीक है,
ठीक है; हम
समझ गयीं। तुम हमारी ही भाँति चाहते हो कि अपने स्तनोंके समान बहुत-से शिखरोंपर
मैं भी भगवान् श्यामसुन्दरके चरणकमल धारण करूँ ॥ २२ ॥
समुद्रपत्नी
नदियो ! यह ग्रीष्म ऋतु है। तुम्हारे कुण्ड सूख गये हैं। अब तुम्हारे अंदर खिले
हुए कमलोंका सौन्दर्य नहीं दीखता। तुम बहुत दुबली-पतली हो गयी हो। जान पड़ता है, जैसे हम अपने प्रियतम श्यामसुन्दरकी प्रेमभरी चितवन न पाकर अपना हृदय खो बैठी
हैं और अत्यन्त दुबली- पतली हो गयी हैं, वैसे ही तुम भी मेघोंके द्वारा अपने प्रियतम
समुद्रका जल न पाकर ऐसी दीन-हीन हो गयी हो ॥ २३ ॥
हंस ! आओ, आओ ! भले आये, स्वागत है। आसनपर बैठो; लो, दूध पियो। प्रिय हंस ! श्यामसुन्दरकी कोई बात तो सुनाओ। हम समझती हैं कि तुम
उनके दूत हो। किसीके वशमें न होनेवाले श्यामसुन्दर सकुशल तो हैं न ? अरे भाई ! उनकी मित्रता तो बड़ी अस्थिर है, क्षणभङ्गुर
है। एक बात तो बतलाओ, उन्होंने हमसे कहा था कि तुम्हीं हमारी परम
प्रियतमा हो। क्या अब उन्हें यह बात याद है ? जाओ, जाओ; हम तुम्हारी अनुनय-विनय नहीं सुनतीं। जब वे हमारी परवा नहीं करते, तो हम उनके पीछे क्यों मरें ?
क्षुद्र के दूत ! हम उनके पास नहीं जातीं।
क्या कहा ? वे हमारी इच्छा पूर्ण करनेके लिये ही आना चाहते हैं, अच्छा
! तब उन्हें तो यहाँ बुला लाना,
हमसे बातें कराना, परन्तु
कहीं लक्ष्मीको साथ न ले आना। तब क्या वे लक्ष्मीको छोडक़र यहाँ नहीं आना चाहते ? यह कैसी बात है ? क्या स्त्रियोंमें लक्ष्मी ही एक ऐसी हैं, जिनका भगवान् से अनन्य प्रेम है ? क्या हममेंसे कोई एक भी वैसी नहीं है ? ॥ २४ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से