सोमवार, 8 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नब्बेवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नब्बेवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ कृष्ण के लीला-विहार का वर्णन

 

श्रीशुक उवाच

सुखं स्वपुर्यां निवसन् द्वारकायां श्रियः पतिः ।

 सर्वसम्पत्समृद्धायां जुष्टायां वृष्णिपुङ्गवैः ॥ १ ॥

 स्त्रीभिश्चोत्तमवेषाभिः नवयौवनकान्तिभिः ।

 कन्दुकादिभिर्हर्म्येषु क्रीडन्तीभिस्तडिद्द्युभिः ॥ २ ॥

 नित्यं सङ्कुलमार्गायां मदच्युद्‌भिर्मतङ्गजैः ।

 स्वलङ्कृतैर्भटैरश्वै रथैश्च कनकोज्ज्वलैः ॥ ३ ॥

 उद्यानोपवनाढ्यायां पुष्पितद्रुमराजिषु ।

 निर्विशद्‌भृङ्गविहगैः नादितायां समन्ततः ॥ ४ ॥

 रेमे षोडशसाहस्र पत्‍नीनां एकवल्लभः ।

 तावद्विचित्ररूपोऽसौ तद्‌गेहेषु महर्द्धिषु ॥ ५ ॥

 प्रोत्फुल्लोत्पलकह्लार कुमुदाम्भोजरेणुभिः ।

 वासितामलतोयेषु कूजद्‌द्विजकुलेषु च ॥ ६ ॥

 विजहार विगाह्याम्भो ह्रदिनीषु महोदयः ।

 कुचकुङ्कुमलिप्ताङ्गः परिरब्धश्च योषिताम् ॥ ७ ॥

 उपगीयमानो गन्धर्वैः मृदङ्गपणवानकान् ।

 वादयद्‌भिर्मुदा वीणां सूतमागधवन्दिभिः ॥ ८ ॥

 सिच्यमानोऽच्युतस्ताभिः हसन्तीभिः स्म रेचकैः ।

 प्रतिषिञ्चन् विचिक्रीडे यक्षीभिर्यक्षराडिव ॥ ९ ॥

ताः क्लिन्नवस्त्रविवृतोरुकुचप्रदेशाः

     सिञ्चन्त्य उद्धृतबृहत्कवरप्रसूनाः ।

 कान्तं स्म रेचकजिहीर्षययोपगुह्य

     जातस्मरोत्स्मयलसद् वदना विरेजुः ॥ १० ॥

 कृष्णस्तु तत्स्तनविषत् जितकुङ्कुमस्रक्

     क्रीडाभिषङ्गधुतकुन्तलवृन्दबन्धः ।

 सिञ्चन् मुन्मुहुर्युवतिभिः प्रतिषिच्यमानो

     रेमे करेणुभिरिवेभपतिः परीतः ॥ ११ ॥

नटानां नर्तकीनां च गीतवाद्योपजीविनाम् ।

 क्रीडालङ्कारवासांसि कृष्णोऽदात्तस्य च स्त्रियः ॥ १२ ॥

 कृष्णस्यैवं विहरतो गत्यालापेक्षितस्मितैः ।

 नर्मक्ष्वेलिपरिष्वङ्गैः स्त्रीणां किल हृता धियः ॥ १३ ॥

 ऊचुर्मुकुन्दैकधियो गिर उन्मत्तवज्जडम् ।

 चिन्तयन्त्योऽरविन्दाक्षं तानि मे गदतः श्रृणु ॥ १४ ॥

 

 महिष्य ऊचुः -

कुररि विलपसि त्वं वीतनिद्रा न शेषे

     स्वपिति जगति रात्र्यामीश्वरो गुप्तबोधः ।

 वयमिव सखि कच्चिद्‌गाढनिर्विद्धचेता

     नलिननयनहासोदारलीलेक्षितेन ॥ १५ ॥

नेत्रे निमीलयसि नक्तमदृष्टबन्धुः

     त्वं रोरवीषि करुणं बत चक्रवाकि ।

 दास्यं गत वयमिवाच्युतपादजुष्टां

     किं वा स्रजं स्पृहयसे कबरेण वोढुम् ॥ १६ ॥

भो भोः सदा निष्टनसे उदन्वन्

     अलब्धनिद्रोऽधिगतप्रजागरः ।

 किं वा मुकुन्दापहृतात्मलाञ्छनः

     प्राप्तां दशां त्वं च गतो दुरत्ययाम् ॥ १७ ॥

त्वं यक्ष्मणा बलवतासि गृहीत इन्दो

     क्षीणस्तमो न निजदीधितिभिः क्षिणोषि ।

 कच्चिन् गकुन्दगदितानि यथा वयं त्वं

     विस्मृत्य भोः स्थगितगीरुपलक्ष्यसे नः ॥ १८ ॥

किं न्वाचरितमस्माभिः मलयानिल तेऽप्रियम् ।

 गोविन्दापाङ्गनिर्भिन्ने हृदीरयसि नः स्मरम् ॥ १९ ॥

मेघ श्रीमन् त्वमसि दयितो यादवेन्द्रस्य नूनं

     श्रीवत्साङ्कं वयमिव भवान् ध्यायति प्रेमबद्धः ।

 अत्युत्कण्ठः शबलहृदयोऽस्मद्विधो बाष्पधाराः

     स्मृत्वा स्मृत्वा विसृजसि मुहुर्दुःखदस्तत्प्रसङ्गः ॥ २० ॥

प्रियरावपदानि भाषसे मृत

     सञ्जीविकयानया गिरा

 करवाणि किमद्य ते प्रियं

     वद मे वल्गितकण्ठ कोकिल ॥ २१ ॥

न चलसि न वदस्युदारबुद्धे

     क्षितिधर चिन्तयसे महान्तमर्थम् ।

 अपि बत वसुदेवनन्दनाङ्‌घ्रिं

     वयमिव कामयसे स्तनैर्विधर्तुम् ॥ २२ ॥

शुष्यद्ध्रदाः करशिता बत सिन्धुपत्‍न्यः

     सम्प्रत्यपास्तकमलश्रिय इष्टभर्तुः ।

 यद्वद् वयं मधुपतेः प्रणयावलोकम्

     अप्राप्य मुष्टहृदयाः पुरुकर्शिताः स्म ॥ २३ ॥

हंस स्वागतमास्यतां पिब पयो ब्रूह्यङ्ग शौरेः कथां

     दूतं त्वां नु विदाम कच्चिदजितः स्वस्त्यास्त उक्तं पुरा ।

 किं वा नश्चलसौहृदः स्मरति तं कस्माद्‌भजामो वयं

     क्षौद्रालापय कामदं श्रियमृते सैवैकनिष्ठा स्त्रियाम् ॥ २४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! द्वारका-नगरीकी छटा अलौकिक थी। उसकी सडक़ें मद चूते हुए मतवाले हाथियों, सुसज्जित योद्धाओं, घोड़ों और स्वर्णमय रथोंकी भीड़से सदा-सर्वदा भरी रहती थीं। जिधर देखिये, उधर ही हरे-भरे उपवन और उद्यान लहरा रहे हैं। पाँत-के-पाँत वृक्ष फूलों से लदे हुए हैं। उनपर बैठकर भौंरे गुनगुना रहे हैं और तरह-तरहके पक्षी कलरव कर रहे हैं। वह नगरी सब प्रकारकी सम्पत्तियों से भरपूर थी। जगत् के श्रेष्ठ वीर यदुवंशी उसका सेवन करनेमें अपना सौभाग्य मानते थे। वहाँ की स्त्रियाँ सुन्दर वेष-भूषासे विभूषित थीं और उनके अङ्ग-अङ्ग से जवानी की छटा छिटकती रहती थी। वे जब अपने महलोंमें गेंद आदिके खेल खेलतीं और उनका कोई अङ्ग कभी दीख जाता तो ऐसा जान पड़ता, मानो बिजली चमक रही है। लक्ष्मीपति भगवान्‌ की यही अपनी नगरी द्वारका थी। इसीमें वे निवास करते थे। भगवान्‌ श्रीकृष्ण सोलह हजारसे अधिक पत्नियों के एकमात्र प्राणवल्लभ थे। उन पत्नियों के अलग-अलग महल भी परम ऐश्वर्यसे सम्पन्न थे। जितनी पत्नियाँ थीं, उतने ही अद्भुत रूप धारण करके वे उनके साथ विहार करते थे ॥ १-५ ॥ सभी पत्नियों के महलोंमें सुन्दर-सुन्दर सरोवर थे। उनका निर्मल जल खिले हुए नीले, पीले, श्वेत, लाल आदि भाँति-भाँति के कमलों के परागसे मँहकता रहता था। उनमें झुंड-के-झुंड हंस, सारस आदि सुन्दर-सुन्दर पक्षी चहकते रहते थे। भगवान्‌ श्रीकृष्ण उन जलाशयोंमें तथा कभी- कभी नदियोंके जलमें भी प्रवेश कर अपनी पत्नियोंके साथ जल-विहार करते थे। भगवान्‌के साथ विहार करनेवाली पत्नियाँ जब उन्हें अपने भुजपाशमें बाँध लेतीं, आलिङ्गन करतीं, तब भगवान्‌के श्रीअङ्गोंमें उनके वक्ष:स्थलकी केसर लग जाती थी ॥ ६-७ ॥ उस समय गन्धर्व उनके यशका गान करने लगते और सूत, मागध एवं वन्दीजन बड़े आनन्दसे मृदङ्ग, ढोल, नगारे और वीणा आदि बाजे बजाने लगते ॥ ८ ॥

भगवान्‌की पत्नियाँ कभी-कभी हँसते-हँसते पिचकारियोंसे उन्हें भिगो देती थीं। वे भी उनको तर कर देते। इस प्रकार भगवान्‌ अपनी पत्नियोंके साथ क्रीडा करते; मानो यक्षराज कुबेर यक्षिणियोंके साथ विहार कर रहे हों ॥ ९ ॥ उस समय भगवान्‌की पत्नियोंके वक्ष:स्थल और जंघा आदि अङ्ग वस्त्रोंके भीग जानेके कारण उनमेंसे झलकने लगते। उनकी बड़ी-बड़ी चोटियों और जूड़ोंमेंसे गुँथे हुए फूल गिरने लगते, वे उन्हें भिगोते-भिगोते पिचकारी छीन लेनेके लिये उनके पास पहुँच जातीं और इसी बहाने अपने प्रियतमका आलिङ्गन कर लेतीं। उनके स्पर्शसे पत्नियोंके हृदयमें प्रेम-भावकी अभिवृद्धि हो जाती, जिससे उनका मुखकमल खिल उठता। ऐसे अवसरोंपर उनकी शोभा और भी बढ़ जाया करती ॥ १० ॥ उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्णकी वनमाला उन रानियोंके वक्ष:स्थलपर लगी हुई केसरके रंगसे रँग जाती। विहारमें अत्यन्त मग्र हो जानेके कारण घुँघराली अलकें उन्मुक्त भावसे लहराने लगतीं। वे अपनी रानियोंको बार-बार भिगो देते और रानियाँ भी उन्हें सराबोर कर देतीं। भगवान्‌ श्रीकृष्ण उनके साथ इस प्रकार विहार करते, मानो कोई गजराज हथिनियोंसे घिरकर उनके साथ क्रीड़ा कर रहा हो ॥ ११ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण और उनकी पत्नियाँ क्रीडा करनेके बाद अपने-अपने वस्त्राभूषण उतारकर उन नटों और नर्तकियोंको दे देते, जिनकी जीविका केवल गाना-बजाना ही है ॥ १२ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ इसी प्रकार उनके साथ विहार करते रहते। उनकी चाल-ढाल, बातचीत, चितवन-मुसकान, हास-विलास और आलिङ्गन आदिसे रानियोंकी चित्तवृत्ति उन्हींकी ओर खिंची रहती। उन्हें और किसी बातका स्मरण ही न होता ॥ १३ ॥ परीक्षित्‌ ! रानियोंके जीवन-सर्वस्व, उनके एकमात्र हृदयेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही थे। वे कमलनयन श्यामसुन्दर के चिन्तनमें ही इतनी मग्न  हो जातीं कि कई देरतक तो चुप हो रहतीं और फिर उन्मत्त के समान असम्बद्ध बातें कहने लगतीं। कभी-कभी तो भगवान्‌ श्रीकृष्णकी उपस्थितिमें ही प्रेमोन्माद के कारण उनके विरहका अनुभव करने लगतीं। और न जाने क्या-क्या कहने लगतीं। मैं उनकी बात तुम्हें सुनाता हूँ ॥ १४ ॥

रानियाँ कहतींअरी कुररी ! अब तो बड़ी रात हो गयी है। संसारमें सब ओर सन्नाटा छा गया है। देख, इस समय स्वयं भगवान्‌ अपना अखण्ड बोध छिपाकर सो रहे हैं और तुझे नींद ही नहीं आती ? तू इस तरह रात-रातभर जगकर विलाप क्यों कर रही है ? सखी ! कहीं कमलनयन भगवान्‌के मधुर हास्य और लीलाभरी उदार (स्वीकृतिसूचक) चितवनसे तेरा हृदय भी हमारी ही तरह बिंध तो नहीं गया है ? ॥ १५ ॥

अरी चकवी ! तूने रातके समय अपने नेत्र क्यों बंद कर लिये हैं ? क्या तेरे पतिदेव कहीं विदेश चले गये हैं कि तू इस प्रकार करुण स्वर से पुकार रही है ? हाय-हाय ! तब तो तू बड़ी दु:खिनी है। परन्तु हो-न-हो तेरे हृदयमें भी हमारे ही समान भगवान्‌ की दासी होने का भाव जग गया है। क्या अब तू उनके चरणों पर चढ़ायी हुई पुष्पों की माला अपनी चोटियोंमें धारण करना चाहती है ? ॥ १६ ॥

अहो समुद्र ! तुम निरन्तर गरजते ही रहते हो। तुम्हें नींद नहीं आती क्या ? जान पड़ता है तुम्हें सदा जागते रहनेका रोग लग गया है। परन्तु नहीं-नहीं, हम समझ गयीं, हमारे प्यारे श्यामसुन्दरने तुम्हारे धैर्य, गाम्भीर्य आदि स्वाभाविक गुण छीन लिये हैं। क्या इसीसे तुम हमारे ही समान ऐसी व्याधिके शिकार हो गये हो, जिसकी कोई दवा नहीं है ? ॥ १७ ॥

चन्द्रदेव ! तुम्हें बहुत बड़ा रोग राजयक्ष्मा हो गया है। इसीसे तुम इतने क्षीण हो रहे हो। अरे राम-राम, अब तुम अपनी किरणोंसे अँधेरा भी नहीं हटा सकते ! क्या हमारी ही भाँति हमारे प्यारे श्याम-सुन्दरकी मीठी-मीठी रहस्यकी बातें भूल जानेके कारण तुम्हारी बोलती बंद हो गयी है ? क्या उसीकी चिन्तासे तुम मौन हो रहे हो ? ॥ १८ ॥

मलयानिल ! हमने तेरा क्या बिगाड़ा है, जो तू हमारे हृदयमें कामका सञ्चार कर रहा है ? अरे तू नहीं जानता क्या ? भगवान्‌ की तिरछी चितवनसे हमारा हृदय तो पहलेसे ही घायल हो गया है ॥ १९ ॥

श्रीमन् मेघ ! तुम्हारे शरीरका सौन्दर्य तो हमारे प्रियतम-जैसा ही है। अवश्य ही तुम यदुवंश- शिरोमणि भगवान्‌के परम प्यारे हो। तभी तो तुम हमारी ही भाँति प्रेमपाशमें बँधकर उनका ध्यान कर रहे हो ! देखो-देखो ! तुम्हारा हृदय चिन्तासे भर रहा है, तुम उनके लिये अत्यन्त उत्कण्ठित हो रहे हो ! तभी तो बार-बार उनकी याद करके हमारी ही भाँति आँसूकी धारा बहा रहे हो। श्यामघन ! सचमुच घनश्यामसे नाता जोडऩा घर बैठे पीड़ा मोल लेना है ॥ २० ॥

री कोयल ! तेरा गला बड़ा ही सुरीला है, मीठी बोली बोलनेवाले हमारे प्राणप्यारेके समान ही मधुर स्वरसे तू बोलती है। सचमुच तेरी बोलीमें सुधा घोली हुई है, जो प्यारेके विरहसे मरे हुए प्रेमियोंको जिलानेवाली है। तू ही बता, इस समय हम तेरा क्या प्रिय करें ? ॥ २१ ॥

प्रिय पर्वत ! तुम तो बड़े उदार विचारके हो। तुमने ही पृथ्वीको भी धारण कर रखा है। न तुम हिलते-डोलते हो और न कुछ कहते-सुनते हो। जान पड़ता है कि किसी बड़ी बातकी चिन्तामें मग्र हो रहे हो। ठीक है, ठीक है; हम समझ गयीं। तुम हमारी ही भाँति चाहते हो कि अपने स्तनोंके समान बहुत-से शिखरोंपर मैं भी भगवान्‌ श्यामसुन्दरके चरणकमल धारण करूँ ॥ २२ ॥

समुद्रपत्नी नदियो ! यह ग्रीष्म ऋतु है। तुम्हारे कुण्ड सूख गये हैं। अब तुम्हारे अंदर खिले हुए कमलोंका सौन्दर्य नहीं दीखता। तुम बहुत दुबली-पतली हो गयी हो। जान पड़ता है, जैसे हम अपने प्रियतम श्यामसुन्दरकी प्रेमभरी चितवन न पाकर अपना हृदय खो बैठी हैं और अत्यन्त दुबली- पतली हो गयी हैं, वैसे ही तुम भी मेघोंके द्वारा अपने प्रियतम समुद्रका जल न पाकर ऐसी दीन-हीन हो गयी हो ॥ २३ ॥

हंस ! आओ, आओ ! भले आये, स्वागत है। आसनपर बैठो; लो, दूध पियो। प्रिय हंस ! श्यामसुन्दरकी कोई बात तो सुनाओ। हम समझती हैं कि तुम उनके दूत हो। किसीके वशमें न होनेवाले श्यामसुन्दर सकुशल तो हैं न ? अरे भाई ! उनकी मित्रता तो बड़ी अस्थिर है, क्षणभङ्गुर है। एक बात तो बतलाओ, उन्होंने हमसे कहा था कि तुम्हीं हमारी परम प्रियतमा हो। क्या अब उन्हें यह बात याद है ? जाओ, जाओ; हम तुम्हारी अनुनय-विनय नहीं सुनतीं। जब वे हमारी परवा नहीं करते, तो हम उनके पीछे क्यों मरें ? क्षुद्र के दूत ! हम उनके पास नहीं जातीं। क्या कहा ? वे हमारी इच्छा पूर्ण करनेके लिये ही आना चाहते हैं, अच्छा ! तब उन्हें तो यहाँ बुला लाना, हमसे बातें कराना, परन्तु कहीं लक्ष्मीको साथ न ले आना। तब क्या वे लक्ष्मीको छोडक़र यहाँ नहीं आना चाहते ? यह कैसी बात है ? क्या स्त्रियोंमें लक्ष्मी ही एक ऐसी हैं, जिनका भगवान्‌ से अनन्य प्रेम है ? क्या हममेंसे कोई एक भी वैसी नहीं है ? ॥ २४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

भृगुजी के द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा तथा

भगवान्‌ का मरे हुए ब्राह्मण-बालकों को वापस लाना

 

तत्राश्वाः शैब्यसुग्रीव मेघपुष्पबलाहकाः

तमसि भ्रष्टगतयो बभूवुर्भरतर्षभ ४९

तान्दृष्ट्वा भगवान्कृष्णो महायोगेश्वरेश्वरः

सहस्रादित्यसङ्काशं स्वचक्रं प्राहिणोत्पुरः ५०

तमः सुघोरं गहनं कृतं महद्

विदारयद्भूरितरेण रोचिषा

मनोजवं निर्विविशे सुदर्शनं

गुणच्युतो रामशरो यथा चमूः ५१

द्वारेण चक्रानुपथेन तत्तमः

परं परं ज्योतिरनन्तपारम्

समश्नुवानं प्रसमीक्ष्य फाल्गुनः

प्रताडिताक्षो पिदधेऽक्षिणी उभे ५२

ततः प्रविष्टः सलिलं नभस्वता

बलीयसैजद्बृहदूर्मिभूषणम्

तत्राद्भुतं वै भवनं द्युमत्तमं

भ्राजन्मणिस्तम्भसहस्रशोभितम् ५३

तस्मिन्महाभोगमनन्तमद्भुतं

सहस्रमूर्धन्यफणामणिद्युभिः

विभ्राजमानं द्विगुणेक्षणोल्बणं

सिताचलाभं शितिकण्ठजिह्वम् ५४

ददर्श तद्भोगसुखासनं विभुं

महानुभावं पुरुषोत्तमोत्तमम्

सान्द्रा म्बुदाभं सुपिशङ्गवाससं

प्रसन्नवक्त्रं रुचिरायतेक्षणम् ५५

महामणिव्रातकिरीटकुण्डल

प्रभापरिक्षिप्तसहस्रकुन्तलम्

प्रलम्बचार्वष्टभुजं सकौस्तुभं

श्रीवत्सलक्ष्मं वनमालयावृतम् ५६

सुनन्दनन्दप्रमुखै: स्वपार्षदै-

श्चक्रादिभिर्मूर्तिधरैर्निजायुधै:

पुष्ट्या श्रियाकीर्त्यजयाखिलर्द्धिभि-

र्निषेव्यमाणं परमेष्टिनां पतिम् ५७

ववन्द आत्मानमनन्तमच्युतो

जिष्णुश्च तद्दर्शनजातसाध्वसः

तावाह भूमा परमेष्ठिनां प्रभु-

र्बद्धाञ्जली सस्मितमूर्जया गिरा ५८

द्विजात्मजा मे युवयोर्दिदृक्षुणा

मयोपनीता भुवि धर्मगुप्तये

कलावतीर्णाववनेर्भरासुरा-

न्हत्वेह भूयस्त्वरयेतमन्ति मे ५९

पूर्णकामावपि युवां नरनारायणावृषी

धर्ममाचरतां स्थित्यै ऋषभौ लोकसङ्ग्रहम् ६०

इत्यादिष्टौ भगवता तौ कृष्णौ परमेष्ठिना

ॐ इत्यानम्य भूमानमादाय द्विजदारकान् ६१

न्यवर्तेतां स्वकं धाम सम्प्रहृष्टौ यथागतम्

विप्राय ददतुः पुत्रान्यथारूपं यथावयः ६२

निशाम्य वैष्णवं धाम पार्थः परमविस्मितः

यत्किञ्चित्पौरुषं पुंसां मेने कृष्णानुकम्पितम् ६३

इतीदृशान्यनेकानि वीर्याणीह प्रदर्शयन्

बुभुजे विषयान्ग्राम्यानीजे चात्युर्जितैर्मखैः ६४

प्रववर्षाखिलान्कामान्प्रजासु ब्राह्मणादिषु

यथाकालं यथैवेन्द्रो भगवान्श्रैष्ठ्यमास्थितः ६५

हत्वा नृपानधर्मिष्ठान्घाटयित्वार्जुनादिभिः

अञ्जसा वर्तयामास धर्मं धर्मसुतादिभिः ६६

 

परीक्षित्‌ ! वह अन्धकार इतना घोर था कि उसमें शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नामके चारों घोड़े अपना मार्ग भूलकर इधर-उधर भटकने लगे। उन्हें कुछ सूझता ही न था ॥ ४९ ॥ योगेश्वरोंके भी परमेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णने घोड़ोंकी यह दशा देखकर अपने सहस्र-सहस्र सूर्योंके समान तेजस्वी चक्रको आगे चलनेकी आज्ञा दी ॥ ५० ॥ सुदर्शन चक्र अपने ज्योतिर्मय तेजसे स्वयं भगवान्‌के द्वारा उत्पन्न उस घने एवं महान् अन्धकारको चीरता हुआ मनके समान तीव्र गतिसे आगे-आगे चला। उस समय वह ऐसा जान पड़ता था, मानो भगवान्‌ रामका बाण धनुषसे छूटकर राक्षसों की सेना में प्रवेश कर रहा हो ॥ ५१ ॥ इस प्रकार सुदर्शन चक्र के द्वारा बतलाये हुए मार्ग से चलकर रथ अन्धकारकी अन्तिम सीमापर पहुँचा। उस अन्धकार के पार सर्वश्रेष्ठ पारावाररहित व्यापक परम ज्योति जगमगा रही थी। उसे देखकर अर्जुनकी आँखें चौंधिया गयीं और उन्होंने विवश होकर अपने नेत्र बंद कर लिये ॥ ५२ ॥ इसके बाद भगवान्‌के रथने दिव्य जलराशिमें प्रवेश किया। बड़ी तेज आँधी चलनेके कारण उस जलमें बड़ी-बड़ी तरङ्गें उठ रही थीं, जो बहुत ही भली मालूम होती थीं। वहाँ एक बड़ा सुन्दर महल था। उसमें मणियोंके सहस्र-सहस्र खंभे चमक-चमककर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे और उसके चारों ओर बड़ी उज्ज्वल ज्योति फैल रही थी ॥ ५३ ॥ उसी महलमें भगवान्‌ शेषजी विराजमान थे। उनका शरीर अत्यन्त भयानक और अद्भुत था। उनके सहस्र सिर थे और प्रत्येक फणपर सुन्दर-सुन्दर मणियाँ जगमगा रही थीं। प्रत्येक सिर में दो-दो नेत्र थे और वे बड़े ही भयङ्कर थे। उनका सम्पूर्ण शरीर कैलास के समान श्वेतवर्ण का था और गला तथा जीभ नीले रंगकी थी ॥ ५४ ॥ परीक्षित्‌ ! अर्जुन ने देखा कि शेषभगवान्‌ की सुखमयी शय्यापर सर्वव्यापक महान् प्रभावशाली परम पुरुषोत्तम भगवान्‌ विराजमान हैं। उनके शरीरकी कान्ति वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल है। अत्यन्त सुन्दर पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं। मुखपर प्रसन्नता खेल रही है और बड़े-बड़े नेत्र बहुत ही सुहावने लगते हैं ॥ ५५ ॥ बहुमूल्य मणियोंसे जटित मुकुट और कुण्डलोंकी कान्तिसे सहस्रों घुँघराली अलकें चमक रही हैं। लंबी-लंबी, सुन्दर आठ भुजाएँ हैं; गलेमें कौस्तुभ मणि है; वक्ष:स्थलपर श्रीवत्सका चिह्न है और घुटनोंतक वनमाला लटक रही है ॥ ५६ ॥ अर्जुनने देखा कि उनके नन्द-सुनन्द आदि अपने पार्षद, चक्र-सुदर्शन आदि अपने मूर्तिमान् आयुध तथा पुष्टि, श्री, कीर्ति और अजाये चारों शक्तियाँ एवं सम्पूर्ण ऋद्धियाँ ब्रह्मादि लोकपालोंके अधीश्वर भगवान्‌ की सेवा कर रही हैं ॥ ५७ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने ही स्वरूप श्रीअनन्त भगवान्‌ को प्रणाम किया। अर्जुन उनके दर्शनसे कुछ भयभीत हो गये थे; श्रीकृष्णके बाद उन्होंने भी उनको प्रणाम किया और वे दोनों हाथ जोडक़र खड़े हो गये। अब ब्रह्मादि लोकपालोंके स्वामी भूमा पुरुषने मुसकराते हुए मधुर एवं गम्भीर वाणीसे कहा॥ ५८ ॥ श्रीकृष्ण ! और अर्जुन ! मैंने तुम दोनोंको देखनेके लिये ही ब्राह्मणके बालक अपने पास मँगा लिये थे। तुम दोनोंने धर्मकी रक्षाके लिये मेरी कलाओंके साथ पृथ्वीपर अवतार ग्रहण किया है; पृथ्वीके भाररूप दैत्योंका संहार करके शीघ्र-से-शीघ्र तुमलोग फिर मेरे पास लौट आओ ॥ ५९ ॥ तुम दोनों ऋषिवर नर और नारायण हो। यद्यपि तुम पूर्णकाम और सर्वश्रेष्ठ हो, फिर भी जगत्की स्थिति और लोकसंग्रहके लिये धर्मका आचरण करो॥ ६० ॥

जब भगवान्‌ भूमा पुरुष ने श्रीकृष्ण और अर्जुनको इस प्रकार आदेश दिया, तब उन लोगोंने उसे स्वीकार करके उन्हें नमस्कार किया और बड़े आनन्दके साथ ब्राह्मण-बालकों को लेकर जिस रास्ते से, जिस प्रकार आये थे, उसीसे वैसे ही द्वारकामें लौट आये। ब्राह्मण के बालक अपनी आयु के अनुसार बड़े-बड़े हो गये थे। उनका रूप और आकृति वैसी ही थी, जैसी उनके जन्म के समय थी। उन्हें भगवान्‌ श्रीकृष्ण और अर्जुनने उनके पिताको सौंप दिया ॥ ६१-६२ ॥ भगवान्‌ विष्णु के उस परमधामको देखकर अर्जुनके आश्चर्यकी सीमा न रही। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि जीवों में जो कुछ बल-पौरुष है, वह सब भगवान्‌ श्रीकृष्ण की ही कृपा का फल है ॥ ६३ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ ने और भी ऐसी अनेकों ऐश्वर्य और वीरतासे परिपूर्ण लीलाएँ कीं। लोकदृष्टि में साधारण लोगोंके समान सांसारिक विषयोंका भोग किया और बड़े-बड़े महाराजाओंके समान श्रेष्ठ-श्रेष्ठ यज्ञ किये ॥ ६४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने आदर्श महापुरुषोंका-सा आचरण करते हुए ब्राह्मण आदि समस्त प्रजावर्गों के सारे मनोरथ पूर्ण किये, ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्र प्रजाके लिये समयानुसार वर्षा करते हैं ॥ ६५ ॥ उन्होंने बहुत-से अधर्मी राजाओंको स्वयं मार डाला और बहुतोंको अर्जुन आदिके द्वारा मरवा डाला। इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर आदि धार्मिक राजाओं से उन्होंने अनायास ही सारी पृथ्वीमें धर्ममर्यादा की स्थापना करा दी ॥ ६६ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे द्विजकुमारानयनं नाम एकोननवतितमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

भृगुजी के द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा तथा

भगवान्‌ का मरे हुए ब्राह्मण-बालकों को वापस लाना

 

श्रीअर्जुन उवाच

नाहं सङ्कर्षणो ब्रह्मन्न कृष्णः कार्ष्णिरेव च

अहं वा अर्जुनो नाम गाण्डीवं यस्य वै धनुः ३३

मावमंस्था मम ब्रह्मन्वीर्यं त्र्यम्बकतोषणम्

मृत्युं विजित्य प्रधने आनेष्ये ते प्रजाः प्रभो ३४

एवं विश्रम्भितो विप्रः फाल्गुनेन परन्तप

जगाम स्वगृहं प्रीतः पार्थवीर्यं निशामयन् ३५

प्रसूतिकाल आसन्ने भार्याया द्विजसत्तमः

पाहि पाहि प्रजां मृत्योरित्याहार्जुनमातुरः ३६

स उपस्पृश्य शुच्यम्भो नमस्कृत्य महेश्वरम्

दिव्यान्यस्त्राणि संस्मृत्य सज्यं गाण्डीवमाददे ३७

न्यरुणत्सूतिकागारं शरैर्नानास्त्रयोजितैः

तिर्यगूर्ध्वमधः पार्थश्चकार शरपञ्जरम् ३८

ततः कुमारः सञ्जातो विप्रपत्न्या रुदन्मुहुः

सद्योऽदर्शनमापेदे सशरीरो विहायसा ३९

तदाह विप्रो विजयं विनिन्दन्कृष्णसन्निधौ

मौढ्यं पश्यत मे योऽहं श्रद्दधे क्लीबकत्थनम् ४०

न प्रद्युम्नो नानिरुद्धो न रामो न च केशवः

यस्य शेकुः परित्रातुं कोऽन्यस्तदवितेश्वरः ४१

धिगर्जुनं मृषावादं धिगात्मश्लाघिनो धनुः

दैवोपसृष्टं यो मौढ्यादानिनीषति दुर्मतिः ४२

एवं शपति विप्रर्षौ विद्यामास्थाय फाल्गुनः

ययौ संयमनीमाशु यत्रास्ते भगवान्यमः ४३

विप्रापत्यमचक्षाणस्तत ऐन्द्री मगात्पुरीम्

आग्नेयीं नैरृतीं सौम्यां वायव्यां वारुणीमथ

रसातलं नाकपृष्ठं धिष्ण्यान्यन्यान्युदायुधः४४

ततोऽलब्धद्विजसुतो ह्यनिस्तीर्णप्रतिश्रुतः

अग्निं विविक्षुः कृष्णेन प्रत्युक्तः प्रतिषेधता ४५

दर्शये द्विजसूनूंस्ते मावज्ञात्मानमात्मना

ये ते नः कीर्तिं विमलां मनुष्याः स्थापयिष्यन्ति ४६

इति सम्भाष्य भगवानर्जुनेन सहेश्वरः

दिव्यं स्वरथमास्थाय प्रतीचीं दिशमाविशत् ४७

सप्त द्वीपान्ससिन्धूंश्च सप्त सप्त गिरीनथ

लोकालोकं तथातीत्य विवेश सुमहत्तमः ४८

 

अर्जुनने कहाब्रह्मन् ! मैं बलराम, श्रीकृष्ण अथवा प्रद्युम्न नहीं हूँ। मैं हूँ अर्जुन, जिसका गाण्डीव नामक धनुष विश्वविख्यात है ॥ ३३ ॥ ब्राह्मणदेवता ! आप मेरे बल-पौरुषका तिरस्कार मत कीजिये। आप जानते नहीं, मैं अपने पराक्रमसे भगवान्‌ शङ्कर को सन्तुष्ट कर चुका हूँ। भगवन् ! मैं आपसे अधिक क्या कहूँ, मैं युद्धमें साक्षात् मृत्युको भी जीतकर आपकी सन्तान ला दूँगा ॥३४॥

 

परीक्षित्‌ ! जब अर्जुनने उस ब्राह्मणको इस प्रकार विश्वास दिलाया, तब वह लोगोंसे उनके बल-पौरुषका बखान करता हुआ बड़ी प्रसन्नतासे अपने घर लौट गया ॥ ३५ ॥ प्रसव का समय निकट आनेपर ब्राह्मण आतुर होकर अर्जुनके पास आया और कहने लगा—‘इस बार तुम मेरे बच्चेको मृत्युसे बचा लो॥ ३६ ॥ यह सुनकर अर्जुनने शुद्ध जलसे आचमन किया, तथा भगवान्‌ शङ्कर को नमस्कार किया। फिर दिव्य अस्त्रोंका स्मरण किया और गाण्डीव धनुषपर डोरी चढ़ाकर उसे हाथमें ले लिया ॥ ३७ ॥ अर्जुनने बाणोंको अनेक प्रकारके अस्त्र-मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित करके प्रसवगृहको चारों ओरसे घेर दिया। इस प्रकार उन्होंने सूतिकागृहके ऊपर-नीचे, अगल-बगल बाणोंका एक ङ्क्षपजड़ा-सा बना दिया ॥ ३८ ॥ इसके बाद ब्राह्मणीके गर्भसे एक शिशु पैदा हुआ, जो बार-बार रो रहा था। परन्तु देखते-ही-देखते वह सशरीर आकाशमें अन्तर्धान हो गया ॥ ३९ ॥ अब वह ब्राह्मण भगवान्‌ श्रीकृष्णके सामने ही अर्जुनकी निन्दा करने लगा। वह बोला—‘मेरी मूर्खता तो देखो, मैंने इस नपुंसककी डींगभरी बातोंपर विश्वास कर लिया ॥ ४० ॥ भला जिसे प्रद्युम्न, अनिरुद्ध यहाँतक कि बलराम और भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी न बचा सके, उसकी रक्षा करनेमें और कौन समर्थ है ? ॥ ४१ ॥ मिथ्यावादी अर्जुनको धिक्कार है ! अपने मुँह अपनी बड़ाई करनेवाले अर्जुनके धनुषको धिक्कार है !! इसकी दुर्बुद्धि तो देखो ! यह मूढ़तावश उस बालकको लौटा लाना चाहता है, जिसे प्रारब्धने हमसे अलग कर दिया है॥ ४२ ॥

जब वह ब्राह्मण इस प्रकार उन्हें भला-बुरा कहने लगा, तब अर्जुन योगबलसे तत्काल संयमनीपुरी में गये, जहाँ भगवान्‌ यमराज निवास करते हैं ॥ ४३ ॥ वहाँ उन्हें ब्राह्मण का बालक नहीं मिला। फिर वे शस्त्र लेकर क्रमश: इन्द्र, अग्नि, निर्ऋति, सोम, वायु और वरुण आदिकी पुरियोंमें, अतलादि नीचे के लोकों में, स्वर्गसे ऊपरके महर्लोकादिमें एवं अन्यान्य स्थानोंमें गये ॥ ४४ ॥ परन्तु कहीं भी उन्हें ब्राह्मणका बालक न मिला। उनकी प्रतिज्ञा पूरी न हो सकी। अब उन्होंने अग्नि में प्रवेश करनेका विचार किया। परन्तु भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन्हें ऐसा करनेसे रोकते हुए कहा॥ ४५ ॥ भाई अर्जुन ! तुम अपने आप अपना तिरस्कार मत करो। मैं तुम्हें ब्राह्मणके सब बालक अभी दिखाये देता हूँ। आज जो लोग तुम्हारी निन्दा कर रहे हैं, वे ही फिर हमलोगोंकी निर्मल कीर्तिकी स्थापना करेंगे॥ ४६ ॥

सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्ण इस प्रकार समझा-बुझाकर अर्जुनके साथ अपने दिव्य रथपर सवार हुए और पश्चिम दिशाको प्रस्थान किया ॥ ४७ ॥ उन्होंने सात-सात पर्वतोंवाले सात द्वीप, सात समुद्र और लोकालोकपर्वत को लाँघकर घोर अन्धकार में प्रवेश किया ॥ ४८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...