मंगलवार, 9 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पहला अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— पहला अध्याय..(पोस्ट०२)

 

यदुवंश को ऋषियों का शाप

 

क्रीडन्तस्तानुपव्रज्य कुमारा यदुनन्दनाः ।

उपसङ्गृह्य पप्रच्छुरविनीता विनीतवत् ॥१३॥

ते वेषयित्वा स्त्रीवेषैः साम्बं जाम्बवतीसुतम् ।

एषा पृच्छति वो विप्रा अन्तर्वत्न्यसितेक्षणा ॥१४॥

प्रष्टुं विलज्जती साक्षात्प्रब्रूतामोघदर्शनाः ।

प्रसोष्यन्ती पुत्रकामा किं स्वित्सञ्जनयिष्यति ॥१५॥

एवं प्रलब्धा मुनयस्तानूचुः कुपिता नृप ।

जनयिष्यति वो मन्दा मुसलं कुलनाशनम् ॥१६॥

तच्छ्रुत्वा तेऽतिसन्त्रस्ता विमुच्य सहसोदरम् ।

साम्बस्य ददृशुस्तस्मिन् मुसलं खल्वयस्मयम् ॥१७॥

किं कृतं मन्दभाग्यैर्नः किं वदिष्यन्ति नो जनाः ।

इति विह्वलिता गेहानादाय मुसलं ययुः ॥१८॥

तच्चोपनीय सदसि परिम्लानमुखश्रियः ।

राज्ञ आवेदयाञ्चक्रुः सर्वयादवसन्निधौ ॥१९॥

श्रुत्वामोघं विप्रशापं दृष्ट्वा च मुसलं नृप ।

विस्मिता भयसन्त्रस्ता बभूवुर्द्वारकौकसः ॥२०॥

तच्चूर्णयित्वा मुसलं यदुराजः स आहुकः ।

समुद्रसलिले प्रास्यल्लोहं चास्यावशेषितम् ॥२१॥

कश्चिन्मत्स्योऽग्रसील्लोहं चूर्णानि तरलैस्ततः ।

उह्यमानानि वेलायां लग्नान्यासन्किलैरकाः ॥२२॥

मत्स्यो गृहीतो मत्स्यघ्नैर्जालेनान्यैः सहार्णवे ।

तस्योदरगतं लोहं स शल्ये लुब्धकोऽकरोत् ॥२३॥

भगवान्ज्ञातसर्वार्थ ईश्वरोऽपि तदन्यथा ।

कर्तुं नैच्छद्विप्रशापं कालरूप्यन्वमोदत ॥२४॥

 

क दिन यदुवंश के कुछ उद्दण्ड कुमार खेलते-खेलते उनके पास जा निकले। उन्होंने बनावटी नम्रता से उनके चरणोंमें प्रणाम करके प्रश्र किया ॥ १३ ॥ वे जाम्बवतीनन्दन साम्ब को स्त्री के वेष में सजाकर ले गये और कहने लगे, ‘ब्राह्मणो ! यह कजरारी आँखों वाली सुन्दरी गर्भवती है। यह आप से एक बात पूछना चाहती है। परन्तु स्वयं पूछने में सकुचाती है। आपलोगोंका ज्ञान अमोघ— अबाध है, आप सर्वज्ञ हैं। इसे पुत्रकी बड़ी लालसा है और अब प्रसव का समय निकट आ गया है। आपलोग बताइये, यह कन्या जनेगी या पुत्र ?’ ॥ १४-१५ ॥ परीक्षित्‌ ! जब उन कुमारों ने इस प्रकार उन ऋषि-मुनियों को धोखा देना चाहा, तब वे भगवत्प्रेरणा से क्रोधित हो उठे। उन्होंने कहा—‘मूर्खो ! यह एक ऐसा मूसल पैदा करेगी, जो तुम्हारे कुलका नाश करनेवाला होगा ॥ १६ ॥ मुनियोंकी यह बात सुनकर वे बालक बहुत ही डर गये। उन्होंने तुरंत साम्बका पेट खोलकर देखा तो सचमुच उसमें एक लोहेका मूसल मिला ॥ १७ ॥ अब तो वे पछताने लगे और कहने लगे—‘हम बड़े अभागे हैं। देखो, हमलोगोंने यह क्या अनर्थ कर डाला ? अब लोग हमें क्या कहेंगे ?’ इस प्रकार वे बहुत ही घबरा गये तथा मूसल लेकर अपने निवासस्थानमें गये ॥ १८ ॥ उस समय उनके चेहरे फीके पड़ गये थे। मुख कुम्हला गये थे। उन्होंने भरी सभामें सब यादवोंके सामने ले जाकर वह मूसल रख दिया और राजा उग्रसेनसे सारी घटना कह सुनायी ॥ १९ ॥ राजन् ! जब सब लोगोंने ब्राह्मणोंके शापकी बात सुनी और अपनी आँखोंसे उस मूसलको देखा, तब सब-के-सब द्वारकावासी विस्मित और भयभीत हो गये; क्योंकि वे जानते थे कि ब्राह्मणोंका शाप कभी झूठा नहीं होता ॥ २० ॥ यदुराज उग्रसेनने उस मूसलको चूरा-चूरा करा डाला और उस चूरे तथा लोहेके बचे हुए छोटे टुकड़ेको समुद्रमें फेंकवा दिया। (इसके सम्बन्धमें उन्होंने भगवान्‌ श्रीकृष्णसे कोई सलाह न ली; ऐसी ही उनकी प्रेरणा थी) ॥ २१ ॥

परीक्षित्‌ ! उस लोहेके टुकड़ेको एक मछली निगल गयी और चूरा तरङ्गोंके साथ बहबहकर समुद्रके किनारे आ लगा। वह थोड़े दिनोंमें एरक (बिना गाँठकी एक घास) के रूपमें उग आया ॥ २२ ॥ मछली मारनेवाले मछुओंने समुद्रमें दूसरी मछलियोंके साथ उस मछलीको भी पकड़ लिया। उसके पेटमें जो लोहेका टुकड़ा था, उसको जरा नामक व्याधने अपने बाणके नोकमें लगा लिया ॥ २३ ॥ भगवान्‌ सब कुछ जानते थे। वे इस शापको उलट भी सकते थे। फिर भी उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा। कालरूपधारी प्रभुने ब्राह्मणोंके शापका अनुमोदन ही किया ॥ २४ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे प्रथमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पहला अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— पहला अध्याय..(पोस्ट०१)

 

यदुवंश को ऋषियों का शाप

 

श्रीशुक उवाच

कृत्वा दैत्यवधं कृष्णः सरामो यदुभिर्वृतः ।

भुवोऽवतारयद्भारं जविष्ठं जनयन्कलिम् ॥१॥

ये कोपिताः सुबहु पाण्डुसुताः सपत्नैः

दुर्द्यूतहेलनकचग्रहणादिभिस्तान् ।

कृत्वा निमित्तमितरेतरतः समेतान्

हत्वा नृपान्निरहरत्क्षितिभारमीशः॥२॥

भूभारराजपृतना यदुभिर्निरस्य

गुप्तैः स्वबाहुभिरचिन्तयदप्रमेयः ।

मन्येऽवनेर्ननु गतोऽप्यगतं हि भारं

यद्यादवं कुलमहो अविषह्यमास्ते ॥३॥

नैवान्यतः परिभवोऽस्य भवेत्कथञ्चिन्

मत्संश्रयस्य विभवोन्नहनस्य नित्यम् ।

अन्तः कलिं यदुकुलस्य विधाय वेणु

स्तम्बस्य वह्निमिव शान्तिमुपैमि धाम ॥४॥

एवं व्यवसितो राजन्सत्यसङ्कल्प ईश्वरः ।

शापव्याजेन विप्राणां सञ्जह्रे स्वकुलं विभुः ॥५॥

स्वमूर्त्या लोकलावण्यनिर्मुक्त्या लोचनं नृणाम् ।

गीर्भिस्ताः स्मरतां चित्तं पदैस्तानीक्षतां क्रियाः ॥६॥

आच्छिद्य कीर्तिं सुश्लोकां वितत्य ह्यञ्जसा नु कौ ।

तमोऽनया तरिष्यन्तीत्यगात्स्वं पदमीश्वरः ॥७॥

 

श्रीराजोवाच

ब्रह्मण्यानां वदान्यानां नित्यं वृद्धोपसेविनाम् ।

विप्रशापः कथमभूद्वृष्णीनां कृष्णचेतसाम् ॥८॥

यन्निमित्तः स वै शापो यादृशो द्विजसत्तम ।

कथमेकात्मनां भेद एतत्सर्वं वदस्व मे ॥९॥

 

श्रीबादरायणिरुवाच

बिभ्रद्वपुः सकलसुन्दरसन्निवेशं

कर्माचरन्भुवि सुमङ्गलमाप्तकामः ।

आस्थाय धाम रममाण उदारकीर्तिः

संहर्तुमैच्छत कुलं स्थितकृत्यशेषः ॥१०॥

कर्माणि पुण्यनिवहानि सुमङ्गलानि

गायज्जगत्कलिमलापहराणि कृत्वा ।

कालात्मना निवसता यदुदेवगेहे

पिण्डारकं समगमन्मुनयो निसृष्टाः॥११॥

विश्वामित्रोऽसितः कण्वो दुर्वासा भृगुरङ्गिराः ।

कश्यपो वामदेवोऽत्रिःवसिष्ठो नारदादयः ॥१२॥

 

व्यासनन्दन भगवान्‌ श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने बलरामजी तथा अन्य यदुवंशियों के साथ मिलकर बहुत-से दैत्योंका संहार किया तथा कौरव और पाण्डवोंमें भी शीघ्र मार-काट मचानेवाला अत्यन्त प्रबल कलह उत्पन्न करके पृथ्वी का भार उतार दिया ॥ १ ॥ कौरवों ने कपटपूर्ण जूए से, तरह-तरह के अपमानों से तथा द्रौपदी के केश खींचने आदि अत्याचारोंसे पाण्डवोंको अत्यन्त क्रोधित कर दिया था। उन्हीं पाण्डवोंको निमित्त बनाकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने दोनों पक्षोंमें एकत्र हुए राजाओंको मरवा डाला और इस प्रकार पृथ्वीका भार हलका कर दिया ॥ २ ॥ अपने बाहुबलसे सुरक्षित यदुवंशियोंके द्वारा पृथ्वीके भार—राजा और उनकी सेनाका विनाश करके, प्रमाणोंके द्वारा ज्ञानके विषय न होनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णने विचार किया कि लोकदृष्टिसे पृथ्वीका भार दूर हो जानेपर भी वस्तुत: मेरी दृष्टिसे अभीतक दूर नहीं हुआ; क्योंकि जिसपर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता, वह यदुवंश अभी पृथ्वीपर विद्यमान है ॥ ३ ॥ यह यदुवंश मेरे आश्रित है और हाथी, घोड़े, जनबल, धनबल आदि विशाल वैभवके कारण उच्छृङ्खल हो रहा है। अन्य किसी देवता आदिसे भी इसकी किसी प्रकार पराजय नहीं हो सकती। बाँसके वनमें परस्पर संघर्षसे उत्पन्न अग्रिके समान इस यदुवंशमें भी परस्पर कलह खड़ा करके मैं शान्ति प्राप्त कर सकूँगा और इसके बाद अपने धाममें जाऊँगा ॥ ४ ॥ राजन् ! भगवान्‌ सर्वशक्तिमान् और सत्यसङ्कल्प हैं। उन्होंने इस प्रकार अपने मनमें निश्चय करके ब्राह्मणोंके शापके बहाने अपने ही वंशका संहार कर डाला, सबको समेटकर अपने धाममें ले गये ॥ ५ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌की वह मूर्ति त्रिलोकीके सौन्दर्यका तिरस्कार करनेवाली थी। उन्होंने अपनी सौन्दर्य-माधुरीसे सबके नेत्र अपनी ओर आकर्षित कर लिये थे। उनकी वाणी, उनके उपदेश परम मधुर, दिव्यातिदिव्य थे। उनके द्वारा उन्हें स्मरण करनेवालोंके चित्त उन्होंने छीन लिये थे। उनके चरणकमल त्रिलोकसुन्दर थे। जिसने उनके एक चरणचिह्नका भी दर्शन कर लिया, उसकी बहिर्मुखता दूर भाग गयी, वह कर्मप्रपञ्च से ऊपर उठकर उन्हींकी सेवामें लग गया। उन्होंने अनायास ही पृथ्वीमें अपनी कीर्तिका विस्तार कर दिया, जिसका बड़े-बड़े सुकवियोंने बड़ी ही सुन्दर भाषामें वर्णन किया है। वह इसलिये कि मेरे चले जानेके बाद लोग मेरी इस कीर्तिका गान, श्रवण और स्मरण करके इस अज्ञानरूप अन्धकारसे सुगमतया पार हो जायँगे। इसके बाद परमैश्वर्यशाली भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने धामको प्रयाण किया ॥ ६-७ ॥

राजा परीक्षित्‌ने पूछा—भगवन् ! यदुवंशी बड़े ब्राह्मणभक्त थे। उनमें बड़ी उदारता भी थी और वे अपने कुलवृद्धोंकी नित्य-निरन्तर सेवा करनेवाले थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि उनका चित्त भगवान्‌ श्रीकृष्णमें लगा रहता था; फिर उनसे ब्राह्मणोंका अपराध कैसे बन गया ? और क्यों ब्राह्मणोंने उन्हें शाप दिया ? ॥ ८ ॥ भगवान्‌के परम प्रेमी विप्रवर ! उस शापका कारण क्या था तथा क्या स्वरूप था ? समस्त यदुवंशियोंके आत्मा, स्वामी और प्रियतम एकमात्र भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही थे; फिर उनमें फूट कैसे हुई ? दूसरी दृष्टिसे देखें तो वे सब ऋषि अद्वैतदर्शी थे, फिर उनको ऐसी भेददृष्टि कैसे हुई ? यह सब आप कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ ९ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा—भगवान्‌ श्रीकृष्णने वह शरीर धारण करके जिसमें सम्पूर्ण सुन्दर पदार्थोंका सन्निवेश था (नेत्रोंमें मृगनयन, कन्धोंमें सिंहस्कन्ध, करोंमें करि-कर, चरणोंमें कमल आदिका विन्यास था। ) पृथ्वीमें मङ्गलमय कल्याणकारी कर्मोंका आचरण किया। वे पूर्णकाम प्रभु द्वारकाधाममें रहकर क्रीडा करते रहे और उन्होंने अपनी उदार कीर्तिकी स्थापना की। (जो कीर्ति स्वयं अपने आश्रयतकका दान कर सके वह उदार है।) अन्तमें श्रीहरिने अपने कुलके संहार—उपसंहारकी इच्छा की; क्योंकि अब पृथ्वीका भार उतरनेमें इतना ही कार्य शेष रह गया था ॥ १० ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने ऐसे परम मङ्गलमय और पुण्य-प्रापक कर्म किये, जिनका गान करनेवाले लोगोंके सारे कलिमल नष्ट हो जाते हैं। अब भगवान्‌ श्रीकृष्ण महाराज उग्रसेन की राजधानी द्वारकापुरी में वसुदेवजी के घर यादवों का संहार करने के लिये कालरूप से ही निवास कर रहे थे। उस समय उनके विदा कर देने पर—विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, भृगु, अङ्गिरा, कश्यप, वामदेव, अत्रि, वसिष्ठ और नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि द्वारका के पास ही पिण्डारक क्षेत्र में जाकर निवास करने लगे थे  ॥११-१२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



सोमवार, 8 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नब्बेवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नब्बेवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ कृष्ण के लीला-विहार का वर्णन

 

श्रीशुक उवाच -

इतीदृशेन भावेन कृष्णे योगेश्वरेश्वरे ।

 क्रियमाणेन माधव्यो लेभिरे परमां गतिम् ॥ २५ ॥

 श्रुतमात्रोऽपि यः स्त्रीणां प्रसह्याकर्षते मनः ।

 उरुगायोरुगीतो वा पश्यन्तीनां कुतः पुनः ॥ २६ ॥

 याः सम्पर्यचरन् प्रेम्णा पादसंवाहनादिभिः ।

 जगद्‌गुरुं भर्तृबुद्ध्या तासां किं वर्ण्यते तपः ॥ २७ ॥

 एवं वेदोदितं धर्मं अनुतिष्ठन् सतां गतिः ।

 गृहं धर्मार्थकामानां मुहुश्चादर्शयत् पदम् ॥ २८ ॥

 आस्थितस्य परं धर्मं कृष्णस्य गृहमेधिनाम् ।

 आसन् षोडशसाहस्रं महिष्यश्च शताधिकम् ॥ २९ ॥

 तासां स्त्रीरत्‍नभूतानां अष्टौ याः प्रागुदाहृताः ।

 रुक्मिणीप्रमुखा राजन् तत्पुत्राश्चानुपूर्वशः ॥ ३० ॥

 एकैकस्यां दश दश कृष्णोऽजीजनदात्मजान् ।

 यावत्य आत्मनो भार्या अमोघगतिरीश्वरः ॥ ३१ ॥

 तेषां उद्दामवीर्याणां अष्टादश महारथाः ।

 आसन्नुदारयशसः तेषां नामानि मे शृणु ॥ ३२ ॥

 प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्च दीप्तिमान् भानुरेव च ।

 साम्बो मधुर्बृहद्‌भानुः चित्रभानुर्वृकोऽरुणः ॥ ३३ ॥

 पुष्करो वेदबाहुश्च श्रुतदेवः सुनन्दनः ।

 चित्रबाहुर्विरूपश्च कविर्न्यग्रोध एव च ॥ ३४ ॥

 एतेषां अपि राजेन्द्र तनुजानां मधुद्विषः ।

 प्रद्युम्न आसीत् प्रथमः पितृवद् रुक्मिणीसुतः ॥ ३५ ॥

 स रुक्मिणो दुहितरं उपयेमे महारथः ।

 तस्यां ततोऽनिरुद्धोऽभूत् नागायतबलान्वितः ॥ ३६ ॥

 स चापि रुक्मिणः पौत्रीं दौहित्रो जगृहे ततः ।

 वज्रस्तस्याभवद् यस्तु मौषलादवशेषितः ॥ ३७ ॥

 प्रतिबाहुरभूत्तस्मात् सुबाहुस्तस्य चात्मजः ।

 सुबाहोः शान्तसेनोऽभूत् शतसेनस्तु तत्सुतः ॥ ३८ ॥

 न ह्येतस्मिन्कुले जाता अधना अबहुप्रजाः ।

 अल्पायुषोऽल्पवीर्याश्च अब्रह्मण्याश्च जज्ञिरे ॥ ३९ ॥

 यदुवंशप्रसूतानां पुंसां विख्यातकर्मणाम् ।

 सङ्ख्या न शक्यते कर्तुं अपि वर्षायुतैर्नृप ॥ ४० ॥

 तिस्रः कोट्यः सहस्राणां अष्टाशीतिशतानि च ।

 आसन्यदुकुलाचार्याः कुमाराणां इति श्रुतम् ॥ ४१ ॥

 सङ्ख्यानं यादवानां कः करिष्यति महात्मनाम् ।

 यत्रायुतानां अयुत लक्षेणास्ते स आहुकः ॥ ४२ ॥

 देवासुराहवहता दैतेया ये सुदारुणाः ।

 ते चोत्पन्ना मनुष्येषु प्रजा दृप्ता बबाधिरे ॥ ४३ ॥

 तन्निग्रहाय हरिणा प्रोक्ता देवा यदोः कुले ।

 अवतीर्णाः कुलशतं तेषां एकाधिकं नृप ॥ ४४ ॥

 तेषां प्रमाणं भगवान् प्रभुत्वेनाभवद्धरिः ।

 ये चानुवर्तिनस्तस्य ववृधुः सर्वयादवाः ॥ ४५ ॥

 शय्यासनाटनालाप क्रीडास्नानादिकर्मसु ।

 न विदुः सन्तमात्मानं वृष्णयः कृष्णचेतसः ॥ ४६ ॥

तीर्थं चक्रे नृपोनं यदजनि यदुषु

     स्वःसरित्पादशौचं ।

 विद्विट्‌स्निग्धाः स्वरूपं ययुरजितपरा

     श्रीर्यदर्थेऽन्ययत्‍नः ।

 यन्नामामङ्गलघ्नं श्रुतमथ गदितं

     यत्कृतो गोत्रधर्मः

 कृष्णस्यैतन्न चित्रं क्षितिभरहरणं

     कालचक्रायुधस्य ॥ ४७ ॥

जयति जननिवासो देवकीजन्मवादो

     यदुवरपरिषत्स्वैर्दोर्भिरस्यन्नधर्मम् ।

 स्थिरचरवृजिनघ्नः सुस्मितश्रीमुखेन

     व्रजपुरवनितानां वर्धयन् कामदेवम् ॥ ४८ ॥

इत्थं परस्य निजवर्त्मरिरक्षयात्त

     लीलातनोस्तदनुरूपविडम्बनानि ।

 कर्माणि कर्मकषणानि यदूत्तमस्य

     श्रूयादमुष्य पदयोरनुवृत्तिमिच्छन् ॥ ४९ ॥

 मर्त्यस्तयानुसवमेधितया मुकुन्द

     श्रीमत्कथाश्रवणकीर्तनचिन्तयैति ।

 तद्धाम दुस्तरकृतान्तजवापवर्गं

     ग्रामाद्वनं क्षितिभुजोऽपि ययुर्यदर्थाः ॥ ५० ॥

 

परीक्षित्‌ ! श्रीकृष्ण-पत्नियाँ योगेश्वरेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णमें ऐसा ही अनन्य प्रेम-भाव रखती थीं। इसीसे उन्होंने परमपद प्राप्त किया ॥ २५ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलाएँ अनेकों प्रकारसे अनेकों गीतों द्वारा गान की गयी हैं। वे इतनी मधुर, इतनी मनोहर हैं कि उनके सुननेमात्रसे स्त्रियोंका मन बलात् उनकी ओर खिंच जाता है। फिर जो स्त्रियाँ उन्हें अपने नेत्रोंसे देखती थीं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ॥ २६ ॥ जिन बड़भागिनी स्त्रियोंने जगद्गुरु भगवान्‌ श्रीकृष्णको अपना पति मानकर परम प्रेमसे उनके चरणकमलोंको सहलाया, उन्हें नहलाया-धुलाया, खिलाया-पिलाया, तरह-तरहसे उनकी सेवा की, उनकी तपस्याका वर्णन तो भला, किया ही कैसे जा सकता है ॥ २७ ॥

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय हैं। उन्होंने वेदोक्त धर्मका बार-बार आचरण करके लोगोंको यह बात दिखला दी कि घर ही धर्म, अर्थ और कामसाधनका स्थान है ॥ २८ ॥ इसीलिये वे गृहस्थोचित श्रेष्ठ धर्मका आश्रय लेकर व्यवहार कर रहे थे। परीक्षित्‌ ! मैं तुमसे कह ही चुका हूँ कि उनकी रानियोंकी संख्या थी सोलह हजार एक सौ आठ ॥ २९ ॥ उन श्रेष्ठ स्त्रियोंमेंसे रुक्मिणी आदि आठ पटरानियों और उनके पुत्रोंका तो मैं पहले ही क्रमसे वर्णन कर चुका हूँ ॥ ३० ॥ उनके अतिरिक्त भगवान्‌ श्रीकृष्णकी और जितनी पत्नियाँ थीं, उनसे भी प्रत्येकके दस- दस पुत्र उत्पन्न किये। यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि भगवान्‌ सर्वशक्तिमान् और सत्यसङ्कल्प हैं ॥ ३१ ॥ भगवान्‌के परम पराक्रमी पुत्रोंमें अठारह तो महारथी थे, जिनका यश सारे जगत्में फैला हुआ था। उनके नाम मुझसे सुनो ॥ ३२ ॥ प्रद्युम्र, अनिरुद्ध, दीप्तिमान्, भानु, साम्ब, मधु, बृहद्भानु, चित्रभानु, वृक, अरुण, पुष्कर, वेदबाहु, श्रुतदेव, सुनन्दन, चित्रबाहु, विरूप, कवि और न्यग्रोध ॥ ३३-३४ ॥ राजेन्द्र ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके इन पुत्रोंमें भी सबसे श्रेष्ठ रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न जी थे। वे सभी गुणोंमें अपने पिताके समान ही थे ॥ ३५ ॥ महारथी प्रद्युम्न ने रुक्मीकी कन्यासे अपना विवाह किया था। उसीके गर्भसे अनिरुद्धजी का जन्म हुआ। उनमें दस हजार हाथियोंका बल था ॥ ३६ ॥ रुक्मी के दौहित्र अनिरुद्धजी ने अपने नानाकी पोतीसे विवाह किया। उसके गर्भसे वज्रका जन्म हुआ। ब्राह्मणोंके शापसे पैदा हुए मूसलके द्वारा यदुवंशका नाश हो जानेपर एकमात्र वे ही बच रहे थे ॥ ३७ ॥ वज्रके पुत्र हैं प्रतिबाहु, प्रतिबाहुके सुबाहु, सुबाहुके शान्तसेन और शान्तसेनके शतसेन ॥ ३८ ॥ परीक्षित्‌ ! इस वंशमें कोई भी पुरुष ऐसा न हुआ जो बहुत-सी सन्तानवाला न हो तथा जो निर्धन, अल्पायु और अल्पशक्ति हो। वे सभी ब्राह्मणोंके भक्त थे ॥ ३९ ॥ परीक्षित्‌ ! यदुवंशमें ऐसे-ऐसे यशस्वी और पराक्रमी पुरुष हुए हैं, जिनकी गिनती भी हजारों वर्षोंमें पूरी नहीं हो सकती ॥ ४० ॥ मैंने ऐसा सुना है कि यदुवंशके बालकोंको शिक्षा देनेके लिये तीन करोड़ अट्ठासी लाख आचार्य थे ॥ ४१ ॥ ऐसी स्थिति में महात्मा यदुवंशियोंकी संख्या तो बतायी ही कैसे जा सकती है ! स्वयं महाराज उग्रसेन के साथ एक नील (१०००००००००००००)के लगभग सैनिक रहते थे ॥ ४२ ॥

परीक्षित्‌ ! प्राचीन कालमें देवासुरसंग्रामके समय बहुत-से भयङ्कर असुर मारे गये थे। वे ही मनुष्योंमें उत्पन्न हुए और बड़े घमंडसे जनताको सताने लगे ॥ ४३ ॥ उनका दमन करनेके लिये भगवान्‌ की आज्ञासे देवताओंने ही यदुवंशमें अवतार लिया था। परीक्षित्‌ ! उनके कुलोंकी संख्या एक सौ एक थी ॥ ४४ ॥ वे सब भगवान्‌ श्रीकृष्णको ही अपना स्वामी एवं आदर्श मानते थे। जो यदुवंशी उनके अनुयायी थे, उनकी सब प्रकारसे उन्नति हुई ॥ ४५ ॥ यदुवंशियोंका चित्त इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णमें लगा रहता था कि उन्हें सोने-बैठने, घूमने-फिरने, बोलने-खेलने और नहाने- धोने आदि कामोंमें अपने शरीरकी भी सुधि न रहती थी। वे जानते ही न थे कि हमारा शरीर क्या कर रहा है। उनकी समस्त शारीरिक क्रियाएँ यन्त्रकी भाँति अपने-आप होती रहती थीं ॥ ४६ ॥

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ का चरणधोवन गङ्गा जी अवश्य ही समस्त तीर्थोंमें महान् एवं पवित्र हैं। परन्तु जब स्वयं परमतीर्थस्वरूप भगवान्‌ ने ही यदुवंशमें अवतार ग्रहण किया, तब तो गङ्गाजल की महिमा अपने-आप ही उनके सुयशतीर्थ की अपेक्षा कम हो गयी। भगवान्‌ के स्वरूप की यह कितनी बड़ी महिमा है कि उनसे प्रेम करनेवाले भक्त और द्वेष करनेवाले शत्रु दोनों ही उनके स्वरूपको प्राप्त हुए। जिस लक्ष्मीको प्राप्त करनेके लिये बड़े-बड़े देवता यत्न करते रहते हैं, वे ही भगवान्‌की सेवामें नित्य-निरन्तर लगी रहती हैं। भगवान्‌का नाम एक बार सुनने अथवा उच्चारण करनेसे ही सारे अमङ्गलोंको नष्ट कर देता है। ऋषियोंके वंशजोंमें जितने भी धर्म प्रचलित हैं, सबके संस्थापक भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही हैं। वे अपने हाथमें कालस्वरूप चक्र लिये रहते हैं। परीक्षित्‌ ! ऐसी स्थितिमें वे पृथ्वीका भार उतार देते हैं, यह कौन बड़ी बात है ॥ ४७ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही समस्त जीवोंके आश्रयस्थान हैं। यद्यपि वे सदा-सर्वदा सर्वत्र उपस्थित ही रहते हैं, फिर भी कहनेके लिये उन्होंने देवकीजीके गर्भसे जन्म लिया है। यदुवंशी वीर पार्षदोंके रूपमें उनकी सेवा करते रहते हैं। उन्होंने अपने भुजबलसे अधर्मका अन्त कर दिया है। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ स्वभावसे ही चराचर जगत् का दु:ख मिटाते रहते हैं। उनका मन्द-मन्द मुसकानसे युक्त सुन्दर मुखारविन्द व्रजवासियों और पुरस्त्रियोंके हृदयमें प्रेम-भावका सञ्चार करता रहता है। वास्तवमें सारे जगत् पर वही विजयी हैं। उन्हींकी जय हो ! जय हो !! ॥ ४८ ॥

परीक्षित्‌ ! प्रकृतिसे अतीत परमात्माने अपनेद्वारा स्थापित धर्म-मर्यादाकी रक्षाके लिये दिव्य लीला-शरीर ग्रहण किया और उसके अनुरूप अनेकों अद्भुत चरित्रोंका अभिनय किया। उनका एक-एक कर्मस्मरण करनेवालोंके कर्मबन्धनोंको काट डालनेवाला है। जो यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी सेवाका अधिकार प्राप्त करना चाहे, उसे उनकी लीलाओंका ही श्रवण करना चाहिये ॥ ४९ ॥ परीक्षित्‌ ! जब मनुष्य प्रतिक्षण भगवान्‌ श्रीकृष्णकी मनोहारिणी लीलाकथाओं का अधिकाधिक श्रवण, कीर्तन और चिन्तन करने लगता है, तब उसकी यही भक्ति उसे भगवान्‌ के परमधाममें पहुँचा देती है। यद्यपि कालकी गतिके परे पहुँच जाना बहुत ही कठिन है, परन्तु भगवान्‌ के धाम में काल की दाल नहीं गलती। वह वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाता। उसी धाम की प्राप्तिके लिये अनेक सम्राटों ने अपना राजपाट छोडक़र तपस्या करनेके उद्देश्य से जंगलकी यात्रा की है। इसलिये मनुष्य को उनकी लीला-कथाका ही श्रवण करना चाहिये ॥ ५० ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे श्रीकृष्णचरितानुवर्णनं नाम नवतितमोऽध्यायः ॥ ९० ॥

 

इति दशम स्कन्ध उत्तरार्ध समाप्त

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

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