रविवार, 14 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भक्तिहीन पुरुषों की गति और भगवान्‌ की पूजाविधि का वर्णन

 

 इति द्वापर उर्वीश स्तुवन्ति जगदीश्वरम् ।

 नानातन्त्रविधानेन कलावपि तथा श्रृणु ॥ ३१ ॥

 कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्र पार्षदम् ।

 यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैः यजन्ति हि सुमेधसः ॥ ३२ ॥

 ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं

     तीर्थास्पदं शिवविरिञ्चिनुतं शरण्यम् ।

 भृत्यार्तिहं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं

     वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥ ३३ ॥

 त्यक्त्वा सुदुस्त्यजसुरेप्सित राज्यलक्ष्मीं

     धर्मिष्ठ आर्यवचसा यदगात् अरण्यम् ।

 मायामृगं दयितयेप्सितमन्वधावद्

     वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥ ३४ ॥

 एवं युगानुरूपाभ्यां भगवान् युगवर्तिभिः ।

 मनुजैरिज्यते राजन् श्रेयसा्मीश्वरो हरिः ॥ ३५ ॥

 कलिं सभाजयन्त्यार्या गुणज्ञाः सारभागिनः ।

 यत्र सङ्कीर्तनेनैव सर्वस्वार्थोऽभिलभ्यते ॥ ३६ ॥

 न ह्यतः परमो लाभो देहिनां भ्राम्यतामिह ।

 यतो विन्देत परमां शान्तिं नश्यति संसृतिः ॥ ३७ ॥

 कृतादिषु प्रजा राजन् कलाविच्छन्ति सम्भवम् ।

 कलौ खलु भविष्यन्ति नारायणपरायणाः ॥ ३८ ॥

 क्वचित् क्वचिन्महाराज द्रविडेषु च भूरिशः ।

 ताम्रपर्णी नदी यत्र कृतमाला पयस्विनी ॥ ३९ ॥

 कावेरी च महापुण्या प्रतीची च महानदी ।

 ये पिबन्ति जलं तासां मनुजा मनुजेश्वर ।

 प्रायो भक्ता भगवति वासुदेवेऽमलाशयाः ॥ ४० ॥

 देवर्षिभूताप्तनृणां पितॄणां

     न किङ्करो नायमृणी च राजन् ।

 सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं

     गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम् ॥ ४१ ॥

 स्वपादमूलं भजतः प्रियस्य

     त्यक्तान्यभावस्य हरिः परेशः ।

 विकर्म यच्चोत्पतितं कथञ्चित्

     धुनोति सर्वं हृदि सन्निविष्टः ॥ ४२ ॥

 

 श्रीनारद उवाच -

 धर्मान् भागवतानित्थं श्रुत्वाथ मिथिलेश्वरः ।

 जायन्तेयान् मुनीन् प्रीतः सोपाध्यायो ह्यपूजयत् ॥ ४३ ॥

 ततोऽन्तर्दधिरे सिद्धाः सर्वलोकस्य पश्यतः ।

 राजा धर्मानुपातिष्ठन् अवाप परमां गतिम् ॥ ४४ ॥

 त्वमप्येतान् महाभाग धर्मान् भागवतान् श्रुतान् ।

 आस्थितः श्रद्धया युक्तो निःसङ्गो यास्यसे परम् ॥ ४५ ॥

 युवयोः खलु दम्पत्योः यशसा पूरितं जगत् ।

 पुत्रतामगमद् यद् वां भगवानीश्वरो हरिः ॥ ४६ ॥

 दर्शनालिङ्गनालापैः शयनासनभोजनैः ।

 आत्मा वां पावितः कृष्णे पुत्रस्नेहं प्रकुर्वतोः ॥ ४७ ॥

 वैरेण यं नृपतयः शिशुपालपौण्ड्र-

     शाल्वादयो गतिविलास-विलोकनाद्यैः ।

 ध्यायन्त आकृतधियः शयनासनादौ

     तत्साम्यमापुरनुरक्तधियां पुनः किम् ॥ ४८ ॥

 मापत्यबुद्धिमकृथाः कृष्णे सर्वात्मनीश्वरे ।

 मायामनुष्यभावेन गूढैश्वर्ये परेऽव्यये ॥ ४९ ॥

 भूभारासुरराजन्य हन्तवे गुप्तये सताम् ।

 अवतीर्णस्य निर्वृत्यै यशो लोके वितन्यते ॥ ५० ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

 एतत् श्रृत्वा महाभागो वसुदेवोऽतिविस्मितः ।

 देवकी च महाभागा जहतुः मोहमात्मनः ॥ ५१ ॥

 इतिहासमिमं पुण्यं धारयेद् यः समाहितः ।

 स विधूयेह शमलं ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ५२ ॥

 

राजन् ! द्वापरयुगमें इस प्रकार लोग जगदीश्वर भगवान्‌की स्तुति करते हैं। अब कलियुगमें अनेक तन्त्रोंके विधि-विधानसे भगवान्‌ की जैसी पूजा की जाती है, उसका वर्णन सुनो— ॥ ३१ ॥ कलियुग में भगवान्‌  का श्रीविग्रह होता है कृष्णवर्ण—काले रंगका । जैसे नीलम मणिमेंसे उज्ज्वल कान्तिधारा निकलती रहती है, वैसे ही उनके अङ्ग की छटा भी उज्ज्वल होती है। वे हृदय आदि अङ्ग, कौस्तुभ आदि उपाङ्ग, सुदर्शन आदि अस्त्र और सुनन्द प्रभृति पार्षदोंसे संयुक्त रहते हैं। कलियुगमें श्रेष्ठ बुद्धिसम्पन्न पुरुष ऐसे यज्ञोंके द्वारा उनकी आराधना करते हैं जिनमें नाम गुण, लीला आदिके कीर्तनकी प्रधानता रहती है ॥ ३२ ॥ वे लोग भगवान्‌ की स्तुति इस प्रकार करते हैं—‘प्रभो आप शरणागत रक्षक हैं। आपके चरणारविन्द सदा-सर्वदा ध्यान करनेयोग्य, माया- मोहके कारण होनेवाले सांसारिक पराजयोंका अन्त कर देनेवाले तथा भक्तोंकी समस्त अभीष्ट वस्तुओंका दान करनेवाले कामधेनुस्वरूप हैं। वे तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाले स्वयं परम तीर्थस्वरूप हैं; शिव, ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता उन्हें नमस्कार करते हैं और चाहे जो कोई उनकी शरणमें आ जाय, उसे स्वीकार कर लेते हैं। सेवकोंकी समस्त आॢत और विपत्तिके नाशक तथा संसार-सागरसे पार जानेके लिये जहाज हैं। महापुरुष ! मैं आपके उन्हीं चरणारविन्दोंकी वन्दना करता हूँ ॥ ३३ ॥ भगवन् ! आपके चरणकमलोंकी महिमा कौन कहे ? रामावतारमें अपने पिता दशरथजीके वचनोंसे देवताओंके लिये भी वाञ्छनीय और दुस्त्यज राज्यलक्ष्मीको छोडक़र आपके चरण-कमल वन-वन घूमते फिरे ! सचमुच आप धर्मनिष्ठताकी सीमा हैं। और महापुरुष ! अपनी प्रेयसी सीताजीके चाहनेपर जान-बूझकर आपके चरण-कमल मायामृगके पीछे दौड़ते रहे। सचमुच आप प्रेमकी सीमा हैं। प्रभो ! मैं आपके उन्हीं चरणारविन्दोंकी वन्दना करता हूँ’ ॥ ३४ ॥

राजन् ! इस प्रकार विभिन्न युगोंके लोग अपने-अपने युगके अनुरूप नाम-रूपोंद्वारा विभिन्न प्रकारसे भगवान्‌की आराधना करते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—सभी पुरुषार्थोंके एकमात्र स्वामी भगवान्‌ श्रीहरि ही हैं ॥ ३५ ॥ कलियुगमें केवल सङ्कीर्तनसे ही सारे स्वार्थ और परमार्थ बन जाते हैं। इसलिये इस युगका गुण जाननेवाले सारग्राही श्रेष्ठ पुरुष कलियुगकी बड़ी प्रशंसा करते हैं, इससे बड़ा प्रेम करते हैं ॥ ३६ ॥ देहाभिमानी जीव संसारचक्रमें अनादि कालसे भटक रहे हैं। उनके लिये भगवान्‌की लीला, गुण और नामके कीर्तनसे बढक़र और कोई परम लाभ नहीं है; क्योंकि इससे संसारमें भटकना मिट जाता है और परम शान्तिका अनुभव होता है ॥ ३७ ॥ राजन् ! सत्ययुग, त्रेता और द्वापरकी प्रजा चाहती है कि हमारा जन्म कलियुगमें हो; क्योंकि कलियुगमें कहीं-कहीं भगवान्‌ नारायणके शरणागत उन्हींके आश्रयमें रहनेवाले बहुत-से भक्त उत्पन्न होंगे। महाराज विदेह ! कलियुगमें द्रविड़देशमें अधिक भक्त पाये जाते हैं; जहाँ ताम्रपर्णी, कृतमाला, पयस्विनी, परम पवित्र कावेरी, महानदी और प्रतीची नामकी नदियाँ बहती हैं। राजन् ! जो मनुष्य इन नदियोंका जल पीते हैं, प्राय: उनका अन्त:करण शुद्ध हो जाता है और वे भगवान्‌ वासुदेवके भक्त हो जाते हैं ॥ ३८—४० ॥ राजन् ! जो मनुष्य ‘यह करना बाकी है, वह करना आवश्यक है’—इत्यादि कर्म-वासनाओंका अथवा भेदबुद्धिका परित्याग करके सर्वात्मभावसे शरणागतवत्सल, प्रेमके वरदानी भगवान्‌ मुकुन्दकी शरणमें आ गया है, वह देवताओं, ऋषियों, पितरों, प्राणियों, कुटुम्बियों और अतिथियोंके ऋणसे उऋण हो जाता है; वह किसीके अधीन, किसीका सेवक, किसीके बन्धनमें नहीं रहता ॥ ४१ ॥ जो प्रेमी भक्त अपने प्रितयतम भगवान्‌के चरणकमलोंका अनन्यभावसे—दूसरी भावनाओं, आस्थाओं, वृत्तियों और प्रवृत्तियोंको छोडक़र—भजन करता है, उससे, पहली बात तो यह है कि पापकर्म होते ही नहीं; परन्तु यदि कभी किसी प्रकार हो भी जायँ तो परमपुरुष भगवान्‌ श्रीहरि उसके हृदयमें बैठकर वह सब धो-बहा देते और उसके हृदयको शुद्ध कर देते हैं ॥ ४२ ॥

नारदजी कहते हैं—वसुदेवजी ! मिथिलानरेश राजा निमि नौ योगीश्वरोंसे इस प्रकार भागवतधर्मोंका वर्णन सुनकर बहुत ही आनन्दित हुए। उन्होंने अपने ऋत्विज् और आचार्योंके साथ ऋषभनन्दन नव योगीश्वरोंकी पूजा की ॥ ४३ ॥ इसके बाद सब लोगोंके सामने ही वे सिद्ध अन्तर्धान हो गये। विदेहराज निमिने उनसे सुने हुए भागवतधर्मोंका आचरण किया और परमगति प्राप्त की ॥ ४४ ॥ महाभाग्यवान् वसुदेवजी ! मैंने तुम्हारे आगे जिन भागवतधर्मोंका वर्णन किया है, तुम भी यदि श्रद्धाके साथ इनका आचरण करोगे तो अन्तमें सब आसक्तियोंसे छूटकर भगवान्‌का परमपद प्राप्त कर लोगे ॥ ४५ ॥ वसुदेवजी ! तुम्हारे और देवकीके यशसे तो सारा जगत् भरपूर हो रहा है; क्योंकि सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्ण तुम्हारे पुत्रके रूपमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ ४६ ॥ तुमलोगोंने भगवान्‌के दर्शन, आलिङ्गन तथा बातचीत करने एवं उन्हें सुलाने, बैठाने, खिलाने आदिके द्वारा वात्सल्य-स्नेह करके अपना हृदय शुद्ध कर लिया है; तुम परम पवित्र हो गये हो ॥ ४७ ॥ वसुदेवजी ! शिशुपाल, पौण्ड्रक और शाल्व आदि राजाओंने तो वैरभावसे श्रीकृष्णकी चाल-ढाल, लीला-विलास, चितवन-बोलन आदिका स्मरण किया था। वह भी नियमानुसार नहीं, सोते, बैठते, चलते-फिरते—स्वाभाविकरूपसे ही। फिर भी उनकी चित्तवृत्ति श्रीकृष्णाकार हो गयी और वे सारूप्य-मुक्तिके अधिकारी हुए। फिर जो लोग प्रेमभाव और अनुरागसे श्रीकृष्णका चिन्तन करते हैं, उन्हें श्रीकृष्णकी प्राप्ति होनेमें कोई सन्देह है क्या ? ॥ ४८ ॥ वसुदेवजी ! तुम श्रीकृष्णको केवल अपना पुत्र ही मत समझो। वे सर्वात्मा, सर्वेश्वर, कारणातीत और अविनाशी हैं। उन्होंने लीलाके लिये मनुष्यरूप प्रकट करके अपना ऐश्वर्य छिपा रखा है ॥ ४९ ॥ वे पृथ्वीके भारभूत राजवेषधारी असुरोंका नाश और संतोंकी रक्षा करनेके लिये तथा जीवोंको परम शान्ति और मुक्ति देनेके लिये ही अवतीर्ण हुए हैं और इसीके लिये जगत् में उनकी कीर्ति भी गायी जाती है ॥ ५० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित्‌ ! नारदजीके मुखसे यह सब सुनकर परम भाग्यवान् वसुदेवजी और परम भाग्यवती देवकीजीको बड़ा ही विस्मय हुआ। उनमें जो कुछ माया-मोह अवशेष था, उसे उन्होंने तत्क्षण छोड़ दिया ॥ ५१ ॥ राजन् ! यह इतिहास परम पवित्र है। जो एकाग्रचित्तसे इसे धारण करता है, वह अपना सारा शोक-मोह दूर करके ब्रह्मपदको प्राप्त होता है ॥ ५२ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां एकादशस्कन्धे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से 



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भक्तिहीन पुरुषों की गति और भगवान्‌ की पूजाविधि का वर्णन

 

 श्रीराजोवाच -

 भगवन्तं हरिं प्रायो न भजन्त्यात्मवित्तमाः ।

 तेषामशान्तकामानां का निष्ठाविजितात्मनाम् ॥ १ ॥

 

 श्रीचमस उवाच -

 मुखबाहूरुपादेभ्यः पुरुषस्याश्रमैः सह ।

 चत्वारो जज्ञिरे वर्णा गुणैर्विप्रादयः पृथक् ॥ २ ॥

 य एषां पुरुषं साक्षात् आत्मप्रभवमीश्वरम् ।

 न भजन्त्यवजानन्ति स्थानाद्‍भ्रष्टाः पतन्त्यधः ॥ ३ ॥

 दूरे हरिकथाः केचिद् दूरे चाच्युतकीर्तनाः ।

 स्त्रियः शूद्रादयश्चैव तेऽनुकम्प्या भवादृशाम् ॥ ४ ॥

 विप्रो राजन्यवैश्यौ वा हरेः प्राप्ताः पदान्तिकम् ।

 श्रौतेन जन्मनाथापि मुह्यन्त्याम्नायवादिनः ॥ ५ ॥

 कर्मण्यकोविदाः स्तब्धा मूर्खाः पण्डितमानिनः ।

 वदन्ति चाटुकान् मूढा यया माध्व्या गिरोत्सुकाः ॥ ६ ॥

 रजसा घोरसङ्कल्पाः कामुका अहिमन्यवः ।

 दाम्भिका मानिनः पापा विहसन्त्यच्युतप्रियान् ॥ ७ ॥

 वदन्ति तेऽन्योन्यमुपासितस्त्रियो

     गृहेषु मैथुन्यपरेषु चाशिषः ।

 यजन्त्यसृष्टानविधानदक्षिणं

     वृत्त्यै परं घ्नन्ति पशून् अतद्विदः ॥ ८ ॥

 श्रिया विभूत्याभिजनेन विद्यया

     त्यागेन रूपेण बलेन कर्मणा ।

 जातस्मयेनान्धधियः सहेश्वरान्

     सतोऽवमन्यन्ति हरिप्रियान्खलाः ॥ ९ ॥

 सर्वेषु शश्वत् तनुभृत्स्ववस्थितं

     यथा खमात्मानमभीष्टमीश्वरम् ।

 वेदोपगीतं च न श्रृण्वतेऽबुधा

     मनोरथानां प्रवदन्ति वार्तया ॥ १० ॥

 लोके व्यवायामिषमद्यसेवा

     नित्यास्तु जन्तोर्न हि तत्र चोदना ।

 व्यवस्थितिस्तेषु विवाहयज्ञ-

     सुराग्रहैरासु निवृत्तिरिष्टा ॥ ११ ॥

 धनं च धर्मैकफलं यतो वै

     ज्ञानं सविज्ञानमनुप्रशान्ति ।

 गृहेषु युञ्जन्ति कलेवरस्य

     मृत्युं न पश्यन्ति दुरन्तवीर्यम् ॥ १२ ॥

 यद् घ्राणभक्षो विहितः सुरायाः

     तथा पशोरालभनं न हिंसा ।

 एवं व्यवायः प्रजया न रत्या

     इमं विशुद्धं न विदुः स्वधर्मम् ॥ १३ ॥

 ये तु अनेवंविदोऽसन्तः स्तब्धाः सदभिमानिनः ।

 पशून् द्रुह्यन्ति विश्रब्धाः प्रेत्य खादन्ति ते च तान् ॥ १४ ॥

 द्विषन्तः परकायेषु स्वात्मानं हरिमीश्वरम् ।

 मृतके सानुबन्धेऽस्मिन् बद्धस्नेहाः पतन्त्यधः ॥ १५ ॥

 ये कैवल्यं असम्प्राप्ता ये चातीताश्च मूढताम् ।

 त्रैवर्गिका ह्यक्षणिका आत्मानं घातयन्ति ते ॥ १६ ॥

 एत आत्महनोऽशान्ता अज्ञाने ज्ञानमानिनः ।

 सीदन्त्यकृतकृत्या वै कालध्वस्तमनोरथाः ॥ १७ ॥

 हित्वा अत्यायारचिता गृहापत्यसुहृत् स्त्रियः ।

 तमो विशन्त्यनिच्छन्तो वासुदेवपराङ्‌मुखाः ॥ १८ ॥

 

 श्री राजोवाच -

  कस्मिन् काले स भगवान् किं वर्णः कीदृशो नृभिः ।

 नाम्ना वा केन विधिना पूज्यते तदिहोच्यताम् ॥ १९ ॥

 

 श्रीकरभाजन उवाच -

 कृतं त्रेता द्वापरं च कलिरित्येषु केशवः ।

 नानावर्णाभिधाकारो नानैव विधिनेज्यते ॥ २० ॥

 कृते शुक्लश्चतुर्बाहुः जटिलो वल्कलाम्बरः ।

 कृष्णाजिनोपवीताक्षान् बिभ्रद् दण्डकमण्डलू ॥ २१ ॥

 मनुष्यास्तु तदा शान्ता निर्वैराः सुहृदः समाः ।

 यजन्ति तपसा देवं शमेन च दमेन च ॥ २२ ॥

 हंसः सुपर्णो वैकुण्ठो धर्मो योगेश्वरोऽमलः ।

 ईश्वरः पुरुषोऽव्यक्तः परमात्मेति गीयते ॥ २३ ॥

 त्रेतायां रक्तवर्णोऽसौ चतुर्बाहुस्त्रिमेखलः ।

 हिरण्यकेशः त्रय्यात्मा स्रुक् स्रुवाद्युपलक्षणः ॥ २४ ॥

 तं तदा मनुजा देवं सर्वदेवमयं हरिम् ।

 यजन्ति विद्यया त्रय्या धर्मिष्ठा ब्रह्मवादिनः ॥ २५ ॥

 विष्णुर्यज्ञः पृश्निगर्भः सर्वदेव उरुक्रमः ।

 वृषाकपिर्जयन्तश्च उरुगाय इतीर्यते ॥ २६ ॥

 द्वापरे भगवान् श्यामः पीतवासा निजायुधः ।

 श्रीवत्सादिभिरङ्कैश्च लक्षणैरुपलक्षितः ॥ २७ ॥

 तं तदा पुरुषं मर्त्या महाराजोपलक्षणम् ।

 यजन्ति वेदतन्त्राभ्यां परं जिज्ञासवो नृप ॥ २८ ॥

 नमस्ते वासुदेवाय नमः सङ्कर्षणाय च ।

 प्रद्युम्नायानिरुद्धाय तुभ्यं भगवते नमः ॥ २९ ॥

 नारायणाय ऋषये पुरुषाय महात्मने ।

 विश्वेश्वराय विश्वाय सर्वभूतात्मने नमः ॥ ३० ॥

 

राजा निमिने पूछा—योगीश्वरो ! आपलोग तो श्रेष्ठ आत्मज्ञानी और भगवान्‌के परमभक्त हैं। कृपा करके यह बतलाइये कि जिनकी कामनाएँ शान्त नहीं हुई हैं, लौकिक-पारलौकिक भोगोंकी लालसा मिटी नहीं है और मन एवं इन्द्रियाँ भी वशमें नहीं हैं तथा जो प्राय: भगवान्‌ का भजन भी नहीं करते, ऐसे लोगोंकी क्या गति होती है ? ॥ १ ॥

अब आठवें योगीश्वर चमस जी ने कहा—राजन् ! विराट् पुरुषके मुखसे सत्त्वप्रधान ब्राह्मण, भुजाओंसे सत्त्व-रजप्रधान क्षत्रिय, जाँघोंसे रज-तमप्रधान वैश्य और चरणोंसे तम:प्रधान शूद्रकी उत्पत्ति हुई है। उन्हींकी जाँघोंसे गृहस्थाश्रम, हृदयसे ब्रह्मचर्य, वक्ष:स्थलसे वानप्रस्थ और मस्तकसे संन्यास—ये चार आश्रम प्रकट हुए हैं। इन चारों वर्णों और आश्रमोंके जन्मदाता स्वयं भगवान्‌ ही हैं। वही इनके स्वामी, नियन्ता और आत्मा भी हैं। इसलिये इन वर्ण और आश्रममें रहनेवाला जो मनुष्य भगवान्‌ का भजन नहीं करता, बल्कि उलटा उनका अनादर करता है, वह अपने स्थान, वर्ण, आश्रम और मनुष्य-योनिसे भी च्युत हो जाता है; उसका अध:पतन हो जाता है ॥ २-३ ॥ बहुत-सी स्त्रियाँ और शूद्र आदि भगवान्‌ की कथा और उनके नामकीर्तन आदिसे कुछ दूर पड़ गये हैं। वे आप-जैसे भगवद्भक्तोंकी दयाके पात्र हैं। आपलोग उन्हें कथा-कीर्तनकी सुविधा देकर उनका उद्धार करें ॥ ४ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जन्मसे, वेदाध्ययनसे तथा यज्ञोपवीत आदि संस्कारों  से भगवान्‌ के चरणोंके निकटतक पहुँच चुके हैं। फिर भी वे वेदोंका असली तात्पर्य न समझकर अर्थवादमें लगकर मोहित हो जाते हैं ॥ ५ ॥ उन्हें कर्मका रहस्य मालूम नहीं है। मूर्ख होनेपर भी वे अपनेको पण्डित मानते हैं और अभिमानमें अकड़े रहते हैं। वे मीठी-मीठी बातोंमें भूल जाते हैं और केवल वस्तु-शून्य शब्द-माधुरीके मोहमें पडक़र चटकीली-भडक़ीली बातें कहा करते हैं ॥ ६ ॥ रजोगुणकी अधिकताके कारण उनके सङ्कल्प बड़े घोर होते हैं। कामनाओंकी तो सीमा ही नहीं रहती, उनका क्रोध भी ऐसा होता है जैसे साँपका, बनावट और घमंडसे उन्हें प्रेम होता है। वे पापीलोग भगवान्‌के प्यारे भक्तोंकी हँसी उड़ाया करते हैं ॥ ७ ॥ वे मूर्ख बड़े-बूढ़ोंकी नहीं, स्त्रियोंकी उपासना करते हैं। यही नहीं, वे परस्पर इकट्ठे होकर उस घर-गृहस्थीके सम्बन्धमें ही बड़े-बड़े मनसूबे बाँधते हैं, जहाँका सबसे बड़ा सुख स्त्री-सहवासमें ही सीमित है। वे यदि कभी यज्ञ भी करते हैं तो अन्न-दान नहीं करते, विधिका उल्लङ्घन करते और दक्षिणातक नहीं देते। वे कर्मका रहस्य न जाननेवाले मूर्ख केवल अपनी जीभको सन्तुष्ट करने और पेटकी भूख मिटाने—शरीरको पुष्ट करनेके लिये बेचारे पशुओंकी हत्या करते हैं ॥ ८ ॥ धन-वैभव, कुलीनता, विद्या, दान, सौन्दर्य, बल और कर्म आदिके घमंडसे अंधे हो जाते हैं तथा वे दुष्ट उन भगवत्प्रेमी संतों तथा ईश्वर  का भी अपमान करते रहते हैं ॥ ९ ॥ राजन् ! वेदोंने इस बातको बार-बार दुहराया है कि भगवान्‌ आकाशके समान नित्य-निरन्तर समस्त शरीरधारियोंमें स्थित हैं। वे ही अपने आत्मा और प्रियतम हैं। परन्तु वे मूर्ख इस वेदवाणीको तो सुनते ही नहीं और केवल बड़े-बड़े मनोरथोंकी बात आपसमें कहते-सुनते रहते हैं ॥ १० ॥ (वेद विधिके रूपमें ऐसे ही कर्मोंके करनेकी आज्ञा देता है कि जिनमें मनुष्यकी स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं होती।) संसारमें देखा जाता है कि मैथुन, मांस और मद्यकी ओर प्राणीकी स्वाभाविक प्रवृति हो जाती है। तब उसे उसमें प्रवृत्त करनेके लिये विधान तो हो ही नहीं सकता। ऐसी स्थितिमें विवाह, यज्ञ और सौत्रामणि यज्ञके द्वारा ही जो उनके सेवनकी व्यवस्था दी गयी है, उसका अर्थ है लोगोंकी उच्छृङ्खल प्रवृत्तिका नियन्त्रण, उनका मर्यादामें स्थापन। वास्तवमें उनकी ओरसे लोगोंको हटाना ही श्रुतिको अभीष्ट है ॥ ११ ॥ धनका एकमात्र फल है धर्म; क्योंकि धर्मसे ही परमतत्त्वका ज्ञान और उसकी निष्ठा—अपरोक्ष अनुभूति सिद्ध होती है, और निष्ठामें ही परम शान्ति है। परन्तु यह कितने खेदकी बात है कि लोग उस धनका उपयोग घर-गृहस्थीके स्वार्थोंमें या कामभोगमें ही करते हैं और यह नहीं देखते कि हमारा यह शरीर मृत्युका शिकार है और वह मृत्यु किसी प्रकार भी टाली नहीं जा सकती ॥ १२ ॥ सौत्रामणि यज्ञमें भी सुरा को सूँघने  का ही विधान है, पीने का नहीं। यज्ञमें पशुका आलभन (स्पर्शमात्र) ही विहित है, हिंसा नहीं। इसी प्रकार अपनी धर्मपत्नीके साथ मैथुनकी आज्ञा भी विषयभोगके लिये नहीं, धार्मिक परम्पराकी रक्षाके निमित्त सन्तान उत्पन्न करनेके लिये ही दी गयी है। परन्तु जो लोग अर्थवादके वचनोंमें फँसे हैं, विषयी हैं, वे अपने इस विशुद्ध धर्मको जानते ही नहीं ॥ १३ ॥ जो इस विशुद्ध धर्मको नहीं जानते, वे घमंडी वास्तवमें तो दुष्ट हैं, परन्तु समझते हैं अपनेको श्रेष्ठ। वे धोखेमें पड़े हुए लोग पशुओंकी हिंसा करते हैं और मरनेके बाद वे पशु ही उन मारनेवालोंको खाते हैं ॥ १४ ॥ यह शरीर मृतक-शरीर है। इसके सम्बन्धी भी इसके साथ ही छूट जाते हैं। जो लोग इस शरीरसे तो प्रेमकी गाँठ बाँध लेते हैं और दूसरे शरीरोंमें रहनेवाले अपने ही आत्मा एवं सर्वशक्तिमान् भगवान्‌से द्वेष करते हैं, उन मूर्खोंका अध:पतन निश्चित है ॥ १५ ॥ जिन लोगोंने आत्मज्ञान सम्पादन करके कैवल्य-मोक्ष नहीं प्राप्त किया है और जो पूरे-पूरे मूढ़ भी नहीं हैं, वे अधूरे न इधरके हैं और न उधरके। वे अर्थ, धर्म, काम—इन तीनों पुरुषार्थोंमें फँसे रहते हैं, एक क्षणके लिये भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती। वे अपने हाथों अपने पैरोंमें कुल्हाड़ी मार रहे हैं। ऐसे ही लोगोंको आत्मघाती कहते हैं ॥ १६ ॥ अज्ञानको ही ज्ञान माननेवाले इन आत्मघातियोंको कभी शान्ति नहीं मिलती, इनके कर्मोंकी परम्परा कभी शान्त नहीं होती। कालभगवान्‌ सदा-सर्वदा इनके मनोरथोंपर पानी फेरते रहते हैं। इनके हृदयकी जलन, विषाद कभी मिटनेका नहीं ॥ १७ ॥ राजन् ! जो लोग अन्तर्यामी भगवान्‌ श्रीकृष्णसे विमुख हैं, वे अत्यन्त परिश्रम करके गृह, पुत्र, मित्र और धन-सम्पत्ति इकट्ठी करते हैं; परन्तु उन्हें अन्तमें सब कुछ छोड़ देना पड़ता है और न चाहनेपर भी विवश होकर घोर नरकमें जाना पड़ता है। (भगवान्‌का भजन न करनेवाले विषयी पुरुषोंकी यही गति होती है) ॥ १८ ॥

राजा निमिने पूछा—योगीश्वरो ! आपलोग कृपा करके यह बतलाइये कि भगवान्‌ किस समय किस रंगका, कौन-सा आकार स्वीकार करते हैं और मनुष्य किन नामों और विधियोंसे उनकी उपासना करते हैं ॥ १९ ॥

अब नवें योगीश्वर करभाजनजीने कहा—राजन् ! चार युग हैं—सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि। इन युगोंमें भगवान्‌के अनेकों रंग, नाम और आकृतियाँ होती हैं तथा विभिन्न विधियोंसे उनकी पूजा की जाती है ॥ २० ॥ सत्ययुगमें भगवान्‌के श्रीविग्रहका रंग होता है श्वेत। उनके चार भुजाएँ और सिरपर जटा होती है, तथा वे वल्कलका ही वस्त्र पहनते हैं। काले मृगका चर्म, यज्ञोपवीत, रुद्राक्षकी माला, दण्ड और कमण्डलु धारण करते हैं ॥ २१ ॥ सत्ययुगके मनुष्य बड़े शान्त,परस्पर वैररहित, सबके हितैषी और समदर्शी होते हैं। वे लोग इन्द्रियों और मनको वशमें रखकर ध्यानरूप तपस्याके द्वारा सबके प्रकाशक परमात्माकी आराधना करते हैं ॥ २२ ॥ वे लोग हंस, सुपर्ण, वैकुण्ठ, धर्म, योगेश्वर, अमल, ईश्वर, पुरुष, अव्यक्त और परमात्मा आदि नामोंके द्वारा भगवान्‌  के गुण, लीला आदिका गान करते हैं ॥ २३ ॥ राजन् ! त्रेतायुगमें भगवान्‌ के श्रीविग्रहका रंग होता है लाल। चार भुजाएँ होती हैं और कटिभागमें वे तीन मेखला धारण करते हैं। उनके केश सुनहले होते हैं और वे वेदप्रतिपादित यज्ञके रूपमें रहकर स्रुक्, स्रुवा आदि यज्ञ-पात्रोंको धारण किया करते हैं ॥ २४ ॥ उस युगके मनुष्य अपने धर्ममें बड़ी निष्ठा रखनेवाले और वेदोंके अध्ययन-अध्यापनमें बड़े प्रवीण होते हैं। वे लोग ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदरूप वेदत्रयीके द्वारा सर्वदेवस्वरूप देवाधिदेव भगवान्‌ श्रीहरिकी आराधना करते हैं ॥ २५ ॥ त्रेतायुगमें अधिकांश लोग, विष्णु, यज्ञ, पृष्निगर्भ, सर्वदेव, उरुक्रम, वृषाकपि, जयन्त और उरुगाय आदि नामोंसे उनके गुण और लीला आदिका कीर्तन करते हैं ॥ २६ ॥ राजन् ! द्वापरयुगमें भगवान्‌के श्रीविग्रहका रंग होता है साँवला। वे पीताम्बर तथा शङ्ख, चक्र, गदा आदि अपने आयुध धारण करते हैं। वक्ष:स्थलपर श्रीवत्सका चिह्न, भृगुलता, कौस्तुभ- मणि आदि लक्षणोंसे वे पहचाने जाते हैं ॥ २७ ॥ राजन् ! उस समय जिज्ञासु मनुष्य महाराजोंके चिह्न छत्र, चँवर आदिसे युक्त परमपुरुष भगवान्‌की वैदिक और तान्त्रिक विधिसे आराधना करते हैं ॥ २८ ॥ वे लोग इस प्रकार भगवान्‌की स्तुति करते हैं—‘हे ज्ञानस्वरूप भगवान्‌ वासुदेव एवं क्रियाशक्तिरूप सङ्कर्षण ! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। भगवान्‌ प्रद्युम्र और अनिरुद्धके रूपमें हम आपको नमस्कार करते हैं। ऋषि नारायण, महात्मा नर, विश्वेश्वर, विश्वरूप और सर्वभूतात्मा भगवान्‌ को हम नमस्कार करते हैं ॥ २९-३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...