॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
भक्तिहीन पुरुषों की गति और भगवान्
की पूजाविधि का वर्णन
इति द्वापर
उर्वीश स्तुवन्ति जगदीश्वरम् ।
नानातन्त्रविधानेन कलावपि तथा श्रृणु ॥ ३१ ॥
कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्र
पार्षदम् ।
यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैः यजन्ति हि सुमेधसः ॥ ३२
॥
ध्येयं सदा
परिभवघ्नमभीष्टदोहं
तीर्थास्पदं शिवविरिञ्चिनुतं शरण्यम् ।
भृत्यार्तिहं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं
वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥ ३३ ॥
त्यक्त्वा सुदुस्त्यजसुरेप्सित राज्यलक्ष्मीं
धर्मिष्ठ आर्यवचसा यदगात् अरण्यम् ।
मायामृगं दयितयेप्सितमन्वधावद्
वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥ ३४ ॥
एवं
युगानुरूपाभ्यां भगवान् युगवर्तिभिः ।
मनुजैरिज्यते राजन् श्रेयसा्मीश्वरो हरिः ॥ ३५ ॥
कलिं सभाजयन्त्यार्या गुणज्ञाः सारभागिनः ।
यत्र सङ्कीर्तनेनैव सर्वस्वार्थोऽभिलभ्यते ॥ ३६
॥
न ह्यतः परमो लाभो देहिनां भ्राम्यतामिह ।
यतो विन्देत परमां शान्तिं नश्यति संसृतिः ॥ ३७
॥
कृतादिषु प्रजा राजन् कलाविच्छन्ति सम्भवम् ।
कलौ खलु भविष्यन्ति नारायणपरायणाः ॥ ३८ ॥
क्वचित् क्वचिन्महाराज द्रविडेषु च भूरिशः ।
ताम्रपर्णी नदी यत्र कृतमाला पयस्विनी ॥ ३९ ॥
कावेरी च महापुण्या प्रतीची च महानदी ।
ये पिबन्ति जलं तासां मनुजा मनुजेश्वर ।
प्रायो भक्ता भगवति वासुदेवेऽमलाशयाः ॥ ४० ॥
देवर्षिभूताप्तनृणां
पितॄणां
न किङ्करो नायमृणी च राजन् ।
सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं
गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम् ॥ ४१ ॥
स्वपादमूलं भजतः प्रियस्य
त्यक्तान्यभावस्य हरिः परेशः ।
विकर्म यच्चोत्पतितं कथञ्चित्
धुनोति सर्वं हृदि सन्निविष्टः ॥ ४२ ॥
श्रीनारद उवाच -
धर्मान्
भागवतानित्थं श्रुत्वाथ मिथिलेश्वरः ।
जायन्तेयान् मुनीन् प्रीतः सोपाध्यायो ह्यपूजयत्
॥ ४३ ॥
ततोऽन्तर्दधिरे सिद्धाः सर्वलोकस्य पश्यतः ।
राजा धर्मानुपातिष्ठन् अवाप परमां गतिम् ॥ ४४ ॥
त्वमप्येतान् महाभाग धर्मान् भागवतान् श्रुतान्
।
आस्थितः श्रद्धया युक्तो निःसङ्गो यास्यसे परम्
॥ ४५ ॥
युवयोः खलु दम्पत्योः यशसा पूरितं जगत् ।
पुत्रतामगमद् यद् वां भगवानीश्वरो हरिः ॥ ४६ ॥
दर्शनालिङ्गनालापैः शयनासनभोजनैः ।
आत्मा वां पावितः कृष्णे पुत्रस्नेहं
प्रकुर्वतोः ॥ ४७ ॥
वैरेण यं
नृपतयः शिशुपालपौण्ड्र-
शाल्वादयो गतिविलास-विलोकनाद्यैः ।
ध्यायन्त आकृतधियः शयनासनादौ
तत्साम्यमापुरनुरक्तधियां पुनः किम् ॥ ४८ ॥
मापत्यबुद्धिमकृथाः
कृष्णे सर्वात्मनीश्वरे ।
मायामनुष्यभावेन गूढैश्वर्ये परेऽव्यये ॥ ४९ ॥
भूभारासुरराजन्य हन्तवे गुप्तये सताम् ।
अवतीर्णस्य निर्वृत्यै यशो लोके वितन्यते ॥ ५० ॥
श्रीशुक उवाच -
एतत्
श्रृत्वा महाभागो वसुदेवोऽतिविस्मितः ।
देवकी च महाभागा जहतुः मोहमात्मनः ॥ ५१ ॥
इतिहासमिमं पुण्यं धारयेद् यः समाहितः ।
स विधूयेह शमलं ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ५२ ॥
राजन् ! द्वापरयुगमें इस प्रकार लोग
जगदीश्वर भगवान्की स्तुति करते हैं। अब कलियुगमें अनेक तन्त्रोंके विधि-विधानसे
भगवान् की जैसी पूजा की जाती है, उसका वर्णन सुनो— ॥ ३१ ॥ कलियुग में भगवान् का श्रीविग्रह होता है कृष्णवर्ण—काले रंगका ।
जैसे नीलम मणिमेंसे उज्ज्वल कान्तिधारा निकलती रहती है,
वैसे ही उनके अङ्ग की छटा भी उज्ज्वल होती है। वे हृदय आदि अङ्ग, कौस्तुभ आदि उपाङ्ग, सुदर्शन आदि अस्त्र और सुनन्द प्रभृति पार्षदोंसे संयुक्त रहते
हैं। कलियुगमें श्रेष्ठ बुद्धिसम्पन्न पुरुष ऐसे यज्ञोंके द्वारा उनकी आराधना करते
हैं जिनमें नाम गुण, लीला
आदिके कीर्तनकी प्रधानता रहती है ॥ ३२ ॥ वे लोग भगवान् की स्तुति इस प्रकार करते
हैं—‘प्रभो आप शरणागत रक्षक हैं। आपके चरणारविन्द सदा-सर्वदा ध्यान करनेयोग्य, माया- मोहके कारण होनेवाले सांसारिक पराजयोंका अन्त कर देनेवाले
तथा भक्तोंकी समस्त अभीष्ट वस्तुओंका दान करनेवाले कामधेनुस्वरूप हैं। वे
तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाले स्वयं परम तीर्थस्वरूप हैं;
शिव, ब्रह्मा
आदि बड़े-बड़े देवता उन्हें नमस्कार करते हैं और चाहे जो कोई उनकी शरणमें आ जाय, उसे स्वीकार कर लेते हैं। सेवकोंकी समस्त आॢत और विपत्तिके नाशक
तथा संसार-सागरसे पार जानेके लिये जहाज हैं। महापुरुष ! मैं आपके उन्हीं
चरणारविन्दोंकी वन्दना करता हूँ ॥ ३३ ॥ भगवन् ! आपके चरणकमलोंकी महिमा कौन कहे ? रामावतारमें अपने पिता दशरथजीके वचनोंसे देवताओंके लिये भी
वाञ्छनीय और दुस्त्यज राज्यलक्ष्मीको छोडक़र आपके चरण-कमल वन-वन घूमते फिरे ! सचमुच
आप धर्मनिष्ठताकी सीमा हैं। और महापुरुष ! अपनी प्रेयसी सीताजीके चाहनेपर
जान-बूझकर आपके चरण-कमल मायामृगके पीछे दौड़ते रहे। सचमुच आप प्रेमकी सीमा हैं।
प्रभो ! मैं आपके उन्हीं चरणारविन्दोंकी वन्दना करता हूँ’ ॥ ३४ ॥
राजन् ! इस प्रकार विभिन्न युगोंके
लोग अपने-अपने युगके अनुरूप नाम-रूपोंद्वारा विभिन्न प्रकारसे भगवान्की आराधना
करते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—सभी पुरुषार्थोंके एकमात्र स्वामी भगवान् श्रीहरि ही हैं ॥
३५ ॥ कलियुगमें केवल सङ्कीर्तनसे ही सारे स्वार्थ और परमार्थ बन जाते हैं। इसलिये
इस युगका गुण जाननेवाले सारग्राही श्रेष्ठ पुरुष कलियुगकी बड़ी प्रशंसा करते हैं, इससे बड़ा प्रेम करते हैं ॥ ३६ ॥ देहाभिमानी जीव संसारचक्रमें
अनादि कालसे भटक रहे हैं। उनके लिये भगवान्की लीला,
गुण और नामके कीर्तनसे बढक़र और कोई परम लाभ नहीं है; क्योंकि इससे संसारमें भटकना मिट जाता है और परम शान्तिका अनुभव
होता है ॥ ३७ ॥ राजन् ! सत्ययुग, त्रेता और द्वापरकी प्रजा चाहती है कि हमारा जन्म कलियुगमें हो; क्योंकि कलियुगमें कहीं-कहीं भगवान् नारायणके शरणागत उन्हींके
आश्रयमें रहनेवाले बहुत-से भक्त उत्पन्न होंगे। महाराज विदेह ! कलियुगमें
द्रविड़देशमें अधिक भक्त पाये जाते हैं; जहाँ ताम्रपर्णी, कृतमाला, पयस्विनी, परम पवित्र कावेरी, महानदी और प्रतीची नामकी नदियाँ बहती हैं। राजन् ! जो मनुष्य इन
नदियोंका जल पीते हैं, प्राय:
उनका अन्त:करण शुद्ध हो जाता है और वे भगवान् वासुदेवके भक्त हो जाते हैं ॥ ३८—४०
॥ राजन् ! जो मनुष्य ‘यह करना बाकी है, वह करना आवश्यक है’—इत्यादि कर्म-वासनाओंका अथवा भेदबुद्धिका
परित्याग करके सर्वात्मभावसे शरणागतवत्सल,
प्रेमके वरदानी भगवान् मुकुन्दकी शरणमें आ गया है, वह देवताओं, ऋषियों, पितरों, प्राणियों, कुटुम्बियों और अतिथियोंके ऋणसे उऋण हो जाता है; वह किसीके अधीन, किसीका सेवक, किसीके बन्धनमें नहीं रहता ॥ ४१ ॥ जो प्रेमी भक्त अपने प्रितयतम
भगवान्के चरणकमलोंका अनन्यभावसे—दूसरी भावनाओं,
आस्थाओं, वृत्तियों और प्रवृत्तियोंको छोडक़र—भजन करता है, उससे, पहली
बात तो यह है कि पापकर्म होते ही नहीं; परन्तु यदि कभी किसी प्रकार हो भी जायँ तो परमपुरुष भगवान्
श्रीहरि उसके हृदयमें बैठकर वह सब धो-बहा देते और उसके हृदयको शुद्ध कर देते हैं ॥
४२ ॥
नारदजी कहते हैं—वसुदेवजी !
मिथिलानरेश राजा निमि नौ योगीश्वरोंसे इस प्रकार भागवतधर्मोंका वर्णन सुनकर बहुत
ही आनन्दित हुए। उन्होंने अपने ऋत्विज् और आचार्योंके साथ ऋषभनन्दन नव
योगीश्वरोंकी पूजा की ॥ ४३ ॥ इसके बाद सब लोगोंके सामने ही वे सिद्ध अन्तर्धान हो
गये। विदेहराज निमिने उनसे सुने हुए भागवतधर्मोंका आचरण किया और परमगति प्राप्त की
॥ ४४ ॥ महाभाग्यवान् वसुदेवजी ! मैंने तुम्हारे आगे जिन भागवतधर्मोंका वर्णन किया
है, तुम भी यदि श्रद्धाके साथ इनका आचरण करोगे तो अन्तमें सब
आसक्तियोंसे छूटकर भगवान्का परमपद प्राप्त कर लोगे ॥ ४५ ॥ वसुदेवजी ! तुम्हारे और
देवकीके यशसे तो सारा जगत् भरपूर हो रहा है;
क्योंकि सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारे पुत्रके रूपमें
अवतीर्ण हुए हैं ॥ ४६ ॥ तुमलोगोंने भगवान्के दर्शन,
आलिङ्गन तथा बातचीत करने एवं उन्हें सुलाने, बैठाने, खिलाने आदिके द्वारा वात्सल्य-स्नेह करके अपना हृदय शुद्ध कर लिया
है; तुम परम पवित्र हो गये हो ॥ ४७ ॥ वसुदेवजी ! शिशुपाल, पौण्ड्रक और शाल्व आदि राजाओंने तो वैरभावसे श्रीकृष्णकी चाल-ढाल, लीला-विलास, चितवन-बोलन आदिका स्मरण किया था। वह भी नियमानुसार नहीं, सोते, बैठते, चलते-फिरते—स्वाभाविकरूपसे ही। फिर भी उनकी चित्तवृत्ति
श्रीकृष्णाकार हो गयी और वे सारूप्य-मुक्तिके अधिकारी हुए। फिर जो लोग प्रेमभाव और
अनुरागसे श्रीकृष्णका चिन्तन करते हैं, उन्हें श्रीकृष्णकी प्राप्ति होनेमें कोई सन्देह है क्या ? ॥ ४८ ॥ वसुदेवजी ! तुम श्रीकृष्णको केवल अपना पुत्र ही मत समझो। वे
सर्वात्मा, सर्वेश्वर, कारणातीत और अविनाशी हैं। उन्होंने लीलाके लिये मनुष्यरूप प्रकट
करके अपना ऐश्वर्य छिपा रखा है ॥ ४९ ॥ वे पृथ्वीके भारभूत राजवेषधारी असुरोंका नाश
और संतोंकी रक्षा करनेके लिये तथा जीवोंको परम शान्ति और मुक्ति देनेके लिये ही
अवतीर्ण हुए हैं और इसीके लिये जगत् में उनकी कीर्ति भी गायी जाती है ॥ ५० ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय
परीक्षित् ! नारदजीके मुखसे यह सब सुनकर परम भाग्यवान् वसुदेवजी और परम भाग्यवती
देवकीजीको बड़ा ही विस्मय हुआ। उनमें जो कुछ माया-मोह अवशेष था, उसे उन्होंने तत्क्षण छोड़ दिया ॥ ५१ ॥ राजन् ! यह इतिहास परम
पवित्र है। जो एकाग्रचित्तसे इसे धारण करता है,
वह अपना सारा शोक-मोह दूर करके ब्रह्मपदको प्राप्त होता है ॥ ५२ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
एकादशस्कन्धे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से