॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि
साधनों का वर्णन
भक्तियोगः
पुरैवोक्तः प्रीयमाणाय तेऽनघ
पुनश्च
कथयिष्यामि मद्भक्तेः कारणं परं १९
श्रद्धामृतकथायां
मे शश्वन्मदनुकीर्तनम्
परिनिष्ठा
च पूजायां स्तुतिभिः स्तवनं मम २०
आदरः
परिचर्यायां सर्वाङ्गैरभिवन्दनम्
मद्भक्तपूजाभ्यधिका
सर्वभूतेषु मन्मतिः २१
मदर्थेष्वङ्गचेष्टा
च वचसा मद्गुणेरणम्
मय्यर्पणं
च मनसः सर्वकामविवर्जनम् २२
मदर्थेऽर्थपरित्यागो
भोगस्य च सुखस्य च
इष्टं
दत्तं हुतं जप्तं मदर्थं यद्व्रतं तपः २३
एवं
धर्मैर्मनुष्याणामुद्धवात्मनिवेदिनाम्
मयि
सञ्जायते भक्तिः कोऽन्योऽर्थोऽस्यावशिष्यते २४
यदात्मन्यर्पितं
चित्तं शान्तं सत्त्वोपबृंहितम्
धर्मं
ज्ञानं स वैराग्यमैश्वर्यं चाभिपद्यते २५
यदर्पितं
तद्विकल्पे इन्द्रियैः परिधावति
रजस्वलं
चासन्निष्ठं चित्तं विद्धि विपर्ययम् २६
धर्मो
मद्भक्तिकृत्प्रोक्तो ज्ञानं चैकात्म्यदर्शनम्
गुणेस्वसङ्गो
वैराग्यमैश्वर्यं चाणिमादयः २७
श्रीउद्धव
उवाच
यमः
कतिविधः प्रोक्तो नियमो वारिकर्षण।
कः
शमः को दमः कृष्ण का तितिक्षा धृतिः प्रभो।। २८
किं
दानं किं तपः शौर्यं किं सत्यमृतमुच्यते।
कस्त्यागः
किं धनं चेष्टं को यज्ञः का च दक्षिणा ।। २९
पुंसः
किं स्विद्बलं श्रीमन् भगो लाभश्च केशव।
का
विद्या ह्रीः परा का श्रीः किं सुखं दुःखमेव च।। ३०
कः
पण्डितः कश्च मूर्खः कः पन्था उत्पथश्च कः।
कः
स्वर्गो नरकः कः स्वित् को बन्धुरुत किं गृहम्।। ३१
आढ्यः
को दरिद्रो वा कृपणः कः क ईश्वरः ।
एतान्प्रश्नान्मम
ब्रूहि विपरीतांश्च सत्पते।। ३२
श्रीभगवानुवाच
अहिंसा
सत्यमस्तेयमसङ्गो ह्रीरसञ्चयः
आस्तिक्यं
ब्रह्मचर्यं च मौनं स्थैर्यं क्षमाभयम् ३३
शौचं
जपस्तपो होमः श्रद्धातिथ्यं मदर्चनम्
तीर्थाटनं
परार्थेहा तुष्टिराचार्यसेवनम् ३४
एते
यमाः सनियमा उभयोर्द्वादश स्मृताः
पुंसामुपासितास्तात
यथाकामं दुहन्ति हि ३५
शमो
मन्निष्ठता बुद्धेर्दम इन्द्रियसंयमः
तितिक्षा
दुःखसम्मर्षो जिह्वोपस्थजयो धृतिः ३६
दण्डन्यासः
परं दानं कामत्यागस्तपः स्मृतम्
स्वभावविजयः
शौर्यं सत्यं च समदर्शनम् ३७
अन्यच्च
सुनृता वाणी कविभिः परिकीर्तिता
कर्मस्वसङ्गमः
शौचं त्यागः सन्न्यास उच्यते ३८
धर्म
इष्टं धनं नॄणां यज्ञोऽहं भगवत्तमः
दक्षिणा
ज्ञानसन्देशः प्राणायामः परं बलम् ३९
भगो
म ऐश्वरो भावो लाभो मद्भक्तिरुत्तमः
विद्यात्मनि
भिदाबाधो जुगुप्सा ह्रीरकर्मसु ४०
श्रीर्गुणा
नैरपेक्ष्याद्याः सुखं दुःखसुखात्ययः
दुःखं
कामसुखापेक्षा पण्डितो बन्धमोक्षवित् ४१
मूर्खो
देहाद्यहंबुद्धिः पन्था मन्निगमः स्मृतः
उत्पथश्चित्तविक्षेपः
स्वर्गः सत्त्वगुणोदयः ४२
नरकस्तमउन्नाहो
बन्धुर्गुरुरहं सखे
गृहं
शरीरं मानुष्यं गुणाढ्यो ह्याढ्य उच्यते ४३
दरिद्रो
यस्त्वसन्तुष्टः कृपणो योऽजितेन्द्रियः
गुणेष्वसक्तधीरीशो
गुणसङ्गो विपर्ययः ४४
एत
उद्धव ते प्रश्नाः सर्वे साधु निरूपिताः
किं
वर्णितेन बहुना लक्षणं गुणदोषयोः
गुणदोषदृशिर्दोषो
गुणस्तूभयवर्जितः ४५
निष्पाप उद्धवजी ! भक्तियोगका वर्णन
मैं तुम्हें पहले ही सुना चुका हूँ; परन्तु उसमें तुम्हारी बहुत प्रीति है,
इसलिये मैं तुम्हें फिरसे भक्ति प्राप्त होनेका श्रेष्ठ साधन
बतलाता हूँ ॥ १९ ॥ जो मेरी भक्ति प्राप्त करना चाहता हो,
वह मेरी अमृतमयी कथामें श्रद्धा रखे;
निरन्तर मेरे गुण-लीला और नामोंका सङ्कीर्तन करे; मेरी पूजामें अत्यन्त निष्ठा रखे और स्तोत्रोंके द्वारा मेरी
स्तुति करे ॥ २० ॥ मेरी सेवा-पूजामें प्रेम रखे और सामने साष्टाङ्ग लोटकर प्रणाम
करे; मेरे भक्तोंकी पूजा मेरी पूजासे बढक़र करे और समस्त प्राणियोंमें
मुझे ही देखे ॥ २१ ॥ अपने एक-एक अङ्गकी चेष्टा केवल मेरे ही लिये करे, वाणीसे मेरे ही गुणोंका गान करे और अपना मन भी मुझे ही अर्पित कर
दे तथा सारी कामनाएँ छोड़ दे ॥ २२ ॥ मेरे लिये धन,
भोग और प्राप्त सुखका भी परित्याग कर दे और जो कुछ यज्ञ, दान, हवन, जप, व्रत
और तप किया जाय, वह सब मेरे लिये ही करे ॥ २३ ॥ उद्धवजी ! जो मनुष्य इन धर्मोंका
पालन करते हैं और मेरे प्रति आत्म-निवेदन कर देते हैं,
उनके हृदयमें मेरी प्रेममयी भक्तिका उदय होता है और जिसे मेरी
भक्ति प्राप्त हो गयी, उसके
लिये और किस दूसरी वस्तुका प्राप्त होना शेष रह जाता है?
॥ २४ ॥
इस प्रकारके धर्मोंका पालन करनेसे
चित्तमें जब सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है और वह शान्त होकर आत्मामें लग जाता है; उस समय साधकको धर्म, ज्ञान, वैराग्य
और ऐश्वर्य स्वयं ही प्राप्त हो जाते हैं ॥ २५ ॥ यह संसार विविध कल्पनाओंसे भरपूर
है। सच पूछो तो इसका नाम तो है, किन्तु कोई वस्तु नहीं है। जब चित्त इसमें लगा दिया जाता है, तब इन्द्रियोंके साथ इधर-उधर भटकने लगता है। इस प्रकार चित्तमें
रजोगुणकी बाढ़ आ जाती है, वह असत् वस्तुमें लग जाता है और उसके धर्म,
ज्ञान आदि तो लुप्त हो ही जाते हैं,
वह अधर्म, अज्ञान और मोहका भी घर बन जाता है ॥ २६ ॥ उद्धव ! जिससे मेरी भक्ति
हो, वही धर्म है; जिससे ब्रह्म और आत्माकी एकताका साक्षात्कार हो, वही ज्ञान है; विषयोंसे असङ्ग—निर्लेप रहना ही वैराग्य है और अणिमादि सिद्धियाँ
ही ऐश्वर्य हैं ॥ २७ ॥
उद्धवजीने कहा—रिपुसूदन ! यम और नियम
कितने प्रकारके हैं ? श्रीकृष्ण
! शम क्या है ? दम क्या है ? प्रभो ! तितिक्षा और धैर्य क्या है ?
॥ २८ ॥ आप मुझे दान, तपस्या, शूरता, सत्य
और ऋतका भी स्वरूप बतलाइये। त्याग क्या है ?
अभीष्ट धन कौन-सा है ? यज्ञ किसे कहते हैं ? और दक्षिणा क्या वस्तु है ?
॥ २९ ॥ श्रीमान् केशव ! पुरुषका सच्चा बल क्या है ? भग किसे कहते हैं ? और लाभ क्या वस्तु है ? उत्तम विद्या, लज्जा, श्री
तथा सुख और दु:ख क्या है ? ॥ ३० ॥ पण्डित और मूर्खके लक्षण क्या हैं ?
सुमार्ग और कुमार्गका क्या लक्षण है ?
स्वर्ग और नरक क्या हैं ? भाई-बन्धु किसे मानना चाहिये ?
और घर क्या है ? ॥ ३१ ॥ धनवान् और निर्धन किसे कहते हैं ?
कृपण कौन है ? और ईश्वर किसे कहते हैं ? भक्तवत्सल प्रभो ! आप मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दीजिये और साथ ही
इनके विरोधी भावोंकी भी व्याख्या कीजिये ॥ ३२ ॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘यम’ बारह
हैं— अहिंसा, सत्य, अस्तेय
(चोरी न करना), असङ्गता, लज्जा, असञ्चय
(आवश्यकतासे अधिक धन आदि न जोडऩा), आस्तिकता, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा और अभय। नियमोंकी संख्या भी बारह ही है। शौच (बाहरी पवित्रता
और भीतरी पवित्रता), जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथिसेवा, मेरी पूजा, तीर्थयात्रा, परोपकारकी चेष्टा, सन्तोष और गुरुसेवा—इस प्रकार ‘यम’ और ‘नियम’ दोनोंकी संख्या
बारह-बारह हैं। ये सकाम और निष्काम दोनों प्रकारके साधकोंके लिये उपयोगी हैं।
उद्धवजी ! जो पुरुष इनका पालन करते हैं, वे यम और नियम उनके इच्छानुसार उन्हें भोग और मोक्ष दोनों प्रदान
करते हैं ॥ ३३—३५ ॥ बुद्धिका मुझमें लग जाना ही ‘शम’ है। इन्द्रियोंके संयमका नाम
‘दम’ है। न्यायसे प्राप्त दु:खके सहनेका नाम ‘तितिक्षा’ है। जिह्वा और
जननेन्द्रियपर विजय प्राप्त करना ‘धैर्य’ है ॥ ३६ ॥ किसीसे द्रोह न करना सबको अभय
देना ‘दान’ है। कामनाओंका त्याग करना ही ‘तप’ है। अपनी वासनाओंपर विजय प्राप्त
करना ही ‘शूरता’ है। सर्वत्र समस्वरूप, सत्यस्वरूप परमात्माका दर्शन ही ‘सत्य’ है ॥ ३७ ॥ इसी प्रकार सत्य
और मधुर भाषणको ही महात्माओंने ‘ऋत’ कहा है। कर्मोंमें आसक्त न होना ही ‘शौच’ है।
कामनाओंका त्याग ही सच्चा ‘संन्यास’ है ॥ ३८ ॥ धर्म ही मनुष्योंका अभीष्ट ‘धन’ है।
मैं परमेश्वर ही ‘यज्ञ’ हूँ। ज्ञानका उपदेश देना ही ‘दक्षिणा’ है। प्राणायाम ही
श्रेष्ठ ‘बल’ है ॥ ३९ ॥ मेरा ऐश्वर्य ही ‘भग’ है,
मेरी श्रेष्ठ भक्ति ही उत्तम ‘लाभ’ है,
सच्ची ‘विद्या’ वही है जिससे ब्रह्म और आत्माका भेद मिट जाता है।
पाप करनेसे घृणा होनेका नाम ही ‘लज्जा’ है ॥ ४० ॥ निरपेक्षता आदि गुण ही शरीरका
सच्चा सौन्दर्य—‘श्री’ है, दु:ख और सुख दोनोंकी भावनाका सदाके लिये नष्ट हो जाना ही ‘सुख’ है।
विषयभोगोंकी कामना ही दु:ख है। जो बन्धन और मोक्षका तत्त्व जानता है, वही ‘पण्डित’ है ॥ ४१ ॥ शरीर आदिमें जिसका मैंपन है, वही ‘मूर्ख’ है। जो संसारकी ओरसे निवृत्त करके मुझे प्राप्त करा
देता है, वही सच्चा ‘सुमार्ग’ है। चित्तकी बहिर्मुखता ही ‘कुमार्ग’ है।
सत्त्वगुणकी वृद्धि ही ‘स्वर्ग’ और सखे ! तमोगुणकी वृद्धि ही ‘नरक’ है। गुरु ही
सच्चा ‘भाई-बन्धु’ है और वह गुरु मैं हूँ। यह मनुष्य-शरीर ही सच्चा ‘घर’ है तथा
सच्चा ‘धनी’ वह है, जो
गुणोंसे सम्पन्न है, जिसके
पास गुणोंका खजाना है ॥ ४२-४३ ॥ जिसके चित्तमें असन्तोष है, अभावका बोध है, वही ‘दरिद्र’ है। जो जितेन्द्रिय नहीं है,
वही ‘कृपण’ है। समर्थ, स्वतन्त्र और ‘ईश्वर’ वह है,
जिसकी चित्तवृत्ति विषयोंमें आसक्त नहीं है। इसके विपरीत जो
विषयोंमें आसक्त है, वही
सर्वथा ‘असमर्थ’ है ॥ ४४ ॥ प्यारे उद्धव ! तुमने जितने प्रश्न पूछे थे,
उनका उत्तर मैंने दे दिया;
इनको समझ लेना मोक्ष-मार्गके लिये सहायक है। मैं तुम्हें गुण और
दोषोंका लक्षण अलग-अलग कहाँतक बताऊँ ? सबका सारांश इतनेमें ही समझ लो कि गुणों और दोषोंपर दृष्टि जाना ही
सबसे बड़ा दोष है और गुणदोषोंपर दृष्टि न जाकर अपने शान्त नि:सङ्कल्प स्वरूपमें
स्थित रहे—वही सबसे बड़ा गुण है ॥ ४५ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से