मंगलवार, 30 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनों का वर्णन

 

भक्तियोगः पुरैवोक्तः प्रीयमाणाय तेऽनघ

पुनश्च कथयिष्यामि मद्भक्तेः कारणं परं १९

श्रद्धामृतकथायां मे शश्वन्मदनुकीर्तनम्

परिनिष्ठा च पूजायां स्तुतिभिः स्तवनं मम २०

आदरः परिचर्यायां सर्वाङ्गैरभिवन्दनम्

मद्भक्तपूजाभ्यधिका सर्वभूतेषु मन्मतिः २१

मदर्थेष्वङ्गचेष्टा च वचसा मद्गुणेरणम्

मय्यर्पणं च मनसः सर्वकामविवर्जनम् २२

मदर्थेऽर्थपरित्यागो भोगस्य च सुखस्य च

इष्टं दत्तं हुतं जप्तं मदर्थं यद्व्रतं तपः २३

एवं धर्मैर्मनुष्याणामुद्धवात्मनिवेदिनाम्

मयि सञ्जायते भक्तिः कोऽन्योऽर्थोऽस्यावशिष्यते २४

यदात्मन्यर्पितं चित्तं शान्तं सत्त्वोपबृंहितम्

धर्मं ज्ञानं स वैराग्यमैश्वर्यं चाभिपद्यते २५

यदर्पितं तद्विकल्पे इन्द्रियैः परिधावति

रजस्वलं चासन्निष्ठं चित्तं विद्धि विपर्ययम् २६

धर्मो मद्भक्तिकृत्प्रोक्तो ज्ञानं चैकात्म्यदर्शनम्

गुणेस्वसङ्गो वैराग्यमैश्वर्यं चाणिमादयः २७

 

श्रीउद्धव उवाच

यमः कतिविधः प्रोक्तो नियमो वारिकर्षण।

कः शमः को दमः कृष्ण का तितिक्षा धृतिः प्रभो।। २८

किं दानं किं तपः शौर्यं किं सत्यमृतमुच्यते।

कस्त्यागः किं धनं चेष्टं को यज्ञः का च दक्षिणा ।। २९

पुंसः किं स्विद्बलं श्रीमन् भगो लाभश्च केशव।

का विद्या ह्रीः परा का श्रीः किं सुखं दुःखमेव च।। ३०

कः पण्डितः कश्च मूर्खः कः पन्था उत्पथश्च कः।

कः स्वर्गो नरकः कः स्वित् को बन्धुरुत किं गृहम्।। ३१

आढ्यः को दरिद्रो वा कृपणः कः क ईश्वरः ।

एतान्प्रश्नान्मम ब्रूहि विपरीतांश्च सत्पते।। ३२

 

श्रीभगवानुवाच

अहिंसा सत्यमस्तेयमसङ्गो ह्रीरसञ्चयः

आस्तिक्यं ब्रह्मचर्यं च मौनं स्थैर्यं क्षमाभयम् ३३

शौचं जपस्तपो होमः श्रद्धातिथ्यं मदर्चनम्

तीर्थाटनं परार्थेहा तुष्टिराचार्यसेवनम् ३४

एते यमाः सनियमा उभयोर्द्वादश स्मृताः

पुंसामुपासितास्तात यथाकामं दुहन्ति हि ३५

शमो मन्निष्ठता बुद्धेर्दम इन्द्रियसंयमः

तितिक्षा दुःखसम्मर्षो जिह्वोपस्थजयो धृतिः ३६

दण्डन्यासः परं दानं कामत्यागस्तपः स्मृतम्

स्वभावविजयः शौर्यं सत्यं च समदर्शनम् ३७

अन्यच्च सुनृता वाणी कविभिः परिकीर्तिता

कर्मस्वसङ्गमः शौचं त्यागः सन्न्यास उच्यते ३८

धर्म इष्टं धनं नॄणां यज्ञोऽहं भगवत्तमः

दक्षिणा ज्ञानसन्देशः प्राणायामः परं बलम् ३९

भगो म ऐश्वरो भावो लाभो मद्भक्तिरुत्तमः

विद्यात्मनि भिदाबाधो जुगुप्सा ह्रीरकर्मसु ४०

श्रीर्गुणा नैरपेक्ष्याद्याः सुखं दुःखसुखात्ययः

दुःखं कामसुखापेक्षा पण्डितो बन्धमोक्षवित् ४१

मूर्खो देहाद्यहंबुद्धिः पन्था मन्निगमः स्मृतः

उत्पथश्चित्तविक्षेपः स्वर्गः सत्त्वगुणोदयः ४२

नरकस्तमउन्नाहो बन्धुर्गुरुरहं सखे

गृहं शरीरं मानुष्यं गुणाढ्यो ह्याढ्य उच्यते ४३

दरिद्रो यस्त्वसन्तुष्टः कृपणो योऽजितेन्द्रियः

गुणेष्वसक्तधीरीशो गुणसङ्गो विपर्ययः ४४

एत उद्धव ते प्रश्नाः सर्वे साधु निरूपिताः

किं वर्णितेन बहुना लक्षणं गुणदोषयोः

गुणदोषदृशिर्दोषो गुणस्तूभयवर्जितः ४५

 

निष्पाप उद्धवजी ! भक्तियोगका वर्णन मैं तुम्हें पहले ही सुना चुका हूँ; परन्तु उसमें तुम्हारी बहुत प्रीति है, इसलिये मैं तुम्हें फिरसे भक्ति प्राप्त होनेका श्रेष्ठ साधन बतलाता हूँ ॥ १९ ॥ जो मेरी भक्ति प्राप्त करना चाहता हो, वह मेरी अमृतमयी कथामें श्रद्धा रखे; निरन्तर मेरे गुण-लीला और नामोंका सङ्कीर्तन करे; मेरी पूजामें अत्यन्त निष्ठा रखे और स्तोत्रोंके द्वारा मेरी स्तुति करे ॥ २० ॥ मेरी सेवा-पूजामें प्रेम रखे और सामने साष्टाङ्ग लोटकर प्रणाम करे; मेरे भक्तोंकी पूजा मेरी पूजासे बढक़र करे और समस्त प्राणियोंमें मुझे ही देखे ॥ २१ ॥ अपने एक-एक अङ्गकी चेष्टा केवल मेरे ही लिये करे, वाणीसे मेरे ही गुणोंका गान करे और अपना मन भी मुझे ही अर्पित कर दे तथा सारी कामनाएँ छोड़ दे ॥ २२ ॥ मेरे लिये धन, भोग और प्राप्त सुखका भी परित्याग कर दे और जो कुछ यज्ञ, दान, हवन, जप, व्रत और तप किया जाय, वह सब मेरे लिये ही करे ॥ २३ ॥ उद्धवजी ! जो मनुष्य इन धर्मोंका पालन करते हैं और मेरे प्रति आत्म-निवेदन कर देते हैं, उनके हृदयमें मेरी प्रेममयी भक्तिका उदय होता है और जिसे मेरी भक्ति प्राप्त हो गयी, उसके लिये और किस दूसरी वस्तुका प्राप्त होना शेष रह जाता है? ॥ २४ ॥

इस प्रकारके धर्मोंका पालन करनेसे चित्तमें जब सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है और वह शान्त होकर आत्मामें लग जाता है; उस समय साधकको धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य स्वयं ही प्राप्त हो जाते हैं ॥ २५ ॥ यह संसार विविध कल्पनाओंसे भरपूर है। सच पूछो तो इसका नाम तो है, किन्तु कोई वस्तु नहीं है। जब चित्त इसमें लगा दिया जाता है, तब इन्द्रियोंके साथ इधर-उधर भटकने लगता है। इस प्रकार चित्तमें रजोगुणकी बाढ़ आ जाती है, वह असत् वस्तुमें लग जाता है और उसके धर्म, ज्ञान आदि तो लुप्त हो ही जाते हैं, वह अधर्म, अज्ञान और मोहका भी घर बन जाता है ॥ २६ ॥ उद्धव ! जिससे मेरी भक्ति हो, वही धर्म है; जिससे ब्रह्म और आत्माकी एकताका साक्षात्कार हो, वही ज्ञान है; विषयोंसे असङ्ग—निर्लेप रहना ही वैराग्य है और अणिमादि सिद्धियाँ ही ऐश्वर्य हैं ॥ २७ ॥

उद्धवजीने कहा—रिपुसूदन ! यम और नियम कितने प्रकारके हैं ? श्रीकृष्ण ! शम क्या है ? दम क्या है ? प्रभो ! तितिक्षा और धैर्य क्या है ? ॥ २८ ॥ आप मुझे दान, तपस्या, शूरता, सत्य और ऋतका भी स्वरूप बतलाइये। त्याग क्या है ? अभीष्ट धन कौन-सा है ? यज्ञ किसे कहते हैं ? और दक्षिणा क्या वस्तु है ? ॥ २९ ॥ श्रीमान् केशव ! पुरुषका सच्चा बल क्या है ? भग किसे कहते हैं ? और लाभ क्या वस्तु है ? उत्तम विद्या, लज्जा, श्री तथा सुख और दु:ख क्या है ? ॥ ३० ॥ पण्डित और मूर्खके लक्षण क्या हैं ? सुमार्ग और कुमार्गका क्या लक्षण है ? स्वर्ग और नरक क्या हैं ? भाई-बन्धु किसे मानना चाहिये ? और घर क्या है ? ॥ ३१ ॥ धनवान् और निर्धन किसे कहते हैं ? कृपण कौन है ? और ईश्वर किसे कहते हैं ? भक्तवत्सल प्रभो ! आप मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दीजिये और साथ ही इनके विरोधी भावोंकी भी व्याख्या कीजिये ॥ ३२ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘यम’ बारह हैं— अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), असङ्गता, लज्जा, असञ्चय (आवश्यकतासे अधिक धन आदि न जोडऩा), आस्तिकता, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा और अभय। नियमोंकी संख्या भी बारह ही है। शौच (बाहरी पवित्रता और भीतरी पवित्रता), जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथिसेवा, मेरी पूजा, तीर्थयात्रा, परोपकारकी चेष्टा, सन्तोष और गुरुसेवा—इस प्रकार ‘यम’ और ‘नियम’ दोनोंकी संख्या बारह-बारह हैं। ये सकाम और निष्काम दोनों प्रकारके साधकोंके लिये उपयोगी हैं। उद्धवजी ! जो पुरुष इनका पालन करते हैं, वे यम और नियम उनके इच्छानुसार उन्हें भोग और मोक्ष दोनों प्रदान करते हैं ॥ ३३—३५ ॥ बुद्धिका मुझमें लग जाना ही ‘शम’ है। इन्द्रियोंके संयमका नाम ‘दम’ है। न्यायसे प्राप्त दु:खके सहनेका नाम ‘तितिक्षा’ है। जिह्वा और जननेन्द्रियपर विजय प्राप्त करना ‘धैर्य’ है ॥ ३६ ॥ किसीसे द्रोह न करना सबको अभय देना ‘दान’ है। कामनाओंका त्याग करना ही ‘तप’ है। अपनी वासनाओंपर विजय प्राप्त करना ही ‘शूरता’ है। सर्वत्र समस्वरूप, सत्यस्वरूप परमात्माका दर्शन ही ‘सत्य’ है ॥ ३७ ॥ इसी प्रकार सत्य और मधुर भाषणको ही महात्माओंने ‘ऋत’ कहा है। कर्मोंमें आसक्त न होना ही ‘शौच’ है। कामनाओंका त्याग ही सच्चा ‘संन्यास’ है ॥ ३८ ॥ धर्म ही मनुष्योंका अभीष्ट ‘धन’ है। मैं परमेश्वर ही ‘यज्ञ’ हूँ। ज्ञानका उपदेश देना ही ‘दक्षिणा’ है। प्राणायाम ही श्रेष्ठ ‘बल’ है ॥ ३९ ॥ मेरा ऐश्वर्य ही ‘भग’ है, मेरी श्रेष्ठ भक्ति ही उत्तम ‘लाभ’ है, सच्ची ‘विद्या’ वही है जिससे ब्रह्म और आत्माका भेद मिट जाता है। पाप करनेसे घृणा होनेका नाम ही ‘लज्जा’ है ॥ ४० ॥ निरपेक्षता आदि गुण ही शरीरका सच्चा सौन्दर्य—‘श्री’ है, दु:ख और सुख दोनोंकी भावनाका सदाके लिये नष्ट हो जाना ही ‘सुख’ है। विषयभोगोंकी कामना ही दु:ख है। जो बन्धन और मोक्षका तत्त्व जानता है, वही ‘पण्डित’ है ॥ ४१ ॥ शरीर आदिमें जिसका मैंपन है, वही ‘मूर्ख’ है। जो संसारकी ओरसे निवृत्त करके मुझे प्राप्त करा देता है, वही सच्चा ‘सुमार्ग’ है। चित्तकी बहिर्मुखता ही ‘कुमार्ग’ है। सत्त्वगुणकी वृद्धि ही ‘स्वर्ग’ और सखे ! तमोगुणकी वृद्धि ही ‘नरक’ है। गुरु ही सच्चा ‘भाई-बन्धु’ है और वह गुरु मैं हूँ। यह मनुष्य-शरीर ही सच्चा ‘घर’ है तथा सच्चा ‘धनी’ वह है, जो गुणोंसे सम्पन्न है, जिसके पास गुणोंका खजाना है ॥ ४२-४३ ॥ जिसके चित्तमें असन्तोष है, अभावका बोध है, वही ‘दरिद्र’ है। जो जितेन्द्रिय नहीं है, वही ‘कृपण’ है। समर्थ, स्वतन्त्र और ‘ईश्वर’ वह है, जिसकी चित्तवृत्ति विषयोंमें आसक्त नहीं है। इसके विपरीत जो विषयोंमें आसक्त है, वही सर्वथा ‘असमर्थ’ है ॥ ४४ ॥ प्यारे उद्धव ! तुमने जितने प्रश्न पूछे थे, उनका उत्तर मैंने दे दिया; इनको समझ लेना मोक्ष-मार्गके लिये सहायक है। मैं तुम्हें गुण और दोषोंका लक्षण अलग-अलग कहाँतक बताऊँ ? सबका सारांश इतनेमें ही समझ लो कि गुणों और दोषोंपर दृष्टि जाना ही सबसे बड़ा दोष है और गुणदोषोंपर दृष्टि न जाकर अपने शान्त नि:सङ्कल्प स्वरूपमें स्थित रहे—वही सबसे बड़ा गुण है ॥ ४५ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनों का वर्णन

 

श्रीभगवानुवाच

यो विद्याश्रुतसम्पन्नः आत्मवान्नानुमानिकः

मायामात्रमिदं ज्ञात्वा ज्ञानं च मयि सन्न्यसेत् १

ज्ञानिनस्त्वहमेवेष्टः स्वार्थो हेतुश्च सम्मतः

स्वर्गश्चैवापवर्गश्च नान्योऽर्थो मदृते प्रियः २

ज्ञानविज्ञानसंसिद्धाः पदं श्रेष्ठं विदुर्मम

ज्ञानी प्रियतमोऽतो मे ज्ञानेनासौ बिभर्ति माम् ३

तपस्तीर्थं जपो दानं पवित्राणीतराणि च

नालं कुर्वन्ति तां सिद्धिं या ज्ञानकलया कृता ४

तस्माज्ज्ञानेन सहितं ज्ञात्वा स्वात्मानमुद्धव

ज्ञानविज्ञानसम्पन्नो भज मां भक्तिभावतः ५

ज्ञानविज्ञानयज्ञेन मामिष्ट्वात्मानमात्मनि

सर्वयज्ञपतिं मां वै संसिद्धिं मुनयोऽगमन् ६

त्वय्युद्धवाश्रयति यस्त्रिविधो विकारो

मायान्तरापतति नाद्यपवर्गयोर्यत्

जन्मादयोऽस्य यदमी तव तस्य किं स्युर्

आद्यन्तयोर्यदसतोऽस्ति तदेव मध्ये ७

 

श्रीउद्धव उवाच

ज्ञानं विशुद्धं विपुलं यथैत-

द्वैराग्यविज्ञानयुतं पुराणम्

आख्याहि विश्वेश्वर विश्वमूर्ते

त्वद्भक्तियोगं च महद्विमृग्यम् ८

तापत्रयेणाभिहतस्य घोरे

सन्तप्यमानस्य भवाध्वनीश

पश्यामि नान्यच्छरणं तवाङ्घ्रि

द्वन्द्वातपत्रादमृताभिवर्षात् ९

दष्टं जनं सम्पतितं बिलेऽस्मिन्

कालाहिना क्षुद्र सुखोरुतर्षम्

समुद्धरैनं कृपयापवर्ग्यै-

र्वचोभिरासिञ्च महानुभाव १०

 

श्रीभगवानुवाच

इत्थमेतत्पुरा राजा भीष्मं धर्मभृतां वरम्

अजातशत्रुः पप्रच्छ सर्वेषां नोऽनुशृण्वताम् ११

निवृत्ते भारते युद्धे सुहृन्निधनविह्वलः

श्रुत्वा धर्मान्बहून्पश्चान्मोक्षधर्मानपृच्छत १२

तानहं तेऽभिधास्यामि देवव्रतमुखाच्छ्रुतान्

ज्ञानवैराग्यविज्ञान श्रद्धाभक्त्युपबृंहितान् १३

नवैकादश पञ्च त्रीन्भावान्भूतेषु येन वै

ईक्षेताथैकमप्येषु तज्ज्ञानं मम निश्चितम् १४

एतदेव हि विज्ञानं न तथैकेन येन यत्

स्थित्युत्पत्त्यप्ययान् पश्येद्भावानां त्रिगुणात्मनाम् १५

आदावन्ते च मध्ये च सृज्यात्सृज्यं यदन्वियात्

पुनस्तत्प्रतिसङ्क्रामे यच्छिष्येत तदेव सत् १६

श्रुतिः प्रत्यक्षमैतिह्यमनुमानं चतुष्टयम्

प्रमाणेष्वनवस्थानाद्विकल्पात्स विरज्यते १७

कर्मणां परिणामित्वादाविरिञ्च्यादमङ्गलम्

विपश्चिन्नश्वरं पश्येददृष्टमपि दृष्टवत् १८

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी ! जिसने उपनिषदादि शास्त्रोंके श्रवण, मनन और निदिध्यासन के द्वारा आत्मसाक्षात्कार कर लिया है, जो श्रोत्रिय एवं ब्रह्मनिष्ठ है, जिसका निश्चय केवल युक्तियों और अनुमानोंपर ही निर्भर नहीं करता, दूसरे शब्दोंमें—जो केवल परोक्षज्ञानी नहीं है, वह यह जानकर कि सम्पूर्ण द्वैतप्रपञ्च और इसकी निवृत्तिका साधन वृत्तिज्ञान मायामात्र है, उन्हें मुझमें लीन कर दे, वे दोनों ही मुझ आत्मामें अध्यस्त हैं, ऐसा जान ले ॥ १ ॥ ज्ञानी पुरुषका अभीष्ट पदार्थ मैं ही हूँ, उसके साधन-साध्य, स्वर्ग और अपवर्ग भी मैं ही हूँ। मेरे अतिरिक्त और किसी भी पदार्थसे वह प्रेम नहीं करता ॥ २ ॥ जो ज्ञान और विज्ञानसे सम्पन्न सिद्धपुरुष हैं, वे ही मेरे वास्तविक स्वरूपको जानते हैं। इसीलिये ज्ञानी पुरुष मुझे सबसे प्रिय है। उद्धवजी ! ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञानके द्वारा निरन्तर मुझे अपने अन्त:करणमें धारण करता है ॥ ३ ॥ तत्त्वज्ञानके लेशमात्रका उदय होनेसे जो सिद्धि प्राप्त होती है, वह तपस्या, तीर्थ, जप, दान अथवा अन्त:करण-शुद्धिके और किसी भी साधनसे पूर्णतया नहीं हो सकती ॥ ४ ॥ इसलिये मेरे प्यारे उद्धव ! तुम ज्ञानके सहित अपने आत्मस्वरूपको जान लो और फिर ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न होकर भक्तिभावसे मेरा भजन करो ॥ ५ ॥ बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंने ज्ञान-विज्ञानरूप यज्ञके द्वारा अपने अन्त:करणमें मुझ सब यज्ञोंके अधिपति आत्माका यजन करके परम सिद्धि प्राप्त की है ॥ ६ ॥ उद्धव ! आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक—इन तीन विकारोंकी समष्टि ही शरीर है और वह सर्वथा तुम्हारे आश्रित है। यह पहले नहीं था और अन्तमें नहीं रहेगा; केवल बीचमें ही दीख रहा है। इसलिये इसे जादूके खेलके समान माया ही समझना चाहिये। इसके जो जन्मना, रहना, बढऩा, बदलना, घटना और नष्ट होना—ये छ: भावविकार हैं, इनसे तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है  । यही नहीं, ये विकार उसके भी नहीं हैं; क्योंकि वह स्वयं असत् है। असत् वस्तु तो पहले नहीं थी, बादमें भी नहीं रहेगी; इसलिये बीच में भी उसका कोई अस्तित्व नहीं होता ॥ ७ ॥

उद्धवजीने कहा—विश्वरूप परमात्मन् ! आप ही विश्वके स्वामी हैं। आपका यह वैराग्य और विज्ञानसे युक्त सनातन एवं विशुद्ध ज्ञान जिस प्रकार सुदृढ़ हो जाय, उसी प्रकार मुझे स्पष्ट करके समझाइये और उस अपने भक्तियोगका भी वर्णन कीजिये, जिसे ब्रह्मा आदि महापुरुष भी ढूँढ़ा करते हैं ॥ ८ ॥ मेरे स्वामी ! जो पुरुष इस संसारके विकट मार्गमें तीनों तापोंके थपेड़े खा रहे हैं और भीतर-बाहर जल-भुन रहे हैं, उनके लिये आपके अमृतवर्षी युगल चरणारविन्दोंकी छत्र- छायाके अतिरिक्त और कोई भी आश्रय नहीं दीखता ॥ ९ ॥ महानुभाव ! आपका यह अपना सेवक अँधेरे कुएँमें पड़ा हुआ है, कालरूपी सर्पने इसे डस रखा है; फिर भी विषयोंके क्षुद्र सुख- भोगोंकी तीव्र तृष्णा मिटती नहीं, बढ़ती ही जा रही है। आप कृपा करके इसका उद्धार कीजिये और इससे मुक्त करनेवाली वाणीकी सुधा-धारासे इसे सराबोर कर दीजिये ॥ १० ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी ! जो प्रश्र तुमने मुझसे किया है, यही प्रश्र धर्मराज युधिष्ठिरने धाॢमकशिरोमणि भीष्मपितामहसे किया था। उस समय हम सभी लोग वहाँ विद्यमान थे ॥ ११ ॥ जब भारतीय महायुद्ध समाप्त हो चुका था और धर्मराज युधिष्ठिर अपने स्वजन-सम्बन्धियोंके संहारसे शोक-विह्वल हो रहे थे, तब उन्होंने भीष्मपितामहसे बहुत-से धर्मोंका विवरण सुननेके पश्चात् मोक्षके साधनोंके सम्बन्धमें प्रश्र किया था ॥ १२ ॥ उस समय भीष्मपितामहके मुखसे सुने हुए मोक्षधर्म मैं तुम्हें सुनाऊँगा। क्योंकि वे ज्ञान, वैराग्य, विज्ञान, श्रद्धा और भक्तिके भावोंसे परिपूर्ण हैं ॥ १३ ॥ उद्धवजी ! जिस ज्ञानसे प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चतन्मात्रा—ये नौ, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन—ये ग्यारह, पाँच महाभूत और तीन गुण अर्थात् इन अट्ठाईस तत्त्वोंको ब्रह्मासे लेकर तृणतक सम्पूर्ण कार्योंमें देखा जाता है और इनमें भी एक परमात्मतत्त्वको अनुगत रूपसे देखा जाता है—वह परोक्षज्ञान है, ऐसा मेरा निश्चय है ॥ १४ ॥ जब जिस एक तत्त्वसे अनुगत एकात्मक तत्त्वोंको पहले देखता था, उनको पहलेके समान न देखे, किन्तु एक परम कारण ब्रह्मको ही देखे, तब यही निश्चित विज्ञान (अपरोक्षज्ञान) कहा जाता है। (इस ज्ञान और विज्ञानको प्राप्त करनेकी युक्ति यह है कि) यह शरीर आदि जितने भी त्रिगुणात्मक सावयव पदार्थ हैं, उनकी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलयका विचार करे ॥ १५ ॥ जो तत्त्ववस्तु सृष्टिके प्रारम्भमें और अन्तमें कारणरूपसे स्थित रहती है, वही मध्यमें भी रहती है और वही प्रतीयमान कार्यसे प्रतीयमान कार्यान्तरमें अनुगत भी होती है। फिर उन कार्योंका प्रलय अथवा बाध होनेपर उसके साक्षी एवं अधिष्ठान रूपसे शेष रह जाती है। वही सत्य परमार्थ वस्तु है, ऐसा समझे ॥ १६ ॥ श्रुति, प्रत्यक्ष, ऐतिह्य (महापुरुषोंमें प्रसिद्धि) और अनुमान—प्रमाणोंमें यह चार मुख्य हैं। इनकी कसौटीपर कसनेसे दृश्य-प्रपञ्च अस्थिर, नश्वर एवं विकारी होनेके कारण सत्य सिद्ध नहीं होता, इसलिये विवेकी पुरुष इस विविध कल्पनारूप अथवा शब्दमात्र प्रपञ्चसे विरक्त हो जाता है ॥ १७ ॥ विवेकी पुरुषको चाहिये कि वह स्वर्गादि फल देनेवाले यज्ञादि कर्मोंके परिणामी—नश्वर होनेके कारण ब्रह्मलोकपर्यन्त स्वर्गादि सुख—अदृष्ट को भी इस प्रत्यक्ष विषय-सुखके समान ही अमङ्गल, दु:खदायी एवं नाशवान् समझे ॥ १८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



सोमवार, 29 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

वानप्रस्थ और संन्यासीके धर्म

 

 न एतद् वस्तुतया पश्येद् दृश्यमानं विनश्यति ।

 असक्तचित्तो विरमेद् इहामुत्र चिकीर्षितात् ॥ २६ ॥

 यद् एतद् आत्मनि जगन् मनो-वाक्-प्राण-संहतम् ।

 सर्वं मायेति तर्केण स्वस्थः त्यक्त्वा न तत्स्मरेत् ॥ २७ ॥

 ज्ञाननिष्ठो विरक्तो वा मद्‍भक्तो वा अनपेक्षकः ।

 सलिङ्गान् आश्रमान् त्यक्त्वा चरेद् अविधिगोचरः ॥ २८ ॥

 बुधो बालकवत् क्रीडेत् कुशलो जडवच्चरेत् ।

 वदेद् उन्मत्तवद् विद्वान् गोचर्यां नैगमश्चरेत् ॥ २९ ॥

 वेदवादरतो न स्यात् न पाखण्डी न हैतुकः ।

 शुष्कवादविवादे न कञ्चित् पक्षं समाश्रयेत् ॥ ३० ॥

 नोद्विजेत जनाद् धीरो जनं च उद्वेजयेत् न तु ।

 अतिवादान् तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन ।

 देहं उद्दिश्य पशुवत् वैरं कुर्यान् न केनचित् ॥ ३१ ॥

 एक एव परो ह्यात्मा भूतेषु आत्मनि-अवस्थितः ।

 यथा इंदुः उदपात्रेषु भूतान्येकात्मकानि च ॥ ३२ ॥

 अलब्ध्वा न विषीदेत कालेकाले अशनं क्वचित् ।

 लब्ध्वा न हृष्येद्-धृतिमान् उभयं दैवतंत्रितम् ॥ ३३ ॥

 आहारार्थं समीहेत युक्तं तत् प्राणधारणम् ।

 तत्त्वं विमृश्यते तेन तद् विज्ञाय विमुच्यते ॥ ३४ ॥

 यदृच्छया उपपन्नान्नं अद्यात् श्रेष्ठमुतापरम् ।

 तथा वासः तथा शय्यां प्राप्तं प्राप्तं भजेन् मुनिः ॥ ३५ ॥

 शौचं आचमनं स्नानं न तु चोदनया चरेत् ।

 अन्यांश्च नियमान् ज्ञानी यथाहं लीलयेश्वरः ॥ ३६ ॥

 न हि तस्य विकल्पाख्या या च मद् वीक्षया हता ।

 आ देहान्तात् क्वचित् ख्यातिः ततः संपद्यते मया ॥ ३७ ॥

 दुःखोदर्केषु कामेषु जातनिर्वेद आत्मवान् ।

 अजिज्ञासित मद्धर्मो गुरुं मुनिं उपाव्रजेत् ॥ ३८ ॥

 तावत् परिचरेद् भक्तः श्रद्धावान् अनसूयकः ।

 यावद् ब्रह्म विजानीयान् मामेव गुरुं आदृतः ॥ ३९ ॥

 यस्तु असंयत षड्वर्गः प्रचण्डेंद्रिय सारथिः ।

 ज्ञानवैराग्य रहितः त्रिदण्डं उपजीवति ॥ ४० ॥

 सुरान् आत्मानमात्मस्थं निह्नुते मां च धर्महा ।

 अविपक्व कषायोऽस्माद् अमुष्माच्च विहीयते ॥ ४१ ॥

 भिक्षोः धर्मः शमोऽहिंसा तप ईक्षा वनौकसः ।

 गृहिणो भूतरक्षेज्या द्विजस्याचार्यसेवनम् ॥ ४२ ॥

 ब्रह्मचर्यं तपः शौचं संतोषो भूतसौहृदम् ।

 गृहस्थस्य अपि ऋतौ गन्तुः सर्वेषां मदुपासनम् ॥ ४३ ॥

 इति मां यः स्वधर्मेण भजन् नित्यं अनन्यभाक् ।

 सर्वभूतेषु मद्‍भावो मद्‍भक्तिं विंदते दृढाम् ॥ ४४ ॥

 भक्त्योद्धव अनपायिन्या सर्वलोकमहेश्वरम् ।

 सर्व उत्पत्त्यप्ययं ब्रह्म कारणं मा उपयाति सः ॥ ४५ ॥

 इति स्वधर्मनिर्णिक्त सत्त्वो निर्ज्ञातमद्‌गतिः ।

 ज्ञानविज्ञान संपन्नो न चिरात् समुपैति माम् ॥ ४६ ॥

 वर्णाश्रमवतां धर्म एष आचार लक्षणः ।

 स एव मद्‍भक्तियुतो निःश्रेयसकरः परः ॥ ४७ ॥

 एतत् ते अभिहितं साधो भवान् पृच्छति यच्च माम् ।

 यथा स्वधर्मसंयुक्तो भक्तो मां समियात् परम् ॥ ४८ ॥

 

विचारवान् संन्यासी दृश्यमान जगत् को सत्य वस्तु कभी न समझे; क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष ही नाशवान् है। इस जगत्में कहीं भी अपने चित्तको लगाये नहीं। इस लोक और परलोकमें जो कुछ करने-पानेकी इच्छा हो, उससे विरक्त हो जाय ॥ २६ ॥ संन्यासी विचार करे कि आत्मामें जो मन, वाणी और प्राणोंका सङ्घातरूप यह जगत् है, वह सारा-का-सारा माया ही है। इस विचार के द्वारा इसका बाध करके अपने स्वरूपमें स्थित हो जाय और फिर कभी उसका स्मरण भी न करे ॥ २७ ॥ ज्ञाननिष्ठ, विरक्त, मुमुक्षु और मोक्षकी भी अपेक्षा न रखनेवाला मेरा भक्त आश्रमोंकी मर्यादामें बद्ध नहीं है। वह चाहे तो आश्रमों और उनके चिह्नोंको छोड़-छाडक़र, वेद-शास्त्रके विधि-निषेधोंसे परे होकर स्वच्छन्द विचरे ॥ २८ ॥ वह बुद्धिमान् होकर भी बालकोंके समान खेले। निपुण होकर भी जडवत् रहे, विद्वान् होकर भी पागलकी तरह बातचीत करे और समस्त वेद-विधियोंका जानकार होकर भी पशुवृत्तिसे (अनियत आचारवान्) रहे ॥ २९ ॥ उसे चाहिये कि वेदोंके कर्मकाण्ड- भागकी व्याख्यामें न लगे, पाखण्ड न करे, तर्क-वितर्कसे बचे और जहाँ कोरा वाद-विवाद हो रहा हो, वहाँ कोई पक्ष न ले ॥ ३० ॥ वह इतना धैर्यवान् हो कि उसके मनमें किसी भी प्राणीसे उद्वेग न हो और वह स्वयं भी किसी प्राणीको उद्विग्न न करे। उसकी कोई निन्दा करे, तो प्रसन्नतासे सह ले; किसीका अपमान न करे। प्रिय उद्धव ! संन्यासी इस शरीरके लिये किसीसे भी वैर न करे। ऐसा वैर तो पशु करते हैं ॥ ३१ ॥ जैसे एक ही चन्द्रमा जलसे भरे हुए विभिन्न पात्रोंमें अलग-अलग दिखायी देता है, वैसे ही एक ही परमात्मा समस्त प्राणियोंमें और अपनेमें भी स्थित है। सबकी आत्मा तो एक है ही, पञ्चभूतोंसे बने हुए शरीर भी सबके एक ही हैं, क्योंकि सब पाञ्चभौतिक ही तो हैं। (ऐसी अवस्थामें किसीसे भी वैर-विरोध करना अपना ही वैर-विरोध है) ॥ ३२ ॥

प्रिय उद्धव ! संन्यासीको किसी दिन यदि समयपर भोजन न मिले, तो उसे दुखी नहीं होना चाहिये और यदि बराबर मिलता रहे, तो हर्षित न होना चाहिये। उसे चाहिये कि वह धैर्य रखे। मनमें हर्ष और विषाद दोनों प्रकारके विकार न आने दे; क्योंकि भोजन मिलना और न मिलना दोनों ही प्रारब्धके अधीन हैं ॥ ३३ ॥ भिक्षा अवश्य माँगनी चाहिये, ऐसा करना उचित ही है; क्योंकि भिक्षासे ही प्राणोंकी रक्षा होती है। प्राण रहनेसे ही तत्त्वका विचार होता है और तत्त्वविचारसे तत्त्वज्ञान होकर मुक्ति मिलती है ॥ ३४ ॥ संन्यासीको प्रारब्धके अनुसार अच्छी या बुरी—जैसी भी भिक्षा मिल जाय, उसीसे पेट भर ले। वस्त्र और बिछौने भी जैसे मिल जायँ, उन्हींसे काम चला ले। उनमें अच्छेपन या बुरेपनकी कल्पना न करे ॥ ३५ ॥ जैसे मैं परमेश्वर होनेपर भी अपनी लीलासे ही शौच आदि शास्त्रोक्त नियमोंका पालन करता हूँ, वैसे ही ज्ञाननिष्ठ पुरुष भी शौच, आचमन, स्नान और दूसरे नियमोंका लीलासे ही आचरण करे। वह शास्त्रविधिके अधीन होकर— विधिकिङ्कर होकर न करे ॥ ३६ ॥ क्योंकि ज्ञाननिष्ठ पुरुषको भेदकी प्रतीति ही नहीं होती। जो पहले थी, वह भी मुझ सर्वात्माके साक्षात्कारसे नष्ट हो गयी। यदि कभी-कभी मरणपर्यन्त बाधित भेदकी प्रतीति भी होती है, तब भी देहपात हो जानेपर वह मुझसे एक हो जाता है ॥ ३७ ॥

उद्धवजी ! (यह तो हुई ज्ञानवान् की बात, अब केवल वैराग्यवान् की बात सुनो।) जितेन्द्रिय पुरुष, जब यह निश्चय हो जाय कि संसारके विषयोंके भोगका फल दु:ख-ही-दु:ख है, तब वह विरक्त हो जाय और यदि वह मेरी प्राप्तिके साधनोंको न जानता हो तो भगवच्चिन्तनमें तन्मय रहनेवाले ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरुकी शरण ग्रहण करे ॥ ३८ ॥ वह गुरुकी दृढ़ भक्ति करे, श्रद्धा रखे और उनमें दोष कभी न निकाले। जबतक ब्रह्मका ज्ञान हो, तबतक बड़े आदरसे मुझे ही गुरुके रूपमें समझता हुआ उनकी सेवा करे ॥ ३९ ॥ किन्तु जिसने पाँच इन्द्रियाँ और मन, इन छहोंपर विजय नहीं प्राप्त की है, जिसके इन्द्रियरूपी घोड़े और बुद्धिरूपी सारथी बिगड़े हुए हैं और जिसके हृदयमें न ज्ञान है और न तो वैराग्य, वह यदि त्रिदण्डी संन्यासीका वेष धारणकर पेट पालता है तो वह संन्यासधर्मका सत्तानाश ही कर रहा है और अपने पूज्य देवताओंको, अपने-आपको और अपने हृदयमें स्थित मुझको ठगनेकी चेष्टा करता है। अभी उस वेषमात्रके संन्यासीकी वासनाएँ क्षीण नहीं हुई हैं; इसलिये वह इस लोक और परलोक दोनोंसे हाथ धो बैठता है ॥ ४०-४१ ॥ संन्यासीका मुख्य धर्म है—शान्ति और अहिंसा। वानप्रस्थीका मुख्य धर्म है—तपस्या और भगवद्भाव। गृहस्थका मुख्य धर्म है—प्राणियोंकी रक्षा और यज्ञ-याग तथा ब्रह्मचारीका मुख्य धर्म है— आचार्यकी सेवा ॥ ४२ ॥ गृहस्थ भी केवल ऋतुकालमें ही अपनी स्त्रीका सहवास करे। उसके लिये भी ब्रह्मचर्य, तपस्या, शौच, सन्तोष और समस्त प्राणियोंके प्रति प्रेमभाव—ये मुख्य धर्म हैं। मेरी उपासना तो सभीको करनी चाहिये ॥ ४३ ॥ जो पुरुष इस प्रकार अनन्यभावसे अपने वर्णाश्रमधर्मके द्वारा मेरी सेवामें लगा रहता है और समस्त प्राणियोंमें मेरी भावना करता रहता है, उसे मेरी अविचल भक्ति प्राप्त हो जाती है ॥ ४४ ॥ उद्धवजी ! मैं सम्पूर्ण लोकोंका एकमात्र स्वामी, सबकी उत्पत्ति और प्रलयका परम कारण ब्रह्म हूँ। नित्य-निरन्तर बढऩेवाली अखण्ड भक्तिके द्वारा वह मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ ४५ ॥ इस प्रकार वह गृहस्थ अपने धर्मपालनके द्वारा अन्त:करणको शुद्ध करके मेरे ऐश्वर्यको—मेरे स्वरूपको जान लेता है और ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न होकर शीघ्र ही मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ ४६ ॥ मैंने तुम्हें यह सदाचाररूप वर्णाश्रमियोंका धर्म बतलाया है। यदि इस धर्मानुष्ठानमें मेरी भक्तिका पुट लग जाय, तब तो इससे अनायास ही परम कल्याणस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति हो जाय ॥ ४७ ॥ साधुस्वभाव उद्धव ! तुमने मुझसे जो प्रश्र किया था, उसका उत्तर मैंने दे दिया और यह बतला दिया कि अपने धर्मका पालन करनेवाला भक्त मुझ परब्रह्म-स्वरूपको किस प्रकार प्राप्त होता है ॥ ४८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां एकादशस्कन्धे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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