॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग
यदाऽऽरंभेषु
निर्विण्णो विरक्तः संयतेंद्रियः ।
अभ्यासेनात्मनो योगी धारयेद् अचलं मनः ॥ १८ ॥
धार्यमाणं मनो यर्हि भ्राम्यत् आशु अनवस्थितम् ।
अतन्द्रितोऽनुरोधेन मार्गेणात्मवशं नयेत् ॥ १९ ॥
मनोगतिं न विसृजेत् जितप्राणो जितेंद्रियः ।
सत्त्वसंपन्नया बुद्ध्या मन आत्मवशं नयेत् ॥ २०
॥
एष वै परमो योगो मनसः सङ्ग्रहः स्मृतः ।
हृदयज्ञत्वमन्विच्छन् दम्यस्येवार्वतो मुहुः ॥
२१ ॥
साङ्ख्येन सर्वभावानां प्रतिलोमानुलोमतः ।
भवाप्ययावनुध्यायेन् मनो यावत्प्रसीदति ॥ २२ ॥
निर्विण्णस्य विरक्तस्य पुरुषस्योक्तवेदिनः ।
मनस्त्यजति दौरात्म्यं चिन्तितस्यानुचिन्तया ॥
२३ ॥
यमादिभिः योगपथैः आन्वीक्षिक्या च विद्यया ।
ममार्चोपासनाभिर्वा नान्यैर्योग्यं स्मरेन्मनः ॥
२४ ॥
यदि कुर्यात्प्रमादेन योगी कर्म विगर्हितम् ।
योगेनैव दहेदंहो नान्यत्तत्र कदाचन ॥ २५ ॥
स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः
।
कर्मणां जात्यशुद्धानां अनेन नियमः कृतः ।
गुणदोषविधानेन सङ्गानां त्याजनेच्छया ॥ २६ ॥
जातश्रद्धो मत्कथासु निर्विण्णः सर्वकर्मसु ।
वेद दुःखात्मकान् कामान् परित्यागेऽप्यनीश्वरः ॥
२७ ॥
ततो भजेत मां प्रीतः श्रद्धालुर्दृढनिश्चयः ।
जुषमाणश्च तान्कामान् दुःखोदर्कांश्च गर्हयन् ॥
२८ ॥
प्रोक्तेन भक्तियोगेन भजतो मासकृन्मुनेः ।
कामा हृदय्या नश्यन्ति सर्वे मयि हृदि स्थिते ॥
२९ ॥
भिद्यते हृदयग्रन्थिः छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि मयि दृष्टेऽखिलात्मनि ॥
३० ॥
तस्मान्मद्भक्तियुक्तस्य योगिनो वै मदात्मनः ।
न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह ॥
३१ ॥
यत्कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञानवैराग्यतश्च यत् ।
योगेन दानधर्मेण श्रेयोभिः इतरैरपि ॥ ३२ ॥
सर्वं मद्भक्तियोगेन मद्भक्तो लभतेऽञ्जसा ।
स्वर्गापवर्गं मद्धाम कथञ्चिद् यदि वाञ्छति ॥ ३३
॥
न किञ्चित् साधवो धीरा भक्ता ह्येकान्तिनो मम ।
वाञ्छन्त्यपि मया दत्तं कैवल्यं अपुनर्भवम् ॥ ३४
॥
नैरपेक्ष्यं परं प्राहुः निःश्रेयसमनल्पकम् ।
तस्मान्निराशिषो भक्तिः निरपेक्षस्य मे भवेत् ॥
३५ ॥
न मय्येकान्तभक्तानां गुणदोषोद्भवा गुणाः ।
साधूनां समचित्तानां बुद्धेः परमुपेयुषाम् ॥ ३६
॥
एवमेतान्मया दिष्टान् अनुतिष्ठन्ति मे पथः ।
क्षेमं विन्दन्ति मत्स्थानं यद् ब्रह्म परमं
विदुः ॥ ३७ ॥
प्रिय उद्धव ! जब पुरुष दोषदर्शन के कारण कर्मोंसे उद्विग्न और विरक्त हो जाय, तब जितेन्द्रिय होकर वह योगमें स्थित हो जाय और
अभ्यास—आत्मानुसन्धान के द्वारा अपना मन मुझ परमात्मामें निश्चलरूपसे धारण करे ॥
१८ ॥ जब स्थिर करते समय मन चञ्चल होकर इधर-उधर भटकने लगे,
तब झटपट बड़ी सावधानीसे उसे मनाकर,
समझा-बुझाकर, फुसलाकर अपने वशमें कर ले ॥ १९ ॥ इन्द्रियों और प्राणोंको अपने
वशमें रखे और मनको एक क्षणके लिये भी स्वतन्त्र न छोड़े। उसकी एक-एक चाल, एक-एक हरकतको देखता रहे। इस प्रकार सत्त्वसम्पन्न बुद्धिके द्वारा
धीरे-धीरे मनको अपने वशमें कर लेना चाहिये ॥ २० ॥ जैसे सवार घोड़ेको अपने वशमें
करते समय उसे अपने मनोभावकी पहचान कराना चाहता है—अपनी इच्छाके अनुसार उसे चलाना
चाहता है और बार-बार फुसलाकर उसे अपने वशमें कर लेता है,
वैसे ही मनको फुसलाकर, उसे मीठी-मीठी बातें सुनाकर वशमें कर लेना भी परम योग है ॥ २१ ॥
सांख्यशास्त्रमें प्रकृतिसे लेकर शरीरपर्यन्त सृष्टिका जो क्रम बतलाया गया है, उसके अनुसार सृष्टि-चिन्तन करना चाहिये और जिस क्रमसे शरीर आदिका
प्रकृतिमें लय बताया गया है, उस प्रकार लय-चिन्तन करना चाहिये। यह क्रम तबतक जारी रखना चाहिये, जबतक मन शान्त—स्थिर न हो जाय ॥ २२ ॥ जो पुरुष संसारसे विरक्त हो
गया है और जिसे संसारके पदार्थोंमें दु:ख-बुद्धि हो गयी है, वह अपने गुरुजनोंके उपदेशको भलीभाँति समझकर बार-बार अपने स्वरूपके
ही चिन्तनमें संलग्न रहता है। इस अभ्याससे
बहुत शीघ्र ही उसका मन अपनी वह चञ्चलता, जो अनात्मा शरीर आदिमें आत्मबुद्धि करनेसे हुई है, छोड़ देता है ॥ २३ ॥ यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि आदि योगमार्गोंसे, वस्तुतत्त्वका निरीक्षण-परीक्षण करनेवाली आत्मविद्यासे तथा मेरी
प्रतिमाकी उपासनासे—अर्थात् कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगसे मन परमात्माका चिन्तन करने लगता है; और कोई उपाय नहीं है ॥ २४ ॥
उद्धवजी ! वैसे तो योगी कभी कोई
निन्दित कर्म करता ही नहीं; परन्तु यदि कभी उससे प्रमादवश कोई अपराध बन जाय तो योगके द्वारा ही
उस पापको जला डाले, कृच्छ्रचान्द्रायण
आदि दूसरे प्रायश्चित्त कभी न करे ॥ २५ ॥ अपने-अपने अधिकारमें जो निष्ठा है, वही गुण कहा गया है। इस गुण-दोष और विधि-निषेधके विधानसे यही तात्पर्य
निकलता है कि किसी प्रकार विषयासक्तिका परित्याग हो जाय;
क्योंकि कर्म तो जन्मसे ही अशुद्ध हैं,
अनर्थके मूल हैं। शास्त्रका तात्पर्य उनका नियन्त्रण, नियम ही है। जहाँतक हो सके प्रवृत्तिका संकोच ही करना चाहिये ॥ २६
॥ जो साधक समस्त कर्मोंसे विरक्त हो गया हो,
उनमें दु:खबुद्धि रखता हो,
मेरी लीलाकथाके प्रति श्रद्धालु हो और यह भी जानता हो कि सभी भोग
और भोगवासनाएँ दु:खरूप हैं, किन्तु इतना सब जानकर भी जो उनके परित्यागमें समर्थ न हो, उसे चाहिये कि उन भोगोंको तो भोग ले;
परन्तु उन्हें सच्चे हृदयसे दु:खजनक समझे और मन-ही-मन उनकी निन्दा
करे तथा उसे अपना दुर्भाग्य ही समझे। साथ ही इस दुविधाकी स्थितिसे छुटकारा पानेके
लिये श्रद्धा, दृढ़ निश्चय और प्रेमसे मेरा भजन करे ॥ २७-२८ ॥ इस प्रकार मेरे
बतलाये हुए भक्तियोगके द्वारा निरन्तर मेरा भजन करनेसे मैं उस साधकके हृदयमें आकर
बैठ जाता हूँ और मेरे विराजमान होते ही उसके हृदयकी सारी वासनाएँ अपने संस्कारोंके
साथ नष्ट हो जाती हैं ॥ २९ ॥ इस तरह जब उसे मुझ सर्वात्माका साक्षात्कार हो जाता
है, तब तो उसके हृदयकी गाँठ टूट जाती है,
उसके सारे संशय छिन्न- भिन्न हो जाते हैं और कर्मवासनाएँ सर्वथा क्षीण
हो जाती हैं ॥ ३० ॥ इसीसे जो योगी मेरी भक्तिसे युक्त और मेरे चिन्तनमें मग्न रहता
है, उसके लिये ज्ञान अथवा वैराग्यकी आवश्यकता नहीं होती। उसका कल्याण
तो प्राय: मेरी भक्तिके द्वारा ही हो जाता है ॥ ३१ ॥ कर्म,
तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, योगाभ्यास, दान, धर्म
और दूसरे कल्याणसाधनोंसे जो कुछ स्वर्ग, अपवर्ग, मेरा परम धाम अथवा कोई भी वस्तु प्राप्त होती है, वह सब मेरा भक्त मेरे भक्तियोगके प्रभावसे ही, यदि चाहे तो, अनायास प्राप्त कर लेता है ॥ ३२-३३ ॥ मेरे अनन्यप्रेमी एवं
धैर्यवान् साधु भक्त स्वयं तो कुछ चाहते ही नहीं;
यदि मैं उन्हें देना चाहता हूँ और देता भी हूँ तो भी दूसरी
वस्तुओंकी तो बात ही क्या—वे कैवल्य-मोक्ष भी नहीं लेना चाहते ॥ ३४ ॥ उद्धवजी !
सबसे श्रेष्ठ एवं महान् नि:श्रेयस (परम कल्याण) तो निरपेक्षताका ही दूसरा नाम है।
इसलिये जो निष्काम और निरपेक्ष होता है, उसीको मेरी भक्ति प्राप्त होती है ॥ ३५ ॥ मेरे अनन्यप्रेमी
भक्तोंका और उन समदर्शी महात्माओंका; जो बुद्धिसे अतीत परमतत्त्वको प्राप्त हो चुके हैं, इन विधि और निषेधसे होनेवाले पुण्य और पापसे कोई सम्बन्ध ही नहीं
होता ॥ ३६ ॥ इस प्रकार जो लोग मेरे बतलाये हुए इन ज्ञान,
भक्ति और कर्ममार्गोंका आश्रय लेते हैं,
वे मेरे परम कल्याणस्वरूप धामको प्राप्त होते हैं, क्योंकि वे परब्रह्मतत्त्वको जान लेते हैं ॥ ३७ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
एकादशस्कन्धे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
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