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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
एक तितिक्षु ब्राह्मण का इतिहास
द्विज
उवाच
नायं
जनो मे सुखदुःखहेतु-
र्न
देवतात्मा ग्रहकर्मकालाः
मनः
परं कारणमामनन्ति
संसारचक्रं
परिवर्तयेद्यत् ४३
मनो
गुणान्वै सृजते बलीय-
स्ततश्च
कर्माणि विलक्षणानि
शुक्लानि
कृष्णान्यथ लोहितानि
तेभ्यः
सवर्णाः सृतयो भवन्ति ४४
अनीह
आत्मा मनसा समीहता
हिरण्मयो
मत्सख उद्विचष्टे
मनः
स्वलिङ्गं परिगृह्य कामान्-
जुषन्निबद्धो
गुणसङ्गतोऽसौ ४५
दानं
स्वधर्मो नियमो यमश्च
श्रुतं
च कर्माणि च सद्व्रतानि
सर्वे
मनोनिग्रहलक्षणान्ताः
परो
हि योगो मनसः समाधिः ४६
समाहितं
यस्य मनः प्रशान्तं
दानादिभिः
किं वद तस्य कृत्यम्
असंयतं
यस्य मनो विनश्यद्-
दानादिभिश्चेदपरं
किमेभिः ४७
मनोवशेऽन्ये
ह्यभवन्स्म देवा
मनश्च
नान्यस्य वशं समेति
भीष्मो
हि देवः सहसः सहीया-
न्युञ्ज्याद्वशे
तं स हि देवदेवः ४८
तं
दुर्जयं शत्रुमसह्यवेग-
मरुन्तुदं
तन्न विजित्य केचित्
कुर्वन्त्यसद्विग्रहमत्र
मर्त्यै-
र्मित्राण्युदासीनरिपून्विमूढाः
४९
देहं
मनोमात्रमिमं गृहीत्वा
ममाहमित्यन्धधियो
मनुष्याः
एषोऽहमन्योऽयमिति
भ्रमेण
दुरन्तपारे
तमसि भ्रमन्ति ५०
जनस्तु
हेतुः सुखदुःखयोश्चे-
त्किमात्मनश्चात्र
हि भौमयोस्तत्
जिह्वां
क्वचित्सन्दशति स्वदद्भि-
स्तद्वेदनायां
कतमाय कुप्येत् ५१
दुःखस्य
हेतुर्यदि देवतास्तु
किमात्मनस्तत्र
विकारयोस्तत्
यदङ्गमङ्गेन
निहन्यते क्वचित्-
क्रुध्येत
कस्मै पुरुषः स्वदेहे ५२
आत्मा
यदि स्यात्सुखदुःखहेतुः
किमन्यतस्तत्र
निजस्वभावः
न
ह्यात्मनोऽन्यद्यदि तन्मृषा स्या-
त्क्रुध्येत
कस्मान्न सुखं न दुःखम् ५३
ग्रहा
निमित्तं सुखदुःखयोश्चे-
त्किमात्मनोऽजस्य
जनस्य ते वै
ग्रहैर्ग्रहस्यैव
वदन्ति पीडां
क्रुध्येत
कस्मै पुरुषस्ततोऽन्यः ५४
कर्मास्तु
हेतुः सुखदुःखयोश्चे-
त्किमात्मनस्तद्धि
जडाजडत्वे
देहस्त्वचित्पुरुषोऽयं
सुपर्णः
क्रुध्येत
कस्मै न हि कर्म मूलम् ५५
कालस्तु
हेतुः सुखदुःखयोश्चे-
त्किमात्मनस्तत्र
तदात्मकोऽसौ
नाग्नेर्हि
तापो न हिमस्य तत्स्यात्-
क्रुध्येत
कस्मै न परस्य द्वन्द्वम् ५६
न
केनचित्क्वापि कथञ्चनास्य
द्वन्द्वोपरागः
परतः परस्य
यथाहमः
संसृतिरूपिणः स्या-
देवं
प्रबुद्धो न बिभेति भूतैः ५७
एतां
स आस्थाय परात्मनिष्ठा-
मध्यासितां
पूर्वतमैर्महर्षिभिः
अहं
तरिष्यामि दुरन्तपारं
तमो
मुकुन्दाङ्घ्रिनिषेवयैव ५८
श्रीभगवानुवाच
निर्विद्य
नष्टद्रविणे गतक्लमः
प्रव्रज्य
गां पर्यटमान इत्थम्
निराकृतोऽसद्भिरपि
स्वधर्मा-
दकम्पितोऽमूं
मुनिराह गाथाम् ५९
सुखदुःखप्रदो
नान्यः पुरुषस्यात्मविभ्रमः
मित्रोदासीनरिपवः
संसारस्तमसः कृतः ६०
तस्मात्सर्वात्मना
तात निगृहाण मनो धिया
मय्यावेशितया
युक्त एतावान्योगसङ्ग्रहः ६१
य
एतां भिक्षुणा गीतां ब्रह्मनिष्ठां समाहितः
धारयञ्छ्रावयञ्छृण्वन्द्वन्द्वैर्नैवाभिभूयते
६२
ब्राह्मण कहता—मेरे सुख अथवा दु:खका
कारण न ये मनुष्य हैं, न
देवता हैं, न शरीर है और न ग्रह, कर्म एवं काल आदि ही हैं। श्रुतियाँ और महात्माजन मनको ही इसका परम
कारण बताते हैं और मन ही इस सारे संसारचक्र को चला रहा है ॥ ४३ ॥ सचमुच यह मन बहुत
बलवान् है। इसीने विषयों, उनके कारण गुणों और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली वृत्तियोंकी सृष्टि की
है। उन वृत्तियोंके अनुसार ही सात्त्विक, राजस और तामस—अनेकों प्रकारके कर्म होते हैं और कर्मोंके अनुसार ही
जीवकी विविध गतियाँ होती हैं ॥ ४४ ॥ मन ही समस्त चेष्टाएँ करता है। उसके साथ
रहनेपर भी आत्मा निष्ङ्क्षक्रय ही है। वह ज्ञानशक्तिप्रधान है, मुझ जीवका सनातन सखा है और अपने अलुप्त ज्ञानसे सब कुछ देखता रहता
है। मनके द्वारा ही उसकी अभिव्यक्ति होती है। जब वह मनको स्वीकार करके उसके द्वारा
विषयोंका भोक्ता बन बैठता है, तब कर्मोंके साथ आसक्ति होनेके कारण वह उनसे बँध जाता है ॥ ४५ ॥
दान, अपने धर्मका पालन, नियम, यम, वेदाध्ययन, सत्कर्म और ब्रह्मचर्यादि श्रेष्ठ व्रत—इन सबका अन्तिम फल यही है
कि मन एकाग्र हो जाय, भगवान्में
लग जाय। मनका समाहित हो जाना ही परम योग है ॥ ४६ ॥ जिसका मन शान्त और समाहित है, उसे दान आदि समस्त सत्कर्मोंका फल प्राप्त हो चुका है। अब उनसे कुछ
लेना बाकी नहीं है। और जिसका मन चञ्चल है अथवा आलस्यसे अभिभूत हो रहा है, उसको इन दानादि शुभकर्मोंसे अबतक कोई लाभ नहीं हुआ ॥ ४७ ॥ सभी
इन्द्रियाँ मनके वशमें हैं । मन किसी भी इन्द्रियके वशमें नहीं है। यह मन बलवान् से
भी बलवान्, अत्यन्त भयङ्कर देव है। जो इसको अपने वशमें कर लेता है, वही देव-देव—इन्द्रियोंका विजेता है ॥ ४८ ॥ सचमुच मन बहुत बड़ा
शत्रु है। इसका आक्रमण असह्य है। यह बाहरी शरीरको ही नहीं,
हृदयादि मर्मस्थानोंको भी बेधता रहता है। इसे जीतना बहुत ही कठिन
है। मनुष्योंको चाहिये कि सबसे पहले इसी शत्रुपर विजय प्राप्त करे; परन्तु होता है यह कि मूर्ख लोग इसे तो जीतनेका प्रयत्न करते नहीं, दूसरे मनुष्योंसे झूठमूठ झगड़ा-बखेड़ा करते रहते हैं और इस जगत्के
लोगोंको ही मित्र-शत्रु-उदासीन बना लेते हैं ॥ ४९ ॥ साधारणत: मनुष्योंकी बुद्धि
अंधी हो रही है। तभी तो वे इस मन:कल्पित शरीरको ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान बैठते हैं और
फिर इस भ्रमके फंदेमें फँस जाते हैं कि ‘यह मैं हूँ और यह दूसरा।’ इसका परिणाम यह
होता है कि वे इस अनन्त अज्ञानान्धकारमें ही भटकते रहते हैं ॥ ५० ॥
यदि मान लें कि मनुष्य ही
सुख-दु:खका कारण है, तो
भी उनसे आत्माका क्या सम्बन्ध ? क्योंकि सुख-दु:ख पहुँचानेवाला भी मिट्टीका शरीर है और भोगनेवाला
भी। कभी भोजन आदिके समय यदि अपने दाँतोंसे ही अपनी जीभ कट जाय और उससे पीड़ा होने
लगे, तो मनुष्य किसपर क्रोध करेगा ?
॥ ५१ ॥ यदि ऐसा मान लें कि देवता ही दु:खके कारण हैं, तो भी इस दु:खसे आत्माकी क्या हानि ?
क्योंकि यदि दु:खके कारण देवता हैं,
तो इन्द्रियाभिमानी देवताओंके रूपमें उनके भोक्ता भी तो वे ही हैं।
और देवता सभी शरीरोंमें एक हैं; जो देवता एक शरीरमें हैं; वे ही दूसरेमें भी हैं। ऐसी दशामें यदि अपने ही शरीरके किसी एक
अङ्ग से दूसरे अङ्ग को चोट लग जाय तो भला,
किसपर क्रोध किया जायगा ? ॥ ५२ ॥ यदि ऐसा मानें कि आत्मा ही सुख-दु:खका कारण है तो वह तो
अपना आप ही है, कोई दूसरा नहीं; क्योंकि आत्मासे भिन्न कुछ और है ही नहीं। यदि दूसरा कुछ प्रतीत
होता है, तो वह मिथ्या है। इसलिये न सुख है,
न दु:ख; फिर क्रोध कैसा ? क्रोधका निमित्त ही क्या ?
॥ ५३ ॥ यदि ग्रहोंको सुख-दु:खका निमित्त मानें, तो उनसे भी अजन्मा आत्माकी क्या हानि ?
उनका प्रभाव भी जन्म-मृत्युशील शरीरपर ही होता है। ग्रहोंकी पीड़ा
तो उनका प्रभाव ग्रहण करनेवाले शरीरको ही होती है और आत्मा उन ग्रहों और शरीरोंसे
सर्वथा परे है। तब भला वह किसपर क्रोध करे ?
॥ ५४ ॥ यदि कर्मोंको ही सुख-दु:खका कारण मानें, तो उनसे आत्माका क्या प्रयोजन ?
क्योंकि वे तो एक पदार्थके जड और चेतन—उभयरूप होनेपर ही हो सकते
हैं।(जो वस्तु विकारयुक्त और अपना हिताहित जाननेवाली होती है, उसीसे कर्म हो सकते हैं; अत: वह विकारयुक्त होनेके कारण जड होनी चाहिये और हिताहितका ज्ञान
रखनेके कारण चेतन।) किन्तु देह तो अचेतन है और उसमें पक्षीरूपसे रहनेवाला आत्मा
सर्वथा निर्विकार और साक्षीमात्र है। इस प्रकार कर्मोंका तो कोई आधार ही सिद्ध
नहीं होता। फिर क्रोध किसपर करें ? ॥ ५५ ॥ यदि ऐसा मानें कि काल ही सुख-दु:खका कारण है, तो आत्मापर उसका क्या प्रभाव ?
क्योंकि काल तो आत्मस्वरूप ही है। जैसे आग आगको नहीं जला सकती, और बर्फ बर्फको नहीं गला सकता,
वैसे ही आत्मस्वरूप काल अपने आत्माको ही सुख-दु:ख नहीं पहुँचा
सकता। फिर किसपर क्रोध किया जाय ? आत्मा शीत- उष्ण, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंसे सर्वथा अतीत है ॥ ५६ ॥ आत्मा प्रकृतिके
स्वरूप, धर्म, कार्य, लेश, सम्बन्ध
और गन्धसे भी रहित है। उसे कभी कहीं किसीके द्वारा किसी भी प्रकारसे द्वन्द्वका
स्पर्श ही नहीं होता। वह तो जन्म-मृत्युके चक्रमें भटकनेवाले अहङ्कारको ही होता
है। जो इस बातको जान लेता है, वह फिर किसी भी भयके निमित्तसे भयभीत नहीं होता ॥ ५७ ॥ बड़े-बड़े
प्राचीन ऋषि-मुनियोंने इस परमात्मनिष्ठाका आश्रय ग्रहण किया है। मैं भी इसीका
आश्रय ग्रहण करूँगा और मुक्ति तथा प्रेमके दाता भगवान्के चरणकमलोंकी सेवाके
द्वारा ही इस दुरन्त अज्ञान-सागरको अनायास ही पार कर लूँगा ॥ ५८ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी
! उस ब्राह्मणका धन क्या नष्ट हुआ, उसका सारा क्लेश ही दूर हो गया। अब वह संसारसे विरक्त हो गया था और
संन्यास लेकर पृथ्वीमें स्वच्छन्द विचर रहा था। यद्यपि दुष्टोंने उसे बहुत सताया, फिर भी वह अपने धर्ममें अटल रहा,
तनिक भी विचलित न हुआ। उस समय वह मौनी अवधूत मन-ही-मन इस प्रकारका
गीत गाया करता था ॥ ५९ ॥ उद्धवजी ! इस संसारमें मनुष्यको कोई दूसरा सुख या दु:ख
नहीं देता, यह तो उसके चित्तका भ्रममात्र है। यह सारा संसार और इसके भीतर
मित्र, उदासीन और शत्रुके भेद अज्ञानकल्पित हैं ॥ ६० ॥ इसलिये प्यारे
उद्धव ! अपनी वृत्तियोंको मुझमें तन्मय कर दो और इस प्रकार अपनी सारी शक्ति लगाकर
मनको वशमें कर लो और फिर मुझमें ही नित्ययुक्त होकर स्थित हो जाओ। बस, सारे योगसाधनका इतना ही सार-संग्रह है ॥ ६१ ॥ यह भिक्षुक का गीत
क्या है, मूर्तिमान् ब्रह्मज्ञान-निष्ठा ही है। जो पुरुष एकाग्रचित्तसे इसे
सुनता, सुनाता और धारण करता है वह कभी सुख-दु:खादि द्वन्द्वोंके वशमें
नहीं होता। उनके बीच में भी वह सिंह के समान दहाड़ता रहता है ॥ ६२ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे त्रयोविंशोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
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