बुधवार, 7 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

तीनों गुणों की वृत्तियों का निरूपण

 

एधमाने गुणे सत्त्वे देवानां बलमेधते

असुराणां च रजसि तमस्युद्धव रक्षसाम् १९

सत्त्वाज्जागरणं विद्याद्रजसा स्वप्नमादिशेत्

प्रस्वापं तमसा जन्तोस्तुरीयं त्रिषु सन्ततम् २०

उपर्युपरि गच्छन्ति सत्त्वेन ब्राह्मणा जनाः

तमसाधोऽध आमुख्याद्रजसान्तरचारिणः २१

सत्त्वे प्रलीनाः स्वर्यान्ति नरलोकं रजोलयाः

तमोलयास्तु निरयं यान्ति मामेव निर्गुणाः २२

मदर्पणं निष्फलं वा सात्त्विकं निजकर्म तत्

राजसं फलसङ्कल्पं हिंसाप्रायादि तामसम् २३

कैवल्यं सात्त्विकं ज्ञानं रजो वैकल्पिकं च यत्

प्राकृतं तामसं ज्ञानं मन्निष्ठं निर्गुणं स्मृतम् २४

वनं तु सात्त्विको वासो ग्रामो राजस उच्यते

तामसं द्यूतसदनं मन्निकेतं तु निर्गुणम् २५

सात्त्विकः कारकोऽसङ्गी रागान्धो राजसः स्मृतः

तामसः स्मृतिविभ्रष्टो निर्गुणो मदपाश्रयः २६

सात्त्विक्याध्यात्मिकी श्रद्धा कर्मश्रद्धा तु राजसी

तामस्यधर्मे या श्रद्धा मत्सेवायां तु निर्गुणा २७

पथ्यं पूतमनायस्तमाहार्यं सात्त्विकं स्मृतम्

राजसं चेन्द्रि यप्रेष्ठं तामसं चार्तिदाशुचि २८

सात्त्विकं सुखमात्मोत्थं विषयोत्थं तु राजसम्

तामसं मोहदैन्योत्थं निर्गुणं मदपाश्रयम् २९

द्रव्यं देशः फलं कालो ज्ञानं कर्म च कारकः

श्रद्धावस्थाकृतिर्निष्ठा त्रैगुण्यः सर्व एव हि ३०

सर्वे गुणमया भावाः पुरुषाव्यक्तधिष्ठिताः

दृष्टं श्रुतं अनुध्यातं बुद्ध्या वा पुरुषर्षभ ३१

एताः संसृतयः पुंसो गुणकर्मनिबन्धनाः

येनेमे निर्जिताः सौम्य गुणा जीवेन चित्तजाः ३२

भक्तियोगेन मन्निष्ठो मद्भावाय प्रपद्यते

तस्माद्देहमिमं लब्ध्वा ज्ञानविज्ञानसम्भवम् ३३

गुणसङ्गं विनिर्धूय मां भजन्तु विचक्षणाः

निःसङ्गो मां भजेद्विद्वानप्रमत्तो जितेन्द्रियः ३४

रजस्तमश्चाभिजयेत्सत्त्वसंसेवया मुनिः

सत्त्वं चाभिजयेद्युक्तो नैरपेक्ष्येण शान्तधीः

सम्पद्यते गुणैर्मुक्तो जीवो जीवं विहाय माम् ३५

जीवो जीवविनिर्मुक्तो गुणैश्चाशयसम्भवैः

मयैव ब्रह्मणा पूर्णो न बहिर्नान्तरश्चरेत् ३६

 

उद्धवजी ! सत्त्वगुणके बढऩेपर देवताओंका, रजोगुणके बढऩेपर असुरोंका और तमोगुणके बढऩेपर राक्षसोंका बल बढ़ जाता है। (वृत्तियोंमें भी क्रमश: सत्त्वादि गुणोंकी अधिकता होनेपर देवत्व, असुरत्व और राक्षसत्वप्रधान निवृत्ति, प्रवृत्ति अथवा मोहकी प्रधानता हो जाती है) ॥ १९ ॥ सत्त्वगुणसे जाग्रत्-अवस्था, रजोगुणसे स्वप्नावस्था और तमोगुणसे सुषुप्ति-अवस्था होती है। तुरीय इन तीनोंमें एक-सा व्याप्त रहता है। वही शुद्ध और एकरस आत्मा है ॥ २० ॥ वेदोंके अभ्यासमें तत्पर ब्राह्मण सत्त्वगुणके द्वारा उत्तरोत्तर ऊपरके लोकोंमें जाते हैं। तमोगुणसे जीवोंको वृक्षादिपर्यन्त अधोगति प्राप्त होती है और रजोगुणसे मनुष्यशरीर मिलता है ॥ २१ ॥ जिसकी मृत्यु सत्त्वगुणोंकी वृद्धिके समय होती है, उसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है; जिसकी रजोगुणकी वृद्धिके समय होती है, उसे मनुष्यलोक मिलता है और जो तमोगुणकी वृद्धिके समय मरता है, उसे नरककी प्राप्ति होती है। परन्तु जो पुरुष त्रिगुणातीत—जीवन्मुक्त हो गये हैं, उन्हें मेरी ही प्राप्ति होती है ॥ २२ ॥ जब अपने धर्मका आचरण मुझे समर्पित करके अथवा निष्कामभावसे किया जाता है, तब वह सात्त्विक होता है। जिस कर्मके अनुष्ठानमें किसी फलकी कामना रहती है, वह राजसिक होता है और जिस कर्ममें किसीको सताने अथवा दिखाने आदिका भाव रहता है, वह तामसिक होता है ॥ २३ ॥ शुद्ध आत्माका ज्ञान सात्त्विक है। उसको कर्ता-भोक्ता समझना राजस ज्ञान है और उसे शरीर समझना तो सर्वथा तामसिक है। इन तीनोंसे विलक्षण मेरे स्वरूपका वास्तविक ज्ञान निर्गुण ज्ञान है ॥ २४ ॥ वनमें रहना सात्त्विक निवास है, गाँवमें रहना राजस है और जूआघरमें रहना तामसिक है। इन सबसे बढक़र मेरे मन्दिरमें रहना निर्गुण निवास है ॥ २५ ॥ अनासक्तभावसे कर्म करनेवाला सात्त्विक है, रागान्ध होकर कर्म करनेवाला राजसिक है और पूर्वापरविचारसे रहित होकर करनेवाला तामसिक है। इनके अतिरिक्त जो पुरुष केवल मेरी शरणमें रहकर बिना अहङ्कारके कर्म करता है, वह निर्गुण कर्ता है ॥ २६ ॥ आत्मज्ञानविषयक श्रद्धा सात्त्विक श्रद्धा है, कर्मविषयक श्रद्धा राजस है और जो श्रद्धा अधर्ममें होती है, वह तामस है तथा मेरी सेवामें जो श्रद्धा है, वह निर्गुण श्रद्धा है ॥ २७ ॥ आरोग्यदायक, पवित्र और अनायास प्राप्त भोजन सात्त्विक है। रसनेन्द्रियको रुचिकर और स्वादकी दृष्टिसे युक्त आहार राजस है तथा दु:खदायी और अपवित्र आहार तामस है ॥ २८ ॥ अन्तर्मुखतासे—आत्मचिन्तनसे प्राप्त होनेवाला सुख सात्त्विक है। बहिर्मुखतासे—विषयोंसे प्राप्त होनेवाला राजस है तथा अज्ञान और दीनतासे प्राप्त होनेवाला सुख तामस है और जो सुख मुझसे मिलता है, वह तो गुणातीत और अप्राकृत है ॥ २९ ॥

उद्धवजी ! द्रव्य (वस्तु), देश (स्थान), फल, काल, ज्ञान, कर्म, कर्ता, श्रद्धा, अवस्था, देव- मनुष्य-तिर्यगादि शरीर और निष्ठा—सभी त्रिगुणात्मक हैं ॥ ३० ॥ नररत्न ! पुरुष और प्रकृतिके आश्रित जितने भी भाव हैं, सभी गुणमय हैं—वे चाहे नेत्रादि इन्द्रियोंसे अनुभव किये हुए हों, शास्त्रोंके द्वारा लोक-लोकान्तरोंके सम्बन्धमें सुने गये हों अथवा बुद्धिके द्वारा सोचे-विचारे गये हों ॥ ३१ ॥ जीवको जितनी भी योनियाँ अथवा गतियाँ प्राप्त होती हैं, वे सब उनके गुणों और कर्मोंके अनुसार ही होती हैं। हे सौम्य ! सब-के-सब गुण चित्तसे ही सम्बन्ध रखते हैं (इसलिये जीव उन्हें अनायास ही जीत सकता है) जो जीव उनपर विजय प्राप्त कर लेता है, वह भक्तियोगके द्वारा मुझमें ही परिनिष्ठित हो जाता है और अन्तत: मेरा वास्तविक स्वरूप, जिसे मोक्ष भी कहते हैं, प्राप्त कर लेता है ॥ ३२ ॥ यह मनुष्यशरीर बहुत ही दुर्लभ है। इसी शरीरमें तत्त्वज्ञान और उसमें निष्ठारूप विज्ञानकी प्राप्ति सम्भव है; इसलिये इसे पाकर बुद्धिमान् पुरुषोंको गुणोंकी आसक्ति हटाकर मेरा भजन करना चाहिये ॥ ३३ ॥ विचारशील पुरुषको चाहिये कि बड़ी सावधानीसे सत्त्वगुणके सेवनसे रजोगुण और तमोगुणको जीत ले, इन्द्रियोंको वशमें कर ले और मेरे स्वरूपको समझकर मेरे भजनमें लग जाय। आसक्तिको लेशमात्र भी न रहने दे ॥ ३४ ॥ योगयुक्तिसे चित्तवृत्तियोंको शान्त करके निरपेक्षताके द्वारा सत्त्वगुणपर भी विजय प्राप्त कर ले। इस प्रकार गुणोंसे मुक्त होकर जीव अपने जीवभावको छोड़ देता है और मुझसे एक हो जाता है ॥ ३५ ॥ जीव लिङ्गशरीररूप अपनी उपाधि जीवत्वसे तथा अन्त:करणमें उदय होनेवाली सत्त्वादि गुणोंकी वृत्तियोंसे मुक्त होकर मुझ ब्रह्मकी अनुभूतिसे एकत्वदर्शनसे पूर्ण हो जाता है और वह फिर बाह्य अथवा आन्तरिक किसी भी विषयमें नहीं जाता ॥ ३६ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे पञ्चविंशोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

तीनों गुणों की वृत्तियों का निरूपण

 

श्रीभगवानुवाच

गुणानामसम्मिश्राणां पुमान्येन यथा भवेत्

तन्मे पुरुषवर्येदमुपधारय शंसतः १

शमो दमस्तितिक्षेक्षा तपः सत्यं दया स्मृतिः

तुष्टिस्त्यागोऽस्पृहा श्रद्धा ह्रीर्दयादिः स्वनिर्वृतिः २

काम ईहा मदस्तृष्णा स्तम्भ आशीर्भिदा सुखम्

मदोत्साहो यशःप्रीतिर्हास्यं वीर्यं बलोद्यमः ३

क्रोधो लोभोऽनृतं हिंसा याच्ञा दम्भः क्लमः कलिः

शोकमोहौ विषादार्ती निद्रा शा भीरनुद्यमः ४

सत्त्वस्य रजसश्चैतास्तमसश्चानुपूर्वशः

वृत्तयो वर्णितप्रायाः सन्निपातमथो शृणु ५

सन्निपातस्त्वहमिति ममेत्युद्धव या मतिः

व्यवहारः सन्निपातो मनोमात्रेन्द्रि यासुभिः ६

धर्मे चार्थे च कामे च यदासौ परिनिष्ठितः

गुणानां सन्निकर्षोऽयं श्रद्धारतिधनावहः ७

प्रवृत्तिलक्षणे निष्ठा पुमान्यर्हि गृहाश्रमे

स्वधर्मे चानु तिष्ठेत गुणानां समितिर्हि सा ८

पुरुषं सत्त्वसंयुक्तमनुमीयाच्छमादिभिः

कामादिभी रजोयुक्तं क्रोधाद्यैस्तमसा युतम् ९

यदा भजति मां भक्त्या निरपेक्षः स्वकर्मभिः

तं सत्त्वप्रकृतिं विद्यात्पुरुषं स्त्रियमेव वा १०

यदा आशिष आशास्य मां भजेत स्वकर्मभिः

तं रजःप्रकृतिं विद्याथिंसामाशास्य तामसम् ११

सत्त्वं रजस्तम इति गुणा जीवस्य नैव मे

चित्तजा यैस्तु भूतानां सज्जमानो निबध्यते १२

यदेतरौ जयेत्सत्त्वं भास्वरं विशदं शिवम्

तदा सुखेन युज्येत धर्मज्ञानादिभिः पुमान् १३

यदा जयेत्तमः सत्त्वं रजः सङ्गं भिदा चलम्

तदा दुःखेन युज्येत कर्मणा यशसा श्रिया १४

यदा जयेद्र जः सत्त्वं तमो मूढं लयं जडम्

युज्येत शोकमोहाभ्यां निद्र या हिंसयाशया १५

यदा त्तिं प्रसीदेत इन्द्रि याणां च निर्वृतिः

देहेऽभयं मनोऽसङ्गं तत्सत्त्वं विद्धि मत्पदम् १६

विकुर्वन्क्रियया चाधीरनिवृत्तिश्च चेतसाम्

गात्रास्वास्थ्यं मनो भ्रान्तं रज एतैर्निशामय १७

सीदच्चित्तं विलीयेत चेतसो ग्रहणेऽक्षमम्

मनो नष्टं तमो ग्लानिस्तमस्तदुपधारय १८

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—पुरुषप्रवर उद्धवजी ! प्रत्येक व्यक्ति  में अलग-अलग गुणोंका प्रकाश होता है। उनके कारण प्राणियों के स्वभाव में भी भेद हो जाता है। अब मैं बतलाता हूँ कि किस गुणसे कैसा-कैसा स्वभाव बनता है। तुम सावधानी से सुनो ॥ १ ॥ सत्त्वगुणकी वृत्तियाँ हैं—शम (मन:संयम), दम (इन्द्रियनिग्रह), तितिक्षा (सहिष्णुता), विवेक, तप, सत्य, दया, स्मृति, सन्तोष, त्याग, विषयोंके प्रति अनिच्छा, श्रद्धा, लज्जा (पाप करनेमें स्वाभाविक सङ्कोच), आत्मरति, दान, विनय और सरलता आदि ॥ २ ॥ रजोगुणकी वृत्तियाँ हैं—इच्छा, प्रयत्न, घमंड, तृष्णा (असन्तोष), ऐंठ या अकड़, देवताओंसे धन आदिकी याचना, भेदबुद्धि, विषयभोग, युद्धादिके लिये मदजनित उत्साह, अपने यशमें प्रेम, हास्य, पराक्रम और हठपूर्वक उद्योग करना आदि ॥ ३ ॥ तमोगुणकी वृत्तियाँ हैं—क्रोध (असहिष्णुता), लोभ, मिथ्याभाषण, हिंसा, याचना, पाखण्ड, श्रम, कलह, शोक, मोह, विषाद, दीनता, निद्रा, आशा, भय और अकर्मण्यता आदि ॥ ४ ॥ इस प्रकार क्रमसे सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी अधिकांश वृत्तियोंका पृथक्-पृथक् वर्णन किया गया। अब उनके मेलसे होनेवाली वृत्तियोंका वर्णन सुनो ॥ ५ ॥ उद्धवजी ! ‘मैं हूँ और यह मेरा है’ इस प्रकारकी बुद्धिमें तीनों गुणोंका मिश्रण है। जिन मन, शब्दादि विषय, इन्द्रिय और प्राणोंके कारण पूर्वोक्त वृत्तियोंका उदय होता है, वे सब-के-सब सात्त्विक, राजस और तामस हैं ॥ ६ ॥ जब मनुष्य धर्म, अर्थ और काममें संलग्र रहता है, तब उसे सत्त्वगुणसे श्रद्धा, रजोगुणसे रति और तमोगुणसे धनकी प्राप्ति होती है। यह भी गुणोंका मिश्रण ही है ॥ ७ ॥ जिस समय मनुष्य सकाम कर्म, गृहस्थाश्रम और स्वधर्माचरणमें अधिक प्रीति रखता है, उस समय भी उसमें तीनों गुणोंका मेल ही समझना चाहिये ॥ ८ ॥

मानसिक शान्ति और जितेन्द्रियता आदि गुणोंसे सत्त्वगुणी पुरुषकी, कामना आदिसे रजोगुणी पुरुषकी और क्रोध-हिंसा आदिसे तमोगुणी पुरुषकी पहचान करे ॥ ९ ॥ पुरुष हो, चाहे स्त्री—जब वह निष्काम होकर अपने नित्य-नैमित्तिक कर्मोंद्वारा मेरी आराधना करे, तब उसे सत्त्वगुणी जानना चाहिये ॥ १० ॥ सकामभावसे अपने कर्मोंके द्वारा मेरा भजन-पूजन करनेवाला रजोगुणी है और जो अपने शत्रुकी मृत्यु आदिके लिये मेरा भजन-पूजन करे, उसे तमोगुणी समझना चाहिये ॥ ११ ॥ सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणोंका कारण जीवका चित्त है। उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। इन्हीं गुणोंके द्वारा जीव शरीर अथवा धन आदिमें आसक्त होकर बन्धनमें पड़ जाता है ॥ १२ ॥ सत्त्वगुण प्रकाशक, निर्मल और शान्त है। जिस समय वह रजोगुण और तमोगुणको दबाकर बढ़ता है, उस समय पुरुष सुख, धर्म और ज्ञान आदिका भाजन हो जाता है ॥ १३ ॥ रजोगुण भेदबुद्धिका कारण है। उसका स्वभाव है आसक्ति और प्रवृत्ति। जिस समय तमोगुण और सत्त्वगुणको दबाकर रजोगुण बढ़ता है, उस समय मनुष्य दु:ख, कर्म, यश और लक्ष्मीसे सम्पन्न होता है ॥ १४ ॥ तमोगुणका स्वरूप है अज्ञान। उसका स्वभाव है आलस्य और बुद्धिकी मूढ़ता। जब वह बढक़र सत्त्वगुण और रजोगुणको दबा लेता है, तब प्राणी तरह-तरहकी आशाएँ करता है, शोक-मोहमें पड़ जाता है, हिंसा करने लगता है अथवा निद्रा-आलस्यके वशीभूत होकर पड़ रहता है ॥ १५ ॥ जब चित्त प्रसन्न हो, इन्द्रियाँ शान्त हों, देह निर्भय हो और मनमें आसक्ति न हो, तब सत्त्वगुणकी वृद्धि समझनी चाहिये। सत्त्वगुण मेरी प्राप्तिका साधन है ॥ १६ ॥ जब काम करते-करते जीवकी बुद्धि चञ्चल, ज्ञानेन्द्रियाँ असन्तुष्ट, कर्मेन्द्रियाँ विकारयुक्त, मन भ्रान्त और शरीर अस्वस्थ हो जाय, तब समझना चाहिये कि रजोगुण जोर पकड़ रहा है ॥ १७ ॥ जब चित्त ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारा शब्दादि विषयोंको ठीक-ठीक समझनेमें असमर्थ हो जाय और खिन्न होकर लीन होने लगे, मन सूना-सा हो जाय तथा अज्ञान और विषादकी वृद्धि हो, तब समझना चाहिये कि तमोगुण वृद्धिपर है ॥ १८ ॥

 

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मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

सांख्ययोग

 

यस्तु यस्यादिरन्तश्च स वै मध्यं च तस्य सन् ।

 विकारो व्यवहारार्थो यथा तैजसपार्थिवाः ॥ १७ ॥

 यदुपादाय पूर्वस्तु भावो विकुरुतेऽपरम् ।

 आदिरन्तो यदा यस्य तत् सत्यमभिधीयते ॥ १८ ॥

 प्रकृतिर्यस्य उपादानं आधारः पुरुषः परः ।

 सतोऽभिव्यञ्जकः कालो ब्रह्म तत्त्रितयं त्वहम् ॥ १९ ॥

 सर्गः प्रवर्तते तावत् पौवापर्येण नित्यशः ।

 महान् गुणविसर्गार्थः स्थित्यन्तो यावदीक्षणम् ॥ २० ॥

 विराण्मयाऽऽसाद्यमानो लोककल्पविकल्पकः ।

 पञ्चत्वाय विशेषाय कल्पते भुवनैः सह ॥ २१ ॥

 अन्ने प्रलीयते मर्त्यं अन्नं धानासु लीयते ।

 धाना भूमौ प्रलीयन्ते भूमिर्गन्धे प्रलीयते ॥ २२ ॥

 अप्सु प्रलीयते गन्ध आपश्च स्वगुणे रसे ।

 लीयते ज्योतिषि रसो ज्योती रूपे प्रलीयते ॥ २३ ॥

 रूपं वायौ स च स्पर्शे लीयते सोऽपि चाम्बरे ।

 अम्बरं शब्दतन्मात्र इन्द्रियाणि स्वयोनिषु ॥ २४ ॥

 योनिर्वैकारिके सौम्य लीयते मनसीश्वरे ।

 शब्दो भूतादिमप्येति भूतादिर्महति प्रभुः ॥ २५ ॥

 स लीयते महान् स्वेषु गुणेशु गुणवत्तमः ।

 तेऽव्यक्ते संप्रलीयन्ते तत्काले लीयतेऽव्यये ॥ २६ ॥

 कालो मायामये जीवे जीव आत्मनि मय्यजे ।

 आत्मा केवल आत्मस्थो विकल्पापायलक्षणः ॥ २७ ॥

 एवमन्वीक्षमाणस्य कथं वैकल्पिको भ्रमः ।

 मनसो हृदि तिष्ठेत व्योम्नीवार्कोदये तमः ॥ २८ ॥

 एष साङ्ख्यविधिः प्रोक्तः संशयग्रन्थिभेदनः ।

 प्रतिलोमानुलोमाभ्यां परावरदृशा मया ॥ २९ ॥

 

जिसके आदि और अन्तमें जो है, वही बीचमें भी है और वही सत्य है। विकार तो केवल व्यवहारके लिये की हुई कल्पनामात्र है। जैसे कंगन-कुण्डल आदि सोनेके विकार, और घड़े-सकोरे आदि मिट्टीके विकार पहले सोना या मिट्टी ही थे, बादमें भी सोना या मिट्टी ही रहेंगे। अत: बीचमें भी वे सोना या मिट्टी ही हैं। पूर्ववर्ती कारण (महत्तत्त्व आदि) भी जिस परम कारणको उपादान बनाकर अपर (अहंकार आदि) कार्य-वर्गकी सृष्टि करते हैं, वही उनकी अपेक्षा भी परम सत्य है। तात्पर्य यह कि जब जो जिस किसी भी कार्यके आदि और अन्तमें विद्यमान रहता है, वही सत्य है ॥ १७-१८ ॥ इस प्रपञ्चका उपादान-कारण प्रकृति है, परमात्मा अधिष्ठान है और इसको प्रकट करनेवाला काल है। व्यवहार-कालकी यह त्रिविधता वस्तुत: ब्रह्म-स्वरूप है और मैं वही शुद्ध ब्रह्म हूँ ॥ १९ ॥ जबतक परमात्माकी ईक्षणशक्ति अपना काम करती रहती है, जबतक उनकी पालन-प्रवृत्ति बनी रहती है, तबतक जीवोंके कर्मभोगके लिये कारण-कार्यरूपसे अथवा पिता-पुत्रादिके रूपसे यह सृष्टिचक्र निरन्तर चलता रहता है ॥ २० ॥

यह विराट् ही विविध लोकोंकी सृष्टि, स्थिति और संहारकी लीलाभूमि है। जब मैं कालरूपसे इसमें व्याप्त होता हूँ, प्रलयका संकल्प करता हूँ, तब यह भुवनोंके साथ विनाशरूप विभागके योग्य हो जाता है ॥ २१ ॥ उसके लीन होनेकी प्रक्रिया यह है कि प्राणियोंके शरीर अन्नमें, अन्न बीजमें, बीज भूमिमें और भूमि गन्ध-तन्मात्रामें लीन हो जाती है ॥ २२ ॥ गन्ध जलमें, जल अपने गुण रसमें , रस तेजमें और तेज रूपमें लीन हो जाता है ॥ २३ ॥ रूप वायुमें, वायु स्पर्शमें, स्पर्श आकाशमें तथा आकाश शब्दतन्मात्रामें लीन हो जाता है। इन्द्रियाँ अपने कारण देवताओंमें और अन्तत: राजस अहङ्कारमें समा जाती हैं ॥ २४ ॥ हे सौम्य ! राजस अहङ्कार अपने नियन्ता सात्त्विक अहङ्काररूप मनमें, शब्दतन्मात्रा पञ्चभूतोंके कारण तामस अहङ्कारमें और सारे जगत्को मोहित करनेमें समर्थ त्रिविध अहङ्कार महत्तत्त्वमें लीन हो जाता है ॥ २५ ॥ ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्तिप्रधान महत्तत्त्व अपने कारण गुणोंमें लीन हो जाता है। गुण अव्यक्त प्रकृतिमें और प्रकृति अपने प्रेरक अविनाशी कालमें लीन हो जाती है ॥ २६ ॥ काल मायामय जीवमें और जीव मुझ अजन्मा आत्मामें लीन हो जाता है। आत्मा किसीमें लीन नहीं होता, वह उपाधिरहित अपने स्वरूपमें ही स्थित रहता है। वह जगत् की सृष्टि और लयका अधिष्ठान एवं अवधि है ॥ २७ ॥ उद्धवजी ! जो इस प्रकार विवेकदृष्टि से देखता है, उसके चित्तमें यह प्रपञ्च का भ्रम हो ही नहीं सकता। यदि कदाचित् उसकी स्फूर्ति हो भी जाय, तो वह अधिक काल तक हृदय में ठहर कैसे सकता है ? क्या सूर्योदय होने  पर भी आकाश  में अन्धकार ठहर सकता है ॥ २८ ॥ उद्धवजी ! मैं कार्य और कारण दोनों का ही साक्षी हूँ। मैंने तुम्हें सृष्टि  से प्रलय और प्रलय से सृष्टि तक की सांख्यविधि बतला दी। इससे सन्देह की गाँठ कट जाती है और पुरुष अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है ॥ २९ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां एकादशस्कन्धे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

सांख्ययोग

 

 श्रीभगवानुवाच -

 अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि साङ्ख्यं पूर्वैर्विनिश्चितम् ।

 यद्विज्ञाय पुमान् सद्यो जह्याद् वैकल्पिकं भ्रमम् ॥ १ ॥

 आसीज्ज्ञानमथो अर्थ एकमेवाविकल्पितम् ।

 यदा विवेकनिपुणा आदौ कृतयुगेऽयुगे ॥ २ ॥

 तन्मायाफलरूपेण केवलं निर्विकल्पितम् ।

 वाङ्‌मनोऽगोचरं सत्यं द्विधा समभवद् बृहत् ॥ ३ ॥

 तयोरेकतरो ह्यर्थः प्रकृतिः सोभयात्मिका ।

 ज्ञानं त्वन्यतमो भावः पुरुषः सोऽभिधीयते ॥ ४ ॥

 तमो रजः सत्त्वमिति प्रकृतेरभवन् गुणाः ।

 मया प्रक्षोभ्यमाणायाः पुरुषानुमतेन च ॥ ५ ॥

 तेभ्यः समभवत् सूत्रं महान् सूत्रेण संयुतः ।

 ततो विकुर्वतो जातो अहङ्कारो विमोहनः ॥ ६ ॥

 वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिवृत् ।

 तन्मात्रेन्द्रियमनसां कारणं चिदचिन्मयः ॥ ७ ॥

 अर्थस्तन्मात्रिकाज्जज्ञे तामसादिन्द्रियाणि च ।

 तैजसाद् देवता आसन् एकादश च वैकृतात् ॥ ८ ॥

 मया सञ्चोदिता भावाः सर्वे संहत्यकारिणः ।

 अण्डं उत्पादयामासुं ममायतनमुत्तमम् ॥ ९ ॥

 तस्मिन् अहं समभवं अण्डे सलिलसंस्थितौ ।

 मम नाभ्यामभूत् पद्मं विश्वाख्यं तत्र चात्मभूः ॥ १० ॥

 सोऽसृजत्तपसा युक्तो रजसा मदनुग्रहात् ।

 लोकान् सपालान् विश्वात्मा भूर्भुवः स्वरिति त्रिधा ॥ ११ ॥

 देवानामोक आसीत् स्वर्भूतानां च भुवः पदम् ।

 मर्त्यादीनां च भूर्लोकः सिद्धानां त्रितयात् परम् ॥ १२ ॥

 अधोऽसुराणां नागानां भूमेरोकोऽसृजत् प्रभुः ।

 त्रिलोक्यां गतयः सर्वाः कर्मणां त्रिगुणात्मनाम् ॥ १३ ॥

 योगस्य तपसश्चैव न्यासस्य गतयोऽमलाः ।

 महर्जनस्तपः सत्यं भक्तियोगस्य मद्‌गतिः ॥ १४ ॥

 मया कालात्मना धात्रा कर्मयुक्तमिदं जगत् ।

 गुणप्रवाह एतस्मिन् उन्मज्जति निमज्जति ॥ १५ ॥

 अणुर्बृहत् कृशः स्थूलो यो यो भावः प्रसिध्यति ।

 सर्वोऽप्युभयसंयुक्तः प्रकृत्या पुरुषेण च ॥ १६ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—प्यारे उद्धव ! अब मैं तुम्हें सांख्यशास्त्रका निर्णय सुनाता हूँ। प्राचीन कालके बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंने इसका निश्चय किया है। जब जीव इसे भलीभाँति समझ लेता है, तो वह भेदबुद्धि-मूलक सुख-दु:खादिरूप भ्रमका तत्काल त्याग कर देता है ॥ १ ॥ युगोंसे पूर्व प्रलयकालमें आदिसत्ययुग में और जब कभी मनुष्य विवेकनिपुण होते हैं—इन सभी अवस्थाओंमें यह सम्पूर्ण दृश्य और द्रष्टा, जगत् और जीव विकल्पशून्य किसी प्रकारके भेदभावसे रहित केवल ब्रह्म ही होते हैं ॥ २ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्ममें किसी प्रकारका विकल्प नहीं है, वह केवल—अद्वितीय सत्य है; मन और वाणीकी उसमें गति नहीं है। वह ब्रह्म ही माया और उसमें प्रतिबिम्बित जीवके रूपमें—दृश्य और द्रष्टाके रूपमें—दो भागोंमें विभक्त-सा हो गया ॥ ३ ॥ उनमेंसे एक वस्तुको प्रकृति कहते हैं। उसीने जगत्में कार्य और कारणका रूप धारण किया है। दूसरी वस्तुको, जो ज्ञानस्वरूप है, पुरुष कहते हैं ॥ ४ ॥ उद्धवजी ! मैंने ही जीवोंके शुभ-अशुभ कर्मोंके अनुसार प्रकृतिको क्षुब्ध किया। तब उससे सत्त्व, रज और तम—ये तीन गुण प्रकट हुए ॥ ५ ॥ उनसे क्रिया-शक्तिप्रधान सूत्र और ज्ञानशक्तिप्रधान महत्तत्त्व प्रकट हुए। वे दोनों परस्पर मिले हुए ही हैं। महत्तत्त्व में विकार होनेपर अहङ्कार व्यक्त हुआ। यह अहङ्कार ही जीवोंको मोहमें डालनेवाला है ॥ ६ ॥ वह तीन प्रकार का है—सात्त्विक, राजस और तामस। अहङ्कार पञ्चतन्मात्रा, इन्द्रिय और मनका कारण है; इसलिये वह जड-चेतन—उभयात्मक है ॥ ७ ॥ तामस अहङ्कार से पञ्चतन्मात्राएँ और उनसे पाँच भूतों की उत्पत्ति हुई। तथा राजस अहङ्कार से इन्द्रियाँ और सात्त्विक अहङ्कार से इन्द्रियोंके अधिष्ठाता ग्यारह देवता[*] प्रकट हुए ॥८॥ ये सभी पदार्थ मेरी प्रेरणा से एकत्र होकर परस्पर मिल गये और इन्होंने यह ब्रह्माण्डरूप अण्ड उत्पन्न किया। यह अण्ड मेरा उत्तम निवासस्थान है ॥ ९ ॥ जब वह अण्ड जल में स्थित हो गया, तब मैं नारायणरूप से इसमें विराजमान हो गया। मेरी नाभिसे विश्वकमलकी उत्पत्ति हुई। उसीपर ब्रह्माका आविर्भाव हुआ ॥ १० ॥ विश्वसमष्टिके अन्त:करण ब्रह्माने पहले बहुत बड़ी तपस्या की। उसके बाद मेरा कृपा-प्रसाद प्राप्त करके रजोगुणके द्वारा भू:, भुव:, स्व: अर्थात् पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्ग—इन तीन लोकोंकी और इनके लोकपालोंकी रचना की ॥ ११ ॥ देवताओंके निवासके लिये स्वर्लोक, भूत-प्रेतादिके लिये भुवर्लोक (अन्तरिक्ष) और मनुष्य आदिके लिये भूर्लोक (पृथ्वीलोक) का निश्चय किया गया। इन तीनों लोकोंसे ऊपर महर्लोक, तपलोक आदि सिद्धोंके निवासस्थान हुए ॥ १२ ॥ सृष्टिकार्यमें समर्थ ब्रह्माजीने असुर और नागोंके लिये पृथ्वीके नीचे अतल, वितल, सुतल आदि सात पाताल बनाये। इन्हीं तीनों लोकोंमें त्रिगुणात्मक कर्मोंके अनुसार विविध गतियाँ प्राप्त होती हैं ॥ १३ ॥ योग, तपस्या और संन्यासके द्वारा महर्लोक, जनलोक, तपलोक और सत्यलोकरूप उत्तम गति प्राप्त होती है तथा भक्तियोगसे मेरा परम धाम मिलता है ॥ १४ ॥ यह सारा जगत् कर्म और उनके संस्कारोंसे युक्त है। मैं ही कालरूपसे कर्मोंके अनुसार उनके फलका विधान करता हूँ। इस गुणप्रवाहमें पडक़र जीव कभी डूब जाता है और कभी ऊपर आ जाता है—कभी उसकी अधोगति होती है और कभी उसे पुण्यगति उच्चगति प्राप्त हो जाती है ॥ १५ ॥ जगत् में छोटे-बड़े, मोटे-पतले— जितने भी पदार्थ बनते हैं, सब प्रकृति और पुरुष दोनोंके संयोगसे ही सिद्ध होते है ॥ १६ ॥

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[*] पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन—इस प्रकार ग्यारह इन्द्रियोंके अधिष्ठाता ग्यारह देवता हैं।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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