शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— सताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— सताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

क्रियायोग का वर्णन

 

श्रीउद्धव उवाच -

क्रियायोगं समाचक्ष्व भवदाराधनं प्रभो ।

 यस्मात्त्वां ये यथार्चन्ति सात्वताः सात्वतर्षभ ॥ १ ॥

 एतद् वदन्ति मुनयो मुहुर्निःश्रेयसं नृणाम् ।

 नारदो भगवान् व्यास आचार्योऽग्‌गिरसः सुतः ॥ २ ॥

 निःसृतं ते मुखाम्भोजाद् यदाह भगवानजः ।

 पुत्रेभ्यो भृगुमुख्येभ्यो देव्यै च भगवान् भवः ॥ ३ ॥

 एतद् वै सर्ववर्णानां आश्रमाणां च सम्मतम् ।

 श्रेयसामुत्तमं मन्ये स्त्रीशूद्राणां च मानद ॥ ४ ॥

 एतत्कमलपत्राक्ष कर्मबन्धविमोचनम् ।

 भक्ताय चानुरक्ताय ब्रूहि विश्वेश्वरेश्वर ॥ ५ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

 न ह्यन्तोऽनन्तपारस्य कर्मकाण्डस्य चोद्धव ।

 सङ्‌क्षिप्तं वर्णयिष्यामि यथावदनुपूर्वशः ॥ ६ ॥

 वैदिकस्तान्त्रिको मिश्र इति मे त्रिविधो मखः ।

 त्रयाणामीप्सितेनैव विधिना मां समर्चरेत् ॥ ७ ॥

 यदा स्वनिगमेनोक्तं द्विजत्वं प्राप्य पूरुषः ।

 यथा यजेत मां भक्त्या श्रद्धया तन्निबोध मे ॥ ८ ॥

 अर्चायां स्थण्डिलेऽग्नौ वा सूर्ये वाप्सु हृदि द्विजः ।

 द्रव्येण भक्तियुक्तोऽर्चेत् स्वगुरुं माममायया ॥ ९ ॥

 पूर्वं स्नानं प्रकुर्वीत धौतदन्तोऽङ्गशुद्धये ।

 उभयैरपि च स्नानं मन्त्रैर्मृद् ग्रहणादिना ॥ १० ॥

 सन्ध्योपास्त्यादिकर्माणि वेदेनाचोदितानि मे ।

 पूजां तैः कल्पयेत् सम्यक् सङ्कल्पः कर्मपावनीम् ॥ ११ ॥

 शैली दारुमयी लौही लेप्या लेख्या च सैकती ।

 मनोमयी मणिमयी प्रतिमाष्टविधा स्मृता ॥ १२ ॥

 चलाचलेति द्विविधा प्रतिष्ठा जीवमन्दिरम् ।

 उद्वासावाहने न स्तः स्थिरायामुद्धवार्चने ॥ १३ ॥

 अस्थिरायां विकल्पः स्यात् स्थण्डिले तु भवेद् द्वयम् ।

 स्नपनं त्वविलेप्यायां अन्यत्र परिमार्जनम् ॥ १४ ॥

 द्रव्यैः प्रसिद्धैर्मद्यागः प्रतिमादिष्वमायिनः ।

 भक्तस्य च यथालब्धैः हृदि भावेन चैव हि ॥ १५ ॥

 स्नानालङ्करणं प्रेष्ठं अर्चायामेव तूद्धव ।

 स्थण्डिले तत्त्वविन्यासो वह्नावाज्यप्लुतं हविः ॥ १६ ॥

 सूर्ये चाभ्यर्हणं प्रेष्ठं सलिले सलिलादिभिः ।

 श्रद्धयोपाहृतं प्रेष्ठं भक्तेन मम वार्यपि ॥ १७ ॥

 भूर्यप्यभक्तोपाहृतं न मे तोषाय कल्पते ।

 गन्धो धूपः सुमनसो दीपोऽन्नाद्यं च किं पुनः ॥ १८ ॥

 शुचिः सम्भृतसम्भारः प्राग्दर्भैः कल्पितासनः ।

 आसीनः प्रागुदग् वार्चेद् अर्चायामथ सम्मुखः ॥ १९ ॥

 कृतन्यासः कृतन्यासां मदर्चां पाणिनामृजेत् ।

 कलशं प्रोक्षणीयं च यथावदुपसाधयेत् ॥ २० ॥

 तदद्‌भिर्देवयजनं द्रव्याण्यात्मानमेव च ।

 प्रोक्ष्य पात्राणि त्रीण्यद्‌भिः तैस्तैर्द्रव्यैश्च साधयेत् ॥ २१ ॥

 पाद्यार्घ्याचमनीयार्थं त्रीणि पात्राणि दैशिकः ।

 हृदा शीर्ष्णाथ शिखया गायत्र्या चाभिमन्त्रयेत् ॥ २२ ॥

 पिण्डे वाय्वग्निसंशुद्धे हृत्पद्मस्थां परां मम ।

 अण्वीं जीवकलां ध्यायेत् नादान्ते सिद्धभाविताम् ॥ २३ ॥

 तयाऽऽत्मभूतया पिण्डे व्याप्ते सम्पूज्य तन्मयः ।

 आवाह्यार्चादिषु स्थाप्य न्यस्ताङ्गं मां प्रपूजयेत् ॥ २४ ॥

 पाद्योपस्पर्शाहणादीन् उपचारान् प्रकल्पयेत् ।

 धर्मादिभिश्च नवभिः कल्पयित्वाऽऽसनं मम ॥ २५ ॥

 पद्ममष्टदलं तत्र कर्णिकाकेसरोज्ज्वलम् ।

 उभाभ्यां वेदतन्त्राभ्यां मह्यं तूभयसिद्धये ॥ २६ ॥

 सुदर्शनं पाञ्चजन्यं गदासीषुधनुर्हलान् ।

 मुसलं कौस्तुभं मालां श्रीवत्सं चानुपूजयेत् ॥ २७ ॥

 नन्दं सुनन्दं गरुडं प्रचण्डं चण्डमेव च ।

 महाबलं बलं चैव कुमुदं कुमुदेक्षणम् ॥ २८ ॥

 दुर्गां विनायकं व्यासं विष्वक्सेनं गुरून् सुरान् ।

 स्वे स्वे स्थाने त्वभिमुखान् पूजयेत् प्रोक्षणादिभिः ॥ २९ ॥

 

उद्धवजीने पूछा—भक्तवत्सल श्रीकृष्ण ! जिस क्रियायोगका आश्रय लेकर जो भक्तजन जिस प्रकारसे जिस उद्देश्यसे आपकी अर्चा-पूजा करते हैं, आप अपने उस आराधनरूप क्रियायोगका वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ देवर्षि नारद, भगवान्‌ व्यासदेव और आचार्य बृहस्पति आदि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि यह बात बार-बार कहते हैं कि क्रियायोगके द्वारा आपकी आराधना ही मनुष्योंके परम कल्याणकी साधना है ॥ २ ॥ यह क्रियायोग पहले-पहल आपके मुखारविन्दसे ही निकला था। आपसे ही ग्रहण करके इसे ब्रह्माजीने अपने पुत्र भृगु आदि महर्षियोंको और भगवान्‌ शङ्करने अपनी अद्र्धाङ्गिनी भगवती पार्वतीजीको उपदेश किया था ॥ ३ ॥ मर्यादारक्षक प्रभो ! यह क्रियायोग ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि वर्णों और ब्रह्मचारी-गृहस्थ आदि आश्रमोंके लिये भी परम कल्याणकारी है। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि स्त्री-शूद्रादिके लिये भी यही सबसे श्रेष्ठ साधना-पद्धति है ॥ ४ ॥ कमलनयन श्यामसुन्दर ! आप शङ्कर आदि जगदीश्वरोंके भी ईश्वर हैं और मैं आपके चरणोंका प्रेमी भक्त हूँ। आप कृपा करके मुझे यह कर्मबन्धनसे मुक्त करनेवाली विधि बतलाइये ॥ ५ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी ! कर्मकाण्डका इतना विस्तार है कि उसकी कोई सीमा नहीं है; इसलिये मैं उसे थोड़ेमें ही पूर्वापर-क्रमसे विधिपूर्वक वर्णन करता हूँ ॥ ६ ॥ मेरी पूजाकी तीन विधियाँ हैं— वैदिक, तान्त्रिक और मिश्रित। इन तीनोंमेंसे मेरे भक्तको जो भी अपने अनुकूल जान पड़े, उसी विधिसे मेरी आराधना करनी चाहिये ॥ ७ ॥ पहले अपने अधिकारानुसार शास्त्रोक्त विधिसे समयपर यज्ञोपवीत-संस्कारके द्वारा संस्कृत होकर द्विजत्व प्राप्त करे, फिर श्रद्धा और भक्तिके साथ वह किस प्रकार मेरी पूजा करे, इसकी विधि तुम मुझसे सुनो ॥ ८ ॥ भक्तिपूर्वक निष्कपट भावसे अपने पिता एवं गुरुरूप मुझ परमात्माका पूजाकी सामग्रियोंके द्वारा मूर्तिमें , वेदीमें, अग्रिमें, सूर्यमें, जलमें, हृदयमें अथवा ब्राह्मणमें—चाहे किसीमें भी आराधना करे ॥ ९ ॥ उपासकको चाहिये कि प्रात:काल दतुअन करके पहले शरीरशुद्धिके लिये स्नान करे और फिर वैदिक और तान्त्रिक दोनों प्रकारके मन्त्रोंसे मिट्टी और भस्म आदिका लेप करके पुन: स्नान करे ॥ १० ॥ इसके पश्चात् वेदोक्त सन्ध्या-वन्दनादि नित्यकर्म करने चाहिये। उसके बाद मेरी आराधनाका ही सुदृढ़ सङ्कल्प करके वैदिक और तान्ङ्क्षत्रक विधियोंसे कर्मबन्धनोंसे छुड़ानेवाली मेरी पूजा करे ॥ ११ ॥ मेरी मूर्ति आठ प्रकारकी होती है—पत्थरकी, लकड़ीकी, धातुकी , मिट्टी और चन्दन आदिकी, चित्रमयी, बालुकामयी, मनोमयी और मणिमयी ॥ १२ ॥ चल और अचल भेदसे दो प्रकारकी प्रतिमा ही मुझ भगवान्‌का मन्दिर है। उद्धवजी ! अचल प्रतिमाके पूजनमें प्रतिदिन आवाहन और विसर्जन नहीं करना चाहिये ॥ १३ ॥ चल प्रतिमाके सम्बन्धमें विकल्प है। चाहे करे और चाहे न करे। परन्तु बालुकामयी प्रतिमामें तो आवाहन और विसर्जन प्रतिदिन करना ही चाहिये। मिट्टी और चन्दनकी तथा चित्रमयी प्रतिमाओंको स्नान न करावे, केवल मार्जन कर दे; परन्तु और सबको स्नान कराना चाहिये ॥ १४ ॥ प्रसिद्ध-प्रसिद्ध पदार्थोंसे प्रतिमा आदिमें मेरी पूजा की जाती है, परन्तु जो निष्काम भक्त है, वह अनायास प्राप्त पदार्थोंसे और भावनामात्रसे ही हृदयमें मेरी पूजा कर ले ॥ १५ ॥ उद्धवजी ! स्नान, वस्त्र, आभूषण आदि तो पाषाण अथवा धातुकी प्रतिमाके पूजनमें ही उपयोगी हैं। बालुकामयी मूर्ति अथवा मिट्टीकी वेदीमें पूजा करनी हो, तो उसमें मन्त्रोंके द्वारा अङ्ग और उसके प्रधान देवताओंकी यथास्थान पूजा करनी चाहिये। तथा अग्रिमें पूजा करनी हो, तो घृतमिश्रित हवन-सामग्रियोंसे आहुति देनी चाहिये ॥ १६ ॥ सूर्यको प्रतीक मानकर की जानेवाली उपासनामें मुख्यत: अघ्र्यदान एवं उपस्थान ही प्रिय है और जलमें तर्पण आदिसे मेरी उपासना करनी चाहिये। जब मुझे कोई भक्त हार्दिक श्रद्धासे जल भी चढ़ाता है, तब मैं उसे बड़े प्रेमसे स्वीकार करता हूँ ॥ १७ ॥ यदि कोई अभक्त मुझे बहुत-सी सामग्री निवेदन करे, तो भी मैं उससे सन्तुष्ट नहीं होता। जब मैं भक्ति-श्रद्धापूर्वक समर्पित जलसे ही प्रसन्न हो जाता हूँ, तब गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदि वस्तुओंके समर्पणसे तो कहना ही क्या है ॥ १८ ॥

उपासक पहले पूजाकी सामग्री इकट्ठी कर ले। फिर इस प्रकार कुश बिछाये कि उनके अगले भाग पूर्वकी ओर रहें। तदनन्तर पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके पवित्रतासे उन कुशोंके आसनपर बैठ जाय। यदि प्रतिमा अचल हो तो उसके सामने ही बैठना चाहिये। इसके बाद पूजाकार्य प्रारम्भ करे ॥ १९ ॥ पहले विधिपूर्वक अङ्गन्यास और करन्यास कर ले। इसके बाद मूर्तिमें मन्त्रन्यास करे और हाथसे प्रतिमापरसे पूर्वसमर्पित सामग्री हटाकर उसे पोंछ दे। इसके बाद जलसे भरे हुए कलश और प्रोक्षणपात्र आदिकी पूजा गन्ध-पुष्प आदिसे करे ॥ २० ॥ प्रोक्षणपात्रके जलसे पूजासामग्री और अपने शरीरका प्रोक्षण कर ले। तदनन्तर पाद्य, अघ्र्य और आचमनके लिये तीन पात्रोंमें कलशमेंसे जल भरकर रख ले और उनमें पूजा-पद्धतिके अनुसार सामग्री डाले। (पाद्यपात्रमें श्यामाक—साँवेके दाने, दूब, कमल, विष्णुक्रान्ता और चन्दन, तुलसीदल आदि; अघ्र्यपात्रमें गन्ध, पुष्प, अक्षत, जौ, कुश, तिल, सरसों और दूब तथा आचमनपात्रमें जायफल, लौंग आदि डाले।) इसके बाद पूजा करनेवालेको चाहिये कि तीनों पात्रोंको क्रमश: हृदयमन्त्र, शिरोमन्त्र और शिखामन्त्रसे अभिमन्ङ्क्षत्रत करके अन्तमें गायत्रीमन्त्रसे तीनोंको अभिमन्ङ्क्षत्रत करे ॥ २१-२२ ॥ इसके बाद प्राणायामके द्वारा प्राणवायु और भावनाओंद्वारा शरीरस्थ अग्रिके शुद्ध हो जानेपर हृदयकमलमें परम सूक्ष्म और श्रेष्ठ दीपशिखाके समान मेरी जीवकलाका ध्यान करे। बड़े-बड़े सिद्ध ऋषि-मुनि ॐकारके अकार, उकार, मकार, बिन्दु और नाद—इन पाँच कलाओंके अन्तमें उसी जीवकलाका ध्यान करते हैं ॥ २३ ॥ वह जीवकला आत्मस्वरूपिणी है। जब उसके तेजसे सारा अन्त:करण और शरीर भर जाय, तब मानसिक उपचारोंसे मन-ही-मन उसकी पूजा करनी चाहिये। तदनन्तर तन्मय होकर मेरा आवाहन करे और प्रतिमा आदिमें स्थापना करे। फिर मन्त्रोंके द्वारा अङ्गन्यास करके उसमें मेरी पूजा करे ॥ २४ ॥ उद्धवजी ! मेरे आसनमें धर्म आदि गुणों और विमला आदि शक्तियोंकी भावना करे। अर्थात् आसनके चारों कोनोंमें धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यरूप चार पाये हैं; अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्य—ये चार चारों दिशाओंमें डंडे हैं; सत्त्व-रज-तम-रूप तीन पटरियोंकी बनी हुई पीठ है; उसपर विमला, उत्कॢषणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्वी, सत्या, ईशाना और अनुग्रहा—ये नौ शक्तियाँ विराजमान हैं। उस आसनपर एक अष्टदल कमल है, उसकी कर्णिका अत्यन्त प्रकाशमान है और पीली-पीली केसरोंकी छटा निराली ही है। आसनके सम्बन्धमें ऐसी भावना करके पाद्य, आचमनीय और अर्घ्य आदि उपचार प्रस्तुत करे। तदनन्तर भोग और मोक्षकी सिद्धिके लिये वैदिक और तान्त्रिक विधिसे मेरी पूजा करे ॥ २५-२६ ॥ सुदर्शनचक्र, पाञ्चजन्य शङ्ख, कौमोदकी गदा, खड्ग, बाण, धनुष, हल, मूसल— इन आठ आयुधोंकी पूजा आठ दिशाओंमें करे और कौस्तुभमणि, वैजयन्तीमाला तथा श्रीवत्सचिह्नकी वक्ष:स्थलपर यथास्थान पूजा करे ॥ २७ ॥ नन्द, सुनन्द, प्रचण्ड, चण्ड, महाबल, बल, कुमुद और कुमुदेक्षण—इन आठ पार्षदोंकी आठ दिशाओंमें; गरुडक़ी सामने; दुर्गा, विनायक, व्यास और विष्वक्सेनकी चारों कोनोंमें स्थापना करके पूजन करे। बायीं ओर गुरुकी और यथाक्रम पूर्वादि दिशाओंमें इन्द्रादि आठ लोकपालोंकी स्थापना करके प्रोक्षण, अर्घ्यदान आदि क्रमसे उनकी पूजा करनी चाहिये ॥ २८-२९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



गुरुवार, 8 अप्रैल 2021


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

पुरूरवा की वैराग्योक्ति

 

श्रीभगवानुवाच -

एवं प्रगायन् नृपदेवदेवः

     स उर्वशीलोकमथो विहाय ।

 आत्मानमात्मन्यवगम्य मां वै

     उपारमत् ज्ञानविधूतमोहः ॥ २५ ॥

ततो दुःसङ्गमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान् ।

 सन्त एवास्य छिन्दन्ति मनोव्यासङ्गमुक्तिभिः ॥ २६ ॥

 सन्तोऽनपेक्षा मच्चित्ताः प्रशान्ताः समदर्शिनः ।

 निर्ममा निरहङ्कारा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः ॥ २७ ॥

 तेषु नित्यं महाभाग महाभागेषु मत्कथाः ।

 सम्भवन्ति हिता नृणां जुषतां प्रपुनन्त्यघम् ॥ २८ ॥

 ता ये श्रृण्वन्ति गायन्ति ह्यनुमोदन्ति चादृताः ।

 मत्पराः श्रद्दधानाश्च भक्तिं विन्दन्ति ते मयि ॥ २९ ॥

 भक्तिं लब्धवतः साधोः किमन्यद् अवशिष्यते ।

 मय्यनन्तगुणे ब्रह्मण्यानन्दानुभवात्मनि ॥ ३० ॥

 यथोपश्रमाणस्य भगवन्तं विभावसुम् ।

 शीतं भयं तमोऽप्येति साधून् संसेवतस्तथा ॥ ३१ ॥

 निमज्ज्योन्मज्जतां घोरे भवाब्धौ परमायनम् ।

 सन्तो ब्रह्मविदः शान्ता नौर्दृढेवाप्सु मज्जताम् ॥ ३२ ॥

 अन्नं हि प्राणिनां प्राण आर्तानां शरणं त्वहम् ।

 धर्मो वित्तं नृणां प्रेत्य सन्तोऽर्वाग् बिभ्यतोऽरणम् ॥ ३३ ॥

 सन्तो दिशन्ति चक्षूंषि बहिरर्कः समुत्थितः ।

 देवता बान्धवाः सन्तः सन्त आत्माहमेव च ॥ ३४ ॥

 वैतसेनस्ततोऽप्येवं उर्वश्या लोकनिस्पृहः ।

 मुक्तसङ्गो महीमेतां आत्मारामश्चचार ह ॥ ३५ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी ! राजराजेश्वर पुरूरवाके मनमें जब इस तरहके उद्गार उठने लगे, तब उसने उर्वशीलोकका परित्याग कर दिया। अब ज्ञानोदय होनेके कारण उसका मोह जाता रहा और उसने अपने हृदयमें ही आत्मस्वरूपसे मेरा साक्षात्कार कर लिया और वह शान्तभावमें स्थित हो गया ॥ २५ ॥ इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि पुरूरवाकी भाँति कुसङ्ग छोडक़र सत्पुरुषोंका सङ्ग करे। संत पुरुष अपने सदुपदेशोंसे उसके मनकी आसक्ति नष्ट कर देंगे ॥ २६ ॥ संत पुरुषोंका लक्षण यह है कि उन्हें कभी किसी वस्तुकी अपेक्षा नहीं होती। उनका चित्त मुझमें लगा रहता है। उनके हृदयमें शान्तिका अगाध समुद्र लहराता रहता है। वे सदा-सर्वदा सर्वत्र सबमें सब रूपसे स्थित भगवान्‌का ही दर्शन करते हैं। उनमें अहङ्कारका लेश भी नहीं होता, फिर ममताकी तो सम्भावना ही कहाँ है। वे सर्दी-गरमी, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंमें एकरस रहते हैं तथा बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक और पदार्थ-सम्बन्धी किसी प्रकारका भी परिग्रह नहीं रखते ॥ २७ ॥ परम भाग्यवान् उद्धवजी ! संतोंके सौभाग्यकी महिमा कौन कहे ? उनके पास सदा-सर्वदा मेरी लीला-कथाएँ हुआ करती हैं। मेरी कथाएँ मनुष्योंके लिये परम हितकर हैं; जो उनका सेवन करते हैं, उनके सारे पाप-तापोंको वे धो डालती हैं ॥ २८ ॥ जो लोग आदर और श्रद्धासे मेरी लीला- कथाओंका श्रवण, गान और अनुमोदन करते हैं, वे मेरे परायण हो जाते हैं और मेरी अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त कर लेते हैं ॥ २९ ॥ उद्धवजी ! मैं अनन्त अचिन्त्य कल्याणमय गुणगणोंका आश्रय हूँ। मेरा स्वरूप है—केवल आनन्द, केवल अनुभव , विशुद्ध आत्मा। मैं साक्षात् परब्रह्म हूँ। जिसे मेरी भक्ति मिल गयी, वह तो संत हो गया। अब उसे कुछ भी पाना शेष नहीं है ॥ ३० ॥ उनकी तो बात ही क्या—जिसने उन संत पुरुषोंकी शरण ग्रहण कर ली उसकी भी कर्मजडता, संसारभय और अज्ञान आदि सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं। भला, जिसने अग्रिभगवान्‌का आश्रय ले लिया उसे शीत, भय अथवा अन्धकारका दु:ख हो सकता है ? ॥ ३१ ॥ जो इस घोर संसारसागर में डूब-उतरा रहे हैं, उनके लिये ब्रह्मवेत्ता और शान्त संत ही एकमात्र आश्रय हैं, जैसे जलमें डूब रहे लोगोंके लिये दृढ़ नौका ॥ ३२ ॥ जैसे अन्नसे प्राणियोंके प्राणकी रक्षा होती है, जैसे मैं ही दीन-दुखियोंका परम रक्षक हूँ, जैसे मनुष्यके लिये परलोकमें धर्म ही एकमात्र पूँजी है—वैसे ही जो लोग संसारसे भयभीत हैं, उनके लिये संतजन ही परम आश्रय हैं ॥ ३३ ॥ जैसे सूर्य आकाशमें उदय होकर लोगोंको जगत् तथा अपनेको देखनेके लिये नेत्रदान करता है, वैसे ही संत पुरुष अपनेको तथा भगवान्‌को देखनेके लिये अन्तर्दृष्टि देते हैं। संत अनुग्रहशील देवता हैं। संत अपने हितैषी सुहृद् हैं। संत अपने प्रियतम आत्मा हैं। और अधिक क्या कहूँ, स्वयं मैं ही संतके रूप में विद्यमान हूँ ॥ ३४ ॥ प्रिय उद्धव ! आत्मसाक्षात्कार होते ही इलानन्दन पुरूरवा को उर्वशी के लोककी स्पृहा न रही। उसकी सारी आसक्तियाँ मिट गयीं और वह आत्माराम होकर स्वच्छन्दरूपसे इस पृथ्वीपर विचरण करने लगा॥३५॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां एकादशस्कन्धे षड्‌विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से 



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

पुरूरवा की वैराग्योक्ति

 

श्रीभगवानुवाच -

मल्लक्षणमिमं कायं लब्ध्वा मद्धर्म आस्थितः ।

 आनन्दं परमात्मानं आत्मस्थं समुपैति माम् ॥ १ ॥

 गुणमय्या जीवयोन्या विमुक्तो ज्ञाननिष्ठया ।

 गुणेषु मायामात्रेषु दृश्यमानेष्ववस्तुतः ।

 वर्तमानोऽपि न पुमान् युज्यतेऽवस्तुभिर्गुणैः ॥ २ ॥

 सङ्गं न कुर्यादसतां शिश्नोदरतृपां क्वचित् ।

 तस्यानुगस्तमस्यन्धे पतत्यन्धानुगान्धवत् ॥ ३ ॥

 ऐलः सम्राडिमां गाथां अगायत बृहच्छ्रवाः ।

 उर्वशीविरहान् मुह्यन् निर्विण्णः शोकसंयमे ॥ ४ ॥

 त्यक्त्वाऽऽत्मानं व्रजन्तीं तां नग्न उन्मत्तवन्नृपः ।

 विलपन् अन्वगाज्जाये घोरे तिष्ठेति विक्लवः ॥ ५ ॥

 कामानतृप्तोऽनुजुषन् क्षुल्लकान् वर्षयामिनीः ।

 न वेद यान्तीर्नायान्तीः उर्वश्याकृष्टचेतनः ॥ ६ ॥

 

 ऐल उवाच -

 अहो मे मोहविस्तारः कामकश्मलचेतसः ।

 देव्या गृहीतकण्ठस्य नायुःखण्डा इमे स्मृताः ॥ ७ ॥

 नाहं वेदाभिनिर्मुक्तः सूर्यो वाभ्युदितोऽमुया ।

 मूषितो वर्षपूगानां बताहानि गतान्युत ॥ ८ ॥

 अहो मे आत्मसम्मोहो येनात्मा योषितां कृतः ।

 क्रीडामृगश्चक्रवर्ती नरदेवशिखामणिः ॥ ९ ॥

 सपरिच्छदमात्मानं हित्वा तृणमिवेश्वरम् ।

 यान्तीं स्त्रियं चान्वगमं नग्न उन्मत्तवद् रुदन् ॥ १० ॥

 कुतस्तस्यानुभावः स्यात् तेज ईशत्वमेव वा ।

 योऽन्वगच्छं स्त्रियं यान्तीं खरवत् पादताडितः ॥ ११ ॥

 किं विद्यया किं तपसा किं त्यागेन श्रुतेन वा ।

 किं विविक्तेन मौनेन स्त्रीभिर्यस्य मनो हृतम् ॥ १२ ॥

 स्वार्थस्याकोविदं धिङ् मां मूर्खं पण्डितमानिनम् ।

 योऽहमीश्वरतां प्राप्य स्त्रीभिर्गोखरवज्जितः ॥ १३ ॥

 सेवतो वर्षपूगान् मे उर्वश्या अधरासवम् ।

 न तृप्यत्यात्मभूः कामो वह्निराहुतिभिर्यथा ॥ १४ ॥

 पुंशल्यापहृतं चित्तं को न्वन्यो मोचितुं प्रभुः ।

 आत्मारामेश्वरमृते भगवन्तं अधोक्षजम् ॥ १५ ॥

 बोधितस्यापि देव्या मे सूक्तवाक्येन दुर्मतेः ।

 मनोगतो महामोहो नापयात्यजितात्मनः ॥ १६ ॥

 किमेतया नोऽपकृतं रज्ज्वा वा सर्पचेतसः ।

 रज्जु स्वरूपाविदुषो योऽहं यदजितेन्द्रियः ॥ १७ ॥

 क्वायं मलीमसः कायो दौर्गन्ध्याद्यात्मकोऽशुचिः ।

 क्व गुणाः सौमनस्याद्या ह्यध्यासोऽविद्यया कृतः ॥ १८ ॥

 पित्रोः किं स्वं नु भार्यायाः स्वामिनोऽग्नेः श्वगृध्रयोः ।

 किमात्मनः किं सुहृदां इति यो नावसीयते ॥ १९ ॥

 तस्मिन् कलेवरेऽमेध्ये तुच्छनिष्ठे विषज्जते ।

 अहो सुभद्रं सुनसं सुस्मितं च मुखं स्त्रियः ॥ २० ॥

 त्वङ्‌मांसरुधिरस्नायु मेदोमज्जास्थिसंहतौ ।

 विण्मूत्रपूये रमतां कृमीणां कियदन्तरम् ॥ २१ ॥

 अथापि नोपसज्जेत स्त्रीषु स्त्रैणेषु चार्थवित् ।

 विषयेन्द्रियसंयोगान् मनः क्षुभ्यति नान्यथा ॥ २२ ॥

 अदृष्टाद् अश्रुताद्‍भावात् न भाव उपजायते ।

 असम्प्रयुञ्जतः प्राणान् शाम्यति स्तिमितं मनः ॥ २३ ॥

 तस्मात्सङ्गो न कर्तव्यः स्त्रीषु स्त्रैणेषु चेन्द्रियैः ।

 विदुषां चाप्यविस्रब्धः षड्वर्गः किमु मादृशाम् ॥ २४ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी ! यह मनुष्यशरीर मेरे स्वरूपज्ञानकी प्राप्तिका—मेरी प्राप्तिका मुख्य साधन है। इसे पाकर जो मनुष्य सच्चे प्रेमसे मेरी भक्ति करता है, वह अन्त:करणमें स्थित मुझ आनन्दस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाता है ॥ १ ॥ जीवोंकी सभी योनियाँ, सभी गतियाँ त्रिगुणमयी हैं। जीव ज्ञाननिष्ठाके द्वारा उनसे सदाके लिये मुक्त हो जाता है। सत्त्व-रज आदि गुण जो दीख रहे हैं, वे वास्तविक नहीं हैं, मायामात्र हैं। ज्ञान हो जानेके बाद पुरुष उनके बीचमें रहनेपर भी, उनके द्वारा व्यवहार करनेपर भी उनसे बँधता नहीं। इसका कारण यह है कि उन गुणोंकी वास्तविक सत्ता ही नहीं है ॥ २ ॥ साधारण लोगोंको इस बातका ध्यान रखना चाहिये कि जो लोग विषयोंके सेवन और उदरपोषणमें ही लगे हुए हैं, उन असत् पुरुषोंका सङ्ग कभी न करें; क्योंकि उनका अनुगमन करनेवाले पुरुषकी वैसी ही दुर्दशा होती है, जैसे अंधेके सहारे चलनेवाले अंधेकी। उसे तो घोर अन्धकारमें ही भटकना पड़ता है ॥ ३ ॥ उद्धवजी ! पहले तो परम यशस्वी सम्राट् इलानन्दन पुरूरवा उर्वशीके विरहसे अत्यन्त बेसुध हो गया था। पीछे शोक हट जानेपर उसे बड़ा वैराग्य हुआ और तब उसने यह गाथा गायी ॥ ४ ॥ राजा पुरूरवा नग्र होकर पागलकी भाँति अपनेको छोडक़र भागती हुई उर्वशीके पीछे अत्यन्त विह्वल होकर दौडऩे लगा और कहने लगा— ‘देवि ! निष्ठुर हृदये ! थोड़ी देर ठहर जा, भाग मत’ ॥ ५ ॥ उर्वशीने उनका चित्त आकृष्ट कर लिया था। उन्हें तृप्ति नहीं हुई थी। वे क्षुद्र विषयोंके सेवनमें इतने डूब गये थे कि उन्हें वर्षोंकी रात्रियाँ न जाती मालूम पड़ीं और न तो आतीं ॥ ६ ॥

पुरूरवाने कहा—हाय-हाय ! भला, मेरी मूढ़ता तो देखो, कामवासनाने मेरे चित्तको कितना कलुषित कर दिया ! उर्वशीने अपनी बाहुओंसे मेरा ऐसा गला पकड़ा कि मैंने आयुके न जाने कितने वर्ष खो दिये। ओह ! विस्मृतिकी भी एक सीमा होती है ॥ ७ ॥ हाय-हाय ! इसने मुझे लूट लिया। सूर्य अस्त हो गया या उदित हुआ—यह भी मैं न जान सका। बड़े खेदकी बात है कि बहुत-से वर्षोंके दिन-पर-दिन बीतते गये और मुझे मालूमतक न पड़ा ॥ ८ ॥ अहो ! आश्चर्य है ! मेरे मनमें इतना मोह बढ़ गया, जिसने नरदेव-शिखामणि चक्रवर्ती सम्राट् मुझ पुरूरवाको भी स्त्रियोंका क्रीडामृग (खिलौना) बना दिया ॥ ९ ॥ देखो, मैं प्रजाको मर्यादामें रखनेवाला सम्राट् हूँ। वह मुझे और मेरे राजपाटको तिनकेकी तरह छोडक़र जाने लगी और मैं पागल होकर नंग-धड़ंग रोता-बिलखता उस स्त्रीके पीछे दौड़ पड़ा। हाय ! हाय ! यह भी कोई जीवन है ॥ १० ॥ मैं गधेकी तरह दुलत्तियाँ सहकर भी स्त्रीके पीछे-पीछे दौड़ता रहा; फिर मुझमें प्रभाव, तेज और स्वामित्व भला कैसे रह सकता है ॥ ११ ॥ स्त्रीने जिसका मन चुरा लिया, उसकी विद्या व्यर्थ है। उसे तपस्या, त्याग और शास्त्राभ्याससे भी कोई लाभ नहीं। और इसमें सन्देह नहीं कि उसका एकान्तसेवन और मौन भी निष्फल है ॥ १२ ॥ मुझे अपनी ही हानि-लाभका पता नहीं, फिर भी अपनेको बहुत बड़ा पण्डित मानता हूँ। मुझ मूर्खको धिक्कार है। हाय ! हाय ! मैं चक्रवर्ती सम्राट् होकर भी गधे और बैलकी तरह स्त्रीके फंदेमें फँस गया ॥ १३ ॥ मैं वर्षोंतक उर्वशीके होठोंकी मादक मदिरा पीता रहा, पर मेरी कामवासना तृप्त न हुई। सच है, कहीं आहुतियोंसे अग्रिकी तृप्ति हुई है ॥ १४ ॥ उस कुलटाने मेरा चित्त चुरा लिया। आत्माराम जीवन्मुक्तोंके स्वामी इन्द्रियातीत भगवान्‌को छोडक़र और ऐसा कौन है, जो मुझे उसके फंदेसे निकाल सके ॥ १५ ॥ उर्वशीने तो मुझे वैदिक सूक्तके वचनोंद्वारा यथार्थ बात कहकर समझाया भी था; परन्तु मेरी बुद्धि ऐसी मारी गयी कि मेरे मनका वह भयङ्कर मोह तब भी मिटा नहीं। जब मेरी इन्द्रियाँ ही मेरे हाथके बाहर हो गयीं, तब मैं समझता भी कैसे ॥ १६ ॥ जो रस्सीके स्वरूपको न जानकर उसमें सर्पकी कल्पना कर रहा है और दुखी हो रहा है, रस्सीने उसका क्या बिगाड़ा है ? इसी प्रकार इस उर्वशीने भी हमारा क्या बिगाड़ा ? क्योंकि स्वयं मैं ही अजितेन्द्रिय होनेके कारण अपराधी हूँ ॥ १७ ॥ कहाँ तो यह मैला-कुचैला, दुर्गन्धसे भरा अपवित्र शरीर और कहाँ सुकुमारता, पवित्रता, सुगन्ध आदि पुष्पोचित गुण ! परन्तु मैंने अज्ञानवश असुन्दरमें सुन्दरका आरोप कर लिया ॥ १८ ॥ यह शरीर माता-पिताका सर्वस्व है अथवा पत्नीकी सम्पत्ति ? यह स्वामीकी मोल ली हुई वस्तु है, आगका र्ईंधन है अथवा कुत्ते और गीधोंका भोजन ? इसे अपना कहें अथवा सुहृद्-सम्बन्धियोंका ? बहुत सोचने-विचारनेपर भी कोई निश्चय नहीं होता ॥ १९ ॥ यह शरीर मल-मूत्रसे भरा हुआ अत्यन्त अपवित्र है। इसका अन्त यही है कि पक्षी खाकर विष्ठा कर दें, इसके सड़ जानेपर इसमें कीड़े पड़ जायँ अथवा जला देनेपर यह राखका ढेर हो जाय। ऐसे शरीरपर लोग लट्टू हो जाते हैं और कहने लगते हैं—‘अहो ! इस स्त्रीका मुखड़ा कितना सुन्दर है ! नाक कितनी सुघड़ है और मन्द-मन्द मुसकान कितनी मनोहर है ॥ २० ॥ यह शरीर त्वचा, मांस, रुधिर, स्नायु, मेदा, मज्जा और हड्डियोंका ढेर और मल-मूत्र तथा पीबसे भरा हुआ है। यदि मनुष्य इसमें रमता है, तो मल-मूत्रके कीड़ोंमें और उसमें अन्तर ही क्या है ॥ २१ ॥ इसलिये अपनी भलाई समझनेवाले विवेकी मनुष्यको चाहिये कि स्त्रियों और स्त्रीलम्पट पुरुषोंका सङ्ग न करे। विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे ही मनमें विकार होता है; अन्यथा विकारका कोई अवसर ही नहीं है ॥ २२ ॥ जो वस्तु कभी देखी या सुनी नहीं गयी है, उसके लिये मनमें विकार नहीं होता। जो लोग विषयोंके साथ इन्द्रियोंका संयोग नहीं होने देते, उनका मन अपने-आप निश्चल होकर शान्त हो जाता है ॥ २३ ॥ अत: वाणी, कान और मन आदि इन्द्रियों से स्त्रियों और स्त्रीलम्पटों का सङ्ग कभी नहीं करना चाहिये। मेरे-जैसे लोगों की तो बात ही क्या,बड़े-बड़े विद्वानों के लिये भी अपनी इन्द्रियाँ और मन विश्वसनीय नहीं हैं ॥२४॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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