सोमवार, 12 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भागवतधर्मों का निरूपण और उद्धवजीका बदरिकाश्रमगमन

 

श्रीउद्धव उवाच -

सुदुश्चरां इमां मन्ये योगचर्यामनात्मनः ।

यथाञ्जसा पुमान् सिद्ध्येत् तन्मे ब्रूह्यञ्जसाच्युत ॥ १ ॥

प्रायशः पुण्डरीकाक्ष युञ्जन्तो योगिनो मनः ।

विषीदन्त्यसमाधानान् मनोनिग्रहकर्शिताः ॥ २ ॥

अथात आनन्ददुघं पदाम्बुजं

     हंसाः श्रयेरन्नरविन्दलोचन ।

 सुखं नु विश्वेश्वर योगकर्मभि

     स्त्वन्माययामी विहता न मानिनः ॥ ३ ॥

किं चित्रमच्युत तवैतदशेषबन्धो

     दासेष्वनन्यशरणेषु यदात्मसात्त्वम् ।

 योऽरोचयत् सह मृगैः स्वयमीश्वराणां

     श्रीमत्किरीटतटपीडितपादपीठः ॥ ४ ॥

 तं त्वाखिलात्मदयितेश्वरमाश्रितानां

     सर्वार्थदं स्वकृतविद् विसृजेत को नु ।

 को वा भजेत् किमपि विस्मृतयेऽनु भूत्यै

     किं वा भवेन्न तव पादरजोजुषां नः ॥ ५ ॥

 नैवोपयन्त्यपचितिं कवयस्तवेश

     ब्रह्मायुषापि कृतमृद्धमुदः स्मरन्तः ।

 योऽन्तर्बहिस्तनुभृतां अशुभं विधुन्वन्

     आचार्यचैत्त्यवपुषा स्वगतिं व्यनक्ति ॥ ६ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

इत्युद्धवेनात्यनुरक्तचेतसा

     पृष्टो जगत्क्रीडनकः स्वशक्तिभिः ।

 गृहीतमूर्तित्रय ईश्वरेश्वरो

     जगाद सप्रेममनोहरस्मितः ॥ ७ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

हन्त ते कथयिष्यामि मम धर्मान् सुमङ्गलान् ।

 याञ्छ्रद्धयाऽऽचरन् मर्त्यो मृत्युं जयति दुर्जयम् ॥ ८ ॥

 कुर्यात् सर्वाणि कर्माणि मदर्थं शनकैः स्मरन् ।

 मय्यर्पितमनश्चित्तो मद्धर्मात्ममनोरतिः ॥ ९ ॥

 देशान् पुण्यान् आश्रयेत मद्‍भक्तैः साधुभिः श्रितान् ।

 देवासुरमनुष्येषु मद्‍भक्ताचरितानि च ॥ १० ॥

 पृथक् सत्रेण वा मह्यं पर्वयात्रामहोत्सवान् ।

 कारयेद् ‍गीत नृत्याद्यैः महाराजविभूतिभिः ॥ ११ ॥

 मामेव सर्वभूतेषु बहिरन्तरपावृतम् ।

 ईक्षेतात्मनि चात्मानं यथा खममलाशयः ॥ १२ ॥

 इति सर्वाणि भूतानि मद्‍भावेन महाद्युते ।

 सभाजयन् मन्यमानो ज्ञानं केवलमाश्रितः ॥ १३ ॥

 ब्राह्मणे पुल्कसे स्तेने ब्रह्मण्येऽर्के स्फुलिङ्गके ।

 अक्रूरे क्रूरके चैव समदृक् पण्डितो मतः ॥ १४ ॥

 नरेष्वभीक्ष्णं मद्‍भावं पुंसो भावयतोऽचिरात् ।

 स्पर्धासूयातिरस्काराः साहङ्कारा वियन्ति हि ॥ १५ ॥

 विसृज्य स्मयमानान् स्वान् दृशं व्रीडां च दैहिकीम् ।

 प्रणमेद् दण्डवद् भूमौ अश्वचाण्डालगोखरम् ॥ १६ ॥

 यावर् सर्वेषु भूतेषु मद्‍भावो नोपजायते ।

 तावदेवमुपासीत वाङ्‌मनःकायवृत्तिभिः ॥ १७ ॥

 सर्वं ब्रह्मात्मकं तस्य विद्ययाऽऽत्ममनीषया ।

 परिपश्यन् उपरमेत् सर्वतो मुक्तसंशयः ॥ १८ ॥

 अयं हि सर्वकल्पानां सध्रीचीनो मतो मम ।

 मद्‍भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायवृत्तिभिः ॥ १९ ॥

 न ह्यङ्गोपक्रमे ध्वंसो मद्धर्मस्योद्धवाण्वपि ।

 मया व्यवसितः सम्यङ् निर्गुणत्वादनाशिषः ॥ २० ॥

 यो यो मयि परे धर्मः कल्प्यते निष्फलाय चेत् ।

 तदायासो निरर्थः स्याद् ‍भयादेरिव सत्तम ॥ २१ ॥

 एषा बुद्धिमतां बुद्धिः मनीषा च मनीषिणाम् ।

 यत्सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम् ॥ २२ ॥

 

उद्धवजीने कहा—अच्युत ! जो अपना मन वशमें नहीं कर सका है, उसके लिये आपकी बतलायी हुई इस योगसाधनाको तो मैं बहुत ही कठिन समझता हूँ। अत: अब आप कोई ऐसा सरल और सुगम साधन बतलाइये, जिससे मनुष्य अनायास ही परमपद प्राप्त कर सके ॥ १ ॥ कमलनयन ! आप जानते ही हैं कि अधिकांश योगी जब अपने मनको एकाग्र करने लगते हैं, तब वे बार-बार चेष्टा करनेपर भी सफल न होनेके कारण हार मान लेते हैं और उसे वशमें न कर पानेके कारण दुखी हो जाते हैं ॥ २ ॥ पद्मलोचन ! आप विश्वेश्वर हैं ! आपके ही द्वारा सारे संसारका नियमन होता है। इसीसे सारासार-विचारमें चतुर मनुष्य आपके आनन्दवर्षी चरणकमलोंकी शरण लेते हैं और अनायास ही सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। आपकी माया उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती; क्योंकि उन्हें योगसाधन और कर्मानुष्ठानका अभिमान नहीं होता। परन्तु जो आपके चरणोंका आश्रय नहीं लेते, वे योगी और कर्मी अपने साधनके घमंडसे फूल जाते हैं; अवश्य ही आपकी मायाने उनकी मति हर ली है ॥ ३ ॥ प्रभो ! आप सबके हितैषी सुहृद् हैं। आप अपने अनन्य शरणागत बलि आदि सेवकोंके अधीन हो जायँ, यह आपके लिये कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; क्योंकि आपने रामावतार ग्रहण करके प्रेमवश वानरोंसे भी मित्रताका निर्वाह किया। यद्यपि ब्रह्मा आदि लोकेश्वरगण भी अपने दिव्य किरीटोंको आपके चरणकमल रखनेकी चौकीपर रगड़ते रहते हैं ॥ ४ ॥ प्रभो ! आप सबके प्रियतम, स्वामी और आत्मा हैं। आप अपने अनन्य शरणागतोंको सब कुछ दे देते हैं। आपने बलि-प्रह्लाद आदि अपने भक्तोंको जो कुछ दिया है, उसे जानकर ऐसा कौन पुरुष होगा जो आपको छोड़ देगा ? यह बात किसी प्रकार बुद्धिमें ही नहीं आती कि भला, कोई विचारवान् विस्मृतिके गर्तमें डालनेवाले तुच्छ विषयोंमें ही फँसा रखनेवाले भोगोंको क्यों चाहेगा ? हमलोग आपके चरणकमलोंकी रजके उपासक हैं। हमारे लिये दुर्लभ ही क्या है ? ॥ ५ ॥ भगवन् ! आप समस्त प्राणियोंके अन्त:करणमें अन्तर्यामीरूपसे और बाहर गुरुरूपसे स्थित होकर उनके सारे पाप-ताप मिटा देते हैं और अपने वास्तविक स्वरूपको उनके प्रति प्रकट कर देते हैं। बड़े-बड़े ब्रह्मज्ञानी ब्रह्माजीके समान लंबी आयु पाकर भी आपके उपकारोंका बदला नहीं चुका सकते। इसीसे वे आपके उपकारोंका स्मरण करके क्षण-क्षण अधिकाधिक आनन्दका अनुभव करते रहते हैं ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण ब्रह्मादि ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं। वे ही सत्त्व- रज आदि गुणोंके द्वारा ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रका रूप धारण करके जगत्की उत्पत्ति-स्थिति आदिके खेल खेला करते हैं। जब उद्धवजीने अनुरागभरे चित्तसे उनसे यह प्रश्र किया, तब उन्होंने मन्द-मन्द मुसकराकर बड़े प्रेमसे कहना प्रारम्भ किया ॥ ७ ॥

श्रीभगवान्‌ने कहा—प्रिय उद्धव ! अब मैं तुम्हें अपने उन मङ्गलमय भागवतधर्मोंका उपदेश करता हूँ, जिनका श्रद्धापूर्वक आचरण करके मनुष्य संसाररूप दुर्जय मृत्युको अनायास ही जीत लेता है ॥ ८ ॥ उद्धवजी ! मेरे भक्तको चाहिये कि अपने सारे कर्म मेरे लिये ही करे और धीर-धीरे उनको करते समय मेरे स्मरणका अभ्यास बढ़ाये। कुछ ही दिनोंमें उसके मन और चित्त मुझमें समर्पित हो जायँगे। उसके मन और आत्मा मेरे ही धर्मोंमें रम जायँगे ॥ ९ ॥ मेरे भक्त साधुजन जिन पवित्र स्थानोंमें निवास करते हों, उन्हींमें रहे और देवता, असुर अथवा मनुष्योंमें जो मेरे अनन्य भक्त हों, उनके आचरणोंका अनुसरण करे ॥ १० ॥ पर्वके अवसरोंपर सबके साथ मिलकर अथवा अकेला ही नृत्य, गान, वाद्य आदि महाराजोचित ठाट-बाटसे मेरी यात्रा आदिके महोत्सव करे ॥ ११ ॥ शुद्धान्त:करण पुरुष आकाशके समान बाहर और भीतर परिपूर्ण एवं आवरणशून्य मुझ परमात्माको ही समस्त प्राणियों और अपने हृदयमें स्थित देखे ॥ १२ ॥ निर्मलबुद्धि उद्धवजी ! जो साधक केवल इस ज्ञानदृष्टिका आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्राणियों और पदार्थोंमें मेरा दर्शन करता है और उन्हें मेरा ही रूप मानकर सत्कार करता है तथा ब्राह्मण और चाण्डाल, चोर और ब्राह्मणभक्त, सूर्य और चिनगारी तथा कृपालु और क्रूरमें समानदृष्टि रखता है, उसे ही सच्चा ज्ञानी समझना चाहिये ॥ १३-१४ ॥ जब निरन्तर सभी नर-नारियोंमें मेरी ही भावना की जाती है, तब थोड़े ही दिनोंमें साधकके चित्तसे स्पद्र्धा (होड़), ईष्र्या, तिरस्कार और अहङ्कार आदि दोष दूर हो जाते हैं ॥ १५ ॥ अपने ही लोग यदि हँसी करें तो करने दे, उनकी परवा न करे; मैं अच्छा हूँ, वह बुरा है’ ऐसी देहदृष्टिको और लोक-लज्जाको छोड़ दे और कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधेको भी पृथ्वीपर गिरकर साष्टाङ्ग दण्डवत्-प्रणाम करे ॥ १६ ॥ जबतक समस्त प्राणियोंमें मेरी भावना—भगवद्-भावना न होने लगे, तबतक इस प्रकारसे मन, वाणी और शरीरके सभी संकल्पों और कर्मोंद्वारा मेरी उपासना करता रहे ॥ १७ ॥ उद्धवजी ! जब इस प्रकार सर्वत्र आत्मबुद्धि—ब्रह्मबुद्धिका अभ्यास किया जाता है, तब थोड़े ही दिनोंमें उसे ज्ञान होकर सब कुछ ब्रह्मस्वरूप दीखने लगता है। ऐसी दृष्टि हो जानेपर सारे संशय-सन्देह अपने-आप निवृत्त हो जाते हैं और वह सब कहीं मेरा साक्षात्कार करके संसारदृष्टिसे उपराम हो जाता है ॥ १८ ॥ मेरी प्राप्तिके जितने साधन हैं, उनमें मैं तो सबसे श्रेष्ठ साधन यही समझता हूँ कि समस्त प्राणियों और पदार्थोंमें मन वाणी और शरीरकी समस्त वृत्तियोंसे मेरी ही भावना की जाय ॥ १९ ॥ उद्धवजी ! यही मेरा अपना भागवतधर्म है; इसको एक बार आरम्भ कर देनेके बाद फिर किसी प्रकारकी विघ्र-बाधासे इसमें रत्तीभर भी अन्तर नहीं पड़ता; क्योंकि यह धर्म निष्काम है और स्वयं मैंने ही इसे निर्गुण होनेके कारण सर्वोत्तम निश्चय किया है ॥ २० ॥ भागवतधर्ममें किसी प्रकारकी त्रुटि पडऩी तो दूर रही—यदि इस धर्मका साधक भय-शोक आदिके अवसरपर होनेवाली भावना और रोने-पीटने, भागने-जैसा निरर्थक कर्म भी निष्कामभावसे मुझे समर्पित कर दे तो वे भी मेरी प्रसन्नताके कारण धर्म बन जाते हैं ॥ २१ ॥ विवेकियोंके विवेक और चतुरोंकी चतुराईकी पराकाष्ठा इसीमें है कि वे इस विनाशी और असत्य शरीरके द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्त्वको प्राप्त कर लें ॥ २२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



रविवार, 11 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

परमार्थ-निरूपण

 

तिष्ठन्तमासीनमुत व्रजन्तं

     शयानमुक्षन्तमदन्तमन्नम् ।

 स्वभावमन्यत् किमपीहमानं

     आत्मानमात्मस्थमतिर्न वेद ॥ ३१ ॥

 यदि स्म पश्यत्यसदिन्द्रियार्थं

     नानानुमानेन विरुद्धमन्यत् ।

 न मन्यते वस्तुतया मनीषी

     स्वाप्नं यथोत्थाय तिरोदधानम् ॥ ३२ ॥

 पूर्वं गृहीतं गुणकर्मचित्रम्

     अज्ञानमात्मन्यविविक्तमङ्ग ।

 निवर्तते तत्पुनरीक्षयैव

     न गृह्यते नापि विसृज्य आत्मा ॥ ३३ ॥

 यथा हि भानोरुदयो नृचक्षुषां

     तमो निहन्यान्न तु सद् विधत्ते ।

 एवं समीक्षा निपुणा सती मे

     हन्यात्तमिस्रं पुरुषस्य बुद्धेः ॥ ३४ ॥

 एष स्वयंज्योतिरजोऽप्रमेयो

     महानुभूतिः सकलानुभूतिः ।

 एकोऽद्वितीयो वचसां विरामे

     येनेषिता वागसवश्चरन्ति ॥ ३५ ॥

एतावान् आत्मसम्मोहो यद् विकल्पस्तु केवले ।

 आत्मन्नृते स्वमात्मानं अवलम्बो न यस्य हि ॥ ३६ ॥

 यन्नामाकृतिभिर्ग्राह्यं पञ्चवर्णमबाधितम् ।

 व्यर्थेनाप्यर्थवादोऽयं द्वयं पण्डितमानिनाम् ॥ ३७ ॥

 योगिनोऽपक्वयोगस्य युञ्जतः काय उत्थितैः ।

 उपसर्गैर्विहन्येत तत्रायं विहितो विधिः ॥ ३८ ॥

 योगधारणया कांश्चिद् आसनैर्धारणान्वितैः ।

 तपोमन्त्रौषधैः कांश्चिद् उपसर्गान् विनिर्दहेत् ॥ ३९ ॥

 कांश्चित् ममानुध्यानेन नामसङ्कीर्तनादिभिः ।

 योगेश्वरानुवृत्त्या वा हन्याद् अशुभदान्छनैः ॥ ४० ॥

 केचिद् देहमिमं धीराः सुकल्पं वयसि स्थिरम् ।

 विधाय विविधोपायैः अथ युञ्जन्ति सिद्धये ॥ ४१ ॥

 न हि तत् कुशलादृत्यं तदायासो ह्यपार्थकः ।

 अन्तवत्त्वात् शरीरस्य फलस्येव वनस्पतेः ॥ ४२ ॥

 योगं निषेवतो नित्यं कायश्चेत् कल्पतामियात् ।

 तत् श्रद्दध्यान्न मतिमान् योगमुत्सृज्य मत्परः ॥ ४३ ॥

 योगचर्यामिमां योगी विचरन् मदपाश्रयः ।

 नान्तरायैर्विहन्येत निःस्पृहः स्वसुखानुभूः ॥ ४४ ॥

 

जो अपने स्वरूपमें स्थित हो गया है, उसे इस बातका भी पता नहीं रहता कि शरीर खड़ा है या बैठा, चल रहा है या सो रहा है, मल-मूत्र त्याग रहा है, भोजन कर रहा है अथवा और कोई स्वाभाविक कर्म कर रहा है; क्योंकि उसकी वृत्ति तो आत्मस्वरूपमें स्थित—ब्रह्माकार रहती है ॥ ३१ ॥ यदि ज्ञानी पुरुषकी दृष्टिमें इन्द्रियोंके विविध बाह्य विषय, जो कि असत् हैं, आते भी हैं तो वह उन्हें अपने आत्मासे भिन्न नहीं मानता, क्योंकि वे युक्तियों, प्रमाणों और स्वानुभूतिसे सिद्ध नहीं होते। जैसे नींद टूट जानेपर स्वप्नमें देखे हुए और जागनेपर तिरोहित हुए पदार्थोंको कोई सत्य नहीं मानता, वैसे ही ज्ञानी पुरुष भी अपनेसे भिन्न प्रतीयमान पदार्थोंको सत्य नहीं मानते ॥ ३२ ॥ उद्धवजी ! (इसका यह अर्थ नहीं है कि अज्ञानीने आत्माका त्याग कर दिया है और ज्ञानी उसको ग्रहण करता है। इसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि) अनेकों प्रकारके गुण और कर्मोंसे युक्त देह, इन्द्रिय आदि पदार्थ पहले अज्ञानके कारण आत्मासे अभिन्न मान लिये गये थे, उनका विवेक नहीं था। अब आत्मदृष्टि होनेपर अज्ञान और उसके कार्योंकी निवृत्ति हो जाती है। इसलिये अज्ञानकी निवृत्ति ही अभीष्ट है। निवृत्तियोंके द्वारा न तो आत्माका ग्रहण हो सकता है और न त्याग ॥ ३३ ॥ जैसे सूर्य उदय होकर मनुष्योंके नेत्रोंके सामनेसे अन्धकारका परदा हटा देते हैं, किसी नयी वस्तुका निर्माण नहीं करते, वैसे ही मेरे स्वरूपका दृढ़ अपरोक्षज्ञान पुरुषके बुद्धिगत अज्ञानका आवरण नष्ट कर देता है। वह इदंरूपसे किसी वस्तुका अनुभव नहीं कराता ॥ ३४ ॥ उद्धवजी ! आत्मा नित्य अपरोक्ष है, उसकी प्राप्ति नहीं करनी पड़ती। वह स्वयंप्रकाश है। उसमें अज्ञान आदि किसी प्रकारके विकार नहीं हैं। वह जन्मरहित है अर्थात् कभी किसी प्रकार भी वृत्तिमें आरूढ़ नहीं होता। इसलिये अप्रमेय है। ज्ञान आदिके द्वारा उसका संस्कार भी नहीं किया जा सकता। आत्मामें देश, काल और वस्तुकृत परिच्छेद न होनेके कारण अस्तित्व, वृद्धि, परिवर्तन, ह्रास और विनाश उसका स्पर्श भी नहीं कर सकते। सबकी और सब प्रकारकी अनुभूतियाँ आत्मस्वरूप ही हैं। जब मन और वाणी आत्माको अपना अविषय समझकर निवृत्त हो जाते हैं, तब वही सजातीय, विजातीय और स्वगत भेदसे शून्य एक अद्वितीय रह जाता है। व्यवहारदृष्टिसे उसके स्वरूपका वाणी और प्राण आदिके प्रवर्तकके रूपमें निरूपण किया जाता है ॥ ३५ ॥

उद्धवजी ! अद्वितीय आत्मतत्त्वमें अर्थहीन नामोंके द्वारा विविधता मान लेना ही मनका भ्रम है, अज्ञान है। सचमुच यह बहुत बड़ा मोह है, क्योंकि अपने आत्माके अतिरिक्त उस भ्रमका भी और कोई अधिष्ठान नहीं है। अधिष्ठान-सत्तामें अध्यस्तकी सत्ता है ही नहीं। इसलिये सब कुछ आत्मा ही है ॥ ३६ ॥ बहुत-से पण्डिताभिमानी लोग ऐसा कहते हैं कि यह पाञ्चभौतिक द्वैत विभिन्न नामों और रूपोंके रूपमें इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण किया जाता है, इसलिये सत्य है। परन्तु यह तो अर्थहीन वाणीका आडम्बरमात्र है; क्योंकि तत्त्वत: तो इन्द्रियोंकी पृथक् सत्ता ही सिद्ध नहीं होती, फिर वे किसीको प्रमाणित कैसे करेंगी ? ॥ ३७ ॥

उद्धवजी ! यदि योगसाधना पूर्ण होनेके पहले ही किसी साधकका शरीर रोगादि उपद्रवोंसे पीडि़त हो, तो उसे इन उपायोंका आश्रय लेना चाहिये ॥ ३८ ॥ गरमी-ठंडक आदिको चन्द्रमा-सूर्य आदिकी धारणाके द्वारा, वात आदि रोगोंको वायुधारणायुक्त आसनोंके द्वारा और ग्रह-सर्पादिकृत विघ्नों को तपस्या,मन्त्र एवं ओषधिके द्वारा नष्ट कर डालना चाहिये ॥ ३९ ॥ काम-क्रोध आदि विघ्नों को मेरे चिन्तन और नाम-संकीर्तन आदिके द्वारा नष्ट करना चाहिये। तथा पतनकी ओर ले जानेवाले दम्भ-मद आदि विघ्रोंको धीरे-धीरे महापुरुषोंकी सेवाके द्वारा दूर कर देना चाहिये ॥ ४० ॥ कोई-कोई मनस्वी योगी विविध उपायोंके द्वारा इस शरीरको सुदृढ़ और युवावस्थामें स्थिर करके फिर अणिमा आदि सिद्धियोंके लिये योगसाधन करते हैं, परन्तु बुद्धिमान् पुरुष ऐसे विचारका समर्थन नहीं करते, क्योंकि यह तो एक व्यर्थ प्रयास है। वृक्षमें लगे हुए फलके समान इस शरीरका नाश तो अवश्यम्भावी है ॥ ४१-४२ ॥ यदि कदाचित् बहुत दिनोंतक निरन्तर और आदरपूर्वक योगसाधना करते रहनेपर शरीर सुदृढ़ भी हो जाय, तब भी बुद्धिमान् पुरुषको अपनी साधना छोडक़र उतनेमें ही सन्तोष नहीं कर लेना चाहिये। उसे तो सर्वदा मेरी प्राप्तिके लिये ही संलग्र रहना चाहिये ॥ ४३ ॥ जो साधक मेरा आश्रय लेकर मेरे द्वारा कही हुई योगसाधनामें संलग्र रहता है, उसे कोई भी विघ्न-बाधा डिगा नहीं सकती। उसकी सारी कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं और वह आत्मानन्दकी अनुभूतिमें मग्न हो जाता है ॥ ४४ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां एकादशस्कन्धे अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

परमार्थ-निरूपण

 

समाहितैः कः करणैर्गुणात्मभि

     र्गुणो भवेन्मत्सुविविक्तधाम्नः ।

 विक्षिप्यमाणैरुत किं नु दूषणं ।

     घनैरुपेतैर्विगतै रवेः किम् ॥ २५ ॥

 यथा नभो वाय्वनलाम्बुभूगुणै

     र्गतागतैर्वर्तुगुणैर्न सज्जते ।

 तथाक्षरं सत्त्वरजस्तमोमलै

     रहंमतेः संसृतिहेतुभिः परम् ॥ २६ ॥

 तथापि सङ्गः परिवर्जनीयो

     गुणेषु मायारचितेषु तावत् ।

 मद्‍भक्तियोगेन दृढेन यावद्

     रजो निरस्येत मनःकषायः ॥ २७ ॥

 यथाऽऽमयोऽसाधु चिकित्सितो नृणां

     पुनः पुनः सन्तुदति प्ररोहन् ।

 एवं मनोऽपक्वकषायकर्म

     कुयोगिनं विध्यति सर्वसङ्गम् ॥ २८ ॥

 कुयोगिनो ये विहितान्तरायै

     र्मनुष्यभूतैस्त्रिदशोपसृष्टैः ।

 ते प्राक्तनाभ्यासबलेन भूयो

     युञ्जन्ति योगं न तु कर्मतन्त्रम् ॥ २९ ॥

 करोति कर्म क्रियते च जन्तुः

     केनाप्यसौ चोदित आनिपतात् ।

 न तत्र विद्वान् प्रकृतौ स्थितोऽपि

     निवृत्ततृष्णः स्वसुखानुभूत्या ॥ ३० ॥

 

उद्धवजी ! जिसे मेरे स्वरूपका भलीभाँति ज्ञान हो गया है, उसकी वृत्तियाँ और इन्द्रियाँ यदि समाहित रहती हैं तो उसे उनसे लाभ क्या है ? और यदि वे विक्षिप्त रहती हैं, तो उनसे हानि भी क्या है ? क्योंकि अन्त:करण और बाह्यकरण—सभी गुणमय हैं और आत्मासे इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। भला, आकाशमें बादलोंके छा जाने अथवा तितर-बितर हो जानेसे सूर्यका क्या बनता-बिगड़ता है ? ॥ २५ ॥ जैसे वायु आकाशको सुखा नहीं सकती, आग जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता, धूल-धुएँ मटमैला नहीं कर सकते और ऋतुओंके गुण गरमी-सर्दी आदि उसे प्रभावित नहीं कर सकते—क्योंकि ये सब आने-जानेवाले क्षणिक भाव हैं और आकाश इन सबका एकरस अधिष्ठान है—वैसे ही सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी वृत्तियाँ तथा कर्म अविनाशी आत्माका स्पर्श नहीं कर पाते; वह तो इनसे सर्वथा परे है। इनके द्वारा तो केवल वही संसारमें भटकता है, जो इनमें अहङ्कार कर बैठता है ॥ २६ ॥ उद्धवजी ! ऐसा होनेपर भी तबतक इन मायानिर्मित गुणों और उनके कार्योंका सङ्ग सर्वथा त्याग देना चाहिये, जबतक मेरे सुदृढ़ भक्तियोगके द्वारा मनका रजोगुणरूप मल एकदम निकल न जाय ॥ २७ ॥

उद्धवजी ! जैसे भलीभाँति चिकित्सा न करनेपर रोगका समूल नाश नहीं होता, वह बार-बार उभरकर मनुष्यको सताया करता है; वैसे ही जिस मनकी वासनाएँ और कर्मोंके संस्कार मिट नहीं गये हैं, जो स्त्री-पुत्र आदिमें आसक्त है, वह बार-बार अधूरे योगीको बेधता रहता है और उसे कई बार योगभ्रष्ट भी कर देता है ॥ २८ ॥ देवताओंके द्वारा प्रेरित शिष्य-पुत्र आदिके द्वारा किये हुए विघ्रोंसे यदि कदाचित् अधूरा योगी मार्गच्युत हो जाय तो भी वह अपने पूर्वाभ्यासके कारण पुन: योगाभ्यासमें ही लग जाता है। कर्म आदिमें उसकी प्रवृत्ति नहीं होती ॥ २९ ॥ उद्धवजी ! जीव संस्कार आदिसे प्रेरित होकर जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त कर्ममें ही लगा रहता है और उनमें इष्ट-अनिष्ट- बुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारोंको प्राप्त होता रहता है। परन्तु जो तत्त्वका साक्षात्कार कर लेता है, वह प्रकृतिमें स्थित रहनेपर भी , संस्कारानुसार कर्म होते रहनेपर भी, उनमें इष्ट-अनिष्ट- बुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारोंसे युक्त नहीं होता; क्योंकि आनन्दस्वरूप आत्माके साक्षात्कारसे उसकी संसारसम्बन्धी सभी आशा-तृष्णाएँ पहले ही नष्ट हो चुकी होती हैं ॥ ३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...