सोमवार, 20 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 16)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

यहां यह एक शङ्का बाकी रह जाती है कि श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय के २२वें श्लोक में कहा है-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
‘जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नवीन वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त करता है।’

इसका यदि यह अर्थ समझा जाय कि इस शरीरसे वियोग होते ही जीव उसी क्षण दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है तो इससे दूसरा शरीर पहलेसे ही तैयार होना चाहिये और जब दूसरा तैयार ही है, तब कहीं आने जाने स्वर्ग नरकादि भोगने की बात कैसे सिद्ध होती है, परन्तु गीता स्वयं तीन गतियां निर्देश कर आना जाना स्वीकार करती है। इसमें परस्पर विरोध आता है, इसका क्या समाधान है?

इसका समाधान यह है कि यह शङ्का ही ठीक नहीं है। भगवान्‌ ने इस सम्बन्ध में यह नहीं कहा कि, मरते ही जीव को दूसरा ‘स्थूल’ देह ‘उसी समय तुरन्त ही’ मिल जाता है। एक मनुष्य कई जगह घूमकर घर आता है और घर आकर वह अपनी यात्रा का बयान करता हुआ कहता है ‘मैं बम्बई से कलकत्ते पहुंचा, वहां से कानपुर और कानपुर से दिल्ली चला आया।’ इस कथन से क्या यह अर्थ निकलता है कि वह बम्बई छोड़ते ही कलकत्ते में प्रवेश कर गया था या कानपुर से दिल्ली उसी दम आगया ? रास्ते का वर्णन स्पष्ट न होनेपर भी इसके अन्दर ही है, इसीप्रकार जीवका भी देह परिवर्तनके लिये लोकान्तरों में जाना समझना चाहिये। रही नयी देह मिलने की बात, सो देह तो अवश्य मिलती है परन्तु वह स्थूल नहीं होती है। समष्टि वायुके साथ सूक्ष्मशरीर मिलकर एक वायुमय देह बन जाता है, जो ऊर्ध्व-गामियोंका प्रकाशमय तैजस, नरक-गामियोंको तमोमय प्रेत पिशाच आदिका होता है। वह सूक्ष्म होनेसे हम लोगोंकी स्थूलदृष्टिसे दीखता नहीं। इसलिये यह शङ्का निरर्थक है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 15)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

चौबीस तत्त्वोंके स्थूल शरीरमेंसे निकलकर जब यह जीव बाहर आता है, तब स्थूल देह तो यहीं रह जाता है। प्राणमय कोषवाला सत्रह तत्त्वोंका सूक्ष्म शरीर इसमेंसे निकलकर अन्य शरीरमें चला जाता है। भगवान्‌ने कहा है-

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥
शरीरं यदवाप्नोति यञ्चाप्युत्‌क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्‌॥
( गीता १५ । ७ - ८ )

इस देहमें यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और वही इन त्रिगुणमयी मायामें स्थित पांचों इन्द्रियोंको आकर्षित करता है। जैसे गन्धके स्थानसे वायु गन्धको ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिका स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीरको त्यागता है, उससे मनसहित इन इन्द्रियोंको ग्रहण करके, फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है।’

प्राण वायु ही उसका शरीर है, उसके साथ प्रधानता से पाँच ज्ञानेन्द्रियां और छठा मन (अन्तःकरण ) जाता है, इसीका विस्तार सत्रह तत्त्व हैं। यही सत्रह तत्त्वोंका शरीर शुभाशुभ कर्मोंके संस्कारके साथ जीवके साथ जाता है।

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रविवार, 19 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 14)

ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:


मायासहित ब्रह्ममें लय होनेके कारण उस समय जीवका सम्बन्ध सुखसे होता है। इसीको आनन्दमय कोष कहते हैं। इसीसे इस अवस्थासे जागनेपर यह कहता है कि ‘मैं बहुत सुखसे सोया,’ उसे और किसी बातका ज्ञान नहीं था, यही अज्ञान है। इस अज्ञानका नाम ही माया-प्रकृति है। सुखसे सोया, इससे सिद्ध होता है कि उसे आनन्दका अनुभव था। सुखरूपमें नित्य स्थित होनेपर भी वह प्रकृति या अज्ञानमें रहने के कारण वापस आता है। घटमें जल भरकर उसका मुख अच्छी तरह बन्द करके उसे अनन्त जलके समुद्रमें छोड़ दिया गया और फिर वापस निकाला तब वह घड़ेके अन्दर ज्योंका त्यों बाहर निकल आया, घड़ा न होता तो वह जल समुद्र के अनन्त जलमें मिलकर एक हो जाता। इसीप्रकार अज्ञानमें रहनेके कारण सुखरूप ब्रह्ममें जानेपर भी जीवको ज्योंका त्यों लौट आना पड़ता है। अस्तु !

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जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 13)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



स्वप्नावस्था में जीव की स्थिति सूक्ष्म शरीर में रहती है, सूक्ष्म शरीर में सत्रह तत्त्व माने गये हैं---पांच प्राण, पांच ज्ञानेन्द्रियां, उनके कारणरूप पांच सूक्ष्म तन्मात्राएं तथा मन और बुद्धि। यह सत्रह तत्त्व हैं। कोई कोई आचार्य पांच सूक्ष्म तन्मात्राओं की जगह पांच कर्मेन्द्रियां लेते हैं। पञ्च तन्मात्रा लेनेवाले कर्मेन्द्रियों को ज्ञानेन्द्रियों के अन्तर्गत मानते हैं और पांच कर्मेन्द्रियां माननेवाले पञ्च तन्मात्राओंको उनके कार्यरूप ज्ञानेन्द्रियोंके अन्तर्गत मान लेते हैं। किसी तरह भी मानें, अधिकांश मनस्वियोंने तत्त्व सत्रह ही बतलाये हैं, कहीं इनका ही कुछ विस्तार और कहीं कुछ संकोच कर दिया गया है।

इस सूक्ष्मशरीरके अन्तर्गत तीन कोश माने गये हैं-प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय। सब पांच कोश हैं , जिनमें स्थूल देह तो अन्नमय कोश है। यह पांचभौतिक शरीर पांच भूतोंका भण्डार है, इसके अन्दरके सूक्ष्मशरीरमें पहला प्राणमय कोश है, जिसमें पञ्च प्राण हैं। उसके अन्दर मनोमय कोष है, इसमें मन और इन्द्रियां हैं। उसके अन्दर विज्ञानमय ( बुद्धिरूपी ) कोश है, इसमें बुद्धि और पञ्च ज्ञानेन्द्रियां हैं। यही सत्रह तत्त्व हैं। स्वप्नमें इस सूक्ष्मरुपका अभिमानी जीव ही पूर्वकालमें देखे सुने पदार्थोंको अपने अन्दर सूक्ष्मरूपसे देखता है।

जब इसकी स्थिति कारण शरीर में होती है, तब अव्याकृत माया प्रकृतिरूपी एक तत्त्व से इसका सम्बन्ध हो जाता है। इस समय सभी तत्त्व उस कारणरूप प्रकृति में लय हो जाते हैं । इसीसे तब उस जीव को किसी बात का ज्ञान नहीं रहता। इसी गाढ़ निद्रावस्था को सुषुप्ति कहते हैं।

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शनिवार, 18 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 12)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



जीव साथ क्या लाता, ले जाता है ?—

अब प्रधानतः यही बतलाना रहा कि जीव अपने साथ किन किन वस्तुओं को लेजाता है और किन को लाता है। जिस समय यह जीव जाग्रत अवस्था में रहता है, उस समय इसकी स्थिति स्थूल शरीर में रहती है। तब इसका सम्बन्ध पांच प्राणों सहित चौबीस तत्त्वों से रहता है। ( आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वीका सूक्ष्म भावरूप ) पांच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, मन, त्रिगुणमयी मूल प्रकृति, कान, त्वचा, आंख,जिह्वा, नाक यह पांच ज्ञानेन्द्रियां, वाणी, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा यह पांच कर्मेन्द्रियाँ एवं शब्द, स्पर्श रूप,रस और गन्ध यह इन्द्रियोंके पांच विषय। ( गीता १३ । ५ ) यही चौबीस तत्त्व हैं।
इन तत्त्वोंका निरूपण करने वाले आचार्यों ने प्राणों को इसीलिये अलग नहीं बतलाया कि प्राण वायु का ही भेद है, जो पञ्च महाभूतों के अन्दर आ चुका है। योग सांख्य वेदान्त आदि शास्त्रों के अनुसार प्रधानतः तत्त्व चौबीस ही माने गये हैं। प्राणवायु के अलग मानने की आवश्यकता भी नहीं है। भेद बतलानेके लिये ही प्राण अपान समान व्यान उदान नामक वायु के पांच रूप माने गये हैं ।
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जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 11)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



नीच गतिके दो भेद---

जो लोग आत्म-पतनके कारणभूत काम क्रोध लोभ रूपी इस त्रिविध नरक-द्वार में निवास करते हुए आसुरी, राक्षसी और मोहिनी सम्पत्ति की पूंजी एकत्र करते हैं, गीता के उपर्युक्त सिद्धान्तों के अनुसार उनकी गतिके प्रधानतः दो भेद हैं--
( १ ) बारम्बार तिर्यक्‌ आदि आसुरी योनियों में जन्म लेना और
( २ ) उनसे भी अधम भूत, प्रेत पिशाचादि गतियों का या कुम्भीपाक अवीचि असिपत्र आदि नरकों को प्राप्त होकर वहां की रोमाञ्चकारी दारुण यन्त्रणाओं को भोगना !

इनमें जो तिर्यगादि योनियों में जाते हैं, वे जीव तो मृत्युके पश्चात्‌ सूक्ष्मशरीर से समष्टि वायु के साथ मिलकर तिर्यगादि योनियों के खाद्य पदार्थों में मिलकर वीर्य द्वारा शरीर में प्रवेश करके गर्भ की अवधि बीतने पर उत्पन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार अण्डज प्राणियों की भी उत्पत्ति होती है। उद्भिज, स्वेदज जीवों की उत्पत्ति में भी वायुदेवता ही कारण होते हैं, जीवों के प्राणवायुको समष्टि वायु देवता अपनेरूप में भरकर जल पसीने आदि द्वारा स्वेदज प्राणियों को और वायु पृथ्वी जल आदिके साथ उनको सम्बन्धित कर बीजमें प्रविष्ट करवाकर पृथ्वीसे उत्पन्न होनेवाले वृक्षादि जड़ योनियों में उत्पन्न कराते हैं।
यह वायुदेवता ही यमराज के दूतके स्वरूपमें उस पापी को दीखते हैं, जो नारकी या प्रेतादि योनियों में जानेवाला होता है। इसीकी चर्चा गरुड़पुराण तथा अन्यान्य पुराणोंमें जहां पापों की गति का वर्णन है, वहां की गयी है। यह समस्त कार्य सबके स्वामी और नियन्ता ईश्वर की शक्ति से ऐसा नियमित होता है कि जिसमें कहीं किसी से भूल की गुञ्जाइश नहीं होती ! इसी परमात्मशक्ति की ओर से नियुक्त देवताओं द्वारा परवश होकर जीव अधम और उत्तम गतियों में जाता आता है। यह नियन्त्रण न होता तो, न तो कोई जीव, कम से कम व्यवस्थापक के अभाव में पापों का फल भोगने के लिये कहीं जाता और न भोग ही सकता। अवश्य ही सुख भोगने के लिये जीव लोकान्तर में जाना चाहता, पर वह भी लेजाने वाले के अभाव में मार्ग से अनभिज्ञ रहने के कारण नहीं जा पाता ।

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शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 10)

 

ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:


अधोगति---

अधःगतिको प्राप्त होनेवाले वे जीव हैं, जो अनेक प्रकारके पापोंद्वारा अपना समस्त जीवन कलङ्कित किये हुए होते हैं, उनके अन्तकालकी वासना कर्मानुसार तमोमयी ही होती है, इससे वे नीच गतिको प्राप्त होते हैं।

जो लोग अहंकार, बल, घमण्ड, काम और क्रोधादिके परायण रहते हैं, परनिन्दा करते हैं, अपने तथा पराये सभीके शरीरमें स्थित अन्तर्यामी परमात्मासे द्वेष करते हैं। ऐसे द्वेषी, पापाचारी, क्रूरकर्मी नराधम मनुष्य सृष्टिके नियन्त्रणकर्ता भगवान्‌के विधानसे बारम्बार आसुरी योनियोंमें उत्पन्न होते हैं और आगे चलकर वे उससे भी अति नीच गतिको प्राप्त होते हैं ( गीता १६ । १८ से २० )।

इस नीच गतिमें प्रधान हेतु काम, क्रोध और लोभ है। इन्हीं तीनोंसे आसुरी सम्पत्तिका संग्रह होता है। भगवान्‌ने इसीलिये इनका त्याग करनेकी आज्ञा दी है-

त्रिविधं - नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्त्था लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥
...............( गीता १६ । २१ )

काम-क्रोध तथा लोभ यह तीन प्रकारके नरकके द्वार अर्थात्‌ सब अनर्थोंके मूल और नरककी प्राप्तिमें हेतु हैं, यह आत्माका नाश करनेवाले यानी उसे अधोगतिमें ले जानेवाले हैं, इससे इन तीनोंको त्याग देना चाहिये।

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जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 09)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:




ऊर्ध्व गति—

श्रुति कहती है-
‘तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन्ब्राह्मणोयोनिं व क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वाऽथ य इह कपूयचरणा अभ्यासो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरञ्श्र्वयोनिं वा सूकरयोनिं व चाण्डालयोनिं वा।’
………..( छान्दोग्य उ० ५ । १० । ७ )

इनमें जिनका आचरण अच्छा होता है यानी जिनका पुण्य संचय होता है वे शीघ्र ही किसी ब्राह्मण क्षत्रिय या वैश्यकी रमणीय योनिको प्राप्त होता है। ऐसे ही जिनका आचरण बुरा होता है अर्थात्‌ जिनके पापका संचय होता है वे किसी श्वान, सूकर या चाण्डालकी अधम योनिको प्राप्त होते हैं।’

यह ऊर्ध्व गति के भेद और एक से वापस न आने और दूसरी से लौटकर आने का क्रम हुआ |

मध्य गति---
मध्यगति यह मनुष्यलोक को प्राप्त होनेवाले जीवोंकी रजोगुणकी वृद्धिमें मृत्यु होनेपर उनका प्राणवायु सूक्ष्मशरीर सहित समष्टि लौकिक वायुमें मिल जाता है। व्यष्टि प्राणवायुको समष्टि प्राणवायु अपनेमें मिलाकर इस लोकमें जिस योनिमें जीवको जाना चाहिये, उसीके खाद्य पदार्थमें उसे पहुंचा देता है, यह वायुदेवता ही इसके योनि परिवर्तन का प्रधान साधक होता है, जो सर्वशक्तिमान‌ ईश्वर की आज्ञा और उसके निर्भ्रान्त विधान के अनुसार जीव को उसके कर्मानुसार भिन्न भिन्न मनुष्यों के खाद्यपदार्थों द्वारा उनके पक्वाशय में पहुंचाकर उपर्युक्त प्रकार के वीर्यरूप में परिणत कर मनुष्यरूप में उत्पन्न कराता है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........

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गुरुवार, 16 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 08)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:


ऊर्ध्व गति—

वापस लौटनेका क्रम—

स्वर्गादिसे वापस लौटनेका क्रम उपनिषदोंके अनुसार यह है--

तस्मिन्यावत्सम्पातमुषित्वाऽयैतमेवाध्वानं पुनर्निवर्त्तन्ते, यथैतमाकाशमाकाशाद्वायुं वायुर्भूत्वा धूमो भवति, धूमो भूत्वाऽभ्रं भवति। अभ्रं भूत्वा मेघो भवति, मेघो भूत्वा प्रवर्षति, त इह व्रीहियवा ओषधिवनस्पतयस्तिलमाषा इति जायन्तेऽतो वै खलु दुर्निष्प्रपतरं यो यो ह्यन्नमत्ति यो रेतः सिञ्चति तद्‌भूय एव भवति।’ .......( छान्दोग्य उ० ५ । १० । ५-६ )

कर्मयोग की अवधि तक देवभोगों को भोगने के बाद वहां से गिरते समय जीव पहले आकाशरूप होता है, आकाश से वायु, वायु से धूम, धूमसे अभ्र और अभ्र से मेघ होते हैं। मेघ से जलरूप में बरसते हैं और भूमि पर्वत नदी आदि में गिरकर, खेतों में वे व्रीहि, यव, औषधि वनस्पति, तिल, आदि खाद्य पदार्थोंमें सम्बन्धित होकर पुरुषोंके द्वारा खाये जाते हैं। इसप्रकार पुरुषके शरीरमें पहुंचकर रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा, अस्थि आदि होते हुए अन्तमें वीर्य में सम्मिलित होकर शुक्र-सिंचनके साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं, वहां गर्भकाल की अवधि तक माता के खाये हुए अन्न जल से पालित होते हुए समय पूरा होने पर अपान वायु की प्रेरणा से मल मूत्र की तरह वेग पाकर स्थूलरूप में बाहर निकल आते हैं। कोई कोई ऐसा भी मानते हैं कि गर्भ में शरीर पूरा निर्माण हो जानेपर उसमें जीव आता है परन्तु यह बात ठीक नहीं मालूम होती। बिना चैतन्य के गर्भ में बालक का बढ़ना संभव नहीं । यह लौटकर आनेवाले जीव कर्मानुसार मनुष्य या पशु आदि योनियों को प्राप्त होते हैं।

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जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 07)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



ऊर्ध्व गति—

ये धूम, रात्रि और अर्चि, दिन नामक भिन्न भिन्न लोकों के अभिमानी देवता हैं, जिनका रूप भी उन्हीं नामों के अनुसार है। जीव इन देवताओं के समान रूप को प्राप्तकर क्रमशः आगे बढ़ता है। इनमेंसे अर्चिमार्गवाला प्रकाशमय लोकोंके मार्गसे प्रकाशपथके अभिमानी देवताओंद्वारा ले जाया जाकर क्रमशः विद्युत लोकतक पहुंचकर अमानव पुरुषके द्वारा बड़े सम्मानके साथ भगवान्‌ के सर्वोत्तम दिव्य परमधाममें पहुंच जाता है। इसीको ब्रह्मोपासक ब्रह्मलोक का शेष भाग-सर्वोच्च गति, श्रीकृष्ण के उपासक दिव्य गोलोक, श्रीराम के उपासक दिव्य साकेतलोक, शैव शिवलोक, जैन मोक्षशिला, मुसलमान सातवाँ आसमान और ईसाई स्वर्ग कहते हैं।

इस दिव्य धाम में पहुंचने वाला महापुरुष सारे लोकों और मार्गों को लाँघता हुआ एक प्रकाशमय दिव्य स्थानमें स्थित होता है, जहां उसमें सभी सिद्धियां और सभी प्रकार की शक्तियां प्राप्त हो जाती हैं । वह कल्पपर्यन्त अर्थात्‌ ब्रह्मा के आयु तक वहां दिव्यभाव से रहकर अन्त में भगवान्‌ में मिल जाता है । अथवा भगवदिच्छा से भगवान्‌ के अवतार की ज्यों बन्धनमुक्त अवस्था में ही लोकहितार्थ संसार में आ भी सकता है। ऐसे ही महात्मा को कारक पुरुष कहते हैं ।

धूममार्ग के अभिमानी देवगण और इनके लोक भी सभी प्रकाशमय हैं, परन्तु इनका प्रकाश अर्चिमार्गवालोंकी अपेक्षा बहुत कम है तथा ये जीवको मायामय विषयभोग भोगनेवाले मार्गोंमें ले जाकर ऐसे लोकमें पहुंचाते हैं, जहांसे वापस लौटना पड़ता है, इसीसे यह अन्धकारके अभिमानी बतलाये गये हैं। इस मार्गमें भी जीव देवताओंकी तद्रूपताको प्राप्त करता हुआ चन्द्रमाकी रश्मियोंके रूपमें होकर उन देवताओंके द्वार ले जाया हुआ अन्तमें चन्द्रलोकको प्राप्त होता है और वहांसे भोग भोगकर पुण्यक्षय होते ही वापस लौट आता है।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...