!! जय श्रीहरि :!!
भगवान् ने गीता में कहा है कि मनुष्य अन्तसमय में जिस-जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है, वह उसी भाव को प्राप्त होता है अर्थात् अन्तिम स्मरण के अनुसार ही उसकी गति होती है (८ । ६) । यह भगवान् का न्याय है, जिसमें कोई पक्षपात नहीं है । इस न्याय में भी भगवान् की दया भरी हुई है । जैसे, अन्तसमय में अगर कोई कुत्ते का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तो वह कुत्ते की योनि को प्राप्त हो जाता है अगर कोई भगवान् का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तो वह भगवान् को प्राप्त हो जाता है । तात्पर्य है कि जितने मूल्य में कुत्ते की योनि मिलती है, उतने ही मूल्य में भगवान् की प्राप्ति हो जाती है ! इस प्रकार भगवान् के कानून में न्यायकारिता होते हुए भी महती दयालुता भरी हुई है ।
सदाचारी-से-सदाचारी साधनपरायण मनुष्य अन्तसमय में भगवान् का चिन्तन करता हुआ शरीर छोड़ता है तो उसको भगवत्प्राप्ति हो जाती है, ऐसे ही दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी किसी विशेष कारण से अन्तसमय में भगवान् का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तो उसको भी भगवत्प्राप्ति हो जाती है (८ । ५) । यह भगवान् की कितनी दयालुता और न्यायकारिता है !
शेष आगामी पोस्ट में............