!! जय श्रीहरि :!!
गीता में भगवान् की न्यायकारिता और दयालुता (पोस्ट०४)
जो सकामभाव से शुभ कर्म करता है, उसको शुभ कर्म के अनुसार स्वर्ग आदि में भेजना‒-यह भगवान् का न्याय है; और वहाँ पुण्यकर्मों का फल भुगताकर उसको शुद्ध करना‒यह दया है । ऐसे ही जो अशुभ कर्म करता है, उसको नरकों और चौरासी लाख योनियों में भेजना‒-यह न्याय है; और वहाँ पापकर्मों का फल भुगताकर उसको शुद्ध करना, उसको अपनी ओर खींचना‒यह दया है । जैसे, किसीको लम्बे समयतक कोई कष्टदायक बीमारी आती है तो जब वह ठीक हो जाती है, तब उस व्यक्तिको भगवान् की कथा, भगवन्नाम आदि अच्छा लगता है । इस प्रकार कर्मोंके अनुसार बीमारी आना तो न्यायकारिता है और उसके फलस्वरूप भगवान् में रुचि का बढ़ना दयालुता है ।
मनुष्य पाप, अन्याय आदि तो स्वेच्छासे करते हैं और उनके फलस्वरूप कैद, जुर्माना, दण्ड आदि परेच्छा से भोगते है । इसमें कर्मोंके अनुसार दण्ड आदि भोगना तो न्यायकारिता हैं और समय-समयपर ‘मैंने गलती की, जिससे मुझे दण्ड भोगना पड़ रहा है । अगर मैं गलती न करता तो मुझे दण्ड क्यों भोगना पड़ता ?’‒इस तरह का जो विचार आता है, होश आता है‒यह भगवान् की दयालुता है ।
कर्मों के अनुसार अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति भेजना‒यह भगवान् की न्यायकारिता है; और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिमें सुखी-दुःखी न होनेसे मनुष्य का कल्याण हो जाता है‒यह भगवान् की दयालुता है ।
शेष आगामी पोस्ट में............