शुक्रवार, 15 मार्च 2024

गर्गसंहिता-माहात्म्य दूसरा अध्याय


 

॥ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥

गर्गसंहिता-माहात्म्य

दूसरा अध्याय

 

नारदजीकी प्रेरणा ले गर्ग द्वारा संहिता की रचना; संतान के लिये दुःखी राजा प्रतिबाहु के पास महर्षि शाण्डिल्य का आगमन

 

महादेवजीने कहा- देवर्षि नारदका कथन सुनकर महामुनि गर्गाचार्य विनयसे झुककर हँसते हुए यों कहने लगे ॥ १ ॥

गर्गजी बोले- ब्रह्मन् ! आपकी कही हुई बात यद्यपि सब तरहसे अत्यन्त कठिन है—यह स्पष्ट है, तथापि यदि आप कृपा करेंगे तो मैं उसका पालन करूँगा ।। २ ।।

सर्वमङ्गले । यों कहे जानेपर भगवान् नारद हर्षातिरेकसे अपनी वीणा बजाते और गाते हुए ब्रह्मलोकमें चले गये । तदनन्तर गर्गाचलपर जाकर कविश्रेष्ठ गर्गने इस महान् अद्भुत शास्त्रकी रचना की। इसमें देवर्षि नारद और राजा बहुलाश्वके संवादका निरूपण हुआ है। यह श्रीकृष्णके विभिन्न विचित्र चरित्रोंसे परिपूर्ण तथा सुधा-सदृश स्वादिष्ट बारह हजार श्लोकोंसे सुशोभित है। गर्गजीने श्रीकृष्णके जिस महान् चरित्रको गुरुके मुखसे सुना था, अथवा स्वयं अपनी आँखों देखा था, वह सारा का सारा चरित्र इस संहितामें सजा दिया है। वह कथा 'श्रीगर्गसंहिता' नामसे प्रचलित हुई। यह कृष्णभक्ति प्रदान करने वाली है। इसके श्रवणमात्रसे सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं । ३ - ७ ॥

इस विषयमें एक प्राचीन इतिहासका वर्णन किया जाता है, जिसके सुनते ही सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। वज्रके पुत्र राजा प्रतिबाहु हुए, जो प्रजा पालनमें तत्पर रहते थे। उस राजाकी प्यारी पत्नीका नाम मालिनी देवी था। राजा प्रतिबाहु पत्नीके साथ कृष्णपुरी मथुरामें रहते थे। उन्होंने संतानकी प्राप्तिके लिये विधानपूर्वक बहुत- सा यत्न किया। राजाने सुपात्र ब्राह्मणोंको बछड़े सहित बहुत-सी गायोंका दान दिया तथा प्रयत्नपूर्वक भरपूर दक्षिणाओंसे युक्त अनेकों यज्ञोंका अनुष्ठान किया। भोजन और धनद्वारा गुरुओं, ब्राह्मणों और देवताओंका पूजन किया, तथापि पुत्रकी उत्पत्ति न हुई। तब राजा चिन्तासे व्याकुल हो गये। वे दोनों पति-पत्नी नित्य चिन्ता और शोकमें डूबे रहते थे। इनके पितर (तर्पणमें) दिये हुए जलको कुछ गरम-सा पान करते थे। 'इस राजाके पश्चात् जो हमलोगोंको तर्पणद्वारा तृप्त करेगा- ऐसा कोई दिखायी नहीं पड़ रहा है। इस राजाके भाई-बन्धु, मित्र, अमात्य, सुहृद् तथा हाथी, घोड़े और पैदल सैनिक — किसीको भी इस बातकी कोई चिन्ता नहीं है । ' - इस बातको याद करके राजाके पितृगण अत्यन्त दुःखी हो जाते थे। इधर राजा प्रतिबाहु- के मनमें निरन्तर निराशा छायी रहती थी । ८ – १५

(वे सोचते रहते थे कि ) 'पुत्रहीन मनुष्यका जन्म निष्फल है । जिसके पुत्र नहीं है, उसका घर सूना- सा लगता है और मन सदा दुःखाभिभूत रहता है। पुत्रके बिना मनुष्य देवता, मनुष्य और पितरोंके ऋणसे उऋण नहीं हो सकता। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि वह सभी प्रकारके उपायोंका आश्रय लेकर पुत्र उत्पन्न करे । उसीकी भूतलपर कीर्ति होती है और परलोकमें उसे शुभगति प्राप्त होती है। जिन पुण्यशाली पुरुषोंके घरमें पुत्रका जन्म होता है, उनके भवनमें आयु, आरोग्य और सम्पत्ति सदा बनी रहती है।' राजा अपने मनमें यों लगातार सोचा करते थे, जिससे उन्हें शान्ति नहीं मिलती थी। अपने सिरके बालोंको श्वेत हुआ देखकर वे रात-दिन शोक में निमग्न रहते थे । १६ – २० ॥

एक समय मुनीश्वर शाण्डिल्य स्वेच्छापूर्वक विचरते हुए प्रतिबाहुसे मिलनेके लिये उनकी राजधानी मधुपुरी (मथुरा) में आये। उन्हें देखकर राजा सहसा अपने सिंहासनसे उठ पड़े और उन्हें आसन आदि देकर सम्मानित किया। पुनः मधुपर्क आदि निवेदन करके हर्षपूर्वक उनका पूजन किया। राजाको उदासीन देखकर महर्षिको परम विस्मय हुआ। तत्पश्चात् मुनीश्वरने स्वस्तिवाचनपूर्वक राजाका अभिनन्दन करके उनसे राज्यके सातों अङ्गोंके विषयमें कुशल पूछी। तब नृपश्रेष्ठ प्रतिबाहु अपनी कुशल निवेदन करनेके लिये बोले ॥ २१–२४॥

राजाने कहा – ब्रह्मन् ! पूर्वजन्मार्जित दोषके कारण इस समय मुझे जो दुःख प्राप्त हैं, अपने उस कष्टके विषयमें मैं क्या कहूँ ? भला, आप-जैसे ऋषियोंके लिये क्या अज्ञात है ? मुझे अपने राष्ट्र तथा नगरमें कुछ भी सुख दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? किस प्रकार मुझे पुत्रकी प्राप्ति हो । 'राजाके बाद जो हमारी रक्षा करे—ऐसा हमलोग किसीको नहीं देख रहे हैं।' इस बातको स्मरण करके मेरी सारी प्रजा दुःखी है। ब्रह्मन् ! आप तो साक्षात् दिव्यदर्शी हैं; अतः मुझे ऐसा उपाय बतलाइये, जिससे मुझे वंशप्रवर्त्तक दीर्घायु पुत्रकी प्राप्ति हो जाय ॥ २५ - २८॥

महादेवजी बोले- देवि ! उस दुःखी राजाके इस वचनको सुनकर मुनिवर्य शाण्डिल्य राजाके दुःखको शान्त करते हुए-से बोले ॥ २९ ॥

 

इस प्रकार श्रीसम्मोहन-तन्त्रमें पार्वती शंकर-संवाद में 'गर्गसंहिताका माहात्म्य' विषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीगर्ग संहिता का संक्षिप्त परिचय


 

श्रीगर्ग संहिता का संक्षिप्त परिचय

 

श्रीगर्ग संहिता यदुकुल के महान् आचार्य महामुनि श्रीगर्ग की रचना है। यह सारी संहिता अत्यन्त मधुर श्रीकृष्णलीला से परिपूर्ण है। श्रीराधाकी दिव्य माधुर्यभावमिश्रित लीलाओं का इसमें विशद वर्णन है। श्रीमद्भागवत में जो कुछ सूत्ररूप में  कहा गया है, गर्ग संहिता में वही विशद वृत्तिरूप में वर्णित है। एक प्रकार से यह श्रीमद्भागवतोक्त श्रीकृष्णलीला का महाभाष्य है । श्रीमद्भागवत में भगवान् श्रीकृष्णकी पूर्णता के सम्बन्ध में महर्षि व्यास ने 'कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्' – इतना ही कहा है, महामुनि गर्गाचार्य ने-

यस्मिन् सर्वाणि तेजांसि विलीयन्ते स्वतेजसि ।

तं वदन्ति परे साक्षात् परिपूर्णतमं स्वयम् ॥

-- कहकर श्रीकृष्णमें  समस्त भागवत-तेजों के प्रवेश का वर्णन करके श्रीकृष्ण की परिपूर्णतमता का वर्णन किया है।

श्रीकृष्णकी मधुरलीलाकी रचना हुई है दिव्य 'रस' के द्वारा; उस रसका रास में प्रकाश हुआ है । श्रीमद्भागवत में उस रास के केवल एक बार का वर्णन पाँच अध्यायों में किया गया है; किंतु इस गर्ग संहिता में वृन्दावनखण्ड में, अश्वमेधखण्डके प्रभासमिलन के समय और उसी अश्वमेधखण्ड के दिग्विजय के अनन्तर लौटते समय-यों तीन बार कई अध्यायों में उसका बड़ा सुन्दर वर्णन है। परम प्रेमस्वरूपा, श्रीकृष्ण से नित्य अभिन्नस्वरूपा शक्ति श्रीराधाजीके दिव्य आकर्षण से श्रीमथुरानाथ एवं श्रीद्वारकाधीश श्रीकृष्ण ने बार-बार गोकुल में पधारकर नित्यरासेश्वरी, नित्यनिकुञ्जेश्वरी के साथ महारासकी दिव्य लीला की है— इसका विशद वर्णन है। इसके माधुर्यखण्ड में विभिन्न गोपियोंके   बड़ा ही सुन्दर वर्णन है । और भी बहुत-सी नयी-नयी कथाएँ हैं ।

यह संहिता भक्त-भावुकों के लिये परम समादर की वस्तु है; क्योंकि इसमें श्रीमद्भागवत के गूढ तत्त्वों का स्पष्ट रूप में उल्लेख है ।

----गीताप्रेस, गोरखपुर

 



गुरुवार, 14 मार्च 2024

गर्गसंहिता-माहात्म्य पहला अध्याय


 

॥ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥

गर्गसंहिता-माहात्म्य

पहला अध्याय

 

गर्गसंहिता के प्राकट्य का उपक्रम

 

जो श्रीकृष्णको ही देवता ( आराध्य) मानने- वाले वृष्णिवंशियोंके आचार्य तथा कवियोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं, उन महात्मा श्रीमान् गर्गजीको नित्य बारंबार नमस्कार है ।। १ ।।

शौनकजी बोले- ब्रह्मन् ! मैंने आपके मुखसे पुराणोंका उत्तम से उत्तम माहात्म्य विस्तारपूर्वक सुना है, वह श्रोत्रेन्द्रियके सुखकी वृद्धि करनेवाला है। अब गर्गमुनिकी संहिताका जो साररूप माहात्म्य है, उसका प्रयत्नपूर्वक विचार करके मुझसे वर्णन कीजिये। अहो! जिसमें श्रीराधा-माधवकी महिमाका विविध प्रकारसे वर्णन किया गया है, वह गर्गमुनिकी भगवल्लीला सम्बन्धिनी संहिता धन्य है । २-४ ॥ सूतजी कहते हैं- अहो शौनक ! इस माहात्म्य को मैंने नारदजीसे सुना है। इसे सम्मोहन - तन्त्रमें शिवजीने पार्वतीसे वर्णन किया था। कैलास पर्वतके निर्मल शिखरपर, जहाँ अलकनन्दाके तटपर अक्षयवट विद्यमान है, उसकी छायामें शंकरजी नित्य विराजते हैं। एक समयकी बात है, सम्पूर्ण मङ्गलोंकी अधिष्ठात्री देवी गिरिजाने प्रसन्नतापूर्वक भगवान् शंकरसे अपनी मनभावनी बात पूछी, जिसे वहाँ उपस्थित सिद्धगण भी सुन रहे थे ।। ५- ७ ॥

पार्वतीने पूछा - नाथ! जिसका आप इस प्रकार ध्यान करते रहते हैं, उसके उत्कृष्ट चरित्र तथा जन्म कर्मके रहस्यका मेरे समक्ष वर्णन कीजिये । कष्टहारी शंकर ! पूर्वकालमें मैंने साक्षात् आपके मुखसे श्रीमान् गोपालदेवके सहस्रनामको सुना है। अब मुझे उनकी कथा सुनाइये ।। ८-९ ॥

महादेवजी बोले- सर्वमङ्गले राधापति परमात्मा गोपालकृष्णकी कथा गर्ग संहितामें सुनी जाती है ॥ १० ॥

पार्वतीने पूछा - शंकर पुराण और संहिताएँ तो अनेक हैं, परंतु आप उन सबका परित्याग करके गर्ग- संहिताकी ही प्रशंसा करते हैं, उसमें भगवान् की किस लीलाका वर्णन है, उसे विस्तारपूर्वक बतलाइये । पूर्वकालमें किसके द्वारा प्रेरित होकर गर्गमुनिने इस संहिताकी रचना की थी ? देव ! इसके श्रवणसे कौन- सा पुण्य होता है तथा किस फलकी प्राप्ति होती है ? प्राचीनकालमें किन-किन लोगोंने इसका श्रवण किया है? प्रभो ! यह सब मुझे बताइये ॥। ११ - १३ ॥

सूतजी कहते हैं- अपनी प्रिया पार्वतीका ऐसा कथन सुनकर भगवान् महेश्वरका चित्त प्रसन्न हो गया। उस समय वे सभामें विराजमान थे। वहीं उन्होंने गर्गद्वारा रचित कथाका स्मरण करके उत्तर देना आरम्भ किया ॥ १४ ॥

महादेवजी बोले- देवि ! राधा-माधवका तथा गर्ग संहिताका भी विस्तृत माहात्म्य प्रयत्नपूर्वक श्रवण करो। यह पापका नाश करनेवाला है। जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण भूतलपर अवतीर्ण होनेका विचार कर रहे थे, उसी अवसरपर ब्रह्माके प्रार्थना करनेपर उन्होंने पहले पहल राधासे अपने चरित्रका वर्णन किया था । तदनन्तर गोलोकमें शेषजीने (कथा- श्रवणके लिये) प्रार्थना की। तब भगवान् ने प्रसन्नता- पूर्वक पुनः अपनी सम्पूर्ण कथा उनके सम्मुख कह सुनायी। तत्पश्चात् शेषजीने ब्रह्माको और ब्रह्माने धर्मको यह संहिता प्रदान की। सर्वमङ्गले ! फिर अपने पुत्र नर-नारायणद्वारा आग्रहपूर्ण प्रार्थना किये जानेपर धर्मने एकान्तमें उनको इस अमृतस्वरूपिणी कथाका पान कराया था। पुनः नारायणने धर्मके मुखसे जिस कृष्ण चरित्रका श्रवण किया था, उसे सेवापरायण नारदसे कहा । तदनन्तर प्रार्थना किये जानेपर नारदने नारायणके मुखसे प्राप्त हुई सारी-की- सारी श्रीकृष्णसंहिता गर्गाचार्यको कह सुनायी । यों श्रीहरिकी भक्तिसे सराबोर परम ज्ञानको सुनकर गर्गजीने महात्मा नारदका पूजन किया। पर्वतनन्दिनि । ! तब नारदने भूत-भविष्य वर्तमान- तीनों कालोंके ज्ञाता गर्गसे यों कहा ।। १५ – २२ ।।

नारदजी बोले - गर्गजी ! मैंने तुम्हें संक्षेपसे श्रीहरिकी यशोगाथा सुनायी है। यह वैष्णवोंके लिये परम प्रिय है। अब तुम इसका विस्तारपूर्वक वर्णन करो। विभो ! तुम ऐसे परम अद्भुत शास्त्रकी रचना करो, जो सबकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाला, निरन्तर कृष्णभक्तिकी वृद्धि करनेवाला तथा मुझे परम प्रिय लगे। विप्रेन्द्र ! मेरी आज्ञा मानकर कृष्णद्वैपायन व्यासने श्रीमद्भागवतकी रचना की, जो समस्त शास्त्रों में परम श्रेष्ठ है। ब्रह्मन् ! जिस प्रकार मैं भागवतकी रक्षा करता हूँ, उसी तरह तुम्हारे द्वारा रचित शास्त्रको राजा बहुलाश्वको सुनाऊँगा । २३ - २६ ॥

 

इस प्रकार श्रीसम्मोहन-तन्त्र में पार्वती-शंकर-संवाद में 'श्रीगर्गसंहिता का माहात्म्य' विषयक प्रथम अध्याय पूरा हुआ ॥ १ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट..०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

गर्भ में परीक्षित्‌ की रक्षा, कुन्ती के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक

जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिः एधमानमदः पुमान् ।
नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वां अकिञ्चनगोचरम् ॥ २६ ॥
नमोऽकिञ्चनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये ।
आत्मारामाय शान्ताय कैवल्यपतये नमः ॥ २७ ॥
मन्ये त्वां कालमीशानं अनादिनिधनं विभुम् ।
समं चरन्तं सर्वत्र भूतानां यन्मिथः कलिः ॥ २८ ॥

ऊँचे कुलमें जन्म, ऐश्वर्य, विद्या और सम्पत्तिके कारण जिसका घमंड बढ़ रहा है, वह मनुष्य तो आपका नाम भी नहीं ले सकता; क्योंकि आप तो उन लोगोंको दर्शन देते हैं, जो अकिंचन हैं ॥ २६ ॥ आप निर्धनोंके परम धन हैं। मायाका प्रपञ्च आपका स्पर्श भी नहीं कर सकता। आप अपने-आप में ही विहार करने वाले, परम शान्तस्वरूप हैं। आप ही कैवल्य मोक्ष के अधिपति हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ ॥ २७ ॥
मैं आपको अनादि, अनन्त, सर्वव्यापक, सबके नियन्ता, कालरूप परमेश्वर समझती हूँ। संसारके समस्त पदार्थ और प्राणी आपसमें टकराकर विषमता के कारण परस्पर विरुद्ध हो रहे हैं, परन्तु आप सब में समानरूप से विचर रहे हैं ॥ २८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से


बुधवार, 13 मार्च 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

गर्भ में परीक्षित्‌ की रक्षा, कुन्ती के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और युधिष्ठिर का शोक

यथा हृषीकेश खलेन देवकी
     कंसेन रुद्धातिचिरं शुचार्पिता ।
विमोचिताहं च सहात्मजा विभो
     त्वयैव नाथेन मुहुर्विपद्‍गणात् ॥ २३ ॥
विषान्महाग्नेः पुरुषाददर्शनाद्
     असत्सभाया वनवासकृच्छ्रतः ।
मृधे मृधेऽनेकमहारथास्त्रतो
     द्रौण्यस्त्रतश्चास्म हरेऽभिरक्षिताः ॥ २४ ॥
विपदः सन्तु ताः शश्वत् तत्र तत्र जगद्‍गुरो ।
भवतो दर्शनं यत्स्याद् अपुनर्भवदर्शनम् ॥ २५ ॥

(कुन्ती श्रीकृष्ण से कह रही हैं) हृषीकेश ! जैसे आपने दुष्ट कंसके द्वारा कैद की हुई और चिरकालसे शोकग्रस्त देवकीकी रक्षा की थी, वैसे ही पुत्रोंके साथ मेरी भी आपने बार-बार विपत्तियोंसे रक्षा की है। आप ही हमारे स्वामी हैं। आप सर्वशक्तिमान् हैं। श्रीकृष्ण ! कहाँ तक गिनाऊँ—विष से, लाक्षागृहकी भयानक आग से, हिडिम्ब आदि राक्षसों की दृष्टि से, दुष्टों की द्यूत-सभा से, वनवास की विपत्तियों से और अनेक बार के युद्धोंमें अनेक महारथियों के शस्त्रास्त्रों से और अभी-अभी इस अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से भी आपने ही हमारी रक्षा की है ॥ २३-२४ ॥ जगद्गुरो ! हमारे जीवन में सर्वदा पद-पदपर विपत्तियाँ आती रहें; क्योंकि विपत्तियों में ही निश्चितरूप से आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके दर्शन हो जानेपर फिर जन्म-मृत्युके चक्कर में नहीं आना पड़ता ॥ २५ ॥ 

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मंगलवार, 12 मार्च 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

गर्भ में परीक्षित्‌ की रक्षा, कुन्ती के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और युधिष्ठिर का शोक

कुन्त्युवाच ।

नमस्ये पुरुषं त्वाऽऽद्यं ईश्वरं प्रकृतेः परम् ।
अलक्ष्यं सर्वभूतानां अन्तर्बहिरवस्थितम् ॥ १८ ॥
मायाजवनिकाच्छन्नं अज्ञाधोक्षजमव्ययम् ।
न लक्ष्यसे मूढदृशा नटो नाट्यधरो यथा ॥ १९ ॥
तथा परमहंसानां मुनीनां अमलात्मनाम् ।
भक्तियोगविधानार्थं कथं पश्येम हि स्त्रियः ॥ २० ॥
कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनंदनाय च ।
नंदगोपकुमाराय गोविंदाय नमो नमः ॥ २१ ॥
नमः पङ्कजनाभाय नमः पङ्कजमालिने ।
नमः पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये ॥ २२ ॥

कुन्तीने (श्रीकृष्ण से) कहा—आप समस्त जीवोंके बाहर और भीतर एकरस स्थित हैं, फिर भी इन्द्रियों और वृत्तियोंसे देखे नहीं जाते; क्योंकि आप प्रकृतिसे परे आदिपुरुष परमेश्वर हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ ॥ १८ ॥ इन्द्रियोंसे जो कुछ जाना जाता है, उसकी तहमें आप विद्यमान रहते हैं और अपनी ही मायाके परदेसे अपनेको ढके रहते हैं। मैं अबोध नारी आप अविनाशी पुरुषोत्तमको भला, कैसे जान सकती हूँ ? जैसे मूढ़ लोग दूसरा भेष धारण किये हुए नटको प्रत्यक्ष देखकर भी नहीं पहचान सकते, वैसे ही आप दीखते हुए भी नहीं दीखते ॥ १९ ॥ आप शुद्ध हृदयवाले विचारशील जीवन्मुक्त परमहंसोंके हृदयमें अपनी प्रेममयी भक्तिका सृजन करनेके लिये अवतीर्ण हुए हैं। फिर हम अल्पबुद्धि स्त्रियाँ आपको कैसे पहचान सकती हैं ॥ २० ॥ आप श्रीकृष्ण, वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्द-गोप के लाड़ले लाल गोविन्द को हमारा बारंबार प्रणाम है ॥ २१ ॥ जिनकी नाभिसे ब्रह्माका जन्मस्थान कमल प्रकट हुआ है, जो सुन्दर कमलोंकी माला धारण करते हैं, जिनके नेत्र कमलके समान विशाल और कोमल हैं, जिनके चरण-कमलोंमें कमलका चिह्न है—श्रीकृष्ण! ऐसे आपको मेरा बार-बार नमस्कार है ॥ २२ ॥ 

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सोमवार, 11 मार्च 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट..०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

गर्भ में परीक्षित्‌ की रक्षा, कुन्ती के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और युधिष्ठिर का शोक

अन्तःस्थः सर्वभूतानां आत्मा योगेश्वरो हरिः ।
स्वमाययाऽऽवृणोद्‍गर्भं वैराट्याः कुरुतन्तवे ॥ १४ ॥
यद्यप्यस्त्रं ब्रह्मशिरः त्वमोघं चाप्रतिक्रियम् ।
वैष्णवं तेज आसाद्य समशाम्यद् भृगूद्वह ॥ १५ ॥
मा मंस्था ह्येतदाश्चर्यं सर्वाश्चर्यमयेऽच्युते ।
य इदं मायया देव्या सृजत्यवति हन्त्यजः ॥ १६ ॥
ब्रह्मतेजोविनिर्मुक्तैः आत्मजैः सह कृष्णया ।
प्रयाणाभिमुखं कृष्णं इदमाह पृथा सती ॥ १७ ॥

योगेश्वर श्रीकृष्ण समस्त प्राणियोंके हृदयमें विराजमान आत्मा हैं। उन्होंने उत्तराके गर्भको पाण्डवोंकी वंश-परम्परा चलानेके लिये अपनी मायाके कवचसे ढक दिया ॥ १४ ॥ शौनकजी ! यद्यपि ब्रह्मास्त्र अमोघ है और उसके निवारणका कोई उपाय भी नहीं है, फिर भी भगवान्‌ श्रीकृष्णके तेजके सामने आकर वह शान्त हो गया ॥ १५ ॥ यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं समझनी चाहिये; क्योंकि भगवान्‌ तो सर्वाश्चर्यमय हैं, वे ही अपनी निज शक्ति मायासे स्वयं अजन्मा होकर भी इस संसारकी सृष्टि, रक्षा और संहार करते हैं ॥ १६ ॥ जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण जाने लगे, तब ब्रह्मास्त्रकी ज्वालासे मुक्त अपने पुत्रोंके और द्रौपदीके साथ सती कुन्तीने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी इस प्रकार स्तुति की ॥ १७ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट..०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

गर्भ में परीक्षित्‌ की रक्षा, कुन्ती के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और युधिष्ठिर का शोक

आमंत्र्य पाण्डुपुत्रांश्च शैनेयोद्धवसंयुतः ।
द्वैपायनादिभिर्विप्रैः पूजितैः प्रतिपूजितः ॥। ७ ॥
गन्तुं कृतमतिर्ब्रह्मन् द्वारकां रथमास्थितः ।
उपलेभेऽभिधावन्तीं उत्तरां भयविह्वलाम् ॥। ८ ॥

उत्तरोवाच

पाहि पाहि महायोगिन् देवदेव जगत्पते ।
नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्युः परस्परम् ॥ ९ ॥
अभिद्रवति मामीश शरस्तप्तायसो विभो ।
कामं दहतु मां नाथ मा मे गर्भो निपात्यताम् ॥ १० ॥

सूत उवाच ।

उपधार्य वचस्तस्या भगवान् भक्तवत्सलः ।
अपाण्डवमिदं कर्तुं द्रौणेरस्त्रमबुध्यत ॥ ११ ॥
तर्ह्येवाथ मुनिश्रेष्ठ पाण्डवाः पञ्च सायकान् ।
आत्मनोऽभिमुखान् दीप्तान् आलक्ष्यास्त्राण्युपाददुः ॥ १२ ॥
व्यसनं वीक्ष्य तत्तेषां अनन्यविषयात्मनाम् ।
सुदर्शनेन स्वास्त्रेण स्वानां रक्षां व्यधाद्विभुः ॥ १३ ॥

इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णने वहाँसे जानेका विचार किया । उन्होंने इसके लिये पाण्डवों से विदा ली और व्यास आदि ब्राह्मणोंका सत्कार किया। उन लोगोंने भी भगवान्‌ का बड़ा ही सम्मान किया। तदनन्तर सात्यकि और उद्धवके साथ द्वारका जानेके लिये वे रथपर सवार हुए। उसी समय उन्होंने देखा कि उत्तरा भयसे विह्वल होकर सामनेसे दौड़ी चली आ रही है ॥ ७-८ ॥
उत्तराने कहा—देवाधिदेव ! जगदीश्वर ! आप महायोगी हैं। आप मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। आपके अतिरिक्त इस लोकमें मुझे अभय देनेवाला और कोई नहीं है; क्योंकि यहाँ सभी परस्पर एक-दूसरेकी मृत्युके निमित्त बन रहे हैं ॥ ९ ॥ प्रभो ! आप सर्व-शक्तिमान् हैं। यह दहकते हुए लोहेका बाण मेरी ओर दौड़ा आ रहा है। स्वामिन् ! यह मुझे भले ही जला डाले, परन्तु मेरे गर्भको नष्ट न करे—ऐसी कृपा कीजिये ॥ १० ॥
सूतजी कहते हैं—भक्तवत्सल भगवान्‌ श्रीकृष्ण उसकी बात सुनते ही जान गये कि अश्वत्थामाने पाण्डवोंके वंशको निर्बीज करनेके लिये ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया है ॥ ११ ॥ शौनकजी ! उसी समय पाण्डवोंने भी देखा कि जलते हुए पाँच बाण हमारी ओर आ रहे हैं। इसलिये उन्होंने भी अपने-अपने अस्त्र उठा लिये ॥ १२ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने अनन्य प्रेमियों पर—शरणागत भक्तोंपर बहुत बड़ी विपत्ति आयी जानकर अपने निज अस्त्र सुदर्शन-चक्रसे उन निज जनोंकी रक्षा की ॥ १३ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


रविवार, 10 मार्च 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

गर्भमें परीक्षित्‌ की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और युधिष्ठिर का शोक

सूत उवाच ।

अथ ते सम्परेतानां स्वानामुदकमिच्छताम् ।
दातुं सकृष्णा गङ्गायां पुरस्कृत्य ययुः स्त्रियः ॥। १ ॥
ते निनीयोदकं सर्वे विलप्य च भृशं पुनः ।
आप्लुता हरिपादाब्जः अजःपूतसरिज्जले ॥। २ ॥
तत्रासीनं कुरुपतिं धृतराष्ट्रं सहानुजम् ।
गान्धारीं पुत्रशोकार्तां पृथां कृष्णां च माधवः ॥। ३ ॥
सांत्वयामास मुनिभिः हतबंधून् शुचार्पितान् ।
भूतेषु कालस्य गतिं दर्शयन् अप्रतिक्रियाम् ॥। ४ ॥
साधयित्वाजातशत्रोः स्वं राज्यं कितवैर्हृतम् ।
घातयित्वासतो राज्ञः कचस्पर्शक्षतायुषः ॥। ५ ॥
याजयित्वाश्वमेधैस्तं त्रिभिरुत्तमकल्पकैः ।
तद्यशः पावनं दिक्षु शतमन्योरिवातनोत् ॥। ६ ॥

सूतजी कहते हैं—इसके बाद पाण्डव श्रीकृष्णके साथ जलाञ्जलिके इच्छुक मरे हुए स्वजनोंका तर्पण करनेके लिये स्त्रियोंको आगे करके गङ्गातटपर गये ॥ १ ॥ वहाँ उन सबने मृत बन्धुओंको जलदान दिया और उनके गुणोंका स्मरण करके बहुत विलाप किया। तदनन्तर भगवान्‌ के चरण- कमलोंकी धूलिसे पवित्र गङ्गाजलमें पुन: स्नान किया ॥ २ ॥ वहाँ अपने भाइयोंके साथ कुरुपति महाराज युधिष्ठिर, धृतराष्ट्र, पुत्रशोकसे व्याकुल गान्धारी, कुन्ती और द्रौपदी—सब बैठकर मरे हुए स्वजनोंके लिये शोक करने लगे। भगवान्‌ श्रीकृष्णने धौम्यादि मुनियोंके साथ उनको सान्त्वना दी और समझाया कि संसारके सभी प्राणी कालके अधीन हैं, मौतसे किसीको कोई बचा नहीं सकता ॥ ३-४ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णने अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिरको उनका वह राज्य, जो धूर्तोंने छलसे छीन लिया था, वापस दिलाया तथा द्रौपदीके केशोंका स्पर्श करनेसे जिनकी आयु क्षीण हो गयी थी, उन दुष्ट राजाओंका वध कराया ॥ ५ ॥ साथ ही युधिष्ठिरके द्वारा उत्तम सामग्रियोंसे तथा पुरोहितोंसे तीन अश्वमेध यज्ञ कराये। इस प्रकार युधिष्ठिरके पवित्र यशको सौ यज्ञ करनेवाले इन्द्रके यशकी तरह सब ओर फैला दिया ॥ ६ ॥ 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - सातवां अध्याय..(पोस्ट..१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--सातवाँ अध्याय..(पोस्ट १०)

अश्वत्थामाद्वारा द्रौपदी के पुत्रोंका मारा जाना और 
अर्जुनके द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन

सूत उवाच –

अर्जुनः सहसाऽऽज्ञाय हरेर्हार्दमथासिना ।
मणिं जहार मूर्धन्यं द्विजस्य सहमूर्धजम् ॥ ५५ ॥
विमुच्य रशनाबद्धं बालहत्याहतप्रभम् ।
तेजसा मणिना हीनं शिबिरान् निरयापयत् ॥ ५६ ॥
वपनं द्रविणादानं स्थानान् निर्यापणं तथा ।
एष हि ब्रह्मबंधूनां वधो नान्योऽस्ति दैहिकः ॥ ५७ ॥
पुत्रशोकातुराः सर्वे पाण्डवाः सह कृष्णया ।
स्वानां मृतानां यत्कृत्यं चक्रुर्निर्हरणादिकम् ॥ ५८ ॥

सूतजी कहते हैं—अर्जुन भगवान्‌ के हृदयकी बात तुरंत ताड़ गये और उन्होंने अपनी तलवारसे अश्वत्थामा के सिरकी मणि उसके बालों के साथ उतार ली ॥ ५५ ॥ बालकों की हत्या करने से वह श्रीहीन तो पहले ही हो गया था, अब मणि और ब्रह्मतेज से भी रहित हो गया। इसके बाद उन्होंने रस्सी का बन्धन खोलकर उसे शिविरसे निकाल दिया ॥ ५६ ॥ मूँड देना, धन छीन लेना और स्थानसे बाहर निकाल देना—यही ब्राह्मणाधमों का वध है। उनके लिये इससे भिन्न शारीरिक वधका विधान नहीं है ॥ ५७ ॥ पुत्रोंकी मृत्युसे द्रौपदी और पाण्डव सभी शोकातुर हो रहे थे। अब उन्होंने अपने मरे हुए भाई-बन्धुओंकी दाहादि अन्त्येष्टि क्रिया की ॥ ५८ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे द्रौणिनिग्रहो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥। ७ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...