# श्रीहरि:
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श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
दूसरा अध्याय (पोस्ट 01)
ब्रह्मादि देवों द्वारा
गोलोकधाम का दर्शन
जिह्वां
लब्ध्वापि यः कृष्णं कीर्तनीयं न कीर्तयेत् ।
लब्ध्वापि मोक्षनिःश्रेणिं स नारोहति दुर्मतिः ॥१॥
अथ ते संप्रवक्ष्यामि श्रीकृष्णागमनं भुवि ।
अस्मिन्वाराह कल्पे वै यद्भूतं तच्छृणु प्रभो ॥२॥
पुरा दानवदैत्यानां नराणां खलु भूभुजाम् ।
भूरिभारसमाक्रांता पृथ्वी गोरूपधारिणी ॥३॥
अनाथवद्रुदन्तीव वेदयन्ती निजव्यथाम् ।
कम्पयन्ती निजं गात्रं ब्रह्माणं शरणं गता ॥४॥
ब्रह्माथाश्वास्य तां सद्यः सर्वदेवगणैर्वृतः ।
शङ्करेण समं प्रागाद्वैकुण्ठं मंदिरं हरेः ॥५॥
नत्वा चतुर्भुजं विष्णुं स्वाभिप्रायं जगाद ह ।
अथोद्विग्नं देवगणं श्रीनाथः प्राह तं विधिम् ॥६॥
श्रीभगवानुवाच -
कृष्णं स्वयं विगणिताण्डपतिं परेशं
साक्षादखण्डमतिदेवमतीवलीलम् ।
कार्यं कदापि न भविष्यति यं विना हि
गच्छाशु तस्य विशदं पदमव्ययं त्वम् ॥७॥
श्रीब्रह्मोवाच -
त्वत्तः परं न जानामि परिपूर्णतमं स्वयम् ।
यदि योन्यस्तस्य साक्षाल्लोकं दर्शय नः प्रभो ॥८॥
श्रीनारद उवाच -
इत्युक्तोऽपि हरिः पूर्णः सर्वैर्देवगणैः सह ।
पदवीं दर्शयामास ब्रह्माण्डशिखरोपरि ॥९॥
वामपादाङ्गुष्ठनखभिन्नब्रह्माण्डमस्तके ।
श्रीवामनस्य विवरे ब्रह्म द्रवसमाकुले ॥१०॥
जलयानेन मार्गेण बहिस्ते निर्ययुः सुराः ।
कलिङ्गबिम्बवच्चेदं ब्रह्माण्डं ददृशुस्त्वधः ॥११॥
इन्द्रायनफलानीव लुठन्त्यन्यानि वै जले ।
विलोक्य विस्मिताः सर्वे बभुवुश्चकिता इव ॥१२॥
कोटिशो योजनोर्ध्वं वै पुराणामष्टकं गताः ।
दिव्यप्राकाररत्नादि द्रुमवृन्दमनोहरम् ॥१३॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- जो जीभ पाकर भी कीर्तनीय भगवान् श्रीकृष्णका कीर्तन नहीं करता,
वह दुर्बुद्धि मनुष्य मोक्षकी सीढ़ी पाकर भी उसपर चढ़नेकी चेष्टा
नहीं करता । राजन् ! अब इस वाराहकल्पमें धराधामपर जो भगवान् श्रीकृष्णका पदार्पण
हुआ है और यहाँ उनकी जो-जो लीलाएँ हुई हैं, वह सब मैं तुमसे
कहता हूँ; सुनो।
बहुत
पहले की बात है— दानव, दैत्य, आसुर स्वभाव के मनुष्य और दुष्ट राजाओंके भारी भार से अत्यन्त पीड़ित हो,
पृथ्वी गौ का रूप धारण करके, अनाथ की भाँति
रोती-बिलखती हुई अपनी आन्तरिक व्यथा निवेदन करने के लिये ब्रह्माजी की शरण में
गयी। उस समय उसका शरीर काँप रहा था। वहाँ उसकी कष्टकथा सुनकर ब्रह्माजी ने उसे
धीरज बँधाया और तत्काल समस्त देवताओं तथा शिवजी को साथ लेकर वे भगवान् नारायण के
वैकुण्ठ- धाम में गये। वहाँ जाकर ब्रह्माजी ने चतुर्भुज भगवान् विष्णुको प्रणाम
करके अपना सारा अभिप्राय निवेदन किया। तब लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु उन उद्विग्न
देवताओं तथा ब्रह्माजी से इस प्रकार बोले
॥ १-६ ॥
श्रीभगवान्
ने कहा- ब्रह्मन् ! साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण ही अगणित ब्रह्माण्डोंके स्वामी,
परमेश्वर, अखण्डस्वरूप तथा देवातीत हैं। उनकी
लीलाएँ अनन्त एवं अनिर्वचनीय हैं। उनकी कृपा के बिना यह कार्य कदापि सिद्ध नहीं
होगा, अतः तुम उन्हींके अविनाशी एवं परम उज्ज्वल धाम में
शीघ्र जाओ ॥ ७ ॥
श्रीब्रह्माजी
बोले- प्रभो ! आपके अतिरिक्त कोई दूसरा भी परिपूर्णतम तत्त्व है,
यह मैं नहीं जानता। यदि कोई दूसरा भी आपसे उत्कृष्ट परमेश्वर है,
तो उसके लोकका मुझे दर्शन कराइये ॥ ८ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- ब्रह्माजीके इस प्रकार कहनेपर परिपूर्णतम भगवान् विष्णुने सम्पूर्ण
देवताओं सहित ब्रह्माजीको ब्रह्माण्ड-शिखरपर विराजमान गोलोकधामका मार्ग दिखलाया ।
वामनजीके पैरके बायें अँगूठेसे ब्रह्माण्डके शिरोभागका भेदन हो जानेपर जो छिद्र
हुआ,
वह 'ब्रह्मद्रव' (नित्य
अक्षय नीर) से परिपूर्ण था । सब देवता उसी मार्गसे वहाँके लिये नियत जलयानद्वारा
बाहर निकले। वहाँ ब्रह्माण्डके ऊपर पहुँचकर उन सबने नीचेकी ओर उस ब्रह्माण्डको
कलिङ्गबिम्ब (तूंबे) की भाँति देखा। इसके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-से ब्रह्माण्ड उसी
जलमें इन्द्रायण-फलके सदृश इधर-उधर लहरोंमें लुढ़क रहे थे। यह देखकर सब देवताओंको
विस्मय हुआ। वे चकित हो गये । वहाँसे करोड़ों योजन ऊपर आठ नगर मिले, जिनके चारों ओर दिव्य चहारदीवारी शोभा बढ़ा रही थी और झुंड-के-झुंड
रत्नादिमय वृक्षोंसे उन पुरियों की मनोरमता बढ़ गयी थी ॥ ९-१३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से