॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)
गर्भ में परीक्षित् की रक्षा, कुन्ती के द्वारा भगवान् की स्तुति और युधिष्ठिर का शोक
न वेद कश्चिद् भगवंश्चिकीर्षितं
तवेहमानस्य नृणां विडम्बनम् ।
न यस्य कश्चिद् दयितोऽस्ति कर्हिचिद्
द्वेष्यश्च यस्मिन्विषमा मतिर्नृणाम् ॥ २९ ॥
जन्म कर्म च विश्वात्मन् अजस्याकर्तुरात्मनः ।
तिर्यङ् नृषिषु यादःसु तद् अत्यन्तविडम्बनम् ॥ ३० ॥
भगवन् ! आप जब मनुष्योंकी-सी लीला करते हैं, तब आप क्या करना चाहते हैं—यह कोई नहीं जानता। आपका कभी कोई न प्रिय है और न अप्रिय। आपके सम्बन्ध में लोगोंकी बुद्धि ही विषम हुआ करती है ॥ २९ ॥ आप विश्वके आत्मा हैं, विश्वरूप हैं। न आप जन्म लेते हैं और न कर्म ही करते हैं। फिर भी पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, जलचर आदिमें आप जन्म लेते हैं और उन योनियोंके अनुरूप दिव्य कर्म भी करते हैं। यह आपकी लीला ही तो है ॥ ३० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
जय श्री हरि
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जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण