# श्रीहरि:
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श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
दूसरा
अध्याय (पोस्ट 04)
ब्रह्मादि
देवों द्वारा गोलोकधाम का दर्शन
समुद्रवद्दुग्धदाश्च
तरुणीकरचिह्निताः ।
कुरंगवद्विलङ्घद्भिर्गोवत्सैर्मण्डिताः शुभाः ॥४६॥
इतस्ततश्चलन्तश्च गोगणेषु महावृषाः ।
दीर्घकन्धरशृङ्गाढ्या यत्र धर्मधुरंधराः ॥४७॥
गोपाला वेत्रहस्ताश्च श्यामा वंशीधराः पराः ।
कृष्णलीलां प्रगायन्तो रागैर्मदनमोहनैः ॥४८॥
इत्थं निजनिकुञ्जं तं नत्वा मध्ये गताः सुराः ।
ज्योतिषां मण्डलं पद्मं सहस्रदलशोभितम् ॥४९॥
तदूर्ध्वं षोडशदलं ततोऽष्टदलपङ्कजम् ।
तस्योपरि स्फुरद्दीर्घं सोपानत्रयमण्डितम् ॥५०॥
सिंहासनं परं दिव्यं कौस्तुभैः खचितं शुभैः ।
ददृशुर्देवताः सर्वाः श्रीकृष्णं राधया युतम् ॥५१॥
दिव्यैरष्टसखीसङ्घैर्मोहिन्यादिभिरन्वितम् ।
श्रीदामाद्यैः सेव्यमानमष्टगोपालसेवितैः ॥५२॥
हंसाभैर्व्यजनान्दोलचामरैर्वज्रमुष्टिभिः ।
कोटिचन्द्रप्रतीकाशैः सेवितं छत्रकोटिभिः ॥५३॥
श्री राधिकालङ्कृतवामबाहुं
स्वच्छन्दवक्री- कृतदक्षिणाङ्घ्रिम् ।
वंशीधरं सुन्दरमन्दहासं
भ्रूमण्डलामोहितकामराशिम् ॥५४॥
घनप्रभं पद्मदलायुतेक्षणं
प्रलम्बबाहुं बहुपीतवाससम् ।
वृन्दावनोन्मत्तमिलिन्दशब्दै-
र्विराजितं श्रीवनमालया हरिम् ॥५५॥
काञ्जीकलाकङ्कणनूपुरद्युतिं
लसन्मनोहारि महोज्ज्वलस्मितम् ।
श्रीवत्सरत्नोत्तम कुन्तलश्रियं
किरीटहाराङ्गदकुण्डलत्विषम् ॥५६॥
दृष्ट्वा तमानन्दसमुद्रमग्नव-
त्प्रहर्षिताश्चाश्रु- कलाकुलेक्षणाः ।
ततः सुराः प्राञ्जलयो नतानना
नेमुर्मुरारिं पुरुषं परायणम् ॥५७॥
दूध
देनेमें समुद्रकी तुलना करनेवाली उन गायोंके शरीरपर तरुणियोंके करचिह्न शोभित हैं,
अर्थात् युवतियोंके हाथोंके रंगीन छापे दिये गये हैं। हिरनके समान
छलांग भरनेवाले बछड़ोंसे उनकी अधिक शोभा बढ़ गयी है। गायों के झुंड में विशाल
शरीरवाले साँड़ भी
उधर
घूम रहे हैं उनकी लंबी गर्दन और बड़े-बड़े
सींग हैं। उन साँड़ों को साक्षात् धर्मधुरंधर कहा जाता है ॥ ४६-४७ ॥
गौओंकी
रक्षा करनेवाले चरवाहे भी अनेक हैं। उनमेंसे कुछ तो हाथमें बेंतकी छड़ी लिये हुए
हैं। और दूसरोंके हाथोंमें सुन्दर बाँसुरी शोभा पाती है। उन सबके शरीरका रंग
श्यामल है। वे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी लीलाएँ ऐसे मधुर स्वरोंमें गाते हैं कि
उसे सुनकर कामदेव भी मोहित हो जाता है | ४८
॥
इस
'दिव्य निज निकुञ्ज' को सम्पूर्ण देवताओं ने प्रणाम
किया और भीतर चले गये । वहाँ उन्हें हजार दलवाला एक बहुत बड़ा कमल दिखायी पड़ा। वह
ऐसा सुशोभित था, मानो प्रकाश का पुञ्ज हो ॥ ४९ ॥
उसके
ऊपर एक सोलह दलका कमल है तथा उसके ऊपर भी एक आठ दलवाला कमल है। उसके ऊपर चमचमाता
हुआ एक ऊँचा सिंहासन है। तीन सीढ़ियों से सम्पन्न वह परम दिव्य सिंहासन कौस्तुभ
मणियों से जटित होकर अनुपम शोभा पाता है । श्रीकृष्णचन्द्र श्रीराधिका जी के साथ
विराजमान हैं। ऐसी झाँकी उन समस्त देवताओं को मिली ॥ ५०-५१ ॥
वे
युगलरूप भगवान् मोहिनी आदि आठ दिव्य सखियों से समन्वित तथा श्रीदामा प्रभृति आठ
गोपालोंके द्वारा सेवित हैं। उनके ऊपर हंस के समान सफेद रंगवाले पंखे झले जा रहे
हैं और हीरों से बनी मूँठवाले चँवर डुलाये जा रहे हैं। भगवान् की सेवामें करोंड़ो
ऐसे छत्र प्रस्तुत हैं, जो कोटि चन्द्रमाओंकी
प्रभासे तुलित हो सकते हैं ॥ ५२-५३ ॥
भगवान्
श्रीकृष्णके वामभाग में विराजित श्रीराधिकाजी से उनकी बायीं भुजा सुशोभित है।
भगवान् ने स्वेच्छापूर्वक अपने दाहिने पैर को टेढ़ा कर रखा है। वे हाथ में बाँसुरी
धारण किये हुए हैं। उन्होंने मनोहर मुसकानसे भरे और भ्रुकुटि-विलाससे अनेक
कामदेवोंको मोहित कर रखा है ॥ ५४ ॥
उन
श्रीहरिकी मेघके समान श्यामल कान्ति है । कमल-दलकी भाँति बड़ी विशाल उनकी आँखें
हैं। घुटनोंतक लंबी बड़ी भुजाओंवाले वे प्रभु अत्यन्त पीले वस्त्र पहने हुए हैं।
भगवान् गलेमें सुन्दर वनमाला धारण किये हुए हैं, जिसपर वृन्दावनमें विचरण करनेवाले मतवाले भ्रमरोंकी गुंजार हो रही है।
पैरोंमें घुंघरू और हाथोंमें कङ्कणकी छटा छिटका रहे हैं। अति सुन्दर मुसकान मनको
मोहित कर रही है। श्रीवत्सका चिह्न, बहुमूल्य रत्नोंसे बने
हुए किरीट, कुण्डल, बाजूबंद और हार
यथास्थान भगवान्- की शोभा बढ़ा रहे हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण के ऐसे दिव्य दर्शन प्राप्तकर सम्पूर्ण देवता आनन्द के
समुद्र में गोता खाने लगे। अत्यन्त हर्षके कारण उनकी आँखों से आँसुओंकी धारा बह
चली। तब सम्पूर्ण देवताओंने हाथ जोड़कर विनीत- भाव से उन परम पुरुष श्रीकृष्ण
चन्द्रको प्रणाम किया ॥ ५५-५७ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्ग-संहिता में गोलोकखण्ड के अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवाद में 'श्रीगोलोकधाम का वर्णन' नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ
॥ २ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से