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गुरुवार, 28 मार्च 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..०५)
बुधवार, 27 मार्च 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौथा अध्याय (पोस्ट 01)
# श्रीहरि:
#
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
चौथा अध्याय (पोस्ट 01)
नन्द आदि के लक्षण; गोपीयूथ का
परिचय; श्रुति आदि के गोपीभाव की प्राप्ति में कारणभूत
पूर्वप्राप्त वरदानों का विवरण
नन्दोपनन्दभवने
श्रीदामा सुबलः सखा ।
स्तोककृष्णोऽर्जुनोंऽशश्च नवनन्दगृहे विधे ॥१॥
विशालार्षभतेजस्वी देवप्रस्थवरूथपाः ।
भविष्यन्ति सखायो मे व्रजे षड् वृषभानुषु ॥२॥
श्रीब्रह्मोवाच -
कस्य वै नन्दपदवी कस्य वै वृषभानुता ।
वद देवपते साक्षादुपनन्दस्य लक्षणम् ॥३॥
श्रीभगवानुवाच -
गाः पालयन्ति घोषेषु सदा गोवृत्तयोऽनिशम् ।
ते गोपाला मया प्रोक्तास्तेषां त्वं लक्षणं श्रृणु ॥४॥
नन्दःप्रोक्तः सगोपालैर्नवलक्षगवां पतिः ।
उपनन्दश्च कथितः पंचलक्षगवां पतिः ॥५॥
वृषभानुः स उक्तो यो दशलक्षगवां पतिः ।
गवां कोटिर्गृहे यस्य नन्दराजः स एवहि ॥६॥
कोट्यर्धं च गवां यस्य वृषभानुवरस्तु सः ।
एतादृशौ व्रजे द्वौ तु सुचन्द्रो द्रोण एवहि ॥७॥
सर्वलक्षणलक्ष्याढ्यौ गोपराजौ भविष्यतः ।
शतचन्द्राननानां च सुन्दरीणां सुवाससाम् ।
गोपीनां मद्व्रजे रम्ये शतयूथो भविष्यति ॥८॥
श्रीब्रह्मोवाच -
हे दीनबंधो हे देव जगत्कारणकारण ।
यूथस्य लक्षणं सर्वं तन्मे ब्रूहि परेश्वर ॥९॥
श्रीभगवानुवाच -
अर्बुदं दशकोटीनां मुनिभिः कथितं विधे ।
दशार्बुदं यत्र भवेत्सोऽपि यूथः प्रकथ्यते ॥१०॥
गोलोकवासिन्यः काश्चित्काश्चिद्वै द्वारपालिकाः ।
शृङ्गारप्रकराः काश्चित्काश्चिच्छस्योपकारकाः ॥११॥
पार्षदाख्यास्तथा काश्चिच्छ्रीवृन्दावनपालिकाः ।
गोवर्धननिवासिन्यः काश्चित्कुञ्जविधायिकाः ॥१२॥
मे निकुञ्जनिवासिन्यो भविष्यन्ति व्रजे मम ।
एवं च यमुनायूथो जाह्नवीयूथ एव च ॥१३॥
रमाया मधुमाधव्या विरजायास्तथैव च ।
ललिताया विशाखाया मायायूथो भविष्यति ॥१४॥
एवं हृष्टसखीनां च सखीनां किल षोडश ।
द्वात्रिंशच्च सखीनां च यूथा भाव्या व्रजे विधे ॥१५॥
श्रुतरूपा ऋषिरूपा मैथिलाः कोशलास्तथा ।
अयोध्यापुरवासिन्यो यत्र सीतापुलिन्दकाः ॥१६॥
यासां मया बरो दत्तो पूर्वे पुर्वे युगे युगे ।
तासां यूथा भविष्यन्ति गोपीनां मद्व्रजे शुभे ॥१७॥
भगवान्
ने कहा- ब्रह्मन् ! 'सुबल' और 'श्रीदामा' नामके मेरे सखा
नन्द तथा उपनन्दके घरपर जन्म धारण करेंगे। इसी प्रकार और भी मेरे सखा हैं, जिनके नाम 'स्तोककृष्ण', 'अर्जुन'
एवं 'अंशु' आदि हैं,
वे सभी नौ नन्दोंके यहाँ प्रकट होंगे। व्रजमण्डलमें जो छः वृषभानु
हैं, उनके गृह में विशाल, ऋषभ, तेजस्वी, देवप्रस्थ और वरूथप नामके मेरे सखा अवतीर्ण
होंगे ॥ १-२ ॥
श्रीब्रह्माजीने
पूछा- देवेश्वर ! किसे 'नन्द' कहा जाता है और किसे 'उपनन्द' तथा
'वृषभानु' के क्या लक्षण हैं ? ॥ ३ ॥
श्रीभगवान्
कहते हैं—जो गोशालाओं में सदा गौओंका पालन करते रहते हैं एवं गो-सेवा ही जिनकी
जीविका है, उन्हें मैंने 'गोपाल' संज्ञा दी है। अब तुम उनके लक्षण सुनो।
गोपालोंके साथ नौ लाख गायोंके स्वामीको 'नन्द' कहा जाता है। पाँच लाख गौओंका स्वामी 'उपनन्द'
पदको प्राप्त करता है । 'वृषभानु' नाम उसका पड़ता है, जिसके अधिकारमें दस लाख गौएँ
रहती हैं, ऐसे ही जिसके यहाँ एक करोड़ गौओंकी रक्षा होती है,
वह 'नन्दराज' कहलाता है।
पचास लाख गौओंके अध्यक्षकी 'वृषभानुवर' संज्ञा है । 'सुचन्द्र' और 'द्रोण' – ये दो ही व्रजमें इस प्रकारके सम्पूर्ण
लक्षणोंसे सम्पन्न गोपराज बनेंगे और मेरे दिव्य व्रजमें सुन्दर वस्त्र धारण
करनेवाली शतचन्द्रानना गोप- सुन्दरियोंके सौ यूथ होंगे ॥ ४ – ८ ॥
श्रीब्रह्माजी
ने कहा भगवन् ! आप दीनजनों के बन्धु और जगत् के कारण (प्रकृति) के भी कारण हैं 1 प्रभो ! अब आप मेरे समक्ष यूथके सम्पूर्ण लक्षणोंका वर्णन कीजिये ॥ ९ ॥
श्रीभगवान्
बोले—–ब्रह्माजी ! मुनियोंने दस कोटिको एक 'अर्बुद'
कहा है। जहाँ दस अर्बुद होते हैं । उसे 'यूथ'
कहा जाता है । यहाँ की गोपियों में कुछ गोलोकवासिनी हैं, कुछ द्वारपालिका हैं, कुछ शृङ्गार-साधनों की
व्यवस्था करनेवाली हैं और कुछ शय्या सँवारने में संलग्न रहती हैं। कई तो
पार्षदकोटि में आती और कुछ गोपियाँ श्रीवृन्दावन की देख-रेख किया करती हैं। कुछ
गोपियों का गोवर्धन गिरिपर निवास है । कई गोपियाँ कुञ्जवन को सजाती-सँवारती हैं
तथा बहुतेरी गोपियाँ मेरे निकुञ्ज में रहती हैं। इन सब को मेरे व्रज में पधारना
होगा। ऐसे ही यमुना-गङ्गाके भी यूथ हैं। इसी प्रकार रमा, मधुमाधवी,
विरजा, ललिता, विशाखा
एवं मायाके यूथ होंगे। ब्रह्माजी ! इसी प्रकार मेरे व्रजमें आठ, सोलह और बत्तीस सखियोंके भी यूथ होंगे। पूर्वके अनेक युगोंमें जो
श्रुतियाँ, मुनियोंकी पत्नियाँ, अयोध्याकी
महिलाएँ, यज्ञमें स्थापित की हुई सीता, जनकपुर एवं कोसलदेशकी निवासिनी सुन्दरियाँ तथा पुलिन्दकन्याएँ थीं तथा
जिनको मैं पूर्ववर्ती युग- युग में वर दे चुका हूँ, वे सब
मेरे पुण्यमय व्रजमें गोपी- रूप में पधारेंगी और उनके भी यूथ होंगे ॥ १०-१७॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..०४)
मंगलवार, 26 मार्च 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) तीसरा अध्याय (पोस्ट 03)
# श्रीहरि:
#
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
तीसरा
अध्याय (पोस्ट 03)
भगवान्
श्रीकृष्णके श्रीविग्रहमें श्रीविष्णु आदिका प्रवेश;
देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति; भगवान् का
अवतार लेनेका निश्चय; श्रीराधाकी चिन्ता और भगवान् का
उन्हें सान्त्वना प्रदान करना
श्रीराधोवाच
-
भुवो भरं हर्तुमलं व्रजेर्भुवं
कृतं परं मे शपथं शृणोत्वतः ।
गते त्वयि प्राणपते च विग्रहं
कदाचिदत्रैव न धारयाम्यहम् ॥२९॥
यदा त्वमेवं शपथं न मन्यसे
द्वितीयवारं प्रददामि वाक्पथम् ।
प्राणोऽधरे गन्तुमतीव विह्वलः
कर्पूरधूमः कणवद्गमिष्यति ॥३०॥
श्रीभगवानुवाच -
त्वया सह गमिष्यामि मा शोकं कुरु राधिके ।
हरिष्यामि भुवो भारं करिष्यामि वचस्तव ॥३१॥
श्रीराधिकोवाच -
यत्र वृन्दावनं नास्ति यत्र नो यमुना नदी ।
यत्र गोवर्द्धनो नास्ति तत्र मे न मनःसुखम् ॥३२॥
श्रीनारद उवाच -
वेदनागक्रोशभूमिं स्वधाम्नः श्रीहरिः स्वयम् ।
गोवर्धनं च यमुनां प्रेषयामास भूपरि ॥३३॥
तदा ब्रह्मा देवगणैर्नत्वा नत्वा पुनः पुनः ।
परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं समुवाच ह ॥३४॥
श्रीब्रह्मोवाच -
अहं कुत्र भविष्यामि कुत्र त्वं च भविष्यसि ।
एते कुत्र भविष्यन्ति कैर्गृहैः कैश्च नामभिः ॥३५॥
श्रीभगवानुवाच -
वसुदेवस्य देवक्यां भविष्यामि परः स्वयम् ।
रोहिण्यां मत्कला शेषो भविष्यति न संशयः ॥३६॥
श्री साक्षाद्रुक्मिणी भैष्मी शिवा जांबवती तथा ।
सत्या च तुलसी भूमौ सत्यभामा वसुंधरा ॥३७॥
दक्षिणा लक्ष्मणा चैव कालिन्दी विरजा तथा ।
भद्रा ह्रीर्मित्रविन्दा च जाह्नवी पापनाशिनी ॥३८॥
रुक्मिण्यां कामदेवश्च प्रद्युम्न इति विश्रुतः ।
भविष्यति न सन्देहस्तस्य त्वं च भविषसि ॥३९॥
नंदो द्रोणो वसुः साक्षाद्यशोदा सा धरा स्मृता ।
वृषभानुः सुचन्द्रश्च तस्य भार्या कलावती ॥४०॥
भूमौ कीर्तिरिति ख्याता तस्या राधा भविष्यति ।
सदा रासं करिष्यामि गोपीभिर्व्रजमण्डले ॥४१॥
श्रीराधिकाजीने
कहा- आप पृथ्वीका भार उतारनेके लिये भूमण्डलपर अवश्य पधारें;
परंतु मेरी एक प्रतिज्ञा है, उसे भी सुन
लें-प्राणनाथ ! आपके चले जानेपर एक क्षण भी मैं यहाँ जीवन धारण नहीं कर सकूँगी।
यदि आप मेरी इस प्रतिज्ञापर ध्यान नहीं दे रहे हैं तो मैं दुबारा भी कह रही हूँ।
अब मेरे प्राण अधरतक पहुँचनेको अत्यन्त विह्वल हैं। ये इस शरीरसे वैसे ही उड़
जायँगे, जैसे कपूरके धूलिकण ॥ २९-३० ॥
श्रीभगवान बोले-हे राधिके ! तुम विषाद मत करो | मैं तुम्हारे साथ चलूँगा और
पृथ्वी का भार दूर करूँगा। मेरे द्वारा तुम्हारी बात अवश्य पूर्ण होगी ॥ ३१ ॥
श्रीराधिकाजीने
कहा - ( परंतु ) प्रभो! जहाँ वृन्दावन नहीं है, यमुना
नदी नहीं है और गोवर्धन पर्वत भी नहीं है, वहाँ मेरे मनको
सुख नहीं मिलता ॥ ३२ ॥
नारदजी
कहते हैं— ( श्रीराधिकाजीके इस प्रकार कहनेपर) भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपने
धामसे चौरासी कोस भूमि, गोवर्धन पर्वत एवं
यमुना नदीको भूतलपर भेजा। उस
उस
समय सम्पूर्ण देवताओंके साथ ब्रह्माजीने परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णको बार-बार
प्रणाम करके कहा ।। ३३-३४ ॥
श्रीब्रह्माजीने
पूछा- भगवन्! मेरे लिये कौन स्थान होगा? आप
कहाँ पधारेंगे ? तथा ये सम्पूर्ण देवता किन गृहों में रहेंगे
और किन-किन नामों से इनकी प्रसिद्धि होगी ? ॥ ३५ ॥
श्रीभगवान्
ने कहा- मैं स्वयं वसुदेव और देवकीके यहाँ
प्रकट होऊँगा। मेरे कलास्वरूप ये 'शेष'
रोहिणी के गर्भ से जन्म लेंगे - इसमें संशय नहीं है। साक्षात् 'लक्ष्मी' राजा भीष्मक के घर पुत्रीरूप से उत्पन्न
होंगी। इनका नाम 'रुक्मिणी' होगा और 'पार्वती' 'जाम्बवती' के नाम से
प्रकट होंगी। तुलसी सत्या के रूप में अवतरित होंगी ।। ३६-३७ ॥
यज्ञपुरुष
की पत्नी 'दक्षिणा देवी' वहाँ 'लक्ष्मणा' नाम धारण
करेंगी। यहाँ जो 'विरजा' नाम की नदी है,
वही 'कालिन्दी' नामसे
विख्यात होगी। भगवती 'लज्जा' का नाम 'भद्रा' होगा। समस्त पापोंका प्रशमन करनेवाली 'गङ्गा' 'मित्रविन्दा' नाम धारण
करेगी ।। ३८ ॥
जो
इस समय 'कामदेव' हैं, वे ही रुक्मिणीके
गर्भसे 'प्रद्युम्न' रूपमें उत्पन्न
होंगे। प्रद्युम्न के घर तुम्हारा अवतार होगा। [उस समय तुम्हें 'अनिरुद्ध' कहा जायगा], इसमें
कुछ भी संदेह नहीं है। ये 'वसु' जो स्वयं 'द्रोण' के नामसे प्रसिद्ध हैं, व्रजमें 'नन्द' होंगे और स्वयं इनकी प्राणप्रिया 'धरा देवी' 'यशोदा' नाम धारण करेंगी।
'सुचन्द्र' 'वृषभानु' बनेंगे तथा इनकी सहधर्मिणी 'कलावती' धराधामपर 'कीर्ति' के नामसे
प्रसिद्ध होंगी। फिर उन्हींके यहाँ इन श्रीराधिकाजी का प्राकट्य होगा। मैं
व्रजमण्डलमें गोपियों के साथ सदा रास विहार करूँगा ।। ३९-४१ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहिता में गोलोकखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवादमें 'भूतलपर अवतीर्ण होने के उद्योग का वर्णन' नामक तीसरा
अध्याय पूरा हुआ ॥ ३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..०३)
सोमवार, 25 मार्च 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) तीसरा अध्याय (पोस्ट 02)
# श्रीहरि:
#
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
तीसरा
अध्याय (पोस्ट 02)
भगवान्
श्रीकृष्णके श्रीविग्रहमें श्रीविष्णु आदिका प्रवेश;
देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति; भगवान् का
अवतार लेनेका निश्चय; श्रीराधाकी चिन्ता और भगवान् का
उन्हें सान्त्वना प्रदान करना
देवा
ऊचुः -
कृष्णाय पूर्णपुरुषाय परात्पराय
यज्ञेश्वराय परकारणकारणाय ।
राधावराय परिपूर्णतमाय साक्षा-
द्गोलोकधाम धिषणाय नमः परस्मै ॥१५॥
योगेश्वराः किल वदन्ति महः परं त्वां
तत्रैव सात्वतमनाः कृतविग्रहं च ।
अस्माभिरद्य विदितं यददोऽद्वयं ते
तस्मै नमोऽस्तु महसां पतये परस्मै ॥१६॥
व्यङ्गेन वा न न हि लक्षणया कदापि
स्फोटेन यच्च कवयो न विशंति मुख्याः ।
निर्देश्यभावरहितः प्रकृतेः परं च
त्वां ब्रह्म निर्गुणमलं
शरणं व्रजामः ॥१७॥
त्वां ब्रह्म केचिदवयंति परे च कालं
केचित्प्रशांतमपरे भुवि कर्मरूपम् ।
पूर्वे च योगमपरे किल कर्तृभाव-
मन्योक्तिभिर्न विदितं शरणं गताः स्मः ॥१८॥
श्रेयस्करीं भगवतस्तवपादसेवां
हित्वाथ तीर्थयजनादि तपश्चरन्ति ।
ज्ञानेन ये च विदिता बहुविघ्नसङ्घैः
सन्ताडिताः किमु भवन्ति न ते कृतार्थाः ॥१९॥
विज्ञाप्यमद्य किमु देव अशेषसाक्षी
यः सर्वभूतहृदयेषु विराजमानः ।
देवैर्नमद्भिरमलाशयमुक्त देहै-
स्तस्मै नमो भगवते पुरुषोत्तमाय ॥२०॥
यो राधिकाहृदयसुन्दरचन्द्रहारः
श्रीगोपिकानयनजीवनमूलहारः ।
गोलोकधामधिषणध्वज आदिदेवः
स त्वं विपत्सु विबुधान् परिपाहि पाहि ॥२१॥
वृन्दावनेश गिरिराजपते व्रजेश
गोपालवेषकृतनित्यविहारलील ।
राधापते श्रुतिधराधिपते धरां त्वं
गोवर्द्धनोद्धरण उद्धर धर्मधाराम् ॥२२॥
श्रीनारद उवाच -
इत्युक्तो भवान् साक्षाच्छ्रीकृष्णो गोकुलेश्वरः ।
प्रत्याह प्रणतान्देवान्मेघगंभीरया गिरा ॥२३॥
श्रीभगवानुवाच -
हे सुरज्येष्ठ हे शंभो देवाः शृणुत मद्वचः ।
यादवेषु च जन्यध्वमंशैः स्त्रीभिर्मदाज्ञया ॥२४॥
अहं च अवतरिष्यामि हरिष्यामि भुवो भरम् ।
करिष्यामि च वः कार्यं भविष्यामि यदोः कुले ॥२५॥
वेदा मे वचनं विप्रा मुखं गावस्तनुर्मम ।
अंगानि देवता यूयं साधवो ह्यसवो हृदि ॥२६॥
युगे युगे च बाध्येत यदा पाखंडिभिर्जनैः ।
धर्मः क्रतुर्दया साक्षात्तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥२७॥
श्रीनारद उवाच -
इत्युक्तवन्तं जगदीश्वरं हरिं
राधा पतिप्राणवियोगविह्वला ।
दावाग्निना दुःखलतेव मूर्छिता-
श्रुकंपरोमांचितभावसंवृता ॥२८॥
देवता
बोले- जो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र पूर्णपुरुष, परसे
भी पर, यज्ञोंके स्वामी, कारण के भी
परम कारण, परिपूर्णतम परमात्मा और साक्षात् गोलोकधामके
अधिवासी हैं, इन परम पुरुष श्रीराधावर को हम सादर नमस्कार
करते हैं ॥ योगेश्वर लोग कहते हैं कि आप
परम तेजःपुञ्ज हैं; शुद्ध अन्तःकरणवाले भक्तजन ऐसा मानते हैं
कि आप लीलाविग्रह धारण करनेवाले अवतारी पुरुष हैं; परंतु
हमलोगों ने आज आपके जिस स्वरूपको जाना है, वह अद्वैत — सबसे
अभिन्न एक अद्वितीय है; अतः आप महत्तम तत्त्वों एवं
महात्माओं के भी अधिपति हैं; आप परब्रह्म परमेश्वरको हमारा
नमस्कार है ॥ १५-१६ ॥
कितने
विद्वानों ने व्यञ्जना, लक्षणा और स्फोट द्वारा
आपको जानना चाहा; किंतु फिर भी वे आपको पहचान न सके; क्योंकि आप निर्दिष्ट भावसे रहित हैं। अतः मायासे निर्लेप आप निर्गुण
ब्रह्मको हम शरण ग्रहण करते हैं ॥ १७ ॥
किन्हीं
ने आपको 'ब्रह्म' माना है, कुछ दूसरे
लोग आपके लिये 'काल' शब्द का व्यवहार
करते हैं । कितनोंकी ऐसी धारणा है कि आप शुद्ध 'प्रशान्त'
स्वरूप हैं तथा कतिपय मीमांसक लोगोंने तो यह मान रखा है कि पृथ्वीपर
आप 'कर्म' रूपसे विराजमान हैं। कुछ
प्राचीनोंने 'योग' नामसे तथा कुछने 'कर्ता' के रूपमें आपको स्वीकार किया है। इस प्रकार
सबकी परस्पर विभिन्न ही उक्तियाँ हैं। अतएव कोई भी आपको वस्तुतः नहीं जान सका ।
(कोई भी यह नहीं कह सकता कि आप यही हैं, 'ऐसे ही' हैं।) अतः आप (अनिर्देश्य, अचिन्त्य, अनिर्वचनीय) भगवान् की हमने शरण
ग्रहण की है ॥ १८ ॥
भगवन्
! आपके चरणोंकी सेवा अनेक कल्याणोंको देनेवाली है। उसे छोड़कर जो तीर्थ,
यज्ञ और तपका आचरण करते हैं, अथवा ज्ञानके
द्वारा जो प्रसिद्ध हो गये हैं, उन्हें बहुत-से विघ्नों का
सामना करना पड़ता है; वे सफलता प्राप्त नहीं कर सकते ॥ १९ ॥
भगवन्
! अब हम आपसे क्या निवेदन करें, आपसे तो कोई भी
बात छिपी नहीं है; क्योंकि आप चराचरमात्र के भीतर विद्यमान
हैं। जो शुद्ध अन्तःकरणवाले एवं देहबन्धन से मुक्त हैं, वे
(हम विष्णु आदि) देवता भी आपको नमस्कार ही करते हैं। ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवान् को
हमारा प्रणाम है ॥ २०॥
जो
श्रीराधिकाजीके हृदयको सुशोभित करनेवाले चन्द्रहार हैं,
गोपियोंके नेत्र और जीवनके मूल आधार हैं तथा ध्वजाकी भाँति
गोलोकधामको अलंकृत कर रहे हैं, वे आदिदेव भगवान् आप संकटमें
पड़े हुए हम देवताओंकी रक्षा करें, रक्षा करें। भगवन्! आप
वृन्दावनके स्वामी हैं, गिरिराजपति भी कहलाते हैं । आप
व्रजके अधिनायक हैं, गोपालके रूपमें अवतार धारण करके अनेक
प्रकारकी नित्य विहार - लीलाएँ करते हैं। श्रीराधिकाजीके प्राणवल्लभ एवं
श्रुतिधरोंके भी आप स्वामी हैं। आप ही गोवर्धनधारी हैं, अब
आप धर्मके भारको धारण करनेवाली इस पृथ्वीका उद्धार करनेकी कृपा करें ।। २१–२२ ॥
नारदजी
कहते हैं— इस प्रकार स्तुति करनेपर गोकुलेश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र प्रणाम करते
हुए देवताओंको सम्बोधित करके मेघके समान गम्भीर वाणीमें बोले - ॥ २३ ॥
श्रीकृष्ण
भगवान् ने कहा – ब्रह्मा, शंकर एवं (अन्य)
देवताओ! तुम सब मेरी बात सुनो। मेरे आदेशानुसार तुमलोग अपने अंशोंसे देवियोंके साथ
यदुकुलमें जन्म धारण करो। मैं भी अवतार लूँगा और मेरे द्वारा पृथ्वीका भार दूर
होगा। मेरा वह अवतार यदुकुलमें होगा और मैं तुम्हारे सब कार्य सिद्ध करूँगा। वेद
मेरी वाणी, ब्राह्मण मुख और गौ शरीर है। सभी देवता मेरे अङ्ग
हैं। साधुपुरुष तो हृदयमें वास करनेवाले मेरे प्राण ही हैं। अतः प्रत्येक युगमें
जब दम्भपूर्ण दुष्टोंद्वारा इन्हें पीड़ा होती है और धर्म, यज्ञ
तथा दयापर भी आघात पहुँचता है, तब मैं स्वयं अपने आपको
भूतलपर प्रकट करता हूँ ॥ २४- २७ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- जिस समय जगत्पति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र इस प्रकार बातें कर रहे थे,
उसी क्षण 'अब प्राणनाथसे मेरा वियोग हो जायगा'
यह समझकर श्रीराधिकाजी व्याकुल हो गयीं और दावानलसे दग्ध लताकी
भाँति मूच्छित होकर गिर पड़ीं। उनके शरीरमें अश्रु, कम्प,
रोमाञ्च आदि सात्त्विक भावोंका उदय हो गया ॥ २८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..०२)
रविवार, 24 मार्च 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) तीसरा अध्याय (पोस्ट 01)
# श्रीहरि:
#
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
तीसरा अध्याय (पोस्ट 01)
भगवान् श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में श्रीविष्णु आदिका प्रवेश; देवताओं द्वारा
भगवान् की स्तुति; भगवान् का अवतार लेनेका निश्चय; श्रीराधाकी चिन्ता और भगवान् का उन्हें सान्त्वना प्रदान करना
मुने
देवा महात्मानं कृष्णं दृष्ट्वा परात्परम् ।
अग्रे किं चक्रिरे तत्र तन्मे ब्रूहि कृपां कुरु ॥१॥
नारद उवाच -
सर्वेषां पश्यतां तेषां वैकुंठोऽपि हरिस्ततः ।
उत्थायाष्टभुजः साक्षाल्लीनोऽभूत्कृष्णविग्रहे ॥२॥
तदैव चागतः पूर्णो नृसिंहश्चण्डविक्रमः ।
कोटिसूर्यप्रतीकाशो लीनोऽभूत्कृष्णतेजसि ॥३॥
रथे लक्षहये शुभ्रे स्थितश्चागतवांस्ततः ।
श्वेतद्वीपाधिपो भूमा सहस्रभुजमंडितः ॥४॥
श्रिया युक्तः स्वायुधाढ्यः पार्षदैः परिसेवितः ।
संप्रलीनो बभूवाशु सोऽपि श्रीकृष्णविग्रहे ॥५॥
तदैव चागतः साक्षाद्रामो राजीवलोचनः ।
धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः ॥६॥
दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे ।
असंख्यवानरेंद्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने ॥७॥
लक्षध्वजे लक्षहये शातकौंभे स्थितस्ततः ।
श्रीकृष्णविग्रहे पूर्णः संप्रलीनो बभूव ह ॥८॥
तदैव चागतः साक्षाद्यज्ञो नारायणो हरिः ।
प्रस्फुरत्प्रलयाटोपज्वलदग्निशिखोपमः ॥९॥
रथे ज्योतिर्मये दृश्यो दक्षिणाढ्यः सुरेश्वरः ।
सोऽपि लीनो बभूवाशु श्रीकृष्णे श्यामविग्रहे ॥१०॥
तदा चागतवान् साक्षान्नरनारायणः प्रभुः ।
चतुर्भुजो विशालाक्षो मुनिवेषो घनद्युतिः ॥११॥
तडित्कोटिजटाजूटः प्रस्फुरद्दीप्तिमंडलः ।
मुनीन्द्रमण्डलैर्दिव्यैर्मण्डितोऽखण्डितव्रतः ॥१२॥
सर्वेषां पश्यतां तेषामाश्चर्य मनसा नृप ।
सोऽपि लीनो बभूवाशु श्रीकृष्णे श्यामसुंदरे ॥१३॥
परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं च स्वयं प्रभुम् ।
ज्ञात्वा देवाः स्तुतिं चक्रुः परं विस्मयमागताः ॥१४॥
श्रीजनकजीने
पूछा- मुने ! परात्पर महात्मा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन प्राप्तकर सम्पूर्ण
देवताओंने आगे क्या किया, मुझे यह बतानेकी कृपा
करें ॥ १ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! उस समय सबके देखते-देखते अष्ट भुजाधारी वैकुण्ठाधिपति भगवान्
श्रीहरि उठे और साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णके श्रीविग्रहमें लीन हो गये। उसी समय
कोटि सूर्यो के समान तेजस्वी, प्रचण्ड
पराक्रमी पूर्णस्वरूप भगवान् नृसिंहजी पधारे और भगवान् श्रीकृष्ण के तेजमें वे भी
समा गये। इसके बाद सहस्र भुजाओंसे सुशोभित, श्वेतद्वीप के
स्वामी विराट् पुरुष, जिनके शुभ्र रथमें सफेद रंगके लाख
घोड़े जुते हुए थे, उस रथपर आरूढ़ होकर वहाँ आये ॥ २-४ ॥
उनके
साथ श्रीलक्ष्मीजी भी थीं। वे अनेक प्रकारके अपने आयुधोंसे सम्पन्न थे । पार्षदगण
चारों ओरसे उनकी सेवामें उपस्थित थे । वे भगवान् भी उसी समय श्रीकृष्णके
श्रीविग्रहमें सहसा प्रविष्ट हो गये। फिर वे पूर्णस्वरूप कमललोचन भगवान् श्रीराम
स्वयं वहाँ पधारे। उनके हाथमें धनुष और बाण थे तथा साथमें श्रीसीताजी और भरत आदि
तीनों भाई भी थे। उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्योके समान प्रकाशमान था। उसपर
निरन्तर चॅवर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानरयूथपति उनकी रक्षाके कार्यमें संलग्न
थे। उस रथके एक लाख चक्कोंसे मेघोंकी गर्जनाके समान गम्भीर ध्वनि निकल रही थी ।
उसपर लाख ध्वजाएँ फहरा रही थीं। उस रथमें लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ सुवर्णमय
था । उसीपर बैठकर भगवान् श्रीराम वहाँ पधारे थे। वे भी श्रीकृष्णचन्द्रके दिव्य
विग्रहमें लीन हो गये ॥ ५-८ ॥
फिर
उसी समय साक्षात् यज्ञनारायण श्रीहरि वहाँ पधारे, जो प्रलयकालकी जाज्वल्यमान अग्निशिखाके समान उद्भासित हो रहे थे ।
देवेश्वर यज्ञ अपनी धर्मपत्नी दक्षिणाके साथ ज्योतिर्मय रथपर बैठे दिखायी देते थे
वे भी उस समय श्यामविग्रह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें लीन हो गये । तत्पश्चात्
साक्षात् भगवान् नर-नारायण वहाँ पधारे। उनके शरीरकी कान्ति मेघके समान श्याम थी।
उनके चार भुजाएँ थीं, नेत्र विशाल थे और वे मुनिके वेषमें
थे। उनके सिरका जटाजूट कौंधती हुई करोड़ों बिजलियोंके समान दीप्तिमान् था। उनका
दीप्तिमण्डल सब ओर उद्भासित हो रहा था। दिव्य मुनीन्द्रमण्डलोंसे मण्डित वे भगवान्
नारायण अपने अखण्डित ब्रह्मचर्यसे शोभा पाते थे ॥ ९-१२ ॥
राजन्
! सभी देवता आश्चर्ययुक्त मनसे उनकी ओर देख रहे थे । किंतु वे भी श्यामसुन्दर
भगवान् श्रीकृष्णमें तत्काल लीन हो गये। इस प्रकारके विलक्षण दिव्य दर्शन
प्राप्तकर सम्पूर्ण देवताओंको महान् आश्चर्य हुआ । उन सबको यह भलीभाँति ज्ञात हो
गया कि परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्र स्वयं परिपूर्णतम भगवान् हैं। तब वे उन
परमप्रभुकी स्तुति करने लगे ॥ १३ – १४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..०१)
शनिवार, 23 मार्च 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) दूसरा अध्याय (पोस्ट 04)
# श्रीहरि:
#
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
दूसरा
अध्याय (पोस्ट 04)
ब्रह्मादि
देवों द्वारा गोलोकधाम का दर्शन
समुद्रवद्दुग्धदाश्च
तरुणीकरचिह्निताः ।
कुरंगवद्विलङ्घद्भिर्गोवत्सैर्मण्डिताः शुभाः ॥४६॥
इतस्ततश्चलन्तश्च गोगणेषु महावृषाः ।
दीर्घकन्धरशृङ्गाढ्या यत्र धर्मधुरंधराः ॥४७॥
गोपाला वेत्रहस्ताश्च श्यामा वंशीधराः पराः ।
कृष्णलीलां प्रगायन्तो रागैर्मदनमोहनैः ॥४८॥
इत्थं निजनिकुञ्जं तं नत्वा मध्ये गताः सुराः ।
ज्योतिषां मण्डलं पद्मं सहस्रदलशोभितम् ॥४९॥
तदूर्ध्वं षोडशदलं ततोऽष्टदलपङ्कजम् ।
तस्योपरि स्फुरद्दीर्घं सोपानत्रयमण्डितम् ॥५०॥
सिंहासनं परं दिव्यं कौस्तुभैः खचितं शुभैः ।
ददृशुर्देवताः सर्वाः श्रीकृष्णं राधया युतम् ॥५१॥
दिव्यैरष्टसखीसङ्घैर्मोहिन्यादिभिरन्वितम् ।
श्रीदामाद्यैः सेव्यमानमष्टगोपालसेवितैः ॥५२॥
हंसाभैर्व्यजनान्दोलचामरैर्वज्रमुष्टिभिः ।
कोटिचन्द्रप्रतीकाशैः सेवितं छत्रकोटिभिः ॥५३॥
श्री राधिकालङ्कृतवामबाहुं
स्वच्छन्दवक्री- कृतदक्षिणाङ्घ्रिम् ।
वंशीधरं सुन्दरमन्दहासं
भ्रूमण्डलामोहितकामराशिम् ॥५४॥
घनप्रभं पद्मदलायुतेक्षणं
प्रलम्बबाहुं बहुपीतवाससम् ।
वृन्दावनोन्मत्तमिलिन्दशब्दै-
र्विराजितं श्रीवनमालया हरिम् ॥५५॥
काञ्जीकलाकङ्कणनूपुरद्युतिं
लसन्मनोहारि महोज्ज्वलस्मितम् ।
श्रीवत्सरत्नोत्तम कुन्तलश्रियं
किरीटहाराङ्गदकुण्डलत्विषम् ॥५६॥
दृष्ट्वा तमानन्दसमुद्रमग्नव-
त्प्रहर्षिताश्चाश्रु- कलाकुलेक्षणाः ।
ततः सुराः प्राञ्जलयो नतानना
नेमुर्मुरारिं पुरुषं परायणम् ॥५७॥
दूध
देनेमें समुद्रकी तुलना करनेवाली उन गायोंके शरीरपर तरुणियोंके करचिह्न शोभित हैं,
अर्थात् युवतियोंके हाथोंके रंगीन छापे दिये गये हैं। हिरनके समान
छलांग भरनेवाले बछड़ोंसे उनकी अधिक शोभा बढ़ गयी है। गायों के झुंड में विशाल
शरीरवाले साँड़ भी
उधर
घूम रहे हैं उनकी लंबी गर्दन और बड़े-बड़े
सींग हैं। उन साँड़ों को साक्षात् धर्मधुरंधर कहा जाता है ॥ ४६-४७ ॥
गौओंकी
रक्षा करनेवाले चरवाहे भी अनेक हैं। उनमेंसे कुछ तो हाथमें बेंतकी छड़ी लिये हुए
हैं। और दूसरोंके हाथोंमें सुन्दर बाँसुरी शोभा पाती है। उन सबके शरीरका रंग
श्यामल है। वे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी लीलाएँ ऐसे मधुर स्वरोंमें गाते हैं कि
उसे सुनकर कामदेव भी मोहित हो जाता है | ४८
॥
इस
'दिव्य निज निकुञ्ज' को सम्पूर्ण देवताओं ने प्रणाम
किया और भीतर चले गये । वहाँ उन्हें हजार दलवाला एक बहुत बड़ा कमल दिखायी पड़ा। वह
ऐसा सुशोभित था, मानो प्रकाश का पुञ्ज हो ॥ ४९ ॥
उसके
ऊपर एक सोलह दलका कमल है तथा उसके ऊपर भी एक आठ दलवाला कमल है। उसके ऊपर चमचमाता
हुआ एक ऊँचा सिंहासन है। तीन सीढ़ियों से सम्पन्न वह परम दिव्य सिंहासन कौस्तुभ
मणियों से जटित होकर अनुपम शोभा पाता है । श्रीकृष्णचन्द्र श्रीराधिका जी के साथ
विराजमान हैं। ऐसी झाँकी उन समस्त देवताओं को मिली ॥ ५०-५१ ॥
वे
युगलरूप भगवान् मोहिनी आदि आठ दिव्य सखियों से समन्वित तथा श्रीदामा प्रभृति आठ
गोपालोंके द्वारा सेवित हैं। उनके ऊपर हंस के समान सफेद रंगवाले पंखे झले जा रहे
हैं और हीरों से बनी मूँठवाले चँवर डुलाये जा रहे हैं। भगवान् की सेवामें करोंड़ो
ऐसे छत्र प्रस्तुत हैं, जो कोटि चन्द्रमाओंकी
प्रभासे तुलित हो सकते हैं ॥ ५२-५३ ॥
भगवान्
श्रीकृष्णके वामभाग में विराजित श्रीराधिकाजी से उनकी बायीं भुजा सुशोभित है।
भगवान् ने स्वेच्छापूर्वक अपने दाहिने पैर को टेढ़ा कर रखा है। वे हाथ में बाँसुरी
धारण किये हुए हैं। उन्होंने मनोहर मुसकानसे भरे और भ्रुकुटि-विलाससे अनेक
कामदेवोंको मोहित कर रखा है ॥ ५४ ॥
उन
श्रीहरिकी मेघके समान श्यामल कान्ति है । कमल-दलकी भाँति बड़ी विशाल उनकी आँखें
हैं। घुटनोंतक लंबी बड़ी भुजाओंवाले वे प्रभु अत्यन्त पीले वस्त्र पहने हुए हैं।
भगवान् गलेमें सुन्दर वनमाला धारण किये हुए हैं, जिसपर वृन्दावनमें विचरण करनेवाले मतवाले भ्रमरोंकी गुंजार हो रही है।
पैरोंमें घुंघरू और हाथोंमें कङ्कणकी छटा छिटका रहे हैं। अति सुन्दर मुसकान मनको
मोहित कर रही है। श्रीवत्सका चिह्न, बहुमूल्य रत्नोंसे बने
हुए किरीट, कुण्डल, बाजूबंद और हार
यथास्थान भगवान्- की शोभा बढ़ा रहे हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण के ऐसे दिव्य दर्शन प्राप्तकर सम्पूर्ण देवता आनन्द के
समुद्र में गोता खाने लगे। अत्यन्त हर्षके कारण उनकी आँखों से आँसुओंकी धारा बह
चली। तब सम्पूर्ण देवताओंने हाथ जोड़कर विनीत- भाव से उन परम पुरुष श्रीकृष्ण
चन्द्रको प्रणाम किया ॥ ५५-५७ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्ग-संहिता में गोलोकखण्ड के अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवाद में 'श्रीगोलोकधाम का वर्णन' नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ
॥ २ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)
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